आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और उनकी ग्रंथ सम्पदा
प्रो. भागचन्द्र जैन ‘भास्कर’” नागपुर ( महाराष्ट्र )
आचार्य नेमिचन्द्र जैन सिद्धान्त ग्रंथों के गम्भीर अध्येता और विश्रुत चिन्तक थे। कर्म सिद्धान्त के मर्मज्ञ के रूप में उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की है। उन्होंने धवला का आधार लेकर गोम्मटसार, जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड तथा जयधवला का आधार लेकर लब्धिसार नामक ग्रंथों की रचना की। इनके अतिरिक्त तिलोयपण्णत्ति और तत्त्वार्थवार्तिक के आधार पर त्रिलोकसार ग्रंथ लिखा। क्षपणसार और द्रव्यसंग्रह को भी उनकी रचनाओं में गिना जाता है। षट्खण्डागम की गंभीरता और अगाधता का अवगाहन विद्वत्ता की पहचान बन गई थी। आचार्य नेमिचन्द्र ने उसका गहन पारायणकर सिद्धान्तचक्रवर्ती का विरुद्ध प्राप्त किया। आचार्य वीरसेन के समय तक इस प्रकार के विरुद्ध उपाधि का कोई उल्लेख देखने में नहीं आया। आचार्य नेमिचन्द्र कदाचित् प्रथम विद्वान् थे जिन्हें इस उपाधि से अलंकृत किया गया। इस तथ्य को उन्होंने स्वयं निम्न गाथा में उल्लिखित किया है—
आचार्य नेमिचन्द्र कर्णाटक प्रदेशवासी विद्वान् थे। उनके विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलेगी। मात्र प्रशस्ति के रूप में जीवकाण्ड में एक गाथा है और कर्मकाण्ड के अन्त में आठ गाथाएँ उपलब्ध हैं। इनमें स्वयं के विषय में अधिक कुछ नहीं कहा। अपने आश्रयदाता चामुण्डराय का ही प्रशस्तिगान अधिक है। इनमें गोम्मट चामुण्डराय के गुरु का नाम अजितसेन मिलता है पर स्वयं के गुरु का नामोल्लेख नहीं मिलता। त्रिलोकसार की अंतिम गाथा क्रम १०१८ में नेमिचन्द्र मुनि और उनके गुरु अभयनन्दि का उल्लेख अवश्य हुआ है। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत अन्य प्रकरणों में अभयनन्दि के अतिरिक्त वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि के भी नामों का उल्लेख हुआ है (गाथा नं. ४३६, ७८५, ८९६) इन गाथाओं में उन्हें ‘सुदसायरपाराग’ कहा गया है। संभव है उनका यह विरुद्ध रहा हो और इसी आधार पर आचार्य नेमिचन्द्र को सिद्धान्त चक्रवर्ती विरुद देकर उनके प्रति सम्मान प्रगट किया गया हो। इन गुरुओं में अभयनन्दि ज्येष्ठ रहे होंगे। नेमिचन्द्राचार्य के शिष्य माधवचन्द्र त्रैविद्य भी इसी कोटि के विद्वान थे जिन्होंने उनके त्रिलोकसार पर संस्कृत टीका की रचना की थी। इन विद्वानों के विषय में इससे अधिक जानकारी नहीं मिलती। वीरनन्दि चन्द्रप्रभचरित के रचयिता होंगे। आ. नेमिचन्द्र देशीयगण के थे। गंगनरेश राचमल्लदेव का प्रधान सचिव और सेनापति चामुण्डराय आचार्य नेमिचन्द्र सि. च. का परम शिष्य था। उसी की प्रार्थना पर उन्होंने षट्खण्डागम का आधार लेकर जीवकाण्ड—कर्मकाण्ड का प्रणयन किया और उसी के नाम पर इसका नाम गोम्मटसार रखा। श्रवणबेलगोल की प्रसिद्ध भगवान बाहुबलि की ५७ फीट ऊँची अद्वितीय प्रतिमा का निर्माण सेनापति चामुण्डराय ने कराया था और उसके उपनाम के आधार पर उसे गोम्मटेश्वर कहा जाने लगा। वह एक वीर योद्धा और कुशल प्रशासक तो था ही, जैन संस्कृति का मान्य विद्वान् भी था। उसने जीवकाण्ड पर कन्नड वृत्ति भी लिखी थी।
समय
आचार्य नेमिचन्द्र चामुण्डराय के गुरु थे। चामुण्डराय ने अपना चामुण्डराय पुराण शक सं. ९०० (वि. सं. १०३५) में समाप्त किया। आचार्य नेमिचन्द्र ने कर्मकाण्ड में गोम्मट जिन की र्मूित—निर्माण का उल्लेख किया है (गाथा ९६८—६९)। पर यह उल्लेख चामुण्डराय पुराण में नहीं मिलता। गोम्मट जिन र्मूित का निर्माण कब हुआ, इस विषय में विद्वानों में मदभेद है। र्मूित की प्रतिष्ठा गंगनरेश राजमल्ल द्वितीय के राज्यकाल (वि. स. १०३१—१०४१) में हुआ। बाहुबली चरित के अनुसार यह प्रतिष्ठा वि. सं. १०३७—३८ में हुई। उस समय कल्कि सं. यह प्रतिष्ठा वि. स. १०३७—३८ में हुई। उस समय कल्कि सं. ६०० चैत्र शुक्ल ५ रविवार था।
प्रो. घोषाल ने इस तिथि की गणनाकर उक्त तिथि को २ अप्रैल ९८० निश्चित किया, गोविन्द पै ने इस १३ मार्च ९८१ तय किया। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने भी इसी तिथि का समर्थन किया। डॉ. हीरालाल जी ने यह तिथि २३ मार्च. १०२८, शामशास्त्री ने ३ मार्च १०२८, श्री कण्ठशास्त्री ने ९०७—८ ई. और प्रेमीजी ने ९८१ ई. की तिथि सुझाई है। इन सभी तिथियों में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा सर्मिथत तिथि ही आज मान्य है। इसलिए आचार्य नेमिचन्द्र का भी समय यही माना जाना चाहिए। रत्न ने अपना अजितनाथ पुराण शक सं. ९१५ (वि सं. १०३५) में समाप्त किया था। गंग राचमल्ल का समय भी वि. सं. १०३१—१०४१ रहा है। अमितगति ने अपने संस्कृत पंचसंग्रह को वि. स. १०७३ में समाप्त किया जिसमें गोम्मटसार जीवकाण्ड के विषय को आत्मसात किया गया है। अत: नेमिचन्द्र का समय दशमी शताब्दी का उत्तरार्ध होना चाहिए। चामुण्डपुराण में चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर र्मूित की स्थापना का कोई उल्लेख नहीं किया। परन्तु गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इसकी चर्चा हुई है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि गोम्मटेश्वर की रचना के पूर्व र्मूित प्रतिष्ठा हुई है। चामुण्डराय का एक नाम गोम्मट भी था। इसलिए बाहुबली की र्मूित को गोम्मटेश्वर कहा गया। चामुण्डराय गंगनरेश राजमल्ल के प्रधान सचिव और सेनापति थे। नेमिचन्द्र सि. च. इन्हीं चामुण्डराय के गुरु थे।
चामुण्डराय
चामुण्डराय मध्यकाल का एक ऐसा जाज्वल्यमान व्यक्तित्व रहा है जिसमें योद्धा, अध्यात्मवेत्ता, प्रशासन और मनीषी विद्वान् की सारी विशेषताएँ एक साथ समाहित रही हैं। वे मातृभक्त, जिनभक्त और सरस्वती के महान् उपासक थे जिन्होंने श्रवणबेलगोल में भगवान् बाहुबली की ५७ फीट ऊँची भव्य प्रतिमा का निर्माण कराया था। चामुण्डराय ने अपने चामुण्डराय पुराण था त्रिषष्टिलक्षण—महापुराण में स्वयं के बारे में जो कुछ भी सूचना दी है उसके अनुसार उनका जन्म ब्रह्मक्षत्रिय परिवार में हुआ था। वे गंगवंशीय नोणम्ब कुलान्तकदेव (मारिंसह) राजा के महामात्य (महामंत्री) थे (९६४—९७४ ई. स.)। अजितसेन भट्टारक उनके गुरु थे और राचमल्ल (चतुर्थ) उनके उत्तराधिकारी हुए। उसने राजादित्य, गोविन्दरस आदि राजाओं के दांत खट्टे किये और अपने युद्धकौशल से अन्य राजाओं के मन में तीव्र भय पैदा कर दिया था। वज्वलदेव को युद्ध में पराजित कर उसने समरधुरन्धर पदवी प्राप्त की, गोणूर में जगदेकमल्ल से हुए नोलम्ब युद्ध ने उसे वीर मार्तण्ड बनाया, उच्चंगी के किले में राजादित्य के विरुद्ध किये युद्ध से उसे रणरंग िंसग बना दिया। बागेयूर के किले में विभुवनवीर को मारने से उसे वैरिकुल कालदण्ड कहा गया, राज, बास, सिवर, वूâणांक और अन्य योद्धाओं को काम राजा के किले में पराजित करने से भुज विक्रम उपाधि मिली, मुण्डराय या चलदंक गंग और गंगरमट को युद्ध में मारने से उसे समयपरशुराम कहा गया।
