णमो अरिहंताणं ।
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जैनधर्म के ज्ञान का महासागर ![]() |
णमो अरिहंताणं ।
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जैनधर्म के ज्ञान का महासागर ![]() |
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धर्म की शाश्वत सत्ता प्राकृतिक सृष्टि व्यवस्था के अनुसार धर्म की शाश्वत सत्ता मानी गई है। विश्वभर के अनेक धर्मों में जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन होते हुए भी इसका कोई संस्थापक नहीं है। जैनधर्म प्राकृतिक धर्म है क्योंकि इसका न कोई आदि है और न अंत, इसीलिए यह अनादिनिधनरूप में माना जाता है। समय-समय पर महापुरुषों ने भारत की धरती पर जन्म लेकर इस धर्म को प्रकाशित किया है। वैदिक पुराण एवं वेदों में भी जैनधर्म को वेदों से पूर्व का स्वीकार किया गया है और उनके अनुसार इसे “निर्ग्रन्थ” धर्म के नाम से जाना गया है ।जैनधर्म की तीर्थंकर परम्परा- सर्वप्रथम जैनधर्म की व्याख्या जानने की आवश्यकता है कि “कर्मारातीन् जयतीति जिनः” अर्थात् कर्मों को जीतने वाले ‘जिन’ कहलाते हैं तथा “जिनोदेवता यस्यासौ जैनः” अर्थात् उन जिन को जो अपना देवता मानते हैं वे जैन कहे जाते हैं। इस कथनानुसार जैनधर्म किसी व्यक्ति या सम्प्रदायविशेष का न होकर प्राणिमात्र का धर्म है। वैसे तो इस जैनधर्म में असंख्य उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी (वृद्धि -हास ) कालों में असंख्य तीर्थंकर महापुरुषों ने जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त किया, फिर भी वर्तमान कर्मयुग में जो चौबीस तीर्थंकर हुए हैं
इन चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने आज से असंख्यात वर्ष पूर्व (एक कोडाकोड़ी सागर वर्ष पूर्व) अयोध्या नगरी में जन्म लेकर समस्त प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षक्रियाओं के द्वारा जीवन जीने की कला सिखाई थी। उन्होंने सर्वप्रथम अपनी ब्राह्मी-सुन्दरी पुत्रियों को लिपि एवं अंकविद्या सिखाकर साक्षरता अभियान का शुभारंभ किया था। इसी प्रकार ऋषभदेव ने अपने भरत-बाहुबली, वृषभसेन, अनन्तवीर्य आदि सभी 101 पुत्रों को शस्त्र विद्या आदि सिखाकर आत्मरक्षा के साथ परिवार, समाज, देश एवं धर्मरक्षा का संदेश दिया था ।
The pre-Vedic Indian Culture reflects its glimpses not only in the well known Indus culture but also in the recently known Prachi culture found in and around Orissa, Jharkhand and Bihar. A survey made in the interior parts around Adaspur, Bhubaneshwar revealed influence of Jina icons on the Hindu Deities and remains of Prachi Culture resembling the Indus civilization.
Icons were made even earlier to Varahmihir with freedom of dimensions at the wish of the workmanship of the Sculptures. No exact date is known in records as to when did the Icon art started. The Jain Literature reveals that images of Adinath, the first Tirthankara were got made by his son Bharat for worship on Kailash. Those days the climate was perhaps not that hard there as now.
Rama during the period of the 20th Tirthankara; Munisuvratnath got a golden icon made of his queen Sita for his Ashwamegha Yangna as described in Ramayan. In Mahabharat also an image of Bhim was built for embracing by Dhratashtra after that great war during the period of the 22nd Tirthankara; Neminath, a cousin brother of Krishna.
A survey made in the interior parts around Adaspur, Bhubaneshwar, brought to light an interesting seated image of a yogi that gives looks of a Jina at first instance though it is not of a Jina but of a shiva made in Jain style to influence the worshippers.
बंधुओं! शाश्वत तीर्थंकर जन्मभूमि अयोध्या में आर्यिका दीक्षाएँ होने जा रही हैं, इस बात की खबर पूरे देश में बड़े त्वरित अंदाज में घर-घर तक पहुँची है। यह अवसर ही ऐसा है कि एक तरफ हमारे जैनधर्म की शाश्वत तीर्थभूमि अयोध्या का ऐतिहासिक पुनरुत्थान चल रहा है, पूरे देश की जैन समाज में गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से घर-घर और बच्चे-बच्चे तक अयोध्या में जैनधर्म की प्राचीनता को जगजाहिर किया जा रहा है और दूसरी तरफ ऐसे मौके पर अयोध्या के इस स्वर्णिम उत्कर्ष काल में एक और ऐसा इतिहास जुड़ रहा है, जो हमारी प्राचीन जैन संस्कृति को युग की आदि से लेकर आज तक जीवंत रखे हुए है, वह है – जैनधर्म का पवित्र दीक्षा संस्कार महोत्सव।
जी हाँ! जैन संस्कृति को इस धरती पर अनादिनिधन संस्कृति कहा गया है। इस अनादिनिधनता को यदि आज तक हम सब जान और समझ रहे हैं, तो इसके पीछे मुख्यरूप से ‘‘हमारे जिनमंदिर, तीर्थंकर प्रतिमाएँ, दिगम्बर जैन साधु-साध्वी और शास्त्र’’, ये चार ही मूल आधार हैं। इन्हीं के बल पर हम हमारी जैन संस्कृति को लगातार एक युग से दूसरे युग तक सतत प्रवाहित करते रहते हैं और अनेकों भव्य आत्माएँ इसके सहारे अपने मोक्ष का मार्ग भी प्रशस्त करती हैं।
युग की आदि में भगवान ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ, लेकिन यदि इस युग की प्रथम मुनि दीक्षा कहीं हुई है, तो वह प्रयाग नगरी है, जहाँ केशलोंचपूर्वक भगवान ऋषभदेव ने मुनि दीक्षा धारण की थी। यह इस युग में जैनधर्म का एक ऐसा अवसर था कि तब से आज तक हम सभी २४ तीर्थंकरों की परम्परा देखते हुए सतत अनेकानेक बड़े-बड़े महान आचार्यों, मुनियों, आर्यिकाओं आदि की परम्परा को अपने सामने देखते आए हैं और आज भी देख रहे हैं। इसी के साथ इस युग की यदि पहली ‘‘आर्यिका दीक्षा’’ पर दृष्टिपात किया जाये, तो वह भी युग की आदि में सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव जी की पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी के द्वारा प्रयाग-इलाहाबाद में ही ली गयी थी। तभी से आज तक आर्यिकाओं की यह परम्परा हम सबके बीच जीवंत नजर आ रही है।
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पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के कर-कमलों से प्रथम आर्यिका दीक्षा प्राप्त प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी पूर्ण समर्पित प्रमुख शिष्या के रूप में पूज्य माताजी के संघ का एवं विविध धार्मिक, सामाजिक गतिविधियों का अत्यंत कुशलता के साथ समायोजन करते हुए सदैव सम्यकज्ञान की प्राप्ति करने-कराने में निमग्न रहने वाली महान प्रतिभाशाली साधिका सम्पादकीय …. |