लेखिका – गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
उज्जयिनी नगरी के बाहरी पवित्र उघान में नग्न दिगम्बर मुद्रा के धारी अवधिज्ञानी महामुनि विराजमान है। सेठानी यशोभद्रा बहुत ही विनय से हाथ जोड़कर पूछती है – “हे भगवान् ! क्या मेरी आशा इस जन्म मे सफल होगी ?” मुनिराज यशोभद्रा का अभिप्राय समझ कर कहते हैं- ”हे पुत्री ! तेरी अभिलाषा अवश्य ही पूर्ण होगी। तेरे होने वाला पुत्र भव्य बुद्विमान और गुणों का खजाना होगा। किन्तु उसके साथ चिंता की बात यह होगी कि तेरे स्वामी सेठ सुरंन्द्रदत्त पुत्र का मुखावलोकन करते ही धर कुटुम्ब छोड़कर जैनेश्वरी दीक्षा ले लेंगे तथा तेरा होनहार पु़त्र भी जिस दिन नग्न दिगम्बर मुनि का दर्शन कर लेगा उसी दिन दीक्षित हो जावेगा ।
मुनिराज के मुखकमल से भविष्यवार्ता सुनकर सेठानी को इतना हर्ष होता हे कि मानों आज ही उसे पुत्ररत्न प्राप्त हो गया है। साथ ही पति के वियोग का होना ऐसा सोचते ही सिहर उठती है, उसके चेहरे पर विषाद की रेखा खिंच जाती हें। सेठानी यशोभद्रा बार बार मुनिनाथ को नमस्कार करके हर्ष ओर विषाद के भावों को हदय मंे दबाते हुए धर आ जाती है ।सेठ सुरेन्द्रदत्त और सेठानी यशोभद्रा दोनों ही दम्पति धर्मघ्यान पूर्वक अपना कालयापन कर रहे है। कुछ दिनों बाद सेठानी यशोभद्रा गर्भ धारण करती है। धर मे प्रसन्नता का वातावरण बन जाता है। नव मास पूर्ण होने पर सेठानी पुत्ररत्न का जन्म देती हैं। परिवार के लोग और सेठ जी सभी मिलकर पुत्र जन्म का बहुत बड़ा उत्सव मनाते है। पुत्र का “सुकुमाल“ ऐसा नामकरण करके सेठ सुरेन्द्रदत्त पुत्र का मुखावलोकन कर विरक्तमना होते हुये वन मे जाकर गुरु के पास दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं ।
सभी यशोभद्रा पति के वियोग से बहुत ही दुखी होती है फिर भी पुत्र के लालन पालन में मन को व्यस्त करते हुए धीरे धीरे संतोष को धारण कर लेती है। पुण्यशाली बालक सुकुमाल हँसता मुस्कराता हुआ परिवार जनों के हाथो हाथ खेला करता है। माता यशोभद्रा ने गुरु के मुख से यह सुना था कि बालक जब भी निर्ग्रन्थ मुनि का दर्शन कर लेगा तब मुनि हो जावेगा। यही कारण था कि माता अपने महल मे ही सारे सुख साधन उपलब्ध कराकर सुकुमाल को धर से बाहर जाने का अवकाश ही नही देती थी। धन सम्पन्न सेठ के धर का परकोटा बहुत ही बड़ा है। उसके अन्दर ही बाग बगीचे बावडिया आदि बने हुये है। सुकुमाल बाल वय को बिताकर युवा हो जाते है। तो यशोभद्रा बड़े बड़े धराने की सुन्दर सुन्दर बत्तीस कन्याओ से उनका विवाह करा देती हैं। सुकुमाल का महल बहुत ही बड़ा हे। जहा पर उनकी बत्तीस स्त्रियों के रहने के पृथक् पृथक् स्थान है। क्रीडा के लिए उद्यान, सरोवर आदि है। माता यशोभद्रा पुत्र के मोह में विवकेशून्य हो अपने महल मे दिगम्बर मुनियों के आने का पूर्णतया निषेध कर देती है। सुकुमाल को इस बात का और बाहर के वातावरण का कुछ भी पता नही है। वे नाना प्रकार के पंचेन्द्रिय सम्बधी भोगो को भोगते हुये सभी भार्याओं के साथ सांसारिक सुखो का अनुभव कर रहे हैं। माता यशोभद्रा भी बहुत ही प्रसन्न रहती है।
एक दिन किसी अन्य देश का एक व्यापारी उज्जयिनी नगरी में आता है। और वह एक रत्नकंबल राजा प्रद्योतन को दिखाता है। किन्तु उसका मूल्य अधिक होने से राजा उसकी उपेक्षा कर देते है। वह व्यपारी निराश हो जाने को उद्यत होता है कि इसी बीच यशोभद्रा को पता लगते ही वह उस व्यपारी को बुलाकर उसका बहुमूल्य रत्नकंबल खरीद लेती है। उस कंबल मे बहुत से अमूल्य रत्न जड़े हुये है। अतः रत्नो की कठोरता से सुकुमाल उसे पसन्द नही करते है तब माता यशोभद्रा उसके टुकड़े – टुकड़े करवा कर अपनी बत्तीसों बहुओं के लिए उनके पैरो के लिए जूतियाँ बनवा देती हैं।
