श्री सतीश जैन, इंजीनियर सागर, (म. प्र.)
लक्ष्मी के जैसे घर घर में पुजती आई है जो नारी महावीर, राम को कोख से अपनी जनती आई है जो नारी आंचल में अपने क्षीर भरे ममता की मूरत जो नारी शक्ति का रूप रही आई है आदि काल से जो नारी आज शिशू को मार रही है कोख में अपने वो नारी, नरक नहीं तो कहाँ जायेगी ? संतान खायेगी जो नारी! ये चार लाइन मेरी सुनना जो डंका आम बजाती है अपशब्द हैं उन माँ—बहिनों को जो माँ का नाम लजाती हैं। सब सुनो बात उस माता की जो माता कलंक कहाती है और कोख में अपने शिशु का जो माता खून बहाती है। अपनी कोख का शिशु खाकर जो बनती बड़ी सुहागिन है।
प्रभु वाणी ये कहती है वो सबसे बड़ी अभागिन है और मेरी कविता कहती है वह माता नहीं है, ‘नागिन’ है। जो ऐसी माँ को डस लेगा मैं वो नाग जगाने वाला हूँ और दुनिया की बूचड़ माओं में मैं आग लगाने वाला हूँ ! मैं कहता हूँ तुमको डायन जो तू खून खुद ही का पीती है, तेरा ढोंग है माता होने का तू माँ की ममता से रीती है अरे, जहर नहीं क्यों खाया तूने ? तू क्यों अब तक जीती है ? जिस मन से तू माँ बनी थी क्यों बदल दिया वो मन तूने ? ऊपर वाले ने दिया था जो क्यों कुचल दिया वो धन तूने ? क्या मजबूरी थी खून जो अपना समझ लिया दुश्मन तूने ? पहले तो कोख में कैद किया फिर शिशु की हत्या कर डाली यह तो तेरी कायरता है मैं देता हूँ तुझको गाली, जो निगल ही जाती शिशुओं को तू तो है वो छाया काली।
और अच्छे से स्कूल में जाकर मेरा वह नाम लिखायेगी। ऊँची से ऊँची शिक्षा भी मेरी माँ मुझे दिलायेगी। जीवन के गहन अंधेरों में वह मुझको राह दिखायेगी। पहले भोजन मुझे कराकर फिर पीछे कुछ खायेगी। नजर किसी की लग न जाये मुझे काला तिलक लगायेगी। नींद सुलाने मुझे सलौनी नित नई लोरी गायेगी। जब तक मैं सो न जाऊँगा नींद न उसको आयेगी। देख देख मेरी नटखट वह मन ही मन मुस्कायेगी आकाश के चंदा तारों से मेरी माँ मुझे खिलायेगी। परियों से भी सुन्दर कपड़े मेरी माँ मुझे सिलायेगी। मेरे रोने से पहले ही माँ मुझको दूध पिलायेगी। और मुझको हँसता देख—देख वह भी भारी सुख पायेगी। फिर मैं होकर बड़ा एक दिन माता अलख जगाऊँगा ‘जय माता की !’ ‘जय माता की !’ सारे जहाँ में गाऊँगा। चांद सितारों की दुनिया में अपनी माँ को ले जाऊँगा