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भगवान महावीर की जीवनगाथा
June 17, 2020
कविताएँ
jambudweep
भगवान महावीर की जीवनगाथा
जिनधर्म के प्यारे भक्तों तुम इक, नगरी का इतिहास सुनो।
नगरी का इतिहास सुनो, तुम मेरी पूरी बात सुनो।।
ऋषभदेव पहले तीर्थंकर, अंतिम प्रभु महावीरा थे।
नगरि अयोध्या ऋषभदेव की, कुण्डलपुर के वीरा थे।।१।।
श्री सर्वार्थ के सुत सिद्धारथ, कुण्डलपुर के राजा थे।
धन धान्यादिक वैभवयुत वे, सर्वश्रेष्ठ महाराजा थे।।
उनकी रानी त्रिशला नंद्यावर्त महल में रहती थीं।
सोने के उस महल में वह, रत्नों के पलंग पर सोती थीं।।२।
।
इक दिन नित्य की भांति ही रानी, रात्री में जब सोई थी।
सोई क्या, वह महारानी तो, स्वप्नलोक में खोई थी।।
एक-दो नहीं, पूरे सोलह सुपने देखे रानी ने।
शुभ्र बैल, गज ऐरावत, आदिक देखा महारानी ने।।३।।
प्रात:काल खुली जब निद्रा, वह अतिशय रोमांचित थी।
सुन्दर स्वप्ने लखकर उनकी, खुशियो की नहिं सीमा थी।।
प्रात: रानी त्रिशला राजा सिद्धारथ के पास गई।
वहाँ पती के निकट योग्य, अर्धासन पर वह बैठ गई।।४।।
बोली राजन्! मैंने पिछली रात्रि में सपने देखे हैं।
एक-दो नहीं पूरे सोलह स्वप्ने मैंने देखे हैं।।
स्वप्नों का वर्णन रानी ने, क्रम क्रम से बतलाया था।
सुनकर राजा सिद्धारथ का, रोम-रोम हरषाया था।।५।।
बोले तुम त्रिभुवनपति को अब, पुत्ररूप में पाओगी।
इस युग के अंतिम तीर्थंकर, की माता कहलाओगी।।
सुनकर रानी रोमांचित, होकर खुशियों से झूम उठी।
ऐसा लगा कि मानों उनको, तीर्थंकर सुत मिला अभी।।६।।
नव महिनों के बाद, चैत्र शुक्ला तेरस तिथि आई थी।
तीर्थंकर सुत जन्मे जब, महलों में बजी बधाई थी।।
जन्मे जब तीर्थंकर तब, नरकों में कुछ क्षण शांति हुई।
मध्यलोक अरु ऊध्र्वलोक में, सबको खुशी अपार हुई।।७।।
स्वर्ग से इन्द्रराज ने आकर, उत्सव खूब मनाया था।
कुण्डलपुर नगरी अरु मात-पिता को शीश नमाया था।।
तीर्थंकर बालक को मेरू-पर्वत पर ले जाकर के।
एक हजार आठ कलशों से, न्हवन किया था इन्द्रों ने।।८।।
जन्म न्हवन के बाद इन्द्र ने, प्रभु का नामकरण कीना।
‘‘वीर’’ व ‘‘वर्धमान’’ पद देकर, निज को धन्य-धन्य कीना।।
पुन: वीर को कुण्डलपुर, नगरी में वापस लाए थे।
बालक सौंपा मात-पिता को, स्वयं स्वर्ग को जाए थे।।९।।
नंद्यावर्त में इक दिन वीरा, पलने में थे झूल रहे।
दो चारण ऋद्धीधारी मुनि, गगनमार्ग से उतर गए।।
उन दोनों मुनियों के मन में, अती सूक्ष्म इक शंका थी।
ज्यों ही दर्श किया जिनशिशु का, शंका उनकी दूर हुई।।१०।।
समाधान पाते ही दोनों, मुनिवर बहुत प्रसन्न हुए।
‘सन्मति’ नाम रखा जिनशिशु का, जिनसे सन्मति सदा मिले।।
सन्मति प्रभुवर बालपने से, शैशव वयस्था में पहुँच गए।
स्वर्णिम आभाधारी उन, प्रभुवर को हम सब नमन करें।।११।।
इक दिन चर्चा हुई स्वर्ग में, प्रभु की शूरवीरता की।
संगम देव परीक्षा लेने, कुण्डलपुर पहुँचा तब ही।
‘सन्मति‘ निज सुरमित्रों के संग, उपवन में थे खेल रहे।
भारी वृक्ष के आसपास, ऊपर नीचे चढ़-उतर रहे।।१२।।
तभी वहाँ वह देव भयंकर, नागरूप धरकर आया।
उसी वृक्ष से लिपट गया, जहाँ खेल रही कोमल काया।।
ज्यों ही देखा नाग सभी बालक डर करके भाग गए।
‘वर्धमान तुम भी आ जाओ’’ समझाकर सब हार गए।।१३।।
वर्धमान नहिं डरे उन्होंने, सर्प के फण पर पैर रखा।
ऐसी क्रीड़ा की जैसे कि पलंग ही हो वह रत्नों का।।
देखा धैर्य पराक्रम उनका, सर्प देव बन प्रगट हुआ।
नाना स्तुति-भक्ती करके, ‘‘महावीर’’ कह मुदित हुआ।।१४।।
धीरे-धीरे समय बिताकर, महावीर जब युवा हुए।
उनके सुन्दर रूप को लखकर, कामदेव भी नमित हुए।।
माता त्रिशला युवा पुत्र को, देख-देखकर हर्षित थीं।
