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छहढाला

October 29, 2022Books FinalHarsh Jain
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प्रथम ढाल


मंगलाचरण

-सोरठा-
तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता।
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिवैं।।

अर्थ – त्रिभुवन अर्थात् तीन लोकों में सर्वोत्तम वस्तु है, वीतराग विज्ञानता अर्थात् रागद्वेष रहित केवलज्ञान। यही केवलज्ञान आनन्दस्वरूप है और मोक्ष देने वाला है अत: मैं मन-वचन-काय को संभालकर केवलज्ञान को नमस्कार करता हूँ।

विशेषार्थ – अनन्तानन्त आकाश द्रव्य के बहुमध्य भाग के जितने प्रदेशों में छह द्रव्यों का आवास है, उसे लोक कहते हैं। ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक के भेद से यह तीन प्रकार का है और तीन वातवलयों के आधार पर अवस्थित है। रागयुक्त जीवद्रव्य की शुद्धावस्था अर्थात् अठारह दोषों से रहित अवस्था होना वीतरागता है और विशिष्टज्ञान अर्थात् केवलज्ञान का नाम विज्ञानता है। (चौपाई छन्द) ग्रन्थ रचना का उद्देश्य व जीव की चाह जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दु:खतैं भयवन्त। तीनों लोकों में जो अनन्त जीव हैं, वे सभी सुख चाहते हैं और दु:ख से डरते हैंं इसलिए आचार्य कृपा करके उन जीवों को दु:ख हरने वाली और सुख को देने वाली शिक्षा प्रदान करते हैं।

विशेषार्थ – ज्ञान, दर्शन अर्थात् जानने-देखने की शक्ति से युक्त द्रव्य को जीव कहते हैं। जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मन:पर्ययज्ञान का विषय न हो, मात्र केवलज्ञान का विषय हो, उसे अनन्त कहते हैं अथवा जिसमें घंटे की ध्वनि सदृश व्यय निरन्तर होता रहे, आय कभी न हो, फिर भी राशि समाप्त न हो, उसे अनन्त कहते हैं। ‘‘संसार के सभी प्राणी सुखी रहें’’ आत्मा के इस सुकोमल भाव का नाम करुणा है। सम्यग्दृष्टि जीव का यह सुकोमल परिणाम शुभ राग है किन्तु मोह का कार्य कदापि नहीं है।

संसार भ्रमण का कारण ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान।
मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि।।२।।

अर्थ – हे भव्यजीवों! यदि तुम अपनी भलाई या सुख चाहते हो तो उस कल्याणकारी उपदेश को स्थिर मन से सुनो। यह जीव अनादिकाल से मोहरूपी मदिरा-शराब पीकर अपने स्वरूप को भूलकर व्यर्थ में चारों गतियों में भ्रमण कर रहा है।

विशेषार्थ – रत्नत्रय की प्राप्ति की योग्यता युक्त जीव को भव्य कहते हैं। परपदार्थों में अपनत्व बुद्धि होना, मोह कहलाता है। जिसकी आदि अर्थात् प्रारंभ न हो, उसे अनादि कहते हैं। कृति की प्रामाणिकता और निगोद के दु:ख तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा।
काल अनन्त निगोद मँझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार।।३।।

अर्थ –इस जीव के संसार-भ्रमण की बहुत लम्बी कहानी है, किन्तु कुछ थोड़ी-सी, जैसी श्रीगुरु-पूर्वाचार्यों ने वर्णन की है, वैसी ही यहाँ मैं भी कह रहा हूँ। इस जीव ने निगोद में एक इन्द्रिय जीव का शरीर धारण कर अनन्त काल बिताया है।
 
विशेषार्थ –जिस काल को सर्वावधि ज्ञान भी नहीं जान सकता, मात्र केवलज्ञान ही जान पाता है, उस अपरिमित काल को अनन्त काल कहते हैं। साधारण नामकर्म के उदय से एक शरीर के आश्रित अनन्तानन्त जीवों का समान रूप से रहना निगोद कहलाता है अथवा जीव की एक पर्यायविशेष, जिसमें एक श्वाँस के समय का अठारहवाँ भाग पूरा होते ही मरण हो जाता है। निगोद के दो भेद हैं-नित्य निगोद, इतर निगोद।
 
