२.१ भारतीय धर्म की दो धाराएँ बहुत प्राचीन हैं-श्रमण और वैदिक। श्रमण धारा का विकास आर्य-पूर्व जातियों और क्षत्रियों ने किया। वैदिक धारा का विकास ब्राह्मणों ने किया। दोनों मुख्य धाराओं की अनेक उपधाराएँ हो गईं। भगवान महावीर के युग में तीन सौ तिरेसठ धर्म-सम्प्रदाय थे, यह उल्लेख जैन लेखकों ने किया है। तीन सौ त्रेसठ मत निम्न प्रकार हैं-
‘‘क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७ और वैनयिकवादियों के ३२ ऐसे १८० + ८४ + ६७ + ३२ = ३६३ मत माने गये हैंं। इनका विशेष वर्णन इस प्रकार है-
‘अस्ति’ पद को ‘आप से’ ‘पर से’ नित्यपने से’ और ‘अनित्यपने से’ इन चार से, जीवादि नव पदार्थ से तथा ‘काल’, ‘ईश्वर’, ‘आत्मा’, ‘नियति’ और ‘स्वभाव’ इन पाँच से, ऐसे क्रम से गुणा करने से १ * ४ * ९ * ५ =१८० भेद क्रियावादियों के होते हैं।
‘नास्ति’ पद को ‘आपसे’, ‘पर से’, पुण्य-पाप रहित सात पदार्थ से और ‘काल’ आदि पाँच से गुणा करने पर १ * २ * ७ * ५ = ७० भंग होते हैं। पुन: ‘नास्ति’ पद को सात पदार्थ और ‘नियति’ तथा ‘काल’ इन दो से गुणा करने पर १ * ७ * २ = १४ भेद हुये। दोनों मिलाकर ७०+१४=८४ भेद अक्रियावादियों के होते हैं।
नव पदार्थ को सप्तभंगी से गुणा करने पर ९ * ७ = ६३ भेद हुये। पुन: ‘शुद्ध पदार्थ’ को अस्ति, नास्ति, उभय और अवक्तव्य इन चार भेदों से गुणा करने पर १ * ४ = ४ भेद हुये। दोनों मिलाकर ६३ + ४ = ६७ भेद अज्ञानवाद के होते हैं।
इसका अर्थ यह है कि जीवादि नव पदार्थों में एक-एक को सप्त भंग से न जानना। जैसे कि ‘जीव’ अस्तिरूप है ऐसा कौन जानता है, नास्ति रूप है ऐसा कौन जानता है, इत्यादि।
देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता और पिता इन आठों का मन, वचन, काय और दान, इन चार से विनय करना सो ८* ४ = ३२ ये बत्तीस भेद विनयवादियों के हैं। ये विनयवादी गुण-अगुण की परीक्षा किये बिना विनय से ही सिद्धि मानते हैं।
पूर्व में क्रियावादी के भेदों में जो ‘अस्ति’ ‘स्व’ ‘पर’ ‘नित्य’ ‘अनित्य’ और नवपदार्थ तथा काल आदि पाँच आये हैं, उनमें से सबका अर्थ तो स्पष्ट ही है। काल ईश्वर आदि पाँचों का अर्थ बताते हैं।
काल ही सबको उत्पन्न करता है और सबका नाश करता है, काल ही सोते हुए प्राणियों में जागता है ऐसे काल को ठगने के लिये कौन समर्थ है। इस प्रकार काल से ही सब कुछ मानना कालवाद है।
आत्मा ज्ञान रहित है, अनाथ है, कुछ कर नहीं सकता, उस आत्मा का सुख-दु:ख तथा स्वर्ग-नरक में गमन आदि सब ईश्वर का किया हुआ होता है। ऐसी मान्यता ईश्वरवाद है।
संसार में एक ही महान् आत्मा है, वही पुरुष है, वही देव है, वह सबमें व्यापक है, सर्वांगपने से अगम्य है, चेतना सहित है, निर्गुण है और उत्कृष्ट है। इस तरह आत्मस्वरूप से ही सबको मानना आत्मवाद है।
जो जिस समय, जिससे, जैसे, जिसके नियम से होता है, वह उस समय, उससे, वैसे और उसके ही होता है। ऐसा नियम से ही सब वस्तु को मानना नियतिवाद है।