एक बार एक पुत्रवधू अपनी जूती छत पर उतार कर अपने पैर धोने मे लग जाती है। कि इसी बीच एक चील आकर उसे मांस का टुकडा समझकर उठा ले जाती है और उसे किसी वेश्या की छत पर डाल देती है । वेश्या उस रत्नजटित जूती को देखकर लाकर राजा को सौंप देती है । तब राजा उन्हें देखकर बड़ा आश्चर्यचकित होता है। वह मन ही मन सोचने लगता हैं – “भला मेरे शहर मे इतना बड़ा कौन सा सेठ है कि जिसकी पत्नी ऐसे रत्नों से जड़ी हुई जूती पहनती हैं ।” “राजन्! आपके नगर मे सेठ सुकुमाल जी रहते हैं उनके धन को कोई ठिकाना ही नहीं है । यह जूती उनकी स्त्री की है।” यह बात ज्ञात कर राजा सुकुमाल को देखने के लिए उत्कंठित हो मंत्रियो को साथ लेकर उनके घर आ जाते हे। सेठानी यशोभद्रा राजा को आया हुआ सुनकर उनका बहुत ही आदर सत्कार करती हे और श्रेष्ठ सिहासन पर उन्हें बिठाती हैं। राजा प्रेमवश सुकुमाल को अपने आसन पर ही बिठा लेते हैं। यशोभद्रा दीपक को जलाकर राजा की आरती उतारती है। पुनः मंगल हेतु कुछ सरसों क्षेपण कर देती हैं जिसके कुछ दाने सुकुमाल केक आसन पर गिर जाते हैं । उस समय रतनों की जगमगाहट और दीपक की ज्याति दोनो के बठे हुये तेज को सुकुमाल की आखे नही सहन कर पाती है। अतः उनकी आँखो मे पानी आ जाता हैं। और उन्हे सरसो के दाने चुभते हैं तो वे बार बार आसन बदलते हैं । राजा सेठानी से इसका कारण पूछते हैं । तब वह कहती है- “राजन्! आज तक इतने रत्नों के प्रकाश के सिवाय दीपक का प्रकाश देखा ही नही है अतः इसकी आखो मे पानी आ गया है और इसके सरसों के दाने चुभ रहे है। अत यह स्थिर नही बैठ़ रहा है। कुछ क्षण बाद यशोभद्रा राजा के साथ ही सुकुमाल को बिठाकर दोनेा को एक साथ भोजन कराती है। उस समय सुकुमाल थाली मे परोसे हुये चावलों मे से एक एक चावल को बीन-बीन कर खाते हैं। भोजन के अनंतर राजा पुनः यशोभद्रा से इसका कारण पूछते है वह कहती है। “राजन् ! प्रतिदिन इसे जो चावल खाने को दिये जाते हैं वे खिले हुये कमलों मे रखकर सुगंधित किये हुऐ होते है। पर आज वे चावल थोड़े होने के कारण उन्हे दूसरे चावलो के साथ मिलाकर बना लिया है। यही कारण है कि यह एक एक चावल चुन चुनकर खा रहा है।” राजा इस उत्तर को सुनकर बहुत खुश होते है और कहते है “भद्रे ! अब तक तो ये आपके ही धर के सुकुमाल थे, पर अब मे इन्हे “अवन्ति सुकुमाल” के नाम से सारे देश का सुकुमाल बनात हॅू। मेरा विश्वास है कि मेरे देश मे इस सुन्दरता और इस सुकुमारता के यही एक आदर्श है अन्य कोई ऐसा नही है। तत्पश्चात् राजा प्रधोतन सुकुमाल के साथ ही उसी महल के उधान में बनी हुई बावड़ी मे जलक्रीडा करने के लिए पहुचते है। वहा बावडी मे उतरकर बहुत देर तक जलक्रीडा करते हुए राजा की अंगुली की बहुमूल्य अंगूठी गिर जाती है। राजा उसे देखने की भावना से बावड़ी के तलभाग में दृष्टि डालते हे तो उन्हे उस जल के भीतर हजारो बड़े बड़े बहुमूल्य भूषण पड़े हुये दिखाई देते है। उन्हे देखकर राजा को बहुत ही आश्चार्य होता है। वे सुकुमाल के अनंत वैभव को देखकर चकित रह जाते हे और मन नही मन सोचने लगते है। “अहो ! पुण्य की महिमा अपार है। धन, धान्य आदि संपदाओ का मिलना, पुत्र और सुन्दर स्त्री का प्राप्त होना, बंधु बांधवो का सुखी होना, अच्छे अच्छे वस्त्र आभूषण का होना तिमंजिले, संतमंजिले आदि महलो मे रहना, खाने पीने की अच्छी वस्तु प्राप्त