इसी तरह प्रतिपक्ष राक्षस, भटमारि आदि और भी अन्य उपाधियाँ उसे दी गई उसके कुशल समर योद्धा होने के उपलक्ष्य में। इसी क्रम में र्धािमक और नैतिक होने के कारण उसे गुणकाव, सम्यक्त्व रत्नाकर, शौचाभरण, सत्य युधिष्ठिर और सुभटचूड़ामणि भी कहा गया। चामुण्डराय को गोम्मट, गोम्मटराय, राय या अण्ण भी कहा जाता था। उनके ही नाम पर भगवान बाहुबली की प्रतिमा को गोम्मटेश्वर कहा जाने लगा। इसके अतिरिक्त चन्द्रगिरि पर ही उन्होंने, स्तंभ, त्यागद ब्रह्मदेव स्तंभ और चामुण्डराय वसदि (मंदिर) का भी निर्माण कराया। यही स्तंभ पर चामुण्डराय की प्रशस्ति भी मिलती है। उनके सुपुत्र जिनदेव ने भी यहाँ एक मन्दिर बनवाया था। चामुण्डराय ने अपने त्रिषष्टिलक्षण महापुराण (शक सं. ९०० ई. ९७८) में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों और लेखकों का उल्लेख किया है।
जैसे—
१. गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वाति जिन्होंने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की (पद्य ३)
२. सिद्धसेनाचार्य जिन्होंने सन्मतितर्वâ प्रकरण लिखा (पद्य ४)
३. समन्तभद्राचार्य जिनका तत्त्वार्थभाष्य या गन्ध हस्तिभाष्य बड़ा प्रसिद्ध ग्रंथ रहा है। ९६ हजार पद्यों में रचित इस ग्रंथ का उल्लेख गुणवर्म के कन्नड पुष्पदन्तपुराण (१.२२) में, हस्तिमल्ल ने विक्रान्तकौरव में।
४. धर्मभूषण ने न्यायदीपिका में और लघु समन्तभद्र ने अष्टसहस्री टिप्पण में गन्धहस्तमहाभाष्य का उल्लेख मिलता है। पर यह ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इस पर मुख्तार सा. ने विस्तार से विचार किया है पुरातन जैन वाक्य सूची में।
५. पूज्यपाद भट्टारक एक प्रसिद्ध दार्शनिक और वैय्याकरणिक।
६. कवि परमेश्वर जिनका त्रिषष्टिशलाका पुरुषपुराण उपलब्ध है (पद्य ८) और चामुण्डराय ने जिसका उपयोग किया है अपने कन्नड पुराण में।
७. वीरसेन भट्टारक और जिनसेनाचार्य। वीरसेन आर्यनन्दि के शिष्य और चन्द्रसेन के शिष्य थे। ये पंचस्तूप्तन्वयी थे जो बाद में सेनान्वय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने ऐलाचार्य से सिद्धान्त का अध्ययन किया। उनके उपलब्ध ग्रन्थ हैं—१) धवलाटीका ७२ हजार श्लोक प्रमाण और जयधवलाटीका, २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखने के बाद उनकी मृत्यु हो गई और फिर जिनसेन ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका और जोड़ी ८१७ ई. में। इन ग्रंथों को सिद्धान्त संज्ञा दी गई। जिनसेन का शिष्य राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष था। जिनसेन के दो ग्रंथ और मिलते हैं—१) पाश्र्वाभ्युदय और महापुराण जिसे गुणभद्र के बाद में पूरा किया (पद्य ११—१३, २५)
८. धर्मसेनाचार्य जो चन्द्रिकावाटवंश के थे (पद्य १४)
९. कुमारसेन (पद्य १६)
१०. नागसेन, वीरसेन और चन्द्रसेन (पद्य १६)
११. आर्यनन्दि या आर्यसेन (पद्य १७)
१२. अजितसेनाचार्य (पद्य १९—२०) चामुण्डराय और उसके पुत्र जिनदेवण के गुरु
१३. कूचि भट्टारक, महापुराण के लेखक (पद्य २४)
१४. श्रीनन्दि
१५. भूतबलि और पुष्पदन्त षट्खण्डागम के लेखक
१६. गुणधर, कसायपाहुड के रचयिता
१७. नागहस्ति, यतिवृषभ और उच्चारणाचार्य
१८. माघनन्दि
१९) श्यामकुंद
२०) तम्बूलूराचार्य
२१) समन्तभद्र
२२) शुभनन्दि, रविनन्दि और वप्पदेव
२३) एलाचार्य
२४) अजितसेन।
गोम्मट
गोम्मट शब्द का प्रयोग श्रवणबेलगोल, कारकल और वेणूर शिलालेखों में तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के पंचसंग्रह या गोम्मटसार में हुआ है। बेलगोल के शिलालेख में बाहुबलि को गोम्मटेश्वर कहा गया है। शिलालेखों में इसे गोम्मटदेव, गोम्मटीशजिन, गोम्मटनाथ आदि जैसे नामों से भी स्मरण किया गया है। चामुण्डराय ने इस र्मूित का निर्माण बेलगोल में कराया। (Eम्. घ्घ् घ्हूrद्ल्म्ूग्दह झ्. १५) चामुण्डराय के लिए नेमचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार की रचना की। चामुण्डराय का संबंध श्रवणबेलगोला की भव्यर्मूित बाहुबलि स्वामी के साथ तो है ही गोम्मटसार के साथ भी रहा है। गोम्मटसार की अंतिम गाथाओं (जीवकाण्ड, गाथा ७३३ और कर्मकाण्ड, गाथा ९६५—७२) में चामुण्डराय के दूसरे नाम गोम्मटराय या गोम्मट का उल्लेख हुआ है। इसी तरह चामुण्डराय का इस अपर नाम गोम्मट का उल्लेख श्रवणबेलगोल के एक शिलालेख (११८० ई.) में भी हुआ है। (२३४) चामुण्डराय का यह नाम गृहस्थावस्था का अर्थात् घरेलू रहा होगा। गोम्मट शब्द का प्रयोग दृष्टान्तपाठ (पद्य १०, १३), ज्ञानेश्वरी (पद्य ३.९८; २४३; ९.३३२), अमृतानुभाव (पद्य ६.११), भास्कर का शिशुपालवध (पद्य ६५२) आदि जैसे मराठी ग्रंथों में बहुत हुआ है। जिसका अर्थ है आकर्षक, सुन्दर। कन्नड में भी इसका प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है (२५, ३४५)घ् तेलगु में ‘गुम्मडु’ शब्द मिलता है जिसका अर्थ है जो स्वयं को सुसज्जित करता है। दक्षिणी कन्नड में गोम्मटदेव, तमिल में कुम्मट्ट है। यह शब्द प्राकृत व्याकरण के धात्वादेश ‘गुम्मड’ में खोजा जा सकता है। वस्तुत: यह दक्षिण भारतीय भाषाओं का शब्द होना चाहिए। हिन्दी में जो गुम्मट शब्द आया है वह र्पािशयन गुम्मद—गुम्मज से आया है। डॉ. उपाध्ये ने भी यही सुझाया है। जे. एल. जैनी ने गोम्मट का अर्थ दिव्यध्वनि किया है अर्थात् गोम्मटसार का तात्पर्य है—भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि का सार। गोम्मटदेव का अर्थ कहीं—कहीं महावीर के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। डॉ. पाई ने गोम्मट को मन्मथ से जोड़ा है जो भाषाविज्ञान की दृष्टि से सही नहीं लगता। आचार्य नेमिचन्द्र सि. च. के सन्दर्भ में हमें पञ्चस्तूपान्वय पर भी विचार कर लेना चाहिए। क्योंकि यह परम्परा उत्तरापथ से लेकर दक्षिणापथ तक प्रचलित रही है। कदाचित् वह मूलसंघ की परम्परा से पूर्ववर्ती हो।
पञ्चस्तूपान्वय
जैन मुनि सम्प्रदाय किसी न किसी संघ, गण, गच्छ, अन्वय आदि से सम्बद्ध रहा है। इन नामों के पीछे क्या इतिहास रहा है यह अभी भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। पर इतना स्पष्ट अवश्य है कि इन संघों और अन्वयों के अनुयायी श्रावक गण हुआ करते थे। धवला टीकाकार वीरसेन स्वयं पञ्चस्तूपान्वयी थे (शक सं. ७३८; ८१६ ई.)। पहाड़पुर (राजस्थान) ताम्रपत्र शिलालेख (४७९ ई. गुप्त सं. १५०) में पञ्चस्तूप निकाय का दो बार उल्लेख हुआ है—वटगोहल्यामवास्याड्रकाशिक पंचस्तूपनिकायिक—निग्र्रन्थ—श्रमणाचार्य—गुहनन्दि शिष्य—प्रशिष्याधिष्ठित—विहारे…..। इस शिलालेख में पंचस्तूपनिकाय के आचार्य गुहनन्दि के शिष्य—प्रशिष्यों के विहार का उल्लेख है जो वाटगोहालि में था। यदि काशिका को काशी मान लिया जाय तो पंचस्तूपान्वय का सम्बन्ध वाराणसी से प्रस्थापित हो सकता है। श्रवणबेलगोल के एक टूटे शिलालेख (Eम्. घ्घ् Nद. ७५) में ‘ममस्तूपान्वय’ का उल्लेख है जो पंचस्तूपान्वय होना चाहिए। इसी तरह वीरसेन ने धवलाटीका (८१६ ई.) में और जिनसेन ने जयधवला (शक सं. ७५९, ८३७ ई.) में इसका उल्लेख किया है। जिनसेन ने वीरसेन को पञ्चस्तूपान्वयी माना है पर गुणभद्र ने महापुराण (उत्तरपुराण, पृ. ७५४—५५) में वीरसेन और जिनसेन को मूलसंघ का सेनान्वयी माना है—
मूलसंघवाराशौ, मणीनामिव सर्चिषाम्।
महापुरुषरत्नानां स्थानं सेनान्वयोऽजनि।।२।।
इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार के अनुसार पुण्ड्रवर्धन के अर्हद्वली ने पञ्चस्तूपनिवास से कुछ मुनियों को आमंत्रित किया जिनके नाम सेनान्त और भद्रान्त थे। इस सन्दर्भ में उन्होंने एक परम्परागत पद्य उद्धृत किया—