कांटे आदि तीक्ष्ण वस्तुओं में तीक्ष्णता कौन करता है ? मृग आदि पशु पक्षियों के अनेक आकार कौन बनाता है ? इत्यादि प्रश्न होने पर कहना पड़ेगा कि सबमें स्वभाव ही है। ऐसे सब को कारण के बिना स्वभाव से ही मानना स्वभाववाद है।
इस प्रकार से काल आदि की अपेक्षा से ‘अस्ति’ आदि के साथ एकांत पक्ष ग्रहण करने से क्रियावादी और अक्रियावादी के भेद होते हैं।
इस प्रकार स्वच्छंद श्रद्धानी पुरुषों ने इन ३६३ मतों की कल्पना की है।
जो आलसी है, उद्यम करने में उत्साह रहित है वह कुछ भी फल नहीं भोग सकता। जैसे माता के स्तन का दूध पीना भी बिना पुरुषार्थ के नहीं होता है। इस तरह पुरुषार्थ से ही सर्वकार्य की सिद्धि मानना पौरुषवाद है।
मैं केवल भाग्य को ही उत्तम मानता हूँ, निरर्थक पुरुषार्थ को धिक्कार हो। देखो! किले के समान ऊँचा राजा कर्ण युद्ध में मारा गया। इस तरह दैव से ही सिद्धि मानना दैववाद है।
जैसे एक अंधा और एक पंगु दोनों वन में प्रतिष्ठ हुये, सो किसी समय वहाँ आग लग जाने से ये दोनों एक दूसरे के संयोग से बचकर नगर में आ गये। ऐसे ही संयोग से ही सर्वकार्य सिद्ध होते हैं। ऐसा कहना संयोगवाद है।
एक बार की उठी हुई लोकप्रसिद्धि देवों द्वारा भी दूर नहीं की जा सकती, अन्य की तो बात क्या है। देखो! द्रौपदी ने केवल अर्जुन के गले में वरमाला डाली थी किन्तु ‘इसने पाँचों को वरा है’ ऐसी प्रसिद्धि हो गयी। इस तरह लोक प्रवृत्ति को ही सर्वस्व मानना लोकवाद है।
आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या ? जितने भी वचन बोलने के मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय हैं। तात्पर्य यही है कि जो कुछ भी बोला जाता है वह कुछ न कुछ अपेक्षा को लिये ही होता है। उस जगह जो अपेक्षा है वही नय है और बिना अपेक्षा से बोलना या एक ही अपेक्षा से अनंत धर्मवाली वस्तु को सिद्ध करना यही परमतों में मिथ्यापना है।
सो ही स्वयं कहते हैं-
पर मतों के वचन ‘सर्वथा’ कहने से नियम से असत्य होते हैं और जैनमत के वचन ‘कथंचित्’ (किसी एक प्रकार) से कहने से सत्य होते हैं।’
‘‘दृष्टिवाद नाम के अंग में कौत्कल, काण्ठेविद्धि, कौशिक आदि क्रियावादियों के १८० मतों का; मारीचि, कपिल, उलूक आदि अक्रियावााfदयों के ८४ मतों का शाकल्य, बल्कल आदि अज्ञानवादियों के ६७ मतों का तथा वशिष्ठ, पाराशर आदि वैनयिकवादियों के ३२ मतों का वर्णन और उनका निराकरण किया गया है।’’
ऐसे ही कुश्रुतज्ञान के प्रकरण में कहा है कि-‘‘चौर शास्त्र, हिंसा शास्त्र आदि के तुच्छ और साधन करने के अयोग्य उपदेशों को श्रुत अज्ञान कहा है।’’
तात्पर्य यही हुआ कि ये सब मिथ्यामत, मिथ्या अनेकांत और मिथ्या एकांत से ही कल्पित किये गये हैं तथा इनके कहने वाले शास्त्र भी मिथ्यात्व के पोषक होने से कुश्रुत ही हैं। इनके स्वरूप को समझकर इन सबका त्याग करके स्याद्वादमय अनेकांत धर्म का आश्रय लेना चाहिए।