होना विद्वान होना, नीरोग होना आदि जितनी भी सुख सामग्री है वह सभी जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर चलने से ही मिल सकती है। इसमे कुछ भी आशार्च नही हें। वास्तव में जो धर्म स्वर्ग के इन्द्र अहमिंद्र आदि का वैभव प्राप्त करा देता है। मध्यलोक के चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण तो क्या तीर्थकर के भी विपुल अनुपम वैभव को प्राप्त करा देता है। भला वह धर्म क्या जो इस तरह के सुकुंमाल जैसे सुन्दर रुप, सौकुमार्य और अतुल वैभव को प्राप्त नही करा सके अपितु अवश्य ही करा देता है। इसलिये तो जैनाचार्यो का उपदेश है कि भाई! दुःख देने वाले पापमार्ग को, मिध्यात्व को छोड़ो और सच्चे जिनधर्म की शरण ग्रहण करो। दान, पूजा, उपवास आदि के द्वारा सातिशय पुप्य संचित करके संसार के नाना अभयुदयो को प्राप्त करो, तदनंतर क्रम से सर्वक्रर्मों को नष्ट कर मोक्ष को भी प्राप्त करो। यही तो जिनागम का बार बार उपदेश है। इत्यादि प्रकार से सोचते हुये राजा प्रधोतन बार बार सुकुमाल के गुणो की व पुण्य की प्रशंसा करते हुये अपने राजमहल मं चल जाते है। इसके बाद उस अवंतीदेश मे सर्वत्र ही सुकुमाल के रुप, गुण, वैभव की तथा सुकुमारता की चर्चा लने लगती है। एक दिन जैनतत्व के परम विद्वान् दिगम्बर मुनि श्री गुण-धराचार्य सुकुमाल की आयु बहुत ही अल्प जानकर वहा आकर सुकुमाल के महल के पीछे उघान मे ठहर जाते है। और चातुर्मास लग जाने से वहीं वर्षायोग धारण कर लेते है। ये गृहस्थावस्था के सुकुमाल के मामा थे। सेठानी यशोभद्रा को यह समाचार विदित होते ही वह बहुत ही दुःखी होती है। वह शीध्र ही वहाॅ आकर मुनि से निवेदन करती है। “प्रभो ! आप चातुर्मास कभी भी उॅचे स्वर से स्वाध्याय या पाठ न कीजिए। ऐसी मेरी विनम्र प्रार्थना है।”मुनिराज यशोभद्रा की प्रार्थना स्वीकार कर लेते है और उसे आश्वस्त करने के लिए “तथास्तु” ऐसा उच्चारण कर लेते है।चातुर्मास योग पूर्ण हो जाता है।
श्री गुणधराचार्य जिनागम के अनुसार कार्तिक अमावस्या की पिछली रात्रि मे वर्षायोग समापन की क्रिया करके चातुर्मास योग समाप्त कर देते है। वे शेष रही रात्रि मे उच्च स्वर से लोकप्रज्ञप्ति का पाठ करना शुरु कर देते है। उसमे वे अच्युत स्वर्ग के देवो की आयु, उनके शरीर की उॅचाई, वहॅा के वैभव आदि का विस्तार से वर्णन करने लगते है। सुकुमाल की नींद खुल जाती है। वे एकाग्रचित हो उस अच्युत स्वर्ग के वैभव का वर्णन सुन रहे है कि तत्क्षण ही जतिस्मरण हो जाता है। मन ही मन सोचने लगते है…..“अहो ! मै पूर्वजन्म मे इसी अच्युत स्वर्ग मे महद्र्विक देव था, वहॅा के विपुल और अतुल वैभव को प्राप्त कर भी जब मै तृप्त नही हो सका तो क्या इस तुच्छ वैभव से तृप्त हो सकता हॅू। जब वहॅा की हजारो देवांगनाओ के साथ मधुर भोग भोगकर भी तृप्त नही हुआ तो क्या इन बत्तीस भार्याओ के मध्य रहते हुए तृप्त हो सकता हू। ओह! वहॅा की आयु तो सागरो के हिसाब से थी जब कि यहॅा की यह मनुष्य पर्याय की आयु तो उसके आगे राई रत्ती भी नही है।” इतना सोचत सोचते उन्हें अपने और भी कई भवों का स्मरण हो जाता है और वे तिर्यउचयोनि के नाना दुःखो का स्मरण कर कांप उठते है। वे उसी समय चुपके से महल से उतर कर मुनिराज के पास आ जाते है। और उनके चरणां मे भक्ति से नमस्कार कर उन्ही के पास बैठ जाते है। तब मुनिराज श्री गुणधर आचार्य कहते है- “हे वत्स ! अब तुम्हारी आयु सिर्फ तीन दिन की रह गई है, इसलिये अब तुम्हे इन विषयभोगो का त्याग कर अपना आत्महित कर लेना उचित है। देखो, ये