क्षमावाणी का पर्व सौहार्द, सौजन्यता और सद्भावना का पर्व है। आज के दिन एक दूसरे से क्षमा मांगकर मन की कलशता को दूर किया जाता है। जाने अनजाने में हुए किसी तरह के अपराध या गलती के प्रति पश्चाताप का भाव रखते हुए मनोमालिन्य को दूर करने की भावना इस पर्व का प्रयोजन है। मन, वाणी और कर्म से किसी के भी प्रति
अहित / अपराध हो जाना स्वाभाविक है किन्तु महत्त्वपूर्ण है उस अपराध का बोध और फिर क्षमा याचना सहित प्रायश्चित्त अर्थात् शुद्धिकरण। क्षमावाणी पर्व उनसे क्षमा—माँगने क्षमा करने का संदेश देता है, जिनसे बैर भाव हो गया है, जिनसे हम द्वेश रखते हैं या फिर जिन्हें हम अपना शत्रु समझते हैं। और उनसे भी जिनसे प्रेम है, रात—दिन जिनसे मिलते हैं, क्योंकि जाने अनजाने ही किसी न किसी को हम द्वेष वश आघात पहुँचाते हैं और दूसरे को प्रेमवश। मन, वचन और कर्म से किसी के प्रति भी अपराध हो जाना मानव जीवन में स्वाभाविक है, किन्तु महत्त्वपूर्ण है उस अपराध का बोध और फिर क्षमा याचना सहित शुद्धिकरण करना। आजकल एक शब्द को हमने हथियार बना लिया है—सारी कहकर निश्चित हो जाते हैं। किन्तु वास्तविक क्षमा नहीं है। क्योंकि सॉरी कहकर आप पुन: गलती पर गलती करते चले जाते हैं। वास्तविक क्षमा तो तब मानी जाती है, जब आप पुन: गलती न अपनाएं। क्रोध करना बुरा है, ऐसा यद्यपि सभी जानते हैं, किन्त जब प्रतिवूâलता के क्षण उपस्थित होते हैं, तब आवेग, आवेश न आए यह बहुत कठिन काम लगता है। क्षमा आत्मा का स्वभाव है, फिर भी व्यक्ति प्रतिवूâलता के क्षणों में क्षमा धारण नहीं कर पाता है, आखिर क्यों ?
यह बैर महा दुख: दायी है, यह बैर न बैर मिटाता है।
यह बैर निरंतर प्राणी को भव सागर में भटकता है।।
क्षमावाणी पर्व तो हम सभी के हृदय में मैत्री का पुष्प खिलाने आता है, मनोमालिन्य को मिटाने आता है, बैर भाव की ग्रंथियां तोड़ने आता है। ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ की उक्ति वास्तव में क्षमा पर्व जैसे आयोजनों में ही चरितार्थ होते दिखती है। क्षमावाणी का पर्व हमें ‘‘आत्मन: प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत्’’ की शिक्षा प्रदान करता है। क्षमावाणी के पावन पर्व पर ‘सत्वेशुमैत्री’ और ‘मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे’ जैसी पंक्तियों को चरितार्थ होते देखा जा सकता है। हमें यह पर्व सद्भावना का संदेश देता है। यह पर्व ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:’ की भावना भाने की प्रेरणा प्रदान करता है। ‘जब देश दुनिया की परिस्थितियों पर विचार करते हैं तो ऐसा लगता है कि आज के इंसान में इतना द्वन्द और द्वेष भरा है कि वह सर्वधर्म समभाव से कुछ काम ही नहीं कर सकता। भाई, भाई के साथ नहीं बोलता, पड़ोसी, पड़ोसी से जल रहा है। एक ही समाज में कई पंच और अनेक पंचायते हैं। निजी संबंध और व्यापार धंधों से लेकर धर्म और धर्मायतनों तक में बंटवारा कर लिया गया है। इन सबमें प्रमुख कारण हैं अपने अहं की पुष्टि, स्वार्थ की पूर्ति। इसी के चलते इतिहास में अनेक संघर्ष भी हुए हैं। प्रेम मैत्री का यह पावन पर्व हमें समन्वय, समता और सहिष्णुता की प्रेरणा देता है। तीर्थकर महावीर का अनेकांत का सिद्धान्त यही है। क्षमा केवल वाणी का विषय नहीं है, वह अन्त:करण की निधि है। अन्तस की कालिमा को प्रक्षलित करने के इस पावन पुनीत पर्व पर हमारी हमेशा यही भावना होनी चाहिए—