नित्य निगोद – जहाँ के जीवों ने अनादिकाल से आज तक त्रस की पर्याय प्राप्त नहीं की, वह नित्य निगोद कहलाता है।
इतर निगोद – निगोद से निकलकर दूसरी पर्याएँ पाकर पुन: निगोद में उत्पन्न होना इतर निगोद कहलाता है।

निगोद के दु:ख व निगोद से निकलकर प्राप्त पर्यायें

एक स्वाँस में अठ-दस बार, जन्म्यो मरयो भरयो दु:ख भार।
निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो।।४।।

अर्थ – इस जीव ने निगोद में एक श्वास मात्र काल में अठारह बार जन्म लिया और मरण को प्राप्त किया। इस प्रकार अनेक दु:खों का भार उसने सहा है। निगोद से निकलकर यह जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव हुआ।
 
विशेषार्थ – निरोग मनुष्य की नाड़ी की एक फड़कन एक श्वाँस कहलाती है। जिस वनस्पति में एक शरीर के अनेक जीव स्वामी होते हैं, वह साधारण वनस्पति है तथा जिस वनस्पति में एक शरीर का एक ही जीव स्वामी होता है, उसे प्रत्येक वनस्पति कहते हैं।

त्रस पर्याय की दुर्लभता और तिर्यंचगति के दु:ख

दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणी, त्यों पर्याय लही त्रसतणी।
लट पिपील अलि आदि शरीर, धर-धर मर्यो सही बहुपीर।।५।।
 
अर्थ – जैसे चिन्तामणि-रत्न बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है, उसी प्रकार स्थावर से त्रस की पर्याय पाना अति दुर्लभ है। त्रस-पर्याय पाकर भी जब जीव ने लट, चींटी, भौंरा आदि विकलत्रय शरीर को बारम्बार धारण किया और मरण को प्राप्त हुआ, तो उसे वहाँ भी बहुत अधिक दु:ख ही सहना पड़ा।
 
विशेषार्थ – इच्छित पदार्थ देने वाले रत्नविशेष को चिन्तामणि रत्न कहते हैं। त्रस नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की अवस्थाविशेष को त्रस कहते हैं।

तिर्यंच गति में असैनी और सैनी के दु:ख

कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो।
सिंहादिक सैनी ह्वै व्रूर, निबल पशू हति खाये भूर।।६।।
 
अर्थ – तिर्यंचगति में विकलत्रय से निकलकर कभी भाग्यवश यह जीव पंचेन्द्रिय ‘असैनी’ पशु हुआ तो मन के न होने से वह बिल्कुल अज्ञानी रहा और इसी तरह दु:खी रहा। जब ‘सैनी’ हुआ तो यदि सिंह आदि कुरुर पशु हो गया, तो उसने बहुत से निर्बल पशुओं को मार-मार कर खाया, अत: वहाँ भी घोर पाप का बंध किया।
 
विशेषार्थ – शिक्षा एवं उपदेश ग्रहण करने की शक्ति से युक्त अर्थात् मन सहित प्राणी सैनी कहलाते हैं तथा शिक्षा और उपदेश ग्रहण करने की शक्ति से रहित अर्थात् मन रहित प्राणी को असैनी कहते हैं।

पंचेन्द्रिय पशुओं के निर्बलता आदि अन्य दु:ख

कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन।
छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास।।७।।
 
अर्थ – कभी यह जीव निर्बल पशु हुआ तो बलवान हिंसक पशुओं द्वारा खाया गया, इससे बहुत दु:खी हुआ। यदि खाया न गया और बचा रहा तो छेदा जाना, भेदा जाना, भूख-प्यास सहना, भारी बोझ ढोना, सदी, गर्मी सहना आदि अनेक प्रकार के दु:ख उठाता रहा।
 
विशेषार्थ – मायाचारी अर्थात् मन, वचन एवं काय की कुटिलता से, मिथ्या उपदेश देने से, परिग्रह में अधिक ममत्व रखने से, शीलव्रत भंग करने से नील एवं कापोत लेश्या युक्त परिणामों से, मरणकाल में आत्र्तध्यान करने से, जाति एवं कुल में दूषण लगने से तथा स्वर्ण, घी, तेल आदि में मिलावट करके बेचने से तिर्यंचगति में जन्म लेना पड़ता है।