विषयभोग आरंभ मे बहुत मधुर लगते है किन्तु इनका अंत बहुत ही दुःखदायी है। जो पंचेद्रियो के विषय मे ही सब सुख समझकर उन्ही मंे फॅसे रहते है। उन्हें कुगतियो के अनंत दुःख उठाने पड़ते है। इसलिये ऋषियो के इन भोगो को भोगा भुजंग भोगाभाः कहकर इन्हे सर्प से भी भंयकर जहरीला बतलाया हेै। इसलिये हे भव्वोत्तम ! तुम अब इनका शीध्र ही त्याग करो।” म्निराज के उपदेश से सुकुमाल को वैराग्य उत्पन्न हो जाता है और से उसी समय जिनदीक्षा की याचना करने लगते है। इधर सूर्य भी माने सुकुमाल की दीक्षा देखने के लिए ही पूर्व दिशा मे उचित हो जाता है। तभी आचार्य देव सुकुमाल को नग्न दिगंबर अर्हन्त मुद्रा प्रदान कर दीक्षित कर देते है। अब सुकुमाल के हाथ मे मयूर पंखो की पिच्छी ओर काठ के कमंडलु के सिवाय कंचित् मात्र भी परिग्रह नही है। श्री गुणधर आचार्य वर्षायोग समाप्ति के अनंतर अपना कार्य पूर्ण कर अन्यत्र विहार कर जाते है और सुकुमाल मुनि गुरु की आज्ञा से उसी समय वन की और विहार कर जाते है।
सुकुमाल महामुनि वन की और चले जाते है। मार्ग की कंकरीली जमीन पर नंगे पैर चल रहे हे। जिन्होने भू पर नंगे पैर कभी नही रखे थे, मंगल आरती के समय दीपक की लौ के निमित से जिनके आॅखो मे आसू आ गये थे, जिन्हे रत्नों का कंबल कठोर लगा था तब उस कंबल की जूतिया बनवाई गई थी। ऐसे सुकुमारगात्र सुकुमाल नग्न दिगंबर मुनि बनकर नंगे पैरो पैदल चल रहे है। अहो ! परिणामो का मोड़ क्या नही कर सकता ? कहां तो एक क्षण पूर्व महल की कोमल शयया, कोमल आसन और कोमल से भी कोमल शरीर का सुख ? और कहां यह असहाय निग्र्रन्ध दिगंबर मुद्रा और उसकी कठोर से कठोर चर्या ?कंकरीरली पथरीली जमीन पर चलने से उनके फूलो से कोमल पांवो मे धाव हो जाते है। उनसे खून की धारा बहने लगती है। परंतु शरीर से भी निस्पृह हुए सुकुमाल को उसकी तरफ कुछ भी लक्ष्य नही है चूकी अब उनका लक्ष्य बदल चुका है। वे अब इस नश्वर शरीर से अविनश्वर सुख प्राप्त करने के मार्ग मंे चल चुके है। इस अशुचि, अपिवत्र सात धातुओ और उपधातुओ से मलिन शरीर से शुचि, पवित्र चैतन्यधातु से निर्मित ज्ञानधन आत्मा को परम पवित्र बनाने का मार्ग पकड़ चुके हैंें। वे उस समय संसार, शरीर, कुटुम्ब और पंचेद्रियो के भोगो से पराड्मुख हुये उनके निःसार स्वरुप का चिंतवन करते हुए और अपने चर्मचक्षुओ से चार हाथ आगे जमीन देखते हुऐ चल रहे है। पिच्छी, कमंडलु मात्र उपकरणरुप परिग्रह से सहित होते हुये भी अंतरग बहिरंग मे सर्वथा परिग्रह से रहित होने से पूर्ण निष्परिग्रही हो चुके है। इधर पांवो से खून बहता जा रहा है, उधर वे महामुनि आगे बठंते जा रहे है। वे पैरो से ही आगे नही बढ रहे है प्रत्युत् परिणामो की विशुद्वि से भी आगे बढते जा रहे है। निर्जन वन मे पहुचते है वहा पहुचकर वे एक पहाड़ पर चढकर वही पर बनी हुई एक गुफा मे प्रवेश करते है। वहॅा से विधिवत् प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण कर ध्यानमुद्रा मे खड़े हो जाते है। जिस संन्यास विधि मे अपने से और पर से, सभी से भी सेवा शुश्रूषा करने कराने का त्याग कर दिया जाता है उसको प्रायोपगमन सल्लेखना मरण कहते है। सुकुमाल मुनि ध्यान मे खड़े होकर बारह भावनाओ के चिंतवन के साथ साथ अपने आत्म तत्व का चितवन कर रहे है। उसी समय एक सियारनी अपने पिल्लां को साथ लिये हुये वन मे धूम रही है। वह सहसा खून की धार को देखती है और चाटने लगती है। उसी खून की धार को चाटते चाटते वह पहाड़ की गुफा मे आ जाती है। जहॅा कि सुकुमाल मुनि ध्यानस्थ है वह उन्हें गौर से देखती है और उसी क्षण उसके हद्वय मे क्रोध की ज्वाला भड़क उठती है वह उनको धूरते हुये नजदीक आ जाती है। और दहाड़ मारकर धावा बोल देती है। वह तत्क्षण की उन महामुनि के पैर को धर दबोचती हे और अपने पैने तीक्ष्ण दंतो से उसे खाने लगती है। उसे खाते देखकर पिल्ले भी मुनिराज के पैर का मांस खाना शुरु कर देते है। ओह !