अरिहंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, और लोक में सर्व साधुओं को नमस्कार हो।।१।। अब देवता-नमस्कार सूत्र का अर्थ कहते हैं। ‘णमो अरिहंताणं’अरिहंतों को नमस्कार हो। अरि अर्थात् शत्रुओं के ‘हननात्’ अर्थात् नाश करने से ‘अरिहंत’ हैं। नरक, तिर्यंच, कुमानुष और प्रेत इन पर्यायों में निवास करने से होने वाले समस्त दुःखों की प्राप्ति का निमित्तकारण होने से मोह को ‘अरि’ अर्थात् शत्रु कहा है।
शंका — केवल मोह को ही अरि मान लेने पर शेष कर्मों का व्यापार निष्फल हो जाता है।
समाधान — ऐसा नहीं है, क्योंकि, बाकी के समस्त कर्म मोह के ही आधीन हैं। मोह के बिना शेष कर्म अपने अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं। जिससे कि वे भी अपने कार्य में स्वतन्त्र समझे जाय। इसलिये सच्चा अरि मोह ही है और शेष कर्म उसके आधीन हैं।
शंका — मोह के नष्ट हो जाने पर भी कितने ही काल तक शेष कर्मों की सत्ता रहती है, इसलिये उनका मोह के आधीन होना नहीं बनता ?
समाधान — ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, मोहरूप अरि के नष्ट हो जाने पर जन्म, मरण की परंपरारूप संसार के उत्पादन की सामथ्र्य शेष कर्मों में नहीं रहने से उन कर्मों का सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है। तथा केवलज्ञानादि संपूर्ण आत्म-गुणों के आविर्भाव के रोकने में समर्थ कारण होने से भी मोह प्रधान शत्रु है और उस शत्रु के नाश करने से ‘अरिहंत’ यह संज्ञा प्राप्त होती है। अथवा, रज अर्थात् आवरण कर्मों के नाश करने से ‘अरिहंत’ हैं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म धूलि की तरह बाह्य और अन्तरंग स्वरूप समस्त त्रिकाल-गोचर अनन्त अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायस्वरूप वस्तुओं को विषय करने वाले बोध और अनुभव के प्रतिबन्धक होने से रज कहलाते हैं। मोह को भी रज कहते हैं, क्योंकि जिस प्रकार जिनका मुख भस्म से व्याप्त होता है उनमें जिम्हभाव अर्थात् कार्य की मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोह से जिनका आत्मा व्याप्त हो रहा है उनके भी जिम्हभाव देखा जाता है, अर्थात् उनकी स्वानुभूति में कालुष्य, मन्दता या कुटिलता पाई जाती है।
शंका — यहाँ पर केवल तीनों अर्थात् मोहनीय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के ही विनाश का उपदेश क्यों दिया गया है ?
समाधान —ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि शेष सभी कर्मों का विनाश इन तीन कर्मों के विनाश का अविनाभावी है अर्थात् इन तीन कर्मों के नाश हो जाने पर शेष कर्मों का नाश अवश्यंभावी है। इस प्रकार उनका नाश करने से अरिहंत होते हैं। अथवा ‘रहस्य’ के अभाव से भी अरिहंत होते हैं। रहस्य अन्तराय कर्म को कहते है। अन्तराय कर्म का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावी है और अन्तराय कर्म के नाश होने पर ‘अघातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान निःशक्त हो जाते हैं, ऐसे अन्तराय कर्म के नाश से अरिहंत होते हैं। अथवा सातिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं’, क्योंकि, गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पांचों कल्याणकों में देवों द्वारा की गई पूजायें, देव, असुर और मनुष्यों को प्राप्त पूजाओं से अधिक अर्थात् महान् हैं, इसलिये इन अतिशयों के योग्य होने से अर्हन्त होते हैं।