संसार में जन्म—मरण करते हुए परिभ्रमण करने वाले सभी जीव वैभाविक भावों से युक्त हैं। उनके ये भववर्धक संस्कार कर्मों के उदयाधीन है। यह संसारी जीव राग—द्बेष की कीचड़ से सना हुआ अपनी आत्मा को शुभाशुभ कर्मों से मलिन कर रहा है। उसको मित्यात्व उसे संसारी खूंटे से बाँधे हुए है और कषाय दारुण दु:ख देती हुई यत्र—तत्र परिभ्रमण करा रही है। जीवन में ऐसे अनेक निमित्त मिलते हैं जिनके माध्यम से हमारे परिणाम मलिन हो जाते हैं। चित्त अशुभ संकल्प लेने के लिए आतुर हो जाता है। दीर्घकाल तक विकल्पों के हिंडोले में दोलायमान रहता है। ऐसे निमित्त जीवन में कम ही मिल पाते हैं जो हमारे परिणामों को निर्मल बनाये, जो शुभ संकल्पों की प्रेरणा दें। जो राग—द्वेष की कीचड़ को धोने में निर्मल जल का काम करें। जिन निमित्तों को पाकर हमारा चित्त संसार, शरीर, भोगों से परम विरक्ति को धारण करें, उन निमित्तों की हमें प्रयत्नपूर्वक खोज करनी चाहिए तथा उन निमित्तों से बचना चाहिए जिनके माध्यम से न चाहते हुए हमारा हृदय क्रोध से आग बबूला हो जाता है या मानवी कठोर चट्टान बन जाता है या मायाचारी की गरल बन जाता है या लोभ के जाल में फस जाता है।
विवेक व्यक्ति वही है जो अपने आप को अशुभ निमित्तों से बचा सके तथा शुभ निमित्तों को पा सके। कदाचित पाप कर्म के तीव्र उदय से आत्मा पर क्रोधादि कषाय के संस्कार जमें तो उसे ज्ञान की गुहारी से तुरन्त झाड़कर अलग कर देना चाहिए। संयम के जल से चित्त का नित्य—नियम प्रक्षालन करना चाहिए। जिस प्रकार एक गृहणी अपने घर में तीन—या—चार बार बुहार कर पोंछा लगा साफ करती है और गंदगी को अधिक समय तक नहीं रहने देती उसी प्रकार साधक योगी पुरुष दिन में तीन—चार बार प्रतिक्रमण कर चित्त को झाड़ बुहार कर स्वच्छ करते हैं, समता के निर्मल जल से पुन: पुन: स्वच्छ करते रहते हैं। तभी वह आत्मोत्पन्न अचिन्तय आनंद के भोक्ता बन पाते हैं। कुशल श्रावक भी सुबह शाम स्वकीय दोषों का प्रतिक्रमण कर अपनी आलोचना व निन्दा कर चित्त को निर्मल करता है। सामान्य गृहस्थों को भी कम से कम छह माह में एक बार अपने चित्त का प्रक्षालन कर लेना चाहिए। वर्ष में तीन बार आने वाले अष्टान्हिका पर्वो के समापन पर या पर्यूषण पर्व के समापन में वर्ष में तीन बार क्षमा याचना कर लेना चाहिए तथा दूसरों को क्षमा प्रदान कर देना चाहिए जिससे कषाय अनन्त संसार का कारण न बने। अर्थात् अनंतानुबंधी कषाय से आत्मा बंध को प्राप्त न हो। क्षमा वीर पुरुषों का आभूषण है। इसे कायर पुरुष धारण नहीं कर सकता। क्षमा वाणी पर्व का पावन दिन दस दिन धर्म साधना की परीक्षा का दिन है या फलोत्पत्ति का अवसर है तो आओ आप और हम मिलकर प्राणी मात्र के प्रति अपने जीवन में क्षमा का भाव धारण कर लें। मैं भी संसार के प्रत्येक प्राणी के प्रति अपने चित्त में क्षमा भाव धारण करता हूँ, सबको क्षमा भाव प्रेषित करता हूँ।