यह है सुकुमाल की परीक्षा का अवसर ! कहॅा उनका कोमल शरीर? और कहां यह दारुण धोर उपसर्ग ? तथा कहां यह उनकी सहनशीलता ? जो कभी एक तिनके का चुभ जाना भी नही जानते थे वे आज ऐसे धोर कष्ट को कैसे सह रहे है ? वे महामुनि पशुक्त् उपसर्ग आया हुआ देखकर सुमेरु के समान निश्चल हो जाते है। इधर चार हिंसक पशु उनके पैर के मांस को नोंच-नांेच कर खा रहे है। उधर सुकुमाल मुनि सोच रहे है- “अहो आत्मन् ! तूने नरको मे इससे भी अधिक धोर वेदना का अनुभव किया है। अरे ! वहां करोंत से चीरा जाना, कढाई मे तले जाना, भाड़ मे भूना जाना, तलवार से छिन्न भिन्न टुकड़े किए जाना आदि पता नही कितने कितने कष्ट झेले है। ? उसके आगे यह दुःख क्या है? पशु योनी मे भी हत्यारे व्याधांे द्वारा बाण से बेधे जाना, काटे जाना, मारे जाना और भून-भून कर या पका-पका कर खाए जाना आदि धोर दुःखो का अनुभव किया है। अतः हे आत्मन् ! तू अब बड़ी ही शातिं से इस दारुण वेदना को सहन कर ! देख तूने पूर्वभवों मे ऐसे ही किसी को सताया होगा या इस सियारनी को कष्ट दिया होगा जिसका कि बदला चह चुका रही है। भला लिए हुए कर्ज का चुकाने मे धबराहट क्यों? फिर दूसरी बात यह हे कि यह शरीर तो जड़ है, पुद्गल से बना हुआ है अतः पडोसी के समान है, पर है, अपना नही है। न मै शरीर हू, ना मै मनुष्य हू और न मे संसारी ही हूॅ । मुझे न जन्म है, न मरण है, न पीड़ा है और न उपसर्ग ही है। मै तो चिच्चैतन्यस्वरुप ज्ञान से निर्मित दिव्य शरीर वाला हॅू। मै अखंड हू, एक हूं, चिन्मयधातु से निर्मित हूं, शुद्व हूं, शुद्व हूं सिद्व हूं और परमानन्द स्वरुप हॅ। इत्यादि प्रकार से चिंतवन करते हुए सुकुमाल मुनिराज अपने आप में पूर्णतया स्थिर है, सावधान है। क्रोध, कषाय और द्वेष की बात तो बहुत दूर, उनके चित्त मे जरा भी चंचलता नही है। एक दिन व्यतीत हो चुका है, रात्रि भी पूर्ण हो रही है। दूसरा दिन आता है चला जाता है पुनः रात्रि आकर अपने बाहर धंटे पूर्ण कर निकल जाती है। वह सियारनी अपने तीन बच्चे के साथ वैसे ही खा रही है। अभी तक उसकी तृप्ति नही हुई है, क्षुधा शांत नही हुई है और न ही कषाय शमिल हुई है। वह जोर जोर से मांस को नोंचती है पुनः धीरे धीरे खाती है। बार बार गहरे धांवो पर दांतो का और अपने नुकीले पंजो का प्रहार करती है। तीसरे दिन सुकुमाल मुनि के शरीर से प्राणपखेरु निकल जाते है और शरीर निर्जीव हो जाता है। समताभाव पूर्वक प्राण छोड़ने से सुकुमाल मुनि की आत्माम अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग मे महद्र्विक देव हो जाती है। अंतर्मुहूर्त (४९ मिनट के अंदर) ही उनका नवयौवन संपन्न, दिव्य वैक्रियिक, अत्यंत सुंदर शरीर बनकर पूर्ण हो जाता है। वे अपने दिव्य अवधिज्ञान से जान लेते है कि मैं सुकुमाल नाम का श्रेष्ठी था, पंचेंद्रिय के विषय भोगो मे फॅसा हुआ था। अपने मामा महामुनि के उपदेश से प्रबोध को प्राप्त होकर मात्र तीन दिन मे जिनमुद्रा के प्रसाद से आज इस दिव्य देवलोक मे उत्पन्न हो गया हॅू। अहो ! धर्म की महिमा अपार है। ऐसा सोचकर वे देव पहले तो भगवान् जिनेंद्र के मंदिर में पहुॅचकर जिन प्रतिमाओ की पूजा, अर्चा, भक्ति करते है पुनः अपने आश्रय मे आये हुए देव देवी आदि परिकरो को देखकर प्रसन्न होते हुए उन्हें अपने अपने कार्यी मे नियोजित कर देते है।