प्रकृति ने संसार के सब जीवों को मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त कर रखा है— १. वे जीव जो शाकाहरी हैं। २. वे जीव जो मांसाहारी हैं और अशुद्ध भोजन ही लेते हैं। पहले वाली श्रेणी में मुख्य रूप से मनुष्य अर्थात् मानव जाति आती है इसके अलावा कुछ जीव—जन्तु जो शाकाहारी ही हैं। दूसरी श्रेणी में वे जीव—जन्तु हैं जिनका भोजन ही अशुद्ध अर्थात् मांसाहारी है। इस सृष्टि में दोनों ही श्रेणी के जीवों के भोजन की व्यवस्था व शरीर की बनावट अलग—अलग है। मनुष्य तो जन्म से ही शाकाहारी जीव माना गया है। उसके खाने—पीने की व्यवस्था मांसाहारी जीवों से एकदम भिन्न है। इस बात का पूर्णतया ज्ञान करने हेतु निम्नांकित बातें ध्यान देने योग्य हैं—
(१) मानव जाति में ‘मनुष्य’ संसार में आने पर जब अपनी आँखें खोलता है तभी से वह पूर्णतया शाकाहारी होता है जबकि शेर का बच्चा जैसे ही खाना सीखता है वह मांसाहारी ही होता है।
(२) मनुष्य जाति में बच्चे के नाखून बहुत मुलायम होते हैं किसी को नुकसान नहीं पहुँचा सकते जबकि शेर, चीते इत्यादि के बच्चे के नाखून बहुत पैने होते हैं जो कि मांस को चीर फाड़ देते हैं अर्थात् किसी को भी नुकसार पहुँचाने में सक्षम होते हैं।
(३) मनुष्य के दांत सिर्फ शाकाहारी भोजन ही चबा सकते हैं जबकि शेर, चीते, चील आदि जीवों के बच्चे के दांत इतने पैने और नुकीले होते हैं कि वे आसानी से मांसाहारी भोजन चबा सकते हैं।
(४) मनुष्य की आँतों में मांस को हजम करने की शक्ति नहीं होती जबकि शेर, चीते इत्यादि में मांस को हजम करने की शक्ति होती है और वे उसे कच्चा ही खा लेते हैं।
(५) मनुष्य व अन्य शाकाहारी जीव कबूतर, गाय, भैस इत्यादि रात्रि को भोजन नहीं करते जबकि मांसाहारी जीव रात्रि को भी शिकार करके भोजन करते हैं।
(६) मांसाहारी जीव—जन्तु जीभ से तरल पदार्थ पीते हैं जबकि मनुष्य की प्रकृति ऐसी नहीं।
(७) शाकाहारी जीवों और मनुष्यों को पसीना कम आता है और गर्मी बहुत कम लगती है जबकि मांसाहारी जीवों को गर्मी बहुत लगती है, पसीना बहुत आता रहता हे, पसीने में दुर्गन्ध आती है। इन सभी तथ्यों से यह बात दृष्टिगत होती है कि मनुष्य व कुछ जीव पूर्णतया शाकाहारी हैं। परन्तु आज का मानव मानव न रहकर दानव बन गया है आज वह अपनी मूल पहचान भूल गया है आज तो मांस भक्षण मानो उसके जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। कुछ शाकाहारी जीव जैसे गाय, भैंस, घोड़े, बैल इत्यादि के आगे मांस खाने के लिए रखा जाय तो वो भी विवेक बरतते हैं और भूखे होने पर भी मांस का सेवन नहीं करते जबकि मनुष्य विवेकहीन हो अपने स्वार्थ के लिए मांस को घंटों पकाते हैं, मसालो एवं शराब का सहारा लेकर उसका भक्षण करते हैं। वास्तव में मनुष्य उन जीवों से भी अधिक गया गुजरा है जो रात्रि में कुछ भी न खाकर अपने—अपने निवास स्थान पर चले जाते हैं परन्तु मनुष्य तो रात्रि—दिन, अच्छे—बुरे का भेद भूल गया।
मनुष्य ऐसा जीव है जो मृत शरीर को ही खाता है जबकि ज्यादातर मांसभक्षी पशु अपना शिकार करके ही खाते हैं। वास्तविकता तो यह है कि मनुष्य का खुद का शरीर मृत अवस्था में कौए भी नहीं खाते, न ही वह किसी प्रकार के काम में आता है जबकि ऊंट, शेर, हाथी जैसे पशुओं के सब अंग किसी न किसी काम में आ ही जाते हैं। सन्त कबीरदास ने कहा— ‘‘बड़े भाग मानुष तन पायो’’ पुराणों व ग्रंथों में लिखा है कि— ‘‘न जाने कितने जन्मों के संचित पुण्य जब एकत्रित होते हैं जब कहीं जाकर मनुष्य जन्म मिलता है। बन्धुओं ! मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसमें पाँचों इन्द्रियों के साथ—साथ मन भी मौजूद है। इस मन द्वारा हमारी पांचों इन्द्रियों का संचालन होता है। इन्हीं पांचों इन्द्रियों को मन की सहायता से अपने वश में करके मानव रत्नत्रय की प्राप्ति करके केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है जबकि अन्य तिर्यंचादि जीव मनुष्य भव प्राप्त किये बगैर मोक्षलक्ष्मी को नहीं प्राप्त कर सकते।
मनुष्य भव एक दुर्लभ मणि के समान है जिसे वह पांच इन्द्रिय रूपी विषय समुद्र में अज्ञानतावश डाल कर व्यर्थ में गंवा देता है और चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करता है। जैसे समुद्र में डाली हुई वह दुर्लभ मणि मिलनी अत्यन्त दुर्लभ है उसी प्रकार मनुष्य भव भी मिलना अति दुर्लभ है। अगर मनुष्य चिन्तन करे तो स्वयं पाएगा कि चौरासी लाख योनियों में घूम—घूमकर क्या उसने कभी पति—पत्नी, भाई—बहन, पिता—पुत्र आदि सम्बन्धों को नहीं प्राप्त किया और अगर प्राप्त किया तो क्या वे अपने—अपने कर्म करते हुए जानवर या पशु—पक्षी नहीं बने और बने हैं तो क्या हम अपने पुत्र, पिता, पत्नी, बेटी, माता, बहन को ही अनजाने में नहीं खा रहे। यह एक कटु सच है जिसे नकारा नहीं जा सकता। अगर आप सभी को इन बातों में अंश मात्र भी सच्चाई नजर आती हो तो आज से आप अपने जीवन में पूर्णरूपेण मांस का, मांसाहार युक्त चीजों का त्यागकर अपने जीवन में शाकाहार को अपनाकर जीवन को समुन्नत बनाये और इस दुर्लभ मनुष्य पर्याय को सफल करें तभी इस लेख को पढ़ने व लिखने की सार्थकता है।