इसके अनुसार इन्द्रनन्दि (११वीं शती) ने सेनान्त और भद्रान्त साधुओं को पञ्चस्तूपान्वयी कहा है। पहाडपुर शिलालेख श्रुतावतार के इन उल्लेखों से यही सिद्ध होता है कि यह पंचस्तूपान्वय उत्तर भारत में ४७८ ई. तक बड़ा प्रसिद्ध रहा है। गुहनन्दि उसके प्राचीनतम आचार्य का नाम था। लगभग ७वीं शदी से दक्षिण में उसका अस्तित्त्व मिलने लगा। इस अन्वय के एक साधु वृषभनन्दि ने श्रवणबेलगोल में सल्लेखना पूर्ण मृत्यु वरण की। बाद में ८१६ ई. में वीरसेन ने स्वयं को पंचस्तपान्वयी कहा। उसके गुरु आर्यनन्दि और दादागुरु चन्द्रसेन थे। लगता है, इस अन्वय को वीरसेन के बाद सेनान्वय कहा जाने लगा। गुणभद्र ने जिनसेन और वीरसेन को सेनान्वय के अन्तर्गत रखा है। और फिर गुणनन्दी जैसे नाम भी आ गये। हम जानते हैं वीरसेन और जिनसेन सिद्धान्त मर्मज्ञ थे जिन्होंने धरसेन से सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किया। पर धनसेन के अन्वय का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सेनगण का प्राचीनतम उल्लेख मूलगुण्ड शिलालेख (९०० ई.) में मिलता है। पर पंचस्तूपान्वय के विषय में स्पष्टत: कुछ नहीं कहा जा सकता। अधिक संभव है, यह अन्वय बंगाल में आविर्भूत हुआ और उसने श्रवणबेलगोल तक यात्रा की जिसमें आचार्य तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध भी हुए।
डॉ. उपाध्ये का भी यही मत है। संभव है, पञ्च—परमेष्ठियों के नाम पर पंचस्तूप की परम्परा प्रारम्भ हुई हो और उसी के आधार पर पञ्चस्तूपान्वय की परम्परा अविभूर्त हुई है जिसमें धरसेनादि आचार्य सम्मिलित हुए हैं। बाद में पञ्चस्तूप समाप्त हो गये हों और मथुरा का एक ही विशाल स्तूप शेष रहा हो। फिर भी उत्तरापथ में पञ्चस्तूप किसी तरह चलता रहा और बाद में वह दक्षिण में प्रचलित हो गया। यह भी संभावना हो सकती है कि पञ्चस्तूप परम्परा मूलसंघ की पूर्ववर्ती हो और उसके स्थान पर ही मूलसंघ का प्रवर्तन हुआ है। फिर किसी कारणवश दोनों परम्परायें समवर्ती रूप में प्रचलित बनी रही हों।
गुरु
आचार्य नेमिचन्द्र ने भिन्न—भिन्न स्थानों पर अपने गुरुओं के रूप में अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि का स्मरण किया है। कर्मकाण्ड की गाथा क्र. ४३६, ६४८ और ७८५ में उन्होंने तीनों को नमस्कार किया है। पर त्रिलोकसार की गाथा क्र. १०१८ में उन्होंने अपने को अभयनन्दि का वत्स्य शिष्य माना है। इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि इन तीनों गुरुओं में उन्हें अभयनन्दि से अधिक स्नेह—वात्सल्य मिला है। ये तीनों गुरु श्रुतसमुद्र के पारगामी रहे हैं। इनमें वीरनन्दि चन्दप्रभचरित के कर्ता हो सकते हैं और इन्द्रनन्दि ज्वालामालिनीकल्प (वि. सं. ९९६) के रचयिता के रूप में माने जा सकते हैं। अभयनन्दि इन सभी में वयोवृद्ध रहे होंगे। पं. वैलाशचन्द्र जी ने विस्तर सत्व त्रिभंगी नामक कर्मग्रन्थ के रचयिता के रूप में कनकनन्दि का उल्लेख किया है। इसकी दो प्रतियाँ जैन सिद्धान्त भवन आरा में सुरक्षित हैं। एक में ४८ गाथाएँ हैं और दूसरी ५१। इन गाथाओं को नेमिचन्द्राचार्य ने अपने कर्मकाण्ड में गाथा क्र. ३५८ से ३९७ तक अन्तर्भूत कर लिया है। संभव है कनकनन्दि ने इन गाथाओं की रचना कर्मकाण्ड के लिए की हो। नेमिचन्द्र ने वहाँ उन्हें कनकनन्दि गुरु कहा है। कनकनन्दि के गुरु इन्द्रनन्दि थे और इन्द्रनन्दि के गुरु अभयनन्दि थे। अत: नेमिचन्द्र के ज्येष्ठ सहपाठी के रूप में उनका स्मरण यहाँ किया गया है। हम जानते हैं , श्रुतावतार में इन्द्रनन्दि ने यह सूचना दी है कि वप्पभट्टि ने षट्खण्डागम से महाबन्ध को पृथक् कर दिया था और व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक छठे खण्ड को संक्षिप्त कर उसमें मिला दिया था। वीरसेन ने व्याख्याप्रज्ञप्ति के आधार पर सत्कर्म नामक छठे खण्ड की रचना की और उसे पाँच खण्डों के साथ रखकर पुन: छह खण्ड कर दिये। ये अभयनन्दि वप्पदेव के बाद हुए होंगे और वप्पदेव वीरसेन गुरु एलाचार्य से पूर्व हुए। अभयनन्दि ने पूज्यपाद देवनन्दि के जैनेन्द्र व्याकरण पर महावृत्ति लिखी थी और उनको प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र (९८०—१०३५ ई.) ने अपने ‘शब्दाम्भोज भास्कर’ नामक न्यास ग्रंथ में नमस्कार किया है अत: नेमिचन्द्र के गुरु अभयनन्दि यही हो सकते हैं।
रचनाएँ
आचार्य नेमिचन्द्र की निर्विवाद रचनाएँ हैं—गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार और त्रिलोकसार। बाहुबलिचरित में इन्हीं तीनों का उल्लेख है (पद्य ६३) इसके अतिरिक्त द्रव्यसंग्रह का भी नाम उनकी रचनाओं में सम्मिलित किया जाता रहा है।
(१) गोम्मटसार
गोम्मटसार की रचना आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने शिष्य चामुण्डराय के लिए की थी। इसका मूल आधार षट्खण्डागम की धवला टीका है। गोम्मटसार के दो भाग हैं—जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड। जीवकाण्ड में जीव की प्ररूपणा की गई है और कर्मकाण्ड में कर्म विषयक विचारणा को प्रस्तुत किया गया है। यह वस्तुत: संग्रह ग्रंथ है। आचार्य ने भले ही इसका संकेत नहीं किया हो कि उसका संग्रह किस ग्रंथ से किया गया है। पर षट्खण्डागम का मंथन करने के बाद विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि यह संग्रह धवला टीका से किया गया है। इसके साथ ही पंचसंग्रह का भी उपयोग अच्छी तरह से हुआ है।
जीवकाण्ड
जीवकाण्ड का विषय बीस प्ररूपणाओं से संबद्ध है और कर्मकाण्ड में कर्म का विवेचन किया गया है। सत्प्ररूपणा आचार्य भूतबली की रचना है। यह जीवसमास नामक प्रथम अधिकार है। षट्खण्डागम का जो िंवशति सूत्रों से र्नििमत है। ये बीस सूत्र कौन से हैं इसका पता पंचसंग्रह की दूसरी गाथा से स्पष्ट हो जाता है। तदनुसार गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, और चौदह मार्गणा तथा उपयोग ये बीस प्ररूपणाएँ हैं। इनका विवेचन पंचसंग्रह के जीवसमास नामक प्रथम अधिकार में उपलब्ध है। धवलाटीकाकार ने कदाचित् इस प्राकृत पंचसंग्रह का उपयोग किया होगा। इसमें प्राकृत पंचसंग्रह की लगभग १२५ गाथाएँ समाहित हैं। जीवसमास नामक कोई ग्रंथ उपलब्ध भी नहीं है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अवश्य एक जीवसमास ग्रंथ प्रकाशित हुआ है जो लगभग १२वीं शताब्दी का है। वह जीवसमास पंचसंग्रह के जीवसमास पर आधारित है। जीवसमास की गाथा संख्या ६९ में आर्ष शब्द का प्रयोग हुआ है जो पंचसंग्रह को धवलाटीका से भी पूर्वतर का मानने के लिए बाध्य करता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने जीवसमास और जीवट्ठाण का उपयोगकर जीवकाण्ड की रचना की। जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार और त्रिलोकसार की रचना श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर चामुण्डराय द्वारा निर्मापित जिनालय में इन्द्रनीलमणि नेमीश्वर प्रतिबिम्ब के सान्निध्य में हुई है। उनमें चामुण्डराय का गुणगान किया गया है। जीवकाण्ड की रचना छक्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान के आधार पर हुई है और कर्मकाण्ड तथा पंचसंग्रह में शेष खण्डों के विषय को समाहित किया गया है। जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड की समन्वित संज्ञा ‘पंचसंग्रह’ दी गई है। पर ऐसा लगता है, आचार्य नेमिचन्द्र ने पंचसंग्रह नामक ग्रंथ को स्वतंत्र रूप से तैयार किया था जिसे हमने यहाँ सम्मिलित किया है। जीवकाण्ड में ७३४ गाथाएँ हैं। इसमें जीवस्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्ध स्वामित्व, वेदना खण्ड और वर्गणाखण्ड, इन पाँच विषयों का वर्णन उपयोग इन बीस प्ररूपणाओं में जीव की विविध अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। संभव है पंचसंग्रह की रचना गोम्मटसार के पूर्व हुई है और फिर उसके आधार पर जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड का संग्रह किया गया है। जीवकाण्ड का संग्रह पंचसंग्रह के जीवसमास अधिकार तथा षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवट्ठाण के सत्प्ररूपणा नामक अधिकारों से किया गया है। जीवकाण्ड में पंचसंग्रह की अपेक्षा विस्तार अधिक हुआ है। इसमें गणित विषय अधिक है।