इधर सुकुमाल मुनि के धीरतापूर्वक वीरमरण करने पर तत्क्षण ही देवो के आसन कम्पित हो जाते है। बहुत से देवगण वहाँ आकर जय-जय शब्दोच्चारण करते हुए महामहोत्सव मनाते है। तब सियारनी डरकर वहा से भाग जाती है। देवगण वहा उस उत्जयिनी नगरी के बाहर वन में सुगंधित जल की वर्षा करते है। और पुनः-पुनः सुकुमाल महामुनि की सहनशीलता की प्रशंसा करते हुए महा उपसर्गजयी महासाधु की जय बोलते हुऐ अपने अपने स्थान पर वापस चले जाते है। यह सियारनी पूर्वजन्म के संस्कार से अपने वैर का प्रतिशोध लेकर संतुष्ट हो जाती है। परन्तु आगे के लिए पाप का कितना बड़ा पर्वत उठा लिया है, उसे कब तक ढोना पड़ेगा, इस प्रतिशोध मे महामुनि के ऊपर इतना भंयकर उपसंर्ग करने से मुझे कितने भवो तक नरक तिर्यच योनियो के कितने कष्ट उठाने पड़ेगे, यह उसे कुछ भी भान नही हे। हो भी कैसे ? जबकि उसे पूर्व के भवों के दुःखो की ही कुछ याद नही रह गई है।
कौशाम्बी के राजा अतिबल के यहा सोमशर्मा नाम के पुरोहित है। उनके अग्निभूति और वायुभूति नाम के दो पुत्र है। ये दोनो लाड़ प्यार मे विधाध्ययन नही कर पाते है, फलस्वरुप पिता की मृत्यु के बाद दोनो पुत्रांे को पिता का पद न मिलने से वे बहुत ही दुःखी होते है तब माता की आज्ञा से दोने राजगृह नगर मे आकर अपने काका सूर्यमित्र के पास आ जाते है। सूर्यमित्र इन्हे विधाध्ययन कराना शुरु कर देते है। कुछ ही वर्षो मे ये पूर्ण विद्वान बनकर वापस अपने देश आ जाते है। और राजा को प्रसन्न कर पुरोहित पद प्राप्त कर लेते है। कुछ ही दिन बाद सूर्यमित्र ब्राह्मण महामुनि सुधर्म के पास दिगम्बर मुनि हो जाते है। गुरुप्रसाद से सम्यग्ज्ञान प्राप्त कर परम तपस्वी होते हुए गुरु की आज्ञा से एकाकी विचरण करते हुए कौशाम्बी मे आ जाते है। आहार के समय अग्निभूति ब्राह्मण गुरु का पड़गाहन कर आहार दान देता है। पुनः वह मुनिराज सूर्यमित्र को नमस्कार करने के लिए बार बार अपने छोटे भाई वायुभूति को आग्रह करता है। कितु उसका परिणाम उल्टा ही निकलता है चूॅकि वह वायुभूति जैन-धर्म का विरोधी था अतः वह चिढ़कर मुनिराज की और अधिक निन्दा करने लगता हैं तथा उन जगतपूज्य मुनिराज को बहुत कुछ यद्वा तद्वा कह डालता है। अग्निभूति अपने भाई की दुर्बुद्वि पर अत्यन्त दुःखी हो जाता है। मुनिराज के साथ वन की और चला जाता है और वहा पहुचकर अपने गृहस्थाश्रम के काका तथा विधागुरु और वर्तमान के महामुनि सूर्यमित्र के चरण सानिध्य मे बैठकर प्रार्थना करता है।“हे भगवन् ! मुझे संसार समुद्र से पार होने वाली जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिये।” गुरुदेव भी अग्निभूति को मुनि बनाकर अपने साथ लेकर अन्यत्र विहार कर जाते है। इधर अग्निभूति की भार्या सोमदत्ता को जब पतिदेव की दीक्षा का समाचार मिलता है तब वह वायुभूति देवर संे कहती है- “हे देवर ! देखो, तुमने मुनि की वंदना न कर जो उनकी निंदा की है इसलिए तुम्हारे भाई दीक्षा लेकर चले गये है। अतः चलो, जैसे बने वैसे उन्हें समझा बुझाकर वापस धर लिवा लायं।” वायुभूति कुपित हो कहता है-“अरी मूर्खे ! मुझे तो कोई आवश्यकता है नही। हा, तुझे यदि गर्ज है तो जा, तू भी उस नंगे के पास चली जा।” इस प्रकार वह वायुभति अपनी भावज को यद्वा-तद्वा सुनाकर उसकी कमर पर एक लात मारकर चला जाता है। सती सोमदत्ता पति के विरह से दुःखी तो थी ही, साथ ही देवर के ऐसे मर्मछेदी वचन सुनकर और पैर से ठुकराई