उनके हृदय पटल पर सुन्दर, पुत्रवधू छवि अंकित थी।।१५।।
बोलीं बेटा! अब इस महल में पायल की छम छम होगी।
करो विवाह तभी मेरी, आशाओं की पूर्ती होगी।।
महावीर बोले हे माता! मुझे ब्याह नहिं करना है।
चार बालयति हुए मुझे, पाँचवाँ बालयति बनना है।।१६।।
माँ त्रिशला ने पुत्रवीर को, बहुत तरह से समझाया।
राजा सिद्धारथ ने भी निज, पितृप्रेम था दिखलाया।।
लेकिन वीर नहीं माने, क्योंकि वे तो वैरागी थे।
मात-पिता से राग नहीं, पर सिद्धिप्रिया के रागी थे।।१७।।
मगसिर कृष्णा दशमी को वे, नग्न दिगम्बर मुनी बने।
उनको प्रथम आहार दिया था, वकुल नाम के राजा ने।।
मुनि वीर भ्रमण करते-करते, कौशाम्बी नगरी में पहुँचे।
वहाँ चंदनबाला को बेड़ी में, जकड़ा था सेठानी ने।।१८।।
मिट्टी के एक सकोरे में, कोदों का भात वह खाती थी।
कुछ पूर्व बैर के कारण ही, सेठानी उसे सताती थी।
महावीर प्रभू की जय जय ध्वनि, चन्दनबाला ने भी थी सुनी।
भक्ती से भाव-विभोर हुई, पड़गाहन करने ज्यों ही उठी।।१९।।
उसका मिट्टी का सकोरा त्यों ही, स्वर्णपात्र में बदल गया।
झड़ीं बेड़ियाँ तत्क्षण ही, अरु भात खीर बन गया अहा।।
पड़गाहन कर नवधाभक्ती-पूर्वक मुनि को आहार दिया।
उसी समय देवों ने भी, पंचाश्चर्यों की वृष्टि किया।।२०।।
इस चमत्कार को देख सभी ने, वीरप्रभू की जय बोली।
चन्दनबाला के सतीत्व को, देख सेठानी लज्जित थी।।
पुन: वीरचर्या द्वारा, महावीर भ्रमण करते-करते।
पहुँच गए उज्जयिनी नगरी, वहाँ ध्यान में लीन हुए।।२१।।
रूद्र ने वहाँ जाकर प्रभु पर, नाना प्रकार उपसर्ग किया।
ध्यानलीन प्रभु को विचलित, करने का बहु पुरुषार्थ किया।।
लेकिन प्रभु महावीर तो निश्चल, ध्यानलीन ही खड़े रहे।
रूद्र की चाल नहीं चल पाई, उसने किये उपाय बड़े।।२२।।
होकर असफल रूद्र ने अपनी, भार्या के संग भक्ती से।
प्रभु की नाना स्तुति, भक्ती, नृत्य-गान आदिक करके।।
नाम ‘‘महति महावीर’’ रखा, लख उनका धैर्य-वीरता गुण।
ऐसे पाँच नाम युत प्रभु को, भक्तिभाव से करें नमन।।२३।।
बारह वर्ष कठिन तप करके, प्रभु को केवलज्ञान हुआ।
धनकुबेर ने गगनांगण में, समवसरण निर्माण किया।।
समवसरण तो बना किन्तु, छ्यासठ दिन तक प्रभु मौन रहे।
दिव्यध्वनि क्यों नहिं खिरती है? देव-मनुज यह सोच रहे।।२४।।
इन्द्रराज ने चिन्तन करके, एक उपाय सुझाया था।
युक्ती से वह गौतम को प्रभु समवसरण में लाया था।।
गौतम को था ज्ञान का मद, पर ज्यों ही मानस्तंभ लखा।
मद तो चूर हुआ मिथ्यात्व भी, सम्यक्रूप में बदल गया।।२५।।
पहुँचे प्रभु के सम्मुख उनकी, वीतराग मुद्रा देखी।
वचन जयति भगवान……उचारे, नाना स्तुति-भक्ती की।।
प्रभु के सम्मुख नग्न दिगम्बर, दीक्षा भी धारण कर ली।
उन संग उनके पाँच शतक, शिष्यों ने भी दीक्षा ले ली।।२६।।
गौतम ज्यो ही शिष्य बने, त्यों ही प्रभु दिव्यध्वनी खिरी।
देव-मनुज-तिर्यंच सभी ने, निज-निज भाषाओं में सुनी।।
विपुलाचल पर्वत पर प्रभु की, प्रथम देशना प्रगटी थी।
राजगृही नगरी में श्रावण-कृष्णा एकम की तिथि थी।।२७।।
तीस वर्ष तक गगनांगण, प्रभु ने अधर विहार किया।
समवसरण में दिव्यध्वनि से, जीवों का उद्धार किया।।
आयु हुई बाहत्तर वर्ष तो, पावापुर-जलमंदिर से।
कार्तिक कृष्ण अमावस को प्रभु, मोक्षधाम में जा तिष्ठे।।२८।।
प्रभु महावीर तो चले गए, पर उनका शासन आज भी है।
उनके शासनकाल में हमने, जन्म लिया मन हर्षित है।।
महावीर प्रभू को जन्म लिये, अब छब्बिस सदियाँ बीत गई।
इतने वर्षों में उनकी वह, जन्मभूमि वीरान हुई।२९।।
इक छोटा सा मंदिर ही बस, जन्मभूमि कहलाता था।
दर्शन करके भक्त समूह, चिन्तन करने लग जाता था।।
वीरप्रभू की जन्मभूमि, कब विस्तृत रूप को पाएगी?