गोम्मटसार की टीकाएँ
गोम्मटसार पर अभी तक ढूंढारी टीका सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका के अतिरिक्त दो महत्त्वपूर्ण संस्कृत टीकाएँ प्राप्त हुई हैं—१) अभयचन्द्र की मंदप्रबोधिका और २) केशव वर्णी की जीवतत्त्वप्रदीपिका। ये दोनों टीकाएँ कोलकाता से गोम्मटसार के साथ प्रकाशित हुई हैं । उसी में पण्डित टोडरमल की सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भी छपी हुई हैं मण्डप्रबोधितका टीका जीवकाण्ड की ३८३ गाथा तक ही उपलब्ध होती है मुद्रण रूप में। जीवत्त्वप्रदीपिका एक विस्तृत टीका है जिस के ही आधार पर उत्तरकाल में टीकाएँ लिखी गर्इं। जीवतत्त्व प्रदीपिकाकार ने मंदप्रबोधिका का भी आधर लिया है ३८३ गाथाओं तक और बाद में कर्णाटवृत्ति को सामने रखकर अपनी टीका पूरी की है—श्रीमदअभसचन्द्रसैद्धान्त—चक्रर्वितविहित—व्याख्यानं विश्रान्तमिति कर्णाटवृत्यनुरूपमयमनुवदति (पृ. ७६०, ६६०)। इस जीवतत्त्वप्रदीपिका के लेखक हैं केशववर्णी। इसे लगभग सभी विद्वान स्वीकार करते हैं । इस विचार के पीछे निम्नलिख्तिा कारिका का आधार है—
जीवतत्त्व प्रबोधिका टीका वस्तुत: केशववर्णी कृत नहीं है, उसके रचयिता नेमिचन्द्र हैं ऐसा डॉ. उपाध्ये का मत रहा है । उनका कहना है कि यह भ्रम टोडरमल जी द्वारा लिखित अपनी ढूंढारी टीका के अन्तिम पद्य से हुआ है—
केशववर्णी भव्यविचार कर्णाटटीका अनुसार।
संस्कृत टीका कीनी यहु नो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु।।
यह पद्य जीवतत्त्व प्रदीपिका के अंतिम पद्य का ही अनुवाद है । वह जिस कर्णाटक वृत्ति पर आधारित रही है वह चामुण्डराय विरचित टीका थी जो आज उपलब्ध नहीं है । उस टीका का नाम था वीरमार्तण्डी। आचार्य नेमिचन्द्र ने भी चामुण्डराय को मार्तण्ड कहा है । इस संस्कृत टीका के रचयिता वस्तुत: नेमिचन्द्र हैं । उन्होंने केशववर्णीकृत कर्णाटकवृत्ति का आधार लेकर यह टीका लिखी थी । केशवर्णीकृत टीका का नाम भी जीवतत्त्वप्रदीपिका था ।
अभयचन्द्र ने अपनी टीका के मंगल श्लोक में यह लिखा है—
यहाँ ‘कृताम्’ के स्थान पर ‘कृति:’ शब्द टोडरमलजी को मिला जिसके कारण यह भूल हो गई। जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका संस्कृत कन्नड़ मिश्रित टीका है जो केशववर्णीकृत है और उसी पर आधारित संस्कृत टीका नेमिचन्द्र की है जिसमें गणितादि प्रक्रिया और जोड़ दी गई है, नवीन कुछ भी नहीं है । यही टीका अधिक प्रचलित है । प्राकृत शोध संस्थान श्रवणबेलगोल में कर्णाटकवृत्ति पर काम हो रहा है । प्रकाश में आने पर स्थिति और भी स्पष्ट हो जायेगी। डॉ. उपाध्ये ने जीवकाण्ड के ही पृ. २०९२—८ उद्धृतकर यह सिद्ध किया कि जीवतत्त्वप्रदीपिका के लेखक आचार्य नेमिचन्द्र थे । वे मूलसंघ, शारदागच्छ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्दन्वय और नन्दि आम्नाय के थे । ज्ञानभूषण भट््टारक के शिष्य थे । प्रभाचन्द्र भट्टारक ने उन्हें आचार्यपद दिया था । कर्णाटक के राजा मल्लिभूपाल की प्रेरणा से उन्होंने वैदिक विद्वान् परमेश्वर मुनिचन्द्र से जैन सिद्धान्त का अध्ययन किया । लाला वर्णी की प्रेरणा से वे गुजरात से चित्रवूâट आये जहाँ जिनदास शाह द्वारा निर्मित पाश्र्वनाथ मंदिर में रुके। वहाँ धर्मचन्द्र, अभयचन्द्र और अन्य र्धािमक लोगों के लाभ की दृष्टि से खण्डेलवाल परिवार के शाह संग और शाह सहेस के निवेदन पर उन्होंने संस्कृत टीका जीवतत्त्वप्रदीपिका त्रैविद्यविद्य विशालर्कीित की सहायता से और कर्णाटक वृत्ति का आधार लेकर यह टीका लिखी। इस टीका की पहली प्रतिलिपि अभचन्द्र ने की जिन्हें निर्ग्रन्थाचार्य और त्रैविद्य चक्रवर्तिन कहा गया। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आचार्य नेमिचन्द्र का नाम गद्य प्रशस्ति में स्पष्ट रूप से दिया है—नेमिचन्द्रेणाल्पमेधसा……..यथा कर्णाटवृत्ति व्यरचि। इतना ही नहीं, गोम्मटसार की इस टीका के अन्त में भी यह लिखा मिलता है—
इत्याचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचितायां गोम्मटसारापरनाम पंचसंग्रहवृत्तो जीवतत्त्वप्रदीपिकायां…।
जीवतत्त्वप्रदीपिका के लेखक नेमिचन्द्र और नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती दोनों अलग—अलग हैं । अत: यह स्थापित किया जा सकता है कि जीवतत्त्वप्रदीपिका के लेखक केशववर्णी नहीं, नेमिचन्द्र है जो सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्र से भिन्न है ।। नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार की रचना की थी । केशववर्णी अभयसूरि सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे । उन्होंने धर्मभूषण भट्टारक की प्रेरणा से कर्णाटवृत्ति सं. १२८१ (१३५९ ई. स.) में लिखी थी । डॉ. उपाध्ये ने लक्ष्मीसेन भट्टारक मठ, कोल्हापुर में इसकी पाण्डुलिपि देखी और उसका अध्ययनकर यह स्पष्ट किया कि इस कन्नडवृत्ति का भी नाम जीवतत्त्वप्रदीपिका है । यह प्रदीपिका संस्कृत जीवत्त्वप्रदीपिका से बड़ी है । कन्नड वृत्तों से यह प्रारम्भ होती है और बीच—बीच में संस्कृत भी है । मणिप्रवालशैली में है । अभयचन्द्र की मंदप्रबोधिका से भी केशववर्णी ने अपनी वृत्ति को मण्डित किया है । संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका कर्णाटक वृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पर पूर्णत: आधारित है । नेमिचन्द्र ने कन्नड में लिखे भाग को संस्कृत में परिवर्तित कर दिया। इसलिए उनका यह लिखना सही है—यथा कर्णाटवृत्ति व्यरचि या कर्णाअवृत्तित:। इन दोनों वृत्तियों में मंदप्रबोधिका प्राचीनतर है । अभयचन्द्र ने इस वृत्ति में बालचन्द्र पण्डितदेव का उल्लेख किया है । श्रवणबेलगोल शिलालेख (Eम्. घ्घ्. Nद. ६५) में उनका उल्लेख बोलुन्दु पण्डित नाम से हुआ है ।
यह शिलालेख १३१३ ई. का है । अभयचन्द्र की मृत्यु १२७९ ई. में हुई बेलूर शिलालेख (Eम्. न्न्दत्. ५ Nद. १३१-१३३) के अनुसार । टोडरमल ने संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका के आधार पर अपनी हिन्दी टीका १७८१ ई. में समाप्त की । नेमिचन्द्र ने कर्णाटक राजा मल्लिभूपाल का उल्लेख किया जिसे जैनोत्तम कहा गया। इस राजा का नाम इतिहास में कही दिखाई नहीं देता। संभव है, किसी छोटी स्टेट का राजा रहा हो। एकमल्लि राजा का उल्लेख विजयर्कीित और विद्यानन्द आचार्यों के सन्दर्भ में अवश्य मिलता है । जिसने इन आचार्यों का सम्मान दिया था जो कर्नाटक के एक जिले का छोटा भूपाल सालुव मल्लिराय था जो कर्नाटक के एक जिले का छोटा सा राजा था । ई. सन् १५३० का एक रिकार्ड मिलता है जिसके आधार पर उसे १९वीं शती के प्रथमचरण में रख सकते हैं । अन्त में डॉ. उपाध्ये के मन्तव्य को संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि केशववर्णी संस्कृत टीका जीवतत्वप्रदीपिका के कर्ता नहीं थे । यह टीका चामुण्डराय की कर्णाटक वृत्ति पर भी आधारित नहीं रही। इसके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से पृथक् नेमिचन्द्र थे जो केशवर्णी द्वारा रचित कन्नड जीवतत्व प्रदीपिका के ऋणी थे (१३५९ ई.)। नेमिचन्द्र सालुव मल्लिराय के समकालीन थे अत:उन्हें १६ वीं शती में रखा जा सकता है । मन्दप्रबोधिका टीका के सन्दर्भ में पं. कैलाशचन्द्र जी ने सारी टीकाओं का मिलानकर यह स्पष्ट कर दिया कि केशववर्णी के सामने कर्णाटकवृत्ति लिखते समय मन्दप्रबोधिका वृत्ति विद्यमान थी । उन्होंने कर्णाटकवृत्ति में उसके रचयिता अभयचन्द्र चक्रवर्ती का निर्देश किया है ।