जाने पर अत्यन्त कुपित हो उठती है ओर कहती है- “अरे पापी ! आज तो मै अबला हू तेरे से कुछ बदला नही ले सकी हॅ, परंतु याद रख ! तूने इस समय जो मेरा मर्म भेदा है और मुझे लातों से ठुकराया है उसका बदला इस जन्म मे न सही अगले जन्म मे अवश्य लूगी और तेरे इस पाॅव को, जिससे कि तूने मुझे लात मारी है उसी पैर को खाऊॅगी तभी मुझे संतोष होगा।” ऐसा निदान करके यह सोमदत्ता स्त्रीपर्याय होने से अपना मन मारकर जैसे तैसे संक्लेश परिणामो से अपना समय व्यतीत कर रही है।े इधर वायुभूति को मुनि निंद्रा के धोर पापक से सात दिन के अन्दर ही महाकुष्ठ रोग हो जाता हैं महावेदना से मरणकर वह कौशाम्बी मे ही नट के यहा गघा हो जाता है। वह गधा दुःख से मरकर सुअर हो जाता है। पुनः इस पर्याय से निकलकर चम्पापुर में एक चाण्डाल के यहा कुत्ती हो जाता है। वह कुत्ती मरकर कुछ पाप के हल्के हो जाने से वही पर एक चंडाल के यहाॅ कन्या हो जाती है। यहाॅ कन्या जन्म से ही अंधी है, इसके शरीर से महादुर्गध निकल रही है। इसलिये इसके माता पिता इसको छोड़ देते है। यह बेचारी अन्धी कन्या जैसे तैसे प्राणो की रक्षा करते हुए एक समय जंगल में जामुन फल खा रही है। सूर्यमित्र मुनि अग्निभूति मुनि के साथ ही उधर से निकलते है। उस दुखी कन्या को देखकर अग्निभूति मुनि के अन्दर में कुछ मोहभाव सा जाग्रत होता है। ओर करुणा से हद्वय भर जाता है तब वे गुरु से कहते है-“भगवन् ! यह कन्या कितनी दुखी है ? औह यह कैसे जी रही है ?” गुरुदेव कहते है-“हे मुने ! यह तुम्हारा भाई वायुभूति का जीव है। इसने कुछ वर्ष पूर्व धर्म से पराड्मुख होकर जो मेरी निन्दा की थी उसी के फलस्वरुप तियच योनियो मे दुःख उठाते हुए यह स्त्री- पर्याय मे जन्म से अन्धी हुई है। अब इसकी आयु बहुत ही थोड़ी. है अतः तुम जाकर इसे सम्बोधित कर धर्म ग्रहण करा दो जिससे इसका अगला भव सुधर जोय।” गुरु की आज्ञा से अग्निभूति मुनि उस कन्या के निकट जाकर उसे सम्बोधित कर पाॅच अणुव्रत देते है पुनः उसे सल्लेखना ग्रहण कराकर अपने गुरु के साथ चले जाते है। वह कन्या महामंत्र स्मरण करते हुए संन्यास विधि से प्राण छोड़कर चम्पापुर मे नागशर्मा ब्राह्मण के यहाॅ नागश्री नाम की कन्या हो जाती है। एक बार किशोरवस्था को प्राप्त नागश्री नागपूजा करने के लिए अपनी सहेलियो के साथ वन मे आती है। पुण्य योग से सूर्यमित्र और अग्निभूति वहाॅ आ जाते है। कन्या उन्हें देखकर अत्यधिक भक्ति और प्रीति से उनके निकट आकर नमस्कार करके बैठ जाती है। उसी समय अग्निभूति मुनि के हद्वय मे स्नेह भाव उमड़ने से वह उसका कारण अपने गुरु से पूछती है। आचार्य सूर्यमित्र “यह तुम्हारे भाई वायुभूति का जीव है।” ऐसा संकेत कर देते है। पुनः उस कन्या को धर्मोपदेश देकर सम्यक्त्व और पाॅच अणुव्रत ग्रहण करा देती है। जब वह कन्या गुरु को नमस्कार कर धर जाने लगती है तब आचार्य देव कहते है- “हे पुत्री ! यदि तेरे पिता तेरे इन व्रतों के लेने मे नाराजगी व्यक्त करे तो तू यही आकर मुझे इन व्रतो को वापस कर जाना।” कन्या गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके धर आ जाती है। उसकी सहेलियॅा नागशर्मा से सारी धटना सुना देती है। तब नागशर्मा क्रोध मे आपे से बाहर हो कर कन्या से कहता है। “बेटी ! तूने यह क्या किया ? अपने धराने मे नंगे गुरुओ को नही पूजा जाता और फिर तूने उनके लिए व्रत क्यो ले लिया ?” नागश्री कहती है-“पिताजी ! गुरुजी ने कहा है कि यदि तुम्हारे पिताजी को ये व्रत अच्छे नही लगे तो हमे ये व्रत वापस दे जाना।” तब नागशर्मा कन्या को साथ लेकर वन की ओर चल पड़ता है। मार्ग मे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के पाप से दंण्डित होते हुए लोगो को क्रम क्रम से देखकर कन्या अपने पिता से यह कहलवा लेती है कि “ये व्रत बहुत ही अच्छे है उन्हें वापस नही करना है फिर भी चलो, चलकर मुनि को फटकारेगे अवश्य, कि उन्होने बिना पूछे किसी की कन्या को व्रत क्यो दिये?”