जाने कौन सी दिव्यशक्ति आ करके इसे बचाएगी?।।३०।।
ईसवी सन् दो हजार एक में, वह स्वर्णिम अवसर आया।
छब्बिस सौवाँ जन्मकल्याणक, महावीर प्रभु का आया।।
उत्सव और महोत्सव शासन, अरु समाज ने कई किए।
एक वर्ष तक वीरप्रभू के, जय-जयकारे खूब किए।।३१।।
लेकिन उनकी जन्मभूमि की, ओर किसी का ध्यान नहीं।
उसका भी विकास करना है, ऐसा किसी को भान नहीं।
गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी निज संघ सहित चल दीं।
बोलीं जन्मभूमि को विकसित, करने का है समय यही।।३२।।
बीस फरवरी ईसवी सन् दो हजार दो का शुभ दिन था।
दिल्ली के इण्डिया गेट से, हुआ विहार शुभारंभ था।।
कितने ही भक्तों ने इस, पदयात्रा का सम्मान किया।
कुण्डलपुर जल्दी ही विकसित, होगा यह विश्वास किया।।३३।।
ज्ञानमती माताजी का, हर कार्य अलौकिक भारी है।
तीर्थों के विकास क्रम में अब, कुण्डलपुर की बारी है।।
शहर, नगर अरु, गाँव, गली में, धर्मप्रभावना खूब हुई।
ज्ञानमती माताजी दिसम्बर, में कुण्डलपुर पहुँच गई।।३४।।
वहाँ पहुँचते ही अतिशय, अरु चमत्कार थे प्रगट हुए।
एक वर्ष में पाँच वृहत्-मंदिर के नवनिर्माण हुए।।
महावीर मंदिर, ऋषभेश्वर मंदिर हैं अतिशयकारी।
नवग्रहशान्ती मंदिर-त्रिकाल चौबीसी मंदिर सुखकारी।।३५।।
इसके साथ ही सुन्दर नंद्यावर्त महल इक निर्मित है।
सात खण्ड ऊँचा सुन्दर, त्रयप्रतिमाओं से वंदित है।।
गणिनी ज्ञानमती माताजी की ही सूझबूझ है ये।
इनके द्वारा ही संस्कृति का, संरक्षण होता सच ये।।३६।।
इनके उपकारों का बदला, जगती नहीं चुका सकती।
जो कुछ किया इन्होंने वह, पौरुषशक्ती नहिं कर सकती।।
तीर्थ हस्तिनापुरी-प्रयाग का, नवनिर्माण है करवाया।
तीर्थ अयोध्या-मांगीतुंगी, का उद्धार भी करवाया।।३७।।
अन्य कई नगरों-शहरों में, नवनिर्माण प्रेरणा दी।
भक्तों ने निर्माण कराकर, अपनी भक्ति प्रदर्शित की।।
तीर्थों के निर्माण के साथ ही, शिष्यों का भी किया सृजन।
ढाई सौ ग्रन्थों का लेखन, किया साहसिक कार्य प्रथम।।३८।।
अष्टसहस्री ग्रन्थ जिसे कहते हैं कष्टसहस्री सब।
हिन्दी अनुवाद किया उसका, वह न्याय ग्रंथ है सर्वोत्तम।।
षट्खण्डागम संस्कृत टीका का लेखन भी जारी है।
माँ सरस्वती की कृपा दृष्टि, इन शारद माँ पर भारी है।।३९।।
नित्य नए निर्माणों की, प्रेरिका ज्ञानमती माताजी।
इनकी भक्ती सदा करूँ, हो प्राप्त मुझे ऐसी शक्ती।
महावीर प्रभू के पावन चरणों, में है यह मेरी विनती।
रहे ‘‘सारिका’’ इन माता से, सदा सुशोभित यह धरती।।४०।।
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