डॉ. उपाध्ये ने भी उद्धरण देकर सिद्ध किया है—
देसविरदे पमत्ते इदरे य खओव समिय भावो दु ।
सो खलु चरित्तमोहं पडुच्च भणियं तहा उवरिं।।१३।।
गाथा ३८३ के अन्त में जीवतत्त्वप्रदीपिका देकर मन्द प्रबोधिका के सामने यह वाक्य दिया गया है—
केशववर्णी ने अपनी टीका में गोम्मटसार के हर कथन को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । उनके गुरु अभयसिद्धान्तचक्रवर्ती थे । यह टीका बड़ी वैदुष्यपूर्ण है । मन्दप्रबोधिका टीका के रचयिता अभयचन्द्र ने अपने सखा बालचन्द्र का उल्लेख किया है । जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोला के शिलालेख (सन् १३१३) में हुआ है । उनकी प्रशंसा बेलूर शिलालेख में भी हुई है । कैलाशचन्द्र जी ने अभयचंद्र का स्वर्गवास सन् १३७९ में तथा बालचंद्र का स्वर्गवास सन् १२०४ में बताया और इस तरह मन्दप्रबोधिका टीका का समय १३वीं शताब्दी का तीसरा चरण स्थापित किया । केशववर्णी ने अपनी वृत्ति धर्मभूषण भट्टारक के अनुसार शक सं. १२८१ (सन् १३५९) में समाप्त की । संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका केशववर्णी की कर्णाटक वृत्ति का ही संस्कृत रूपान्तरण है । इस संस्कृत टीका के रचयिता नेमिचन्द्र है । जिन्हें अभयचन्द्र ने ‘नमिचन्द्रं जिनं नत्वा’ कहकर स्मरण किया है । वे मूलसंघ, शारदागच्छ, बलात्कारकण, कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि आम्नाय के थे ।
उनके गुरु का नाम भट्टारक ज्ञानभूषण था । उन्हें मल्लि भूपाल का सहयोग रहा है । भगवान प्रभाचन्द्र ने उन्हें भट्टारक पद दिया था । विशालर्कीित का भी सहयोग इस वृत्ति के लिखने में उन्हें मिला था । यह रचना उन्होंने चित्रवूâट के पाश्र्वनाथ जिनालय में रहकर कर्णाटवृत्ति से की । यह पद्यात्मक प्रशस्ति का सार है । गद्यात्मक प्रशस्ति में नेमिचन्द्र ने अपना नाम दिया पर रचनाकाल का संकेत नहीं किया । प्रशस्ति में उल्लिखित मल्ल भूपाल का समय १६वीं शताब्दी है । डॉ. उपाध्ये ने यह सिद्ध किया है । सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका के रचयिता पं. टोडरमलजी हैं जिसे उन्होंने सं. १८१८ में समाप्त किया । यह टीका गोम्मटसार, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार और क्षपणासार पर है । संस्कृत टीका के आधार पर उन्होंने यह टीका लिखी है । संदृष्टियों की दृष्टि से यह टीका बड़ी उपयोगी है । वे बहुश्रुत और गंभीर विद्वान् थे । मोक्षमार्ग प्रकाशक उनकी अद्वितीय कृति है ही। पं. राजमल की प्रेरणा से यह टीका लिखी गई थी । गोम्मटसार पर एक उनकी भाषा पीठिका भी उपलब्ध है ।
गोम्मटसार एक संग्रह ग्रंथ है
आचार्य नेमिचन्द्र के समय तक धवला और जयधवला जैसे सिद्धान्त ग्रंथों का पठन—पाठन लोकप्रिय हो चुका था। ये सिद्धान्तग्रंथ अगाध, गम्भीर और वृहदाकार थे। नेमिचन्द्र स्वयं सिद्धान्त ग्रंथों के मर्मज्ञ थे। उन्होंने इन ग्रंथों का संक्षिप्त रूपान्तरण आवश्यक समझा और उसका संग्रह कर उन्हें और भी लोकप्रिय बना दिया। गोम्मटसंगहसुत्त—कर्मकाण्ड, गाथा ९८५, ९६८। इसके पीछे उनके विद्वान् शिष्य चामुण्डराय की जिज्ञासा थी। उन्हें गोम्मट कहा जाता था। सो राओ गोम्मटो जयउ (कर्मकाण्ड, गा. ९७१)। उन्होंने इस सन्दर्भ में तीन गोम्मटों को जयवन्त कहा है—
१) गोम्मटसंग्रहसूत्र,
२) गोम्मट शिखर पर स्थित गोम्मट जिन, और
३) गोम्मटराज के द्वारा र्नििमत दक्षिण कुक्कुट जिन अर्थात् भ. बाहुबली की उत्तुंग प्रतिमा (कर्मकाण्ड, गा. ९६८)।
इनमें जीवतत्त्वप्रदीपिका के अनुसार प्रथम का सम्बन्ध गोम्मटसार से है, द्वितीय का सम्बन्ध चामुण्डराय द्वारा र्नििमत प्रासाद में स्थित नेमीश्वर की इन्द्रनीलमणि की एक हाथ प्रमाण प्रतिमा जो चन्द्रगिरि पर चामुण्डरायवसति में अवस्थित थी। आज वह अनुपलब्ध है। तीसरे का सम्बन्ध उत्तर में भरत द्वारा निर्मित भ. बाहुबली की प्रतिमा जो कुक्कुटों से व्याप्त हो जाने के कारण कुक्कुट जिन कहलाती थी, दक्षिण में दक्षिण कुक्कुट जिन नाम से वैसी प्रतिमा विनध्यगिरि पर बनवायी गई। यह गाथा इस प्रकार है—
गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटिंसहरूवरि गोम्मटजिणोय।
गोम्मटविणिम्मियदक्खिण कुक्कुटजिणो जयउ।।कर्म. ९६८
गोम्मटसार की मन्दप्रबोधिनी टीका में गोम्मटसार को ‘पंचसंग्रह’ अभिधान दिया गया है—गोम्मटसारनामधेय—पंचसंग्रह शास्त्रं प्रारम्भमाण:, म. प्र. टी. पृ. ३। जीवतत्त्व प्रदीपिका टीकाकार (पृ. २) का भी यही मत है—गोम्मटसार पञ्चसंग्रह प्रपंचमारचयन्। आचार्य नेमिचन्द्र ने कहीं भी अपने ग्रंथ गोम्मटसार को ‘पंचसंग्रह’ नहीं कहा। टीकाकारों ने जो यह नाम दिया है वह कदाचित् अमितगति के पंचसंग्रह को ध्यान में रखकर दिया होगा। अमितगति ने दि. प्राकृत पंचसंग्रह के आधार पर संस्कृत पंचसंग्रह की रचना की। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। उनके समय तक धवला, जयधवला आदि सिद्धान्त ग्रंथों का पठन—पाठन काफी लोकप्रिय हो चुका था। आचार्य नेमिचन्द्र ने उस ग्रंथों का आधार लेकर गोम्मटसार जैसे ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों को उन्होंने स्वयं अपनी प्रशस्ति में उपर्युक्त रूप से इसे संग्रह ग्रंथ माना है। गोम्मटसार के टीकाकारों ने इस ‘पंचसंग्रह’ की भी संज्ञा दी है—
२) गोम्मटसार पंचसंग्रह प्रपंचमारचयन् (जीव. केशव टी. वर्णी पृ. २)। मन्दप्रबोधिनी टीकाकार ने इसे जीवस्थान खण्ड में संग्रहीत माना और केशववर्णी ने उसे छहों खण्डों से संग्रहीत कहा। परन्तु इनमें बन्धक, बन्धयमान, बन्ध के स्वामी बन्ध के कारण और बन्ध के भेद इन पाँच तत्त्वों पर विचार किया गया है। आचार्य नेमिचन्द्र ने कहीं भी अपने ग्रंथ गोम्मटसार को ‘पंचसंग्रह’ का अभिधान नहीं दिया। टीकाकारों ने जो यह नाम दिया है वह कदाचित् अमितगति के पंचसंग्रह को ध्यान में रखकर दिया होगा। उपलब्ध प्राकृत पंचसंग्रह आचार्य नेमिचन्द्र की स्वतंत्र कृति होनी चाहिए जिसका विषय गोम्मटसार से मिलता जुलता है। इसमें कर्मस्तव, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, जीवसमास, शतक और सत्तरी ये पाँच प्रकरण हैं। इन प्रकरणों को ४४५ गाथाओं में व्यवस्थित किया गया है। जिस पर ८६४ भाष्य गाथाएँ भी रची गई हैं। इसमें कुश अंश प्राकृत गद्य में भी है। इसमें ९६३ गाथाएँ हैं जो पाँच द्वारों में विभक्त हैं—ग्रन्थशतक, सप्तति, कसायपाहुड़ षटकर्म और कर्मप्रकृति। संभवत: इसी प्राकृत पंचसंग्रह को देखकर आचार्य नेमिचन्द्र ने अपना पंचसंग्रह ग्रंथ तैयार किया हो। इसी पंचसंग्रह के आधार पर अमितगति ने संस्कृत पंचसंग्रह की रचना की। आचार्य नेमिचन्द्र के ग्रंथ भले ही संग्रह ग्रंथ कहे जायें पर उनके वैशिष्ट्य पर विचार करने के बाद ऐसा लगता है कि उन्हें स्वतंत्र ग्रंथों की श्रेणी दी जानी चाहिए। यह तथ्य इन ग्रंथों के वैशिष्ट्य देखने से समझ में आ सकता है। श्री पं. वैâलाशचन्द्र शास्त्री और बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने षट्खण्डागम, धवला, जयधवला, मूलाचार, तत्त्वार्थर्काितक, गोम्मटसार, प्राकृत पंचसंग्रह आदि ग्रंथों का विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन किया है। उन्होंने इसी प्रसंग में कर्मकाण्ड की विशेषताओं का भी उल्लेख किया है। इन विशेषताओं को हम संक्षेप में इस प्रकार देख सकते हैं।