निकट मे पहुचकर नागशर्मा जोर से चिल्लाकर कहता है- “अरे नंगे ! तुमने मेरे से बिना पूछे मेरी कन्या को ये व्रत क्यो दिये है?” आचार्यदेव बहुत ही शांति से कहते है“हे ब्राह्मण ! इस कन्या को मैने मेरी समझकर ही व्रत दिए है, यह कन्या मेरी है। ” तब ब्राह्मण और भी चिढ़कर बोलता है-“वाह ! यह कन्या आपकी कैसे हे।”तब मुनिराज कहते है- “हे पुत्री ! आजा तू मेरे पास बैठ जा, पुनः ब्राह्मण से कहते है-यह कन्या मेरी ही है। बेचारा नागशर्मा धबड़ा कर राजा के पास दौड़ा जाता है और राजा से कहता हे- “हे महाराज ! मेरा न्याय कीजिए, मेरा न्याय कीजिए, इन नंगे साधुओ ने मेरे साथ धोर अन्याय किया है। अरे अरे ! यह कन्या को लेकर जा रहे है।” इस हल्ला गुल्ला को सुनकर राजा बहुत ही कुतूहल के साथ अपने सांमंत मंत्री को लेकर वहा आ जाते है और मुनिराज को नमस्कार कर पूछते है- “भगवन् ! आप दिगंबर साधु है, पुन यह कन्या आपकी कैसे? कृपा करके आप हम लोगो की जिज्ञासा को शांत कीजिए।” आचार्य सूर्यमित्र नागश्री कन्या के मस्तक पर अपनी पिच्छिका रखकर कहते है- हे वायुभूते! मैने तुम्हे जो कुछ भी विधाध्ययन कराया था, वह आप इन लोगो के सन्मुख सुनाओ। उसी क्षण कन्या को अपने वायुभूति के भाव का पूर्णतया जातिस्मरण हो जाता है वह तत्क्षण ही संस्कृत व्याकरण, वेद, वंेदाग आदि पढ़ाये गये सूत्रो का उच्चारण करने लगती है राजा तथा प्रजा के लोग सभी आश्चर्य चकित हो जाते है। पुनः गुरु से पूछते है- “भगवन् ! आपने यह सब ग्रन्थ इसे कब पढ़ाये है? ” तब सूर्यमित्र महामुनि सभी के समक्ष उस कन्या को वायुभूति से लेकर अब तक का सारा इतिहास सुना देते है। सुनकर सभी लोगो को बहुत ही वैराग्य और धर्मप्रेम हो जाता है। राजा स्वंयं पूर्णतया विरक्त हो जैनेश्वरी दीक्षा ले लेते है। नागशर्मा भी मुंनि हो जाता है। पुनः वह नागश्री कन्या आर्यिका की दीक्षा ग्रहण कर धाोरतिधोर तपस्या करके अंत में समाधिमरण कर अच्चत स्वर्ग मे महद्र्विक देव हो जाती हे। वहॅा के दिव्य भोगो को भोगकर, धर्मप्रीति के प्रसाद से वही देव यहॅा उज्जयिनी सुकुमाल सेठ हो जाता है। वायुभूति की पर्याय में जो उनकी भावज थी, जिसने पति की दीक्षा के बाद देवर की फटकार व लात खाई थी पुनः जिसने उसका बदला चुकाने का निदान किया था, वही बेचारी सोमदत्ता निदान के दुष्परिणाम से कई भवों तक दुर्गाति के दुःख उठाती हुई अब इस पर्याय मे सियारनी हो गई थी। उसी ने पूर्व भव मे बाॅधे गए बैर से सुकुमाल मुनि के उपर धोर उपसर्ग किया हे और उनके पैरो को ही खाया है। तथा पुनरपि अपने संसार की परंपरा को बढ़ाया है। महामुनि सुकुमाल ने पूर्णतया क्षमा का अवलंबन ले समता भाव से उपसर्ग को सहन किया है। उसके फलस्वरुप वे अच्युत स्वर्ग मे महान ऋषि संपन्न देव हो चुके हे। इस कथा को पढ़कर प्रत्येक मनुष्य को यही शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि कभी भी किसी के प्रति बैर बाॅधना या बदला लेने की भावना करना बहुत ही बुरा है। तथा सुकुमाल जैसे भी महासुकुमार देहधारी मनुष्य यदि अपने मन को मोड़ दे देते है तो कठिन तपश्चर्या उनके लिए कुछ भी कठिन नही हैं।