सत्प्ररूपणा और जीवकाण्ड
सत्प्ररूपणा में पहले मार्गणाओं का विवेचन है, बाद में गुणस्थानों का। पंचसंग्रह के जीवसमास में पहले गुणस्थानों को लिया है बाद में मार्गणाओं को। गोम्मटसार में भी पंचसंग्रह का ही क्रम रखा गया है। सत्प्ररूपणा की धवला टीका में बहुत सी गाथाएँ पंचसंग्रह के जीवसमास नामक अधिकार से ली गई हैं। जीवकाण्ड का संकलन पंचसंग्रह के जीवसमास नामक अधिकार और षट्खण्डागम के जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणा और द्रव्यप्रमाणानुगम अधिकारों की धवला टीका के आधार पर हुआ है। उसी का विस्तार गोम्मटसार में किया गया है। जीवसमास की २१९ गाथाओं में समाहित विषय को नेमिचन्द्राचार्य ने ७३४ गाथाओं में पूरा किया है। उन्होंने संक्षिप्त जीवसमास और षट्खण्डागम के विस्तृत जीवट्ठाण के विषय को मध्यममार्ग अपनाकर गोम्मटसार के वैशिष्ट्य को प्रस्तुत किया है। सिद्धान्त ग्रंथों में दो शैलियाँ प्रचलित रहीं—ओघ (संक्षेप) और आदेश (विस्तार)। गुणस्थानों के वर्णन में ओघ का उपयोग हुआ है और मार्गणाओं में आदेश पद्धति का प्रयोग हुआ है।
१. प्रथम गुणस्थान के वर्णन में जीवसमास ने तीन गाथाएँ ली हैं जबकि जीवकाण्ड में इस विषय को ११ गाथाओं में गूँथा गया है।
२. जीवसमास में ३१ गाथाओं तक चौदह गुणस्थानों का कथन है जो जीवकाण्ड में ६९ गाथा पर्यन्त है।
३. जीवसमास में ११ गाथाओं में जीवसमास का वर्णन मिलता है जबकि जीवकाण्ड में यह प्रकरण ४२ गाथाओं में पूरा हुआ है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी एक जीवसमास नामक ग्रंथ प्रकाशित हुआ है जिसका लेखक आज भी अज्ञात है। उसकी विवेचन पद्धति से ऐसा लगता है कि यह ग्रंथ धवला टीकाकार का ऋणी है। उसे प्राचीन प्राकृत संग्रह तथा धवला के विषय का आधार लेकर संकलित कर दिया गया। आचार्य नेमिचन्द्र के जीवकाण्ड—कर्मकाण्ड का भी प्रभाव उस पर दिखाई देता है। जीवसमास शब्द का प्रयोग गुणस्थान के लिए प्रथमतर रहा होगा। आगे दोनों शब्दों का प्रयोग बना रहा है। नेमिचन्द्राचार्य ने भी जीवकाण्ड गाथा ९—१० में जीवसमास शब्द का प्रयोग किया है। इसलिए जीवसमास को गुणस्थान के विकासगत अध्ययन का आधार नहीं बनाया जा सकता है।
गोम्म्टसार कर्मकाण्ड
कर्मकाण्ड में ९ अधिकार हैं और ९७२ गाथाएँ हैं। ९ अधिकार इस प्रकार हैं—
१) प्रकृतिसमुत्कीर्तन,
२) बन्धोदय सत्त्व,
३) सत्त्वस्थानभंग,
४) त्रिचूलिका,
५) स्थान समुत्कीर्तन,
६) प्रत्यय,
७) भावचूलिका,
८) त्रिकरण चूलिका और
९) कर्मस्थिति रचना।
इस ग्रंथ में जैन दर्शन के अनुसार षट्खण्डागम के आधार पर कर्म का विवेचन किया गया है। इसके विषय को हम षट्खण्डागम और महाबन्ध की प्रस्थावना में दे चुके हैं। भवचक्र की प्रक्रिया कर्मबन्ध के कारण होती है। सांसारिक विषमता का मूल कारण भी कर्म ही है। लगभग सभी दर्शनों ने कर्मवाद के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। कर्म के अस्तित्त्व की मान्यता के साथ आत्मा के अस्तित्त्व की स्वीकृति भी जुड़ी हुई है। अनात्मवादी बौद्ध भी उसे अस्वीकार नहीं कर सके। सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि दर्शन तो उसे स्वीकार करते ही हैं। नैयायिक—वैशेषिक कर्म संस्कार को धर्म—अधर्म कहते हैं, योग उसे कर्माशय की संज्ञा देते हैं और बौद्ध कर्म के साथ ही अनुशय शब्द का प्रयोग करते हैं। जैनदर्शन में कर्म दो प्रकार के होते हैं—द्रव्यकर्म और भावकर्म। भावकर्म एक प्रकार के संस्कार हैं और द्रव्यकर्म को योग—न्याय दर्शन की वृत्ति और प्रवृत्ति के साथ बैठा सकते हैं। जैन दर्शन में कर्म मात्र संस्कार ही नहीं हैं, वे हमारे रोग—द्बेष की प्रवृत्ति से आकृष्ट होकर द्रव्य आत्मा के साथ बंध जाते हैं और समय पाकर शुभ—अशुभ फल देते हैं। इसमें जीव की मन—वचन—काय की प्रवृत्ति मूल कारण बनती है। इसे जीव की क्रिया के साथ पौदग्लिक कर्मबन्ध कहा जाता है। इसे अनादि माना जाता है जिसे रत्नत्रय के पालन करने से समाप्त किया जा सकता है। उसी को निर्वाण या मोक्ष कहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग की समाप्ति ही भवचक्र की समाप्ति है। इसी का विस्तृत विवेचन यहाँ कर्मकाण्ड में किया गया है।
पंचसंग्रह—
सर्वप्रथम हम पंचसंग्रह पर विचार कर लें। पंचसंग्रह नाम से चार ग्रंथ उपलब्ध होते हैं—दो प्राकृत में और दो संस्कृत में। प्राकृत में एक दिगम्बर परम्परा का है और एक श्वेताम्बर परम्परा का। संस्कृत में दोनों दिगम्बर परम्परा के हैं—एक लक्ष्मणसुत प्राकृत पंचसंग्रह और दूसरा अमितगतिकृत पंचसंग्रह। इसमें बाधक, बन्धयमान बन्ध के स्वामी, बन्धक कारण और बन्ध के भेद इन पाँच तत्त्वों पर विचार किया गया है। दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह आचार्य नेमिचन्द्र की स्वतंत्र कृति होनी चाहिए। जिसका विषय गोम्मटसार से मिलता—जुलता है। इसमें कर्मस्तव, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, जीवसमास, शतक और सत्तरी ये पाँच प्रकरण हैं। इन प्रकरणों के ४४५ गाथाओं में व्यवस्थित किया गया है जिस पर ८६४ भाष्य गाथाएँ रची गई हैं। इसमें कुछ अंश प्राकृत गद्य में भी है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्राकृत पंचसंग्रह चन्र्दिष महत्तर द्वारा रचित है। इसकी रचना लगभग दशवीं शती की है।
इसमें ९६३ गाथाएँ हैं जो पाँच द्वारों में विभक्त हैं—ग्रंथशतक, सप्तति, कसायपाहुड, षट्कर्म और कर्मप्रकृति। पंचसंग्रहकार की इस पर स्वोपज्ञ संस्कृत वृत्ति भी है तथा आचार्य मलयगिरि कृत संस्कृत टीका है। यह भी कर्मप्रकृति की तरह प्राकृत गाथाबद्ध है। इसमें पाँच अधिकार भी हैं—योगोपयोग विषय मार्गणा, बंधक, बंधव्य, बंधहेतु और बंधविधि। दिगम्बर प्राकृतसंग्रह को प्रकाश में लाने का श्रेय पं. परमानन्द जी को जाता है। ‘अतिप्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह’ शीर्षक से उनका लेख अनेकान्त वर्ष ३ कि. ३ में प्रकाशित हुआ था। बाद में पं. हीरालाल द्वारा संपादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ से सन् १९६० में प्रकाशित हो चुका है। इस पंचसंग्रह के अन्त में ‘इति पंचसंगहो समत्तो’ लिखा मिलता है। इसके अतिरिक्त ग्रंथकार आदि के विषय में कुछ भी नहीं मिलता।
पं. आशाधरजी ने भगवती आराधना की टीका मूलाराधना दर्पण की २१२४ वीं गाथा टीका में ‘तदुक्तं पंचसंग्रहे’ लिखकर छ: गाथाएँ उद्घृत की हैं। इससे इतना तो स्पष्ट है कि तेरहवीं शती में यह ग्रंथ प्राकृत पंचसंग्रह के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था। पर उसके रचनाकार के विषय में आशाधर जी भी मौन रहे। पं. वैलाशचन्द्र जी और बालचन्द्र जी ने उसका समय लगभग छठी शती निश्चित कर यह विचार व्यक्ति किया है कि आचार्य नेमिचन्द्र जी उसके रचनाकार नहीं है। उनके अनुसार धवलाटीका में वीरसेन ने पंचसंग्रह की गाथाओं की उद्घृत किया है। वीरसेन ने धवला टीका की समाप्ति वि. सं. ८३८ (शक. सं. ७०३) में की और जयधवला टीका वि. सं.८९४ (शक सं. ७५९) में समाप्त हुई। अत: पंचसंग्रह लगभग छठी शती की रचना होनी चाहिए।
उन्होंने प्रबल प्रमाणों के साथ यह समय निश्चित किया है। पर इसकी संभावना अभी भी निरस्त नहीं की जा सकती है कि जिस तरह आचार्य नेमिचन्द्र ने धवला, जयधवला आदि का आधार लेकर गोम्मटसार ग्रंथ लिखा उसी तरह प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह के आधार पर उसी का संक्षिप्त संस्करण तैयार किया हो जिसे उत्तरवर्ती ग्रंथकरों ने विशेषत: आशाधरजी ने उद्घृत किया हो। आचार्य अकलंक, वीरसेन आदि के ग्रंथों में जिस पंचसंग्रह की गाथाएँ उद्घृत हैं वह प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह रहा होगा। आचार्य नेमिचन्द्र के संग्रह का ‘पंचसंग्रह’ और प्राचीन संग्रह को प्राकृत पंचसंग्रह नाम देकर बाद में विभेदक रेखा खींच दी गई हो। यदि यह संभावना सही हो तो या तो आचार्य नेमिचन्द्र के पंच संग्रह की खोज होनी चाहिए। या फिर प्रस्तुत प्राकृत पंचसंग्रह को आचार्य नेमिचन्द्र सि. च. का संग्रह को ग्रंथ मान लिया जाना चाहिए। मुझे ऐसा लगता है कि प्रस्तुत प्राकृत संग्रह के संग्रहकार आचार्य नेमिचन्द्र रहे हैं। प्राचीन प्राकृत संग्रह ग्रंथ को उन्होंने पूरी तरह से इसमें आत्मसात कर लिया और इसी कारण वह आज अनुपलब्ध हो गया। धवलाकार ने जिस प्राकृत संग्रह को उल्लेख किया है वह प्राचीन प्राकृतसंग्रह रहा होगा जो आज उपलब्ध नहीं होता।
जीवकाण्ड और पंचसंग्रह
(१) जीवकाण्ड में बीस प्ररूपणाओं का कथन किया गया है—गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा १४ मार्गणाएं और उपयोग। इन्हीं प्ररूपणाओं का वर्णन पंचसंग्रह के जीवसमास नामक अधिकार में मिलता है। जीवसमास की अधिकांश गाथाएँ जीवकाण्ड में यथावत् मिल जाती है। सत्प्ररूपणा में इन बीस प्ररूपणाओं का ऐसा कथन नहीं मिलता।
(२) जीवकाण्ड का संकलन षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवट्ठाण के सत्प्ररुपणा और द्रव्य परिमाणानुगम नामक अधिकारों की धवलाटीका के आधार पर किया गया है। (३) लगता है, जीवकाण्ड पंचसंग्रह का संक्षिप्तीकरण है। पंचसंग्रह के ही विषय को जीवकाण्ड में विस्तार दिया गया है। इस विस्तार को हम गाथाओं की संख्या के आधार पर इस प्रकार देख सकते हैं— विषय जीवकाण्डगत गाथाएँ पंचसंग्रहगत गाथाएँ (१) गुणस्थान ६८ ३० (२) जीवसमास ४८ ११ (३) पर्याप्ति ११ २
(४) प्राण ५ ६
(५) संज्ञा ५ (स्वामीकथन विशेष ५
(६) मार्गणा जीवों की संख्या का कथन यहाँ नहीं है
(७) इन्द्रियमार्गणा इन्द्रिय विषय का विस्तार यहाँ नहीं है
(८) कायमार्गणा त्रसों का वासस्थान, जीवों यहाँ नहीं है से अप्रतिष्ठत शरीर,स्थावर जीवों के शरीर का आकार
(९) कषाय मार्गणा कषायों का भेद—प्रभेद यहाँ नहीं है
(१०) ज्ञान मार्गणा श्रुतज्ञान के वीसभेद, १० गाथाएँ अवधिज्ञान के भेद १६६ गाथाएँ
(११) लेश्या मार्गणा विस्तृत विवरण यहाँ नहीं है
(१२) समयक्त्व मार्गणा सम्यक्त्व के भेद छह द्रव्य, यहाँ नहीं है
नव पदार्थ वर्णन
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है अमितगति ने अपने संस्कृत पंच संग्रह को लिखते समय प्राकृत पंचसंग्रह तथा गोम्मटसार को गहराई से देखा था और उसका यथावश्यक उपयोग भी किया था। उन्होंने ३६३ मिथ्यामतों का संकलन कर्मकाण्ड से लिया। प्रा. पंचसंग्रह में यह है ही नहीं। जीवकाण्ड के कषाय मार्गणा में पंचसंग्रह की अपेक्षा अधिक विस्तार दिया गया है विषय को। इससे इतना तो स्पष्ट है कि अमितगति का संस्कृत पंचसंग्रह गोम्मटसार और प्राकृत पंचसंग्रह को सामने रखकर संकलित किया गया है। इसी तरह धवला में भी पंचसंग्रह की बहुत—सी गाथाएँ उद्घृत हुई हैं। जीवसमास नामक प्रकरण से धवला में ‘जीवसमा ए पि उत्तं’ कहकर धवलाकार ने पंचसंग्रह का स्वयं उल्लेख भी कर दिया है। पंचसंग्रह में प्रथम प्रकरण जीवसमास है और षड्खण्डागम के प्रथम खण्ड का नाम ‘जीवस्थान’ है। दोनों का अर्थ लगभग समान है जो जीवों की विविध जातियों के परिज्ञान से संबद्ध है। यह परिज्ञान सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के माध्यम से कराया गया है। दोनों में प्राचीन गाथाएं समान रूप से उद्घृत हुई हैं। प्राकृत पंचसंग्रह की चौथी गाथा के बाद के गद्य भाग में मूल प्रकृतियों के विवरण पर षड्खण्डागम के जीवस्थान की द्वितीय चूलिका का प्रभाव दिखाई देता है। दोनों ग्रंथों में इस प्रकरण को प्रकृतिसमुत्कीर्तन कहा गया है। षड्खण्डागम की धवलाटीका से प्राचीन गाथाओं की एक लम्बी संख्या पंचसंग्रह के जीवसमास नामक अधिकार में उपलब्ध होती हैं।
लब्धिसार—क्षपणसार
इसमें ६४३ गाथाएँ हैं। लब्धिसार—क्षपणसार गोम्मटसार का ही उत्तरभाग है। लब्धिसार में कर्मबन्धन से मुक्त होने का उपाय बताया गया है। और यह उपाय है सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की पृष्ठभूमि में पाँच लब्धियाँ होती हैं—क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि। इनमें करणलब्धि से ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। यह करणलब्धि अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति से होती है। इसी से प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उसी भव में या तीसरे / चौथे भव में मोक्ष प्राप्त करता है। क्षायिक सम्यक्त्व के साथ दर्शनलब्धि का वर्णन समाप्त हो जाता है। चारित्रलब्धि में एकदेशचारित्र को अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व के साथ ग्रहण करता है और सादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशम या वेदक सम्यक्त्व के साथ ग्रहण करता है।
सकल चारित्र तीन प्रकार का होता है—क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक। क्षायोपशमिक चारित्र छठे और सातवें गुणस्थान में होता है। वेदक सम्यक्दृष्टि जीव को पहले क्षायिक या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है फिर चारित्रमोह का उपशम करता है। तब वह ग्यारहवें उपशान्त कषाय गुणस्थान में पहुँचता है। अन्तर्मुहुर्तकाल के बाद वहाँ से उसका पतन हो जाता है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व का काल भी अन्तर्मुहुर्त है। चारित्रमोह का क्षय होने पर जीव बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में पहुँचता है। फिर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म को नष्टकर तेरहवें संयोग केवली गुणस्थान में पहुँचता है और सर्वज्ञ बन जाता है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रहने पर शेष चारों अघातिया कर्मों का नाश करके तीसरे शुक्ल ध्यान के द्वारा अयोगकेवली हो जाता है और मुक्त बन जाता है। ६४९ गाथाओं में से टीकाकार नेमिचन्द्र ने मात्र ३९१ गाथाओं तक ही टीका लिखी है। यहाँ तक चारित्रमोह की उपशमना का कथन किया गया है। आगे के चारित्रमोह क्षपणा वाले भाग पर माघचन्द्र त्रैविद्य ने संस्कृत टीका लिखी है और उसे क्षपणसार की संज्ञा दी है।
द्रव्यसंग्रह
आचार्य श्रुतसागरसूरि के समय तक द्रव्यसंग्रह के कर्ता के रूप में सि. च. नेमिचन्द्र का ही स्मरण किया जाता था। जैसा निम्न श्लोक से पता चलता है—दंसण पुव्वं णाणं, छद्मत्थाणं ण दोण्णि उवओगा। जुगवं जम्हा केवलि णाहे जुगवं तुदे दो वि। पर पं. मुख्तार, द्रव्यसंग्रह (३-६-४४) आदि विद्वानों ने इसे नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव की कृति मानी है। डॉ. दरबारीलाल कोठिया ने द्रव्यसंग्रह की प्रस्तावना में यह सिद्ध किया है कि इसके रचयिता केशोरायपाटन (कोटा) वासी और भोजदेव कालीन (११वीं शती) सिद्धान्तदेव नेमिचन्द्र हैं, सि. च. नेमिचन्द्र नहीं। उन्हें नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव या नेमिचन्द्र मुनि कहा जाता था। वृहद् द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव ने उनका परिचय भी दिया है। कोठिया जी ने चार नेमिचन्द्र का उल्लेख किया है प्रथम नेमिचन्द्र सि. च. द्वितीय वसुनन्दि सिद्धान्तदेव, तृतीय नेमिचन्द्र गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका संस्कृत टीका के रचयिता और चतुर्थ नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रह के रचयिता। द्रव्यसंग्रहकार के रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव थे जिनका समय वि. सं. ११२५ के आसपास होना चाहिए। लघुद्रव्य संग्रह (२५ गा.) और वृहद् द्रव्यसंग्रह (५८ गा.) ये दो ग्रंथ उन्हीं के हैं। वृहद् द्रव्यसंग्रह पंचास्तिकाय की शैली पर लिखी गई है। इसके बावजूद अभी भी यह प्रश्न यथावत् है कि द्रव्यसंग्रह के रचयिता सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र हैं या सिद्धान्तदेव नेमिचन्द्र। हमने इसीलिए अपने इस संग्रह में द्रव्यसंग्रह को भी समाहित किया है क्योंकि त्रिलोकसार टीका के प्रारम्भ में माधवचन्द्र ने अपने गुरु का नाम नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव लिखा है और अन्तिम गाथा की टीका में स्वकीय गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रीणां अथवा ग्रंथकर्तृणां नेमिचन्द्र सिद्धान्त देवानाम् लिखकर सिद्धान्त चक्रवर्ती और सिद्धान्तदेव पद का प्रयोग एक ही व्यक्तित्व के लिए किया गया है। द्रव्यसंग्रह भी आगमिक ग्रंथों के द्रव्य विषयक तत्त्व का संग्रह है। साधारण पाठक के लिए यह ग्रंथ अत्यन्त उपयोगी है। पण्डित प्रवर आशाधर ने अपनी अनगारधर्मामृत टीका में और वसुनन्दि सिद्धान्तदेव ने उपासकाध्ययन में नेमिचन्द्र का उल्लेख बड़े आदरपूर्वक किया है। इसमें छह द्रव्य, सप्त तत्त्व, नौ पदार्थ, पंच परमेष्ठी, ध्यान आदि के लक्षणों को व्यवहार और निश्चयनय की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। ये लक्षण सुगम, सुबोध और प्रामाणिक हैं।
त्रिलोकसार
त्रिलोकसार करणानुयोग का ग्रंथ है जिसमें लोक—अलोक का विभाग, उत्सर्पिणी आदि रूप में कालभेद, चतुर्गति, गुणस्थान मार्गणा, जीवसमास आदि का वर्णन है। इसमें कुल १०१८ गाथाएँ हैं जो ६ अधिकारों में विभक्त हैं—
१) लोकसामान्याधिकार,
२) भावनाधिकार,
३) व्यन्तरलोकाधिकार,
४) ज्योतिर्लोकाधिकार,
५) वैमानिक लोकाधिकार और
६) नरकतिर्यक्लोकाधिकार।
इसका आधार ग्रंथ हैं तिलोयपण्णत्ति और तत्वार्थराज र्वाितक के तृतीय तथा चतुर्थ अध्याय। जैन परम्परा में करणानुयोग के अन्य ग्रंथ हैं—षड्खण्डागम, तिलोयपण्णत्ति, जम्बूद्वीपपण्णत्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्ड, वृहत् क्षेत्रसमास, वृहत् संग्रहणी आदि। १. लोकसामान्य व नरक अधिकार इसमें लोक, अलोक आदि की परिभाषा देते हुए मान के लोक और लोकोत्तर के भेद से छह भेद बताये गये हैं—मान, उन्मान, अवमान, गणिमान, प्रतिमान और तत्प्रतिमान। गणना के तीन भेद हैं—संख्यात, असंख्यात, और अनन्त। असंख्यात के तीन भेद हैं—परीतानन्त, युक्तासंख्यात, तथा असंख्यातासंख्यात। इसी तरह अनन्त के भी तीन भेद हैं—परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त। संख्यात का कोई भेद नहीं। इस प्रकार गणना के कुल २१ भेद होते हैं—१ ± ३ ± ७ ± ३ · २१।
इसी अधिकार में चौदह धाराओं का भी वर्णन मिलता है—
१. सर्वधारा,
२. समधारा,
३. विषमधारा,
४.. कृतिधारा,
५. अकृतिधारा
६. घनधारा,
७. अघनधारा
८. कृमिमातृका या वर्गमातृका
९. अकृतिमातृका या अवर्गमातृका
१० घनमातृका
११. अघनमातृका
१२. द्विरूपघनधारा और
१४. द्विरूपघनाघनधारा।
उपमा प्रमाण के ८ भेद हैं—पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगच्छ्रेणी, जगत्प्रतर और लोक। अधोलोक और ऊध्र्वलोक के क्षेत्रफल भी नरकों के पटल आदि का वर्णन हुआ है। इनके क्षेत्रफल निकालने के लिए सामान्य, ऊध्र्वायत, तिर्यगायत, यवमुरज, यवमध्य, मन्दर, दूष्य और गिरिकटक इन आठ आकृतियों का चित्रण किया गया है।
२. भावनाधिकार इसमें भवनवासी देवों और इन्द्रों तथा उनकी भवन संख्या का वर्णन है। ये देव मनुष्य पर्याय में तपश्चरणकर पुझय संचय करते हैं, देवायु का बंध करते हैं और सम्यक्त्व से च्युत होकर भवनवासी देव होकर मनोहर इष्ट भोग भोगते हैं। परिषद, अनीक आदि देवों का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।
३. व्यन्तरलोकाधिकार व्यन्तर देव आठ प्रकार के होते हैं—किन्नर, िंकपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच। इनके परिवार, प्रासाद, नगर विमान आदि का भी वर्णन मिलता है।
४. ज्योतिर्लोकाधिकार चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक तोर ये ज्योतिषी देवों के पाँच भेद हैं। इनसे सम्बद्ध द्वीपों और समुद्रों की चर्चा की गई है। उनका व्यास और उनमें रहने वाले जीवों की अवगाहना आदि का भी कथन है। चन्द्र और सूर्य की अवस्थिति, देवियाँ, संख्या, आयु आदि का वर्णन है।
५. वैमानिक लोकाधिकार इसमें सोलह स्वर्गों, उनके युगलों और इन्द्रों की विस्तृत चर्चा है। उनके नगर, मुकुट चिन्ह, वन, चैत्यवृक्ष, प्रवीचार, आयु, कुल आदि का वर्णन है। ६. नरक—तिर्यग्लोकाधिकार इसमें अढाई द्वीप में तथा नंदीश्वर, कुण्डलगिरि और रुचकगिरि, मेरु, कुलाचल, सरोवर, नदी, वूâट, भोगभूमि—कर्मभूमि का विभाग। त्रिलोकसार के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र ही हैं। उन्होंने उसकी प्रथम गाथा में ‘‘बलगोबिन्द िंसहामणि किरणकलावरुणचरणणह किरणं’ लिखकर एक ओर यह व्यक्त किया है कि तीर्थंकर नेमिचन्द्र को बलदेव और कृष्ण दोनों नमस्कार करते थे वहीं टीकाकार माधवचन्द्र की दृष्टि से यह भी प्रतीत होता है कि आचार्य नेमिचन्द्र को बल अर्थात् चामुण्डराय और गोविन्द अर्थात राचमल्लदेव, दोनों प्रणाम करते थे। इसी तथ्य को आचार्य ने त्रिलोकसार की अन्तिम गाथा में भी कह दिया है कि त्रिलोकसार उन्हीं की रचना है—
इति णेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणभयणंदिवच्छेठा।
रइयो तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया।।गा. १०१८
त्रिलोकसार पर आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य माधव चन्द्र ने टीका लिखी है। परन्तु आचार्य नेमिचन्द्र ने कुछ गाथाएँ वहाँ ‘माहवचंदुद्धरिया’ कहकर माधव चन्द्र द्वारा रचित गाथाओं का भी संकलन किया है। उन्होंने परिकर्म, तिलोयपण्णत्ति तथा लोकविभाग आदि ग्रंथों से भी गाथाएँ आहृत की है। इस तरह आचार्य नेमिचन्द्र सि. च. ने दिगम्बर जैन प्राकृत आगमों का आधार लेकर अपने ग्रंथों की रचना की है। ये ग्रंथ भले ही संग्रह ग्रथ जैसे लगते हों पर उनकी अपनी मौलिकता भी उनमें परिलक्षित होती है। इस दृष्टि से उन्हें मौलिक ग्रंथों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।