तिर्यंचगति में दु:खों की अधिकता और नरकगति की प्राप्ति का कारण

वध-बन्धन आदि दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने।
अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो।।८।।
 
अर्थ – तिर्यंचगति में इस जीव को मारे जाने, बाँधे जाने आदि के अनेक दु:ख सहन करने पड़े जिनका वर्णन करोड़ों जिह्वा से भी नहीं किया जा सकता है। इस दु:खमय दशा में वह जीव बहुत ही संक्लेश परिणामों से मृत्यु को प्राप्त हुआ, उसके फलस्वरूप भयानक नरकगतिरूप समुद्र में जा गिरा।
 
विशेषार्थ –श्वभ्र नाम नरक का है, वहाँ जन्म लेते ही अनिर्वचनीय दु:ख भोगने पड़ते हैं तथा वहाँ अकाल मरण नहीं होता।

नरक की भूमि स्पर्श और नदीजन्य दु:ख

तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसें नहिं तिसो।
तहाँ राध-शोणित-वाहिनी, कृमि-कुल-कलित-देह दाहिनी।।९।।
 
अर्थ –उस नरक की भूमि के स्पर्श करने मात्र से ही इतना कष्ट होता है कि जितना हजारों बिच्छुओं के एक साथ शरीर में काटने पर भी नहीं होता है। नरक में पीव और रक्त की वैतरणी नदी बहती है, जो कीड़ों के समूहों से भरी हुई है और यदि कोई भूमि के स्पर्श से उस नदी में शांति की आशा से घुस जाए, तो उसका वह खून भरा पानी शरीर को दग्ध करने वाला-जलाने वाला ही होता है।
 
विशेषार्थ – वहाँ खून-पीव आदि सप्त धातुएँ एवं विकलत्रय जीव नहीं होते किन्तु नारकी जीव विक्रिया से स्वयं उस रूप बन जाते हैं।

नरक में सेमर वृक्ष, सर्दी और गर्मी के दु:ख

सेमर-तरु-जुत दल-असिपत्र-असि ज्यों देह विदारैं तत्र।
मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय।।१०।।
 
अर्थ –नरक की भूमि में ऐसे सेमर वृक्ष हैं, जिनमें तलवार के समान तीक्ष्ण पत्ते लगे हैं, जो अपनी तीक्ष्ण धार से नारकी के शरीर को वहीं पर विदीर्ण कर देते हैं-टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। वहाँ इतनी भीषण ठण्ड अथवा गर्मी होती है कि सुमेरु पर्वत के समान विराट लोहे का गोला भी गल जाता है।
विशेषार्थ – मेरुपर्वत जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में अवस्थित है। इसकी नींव एक हजार योजन, जमीन से ऊँचाई ९९ हजार योजन, मोटाई दश हजार योजन और चूलिका की ऊँचाई चालीस योजन प्रमाण है। छंद में जो ‘गलि’ शब्द आया है, उसके दो अर्थ हैं ‘गलना’ और ‘पिघलना’। जिस प्रकार गर्मी में मोम पिघल जाता है, उसी प्रकार सुमेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला गर्म बिल में फैका जाए, तो वह बीच में ही पिघलने लगता है तथा जिस प्रकार ठण्ड और बरसात में नमक गल जाता है, उसी प्रकार सुमेरु के बराबर लोहे का गोला ठण्डे बिल में फेका जाए, तो बीच में ही गलने लगता है।
पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे तथा पाँचवें नरक के दूसरे-तीसरे भाग में गर्मी है और पाँचवें नरक के प्रथम-द्वितीय-तृतीय भाग में सर्दी है एवं छठवें तथा सातवें नरक में भयंकर सर्दी है।

नरक में अन्य नारकियों व असुरकुमारों द्वारा उदीरित और प्यास के दु:ख

तिल-तिल करैं देह के खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड।
सिन्धु-नीरतैं प्यास न जाय, तो पण एक न बूंद लहाय।।११।।
 
अर्थ – नारकी एक-दूसरे के शरीर के तिल के बराबर छोटे-छोटे टुकड़े कर देते हैं। दुष्ट प्रकृति के असुरकुमार जाति के देव वहाँ जाकर उन नारकियों को आपस में लड़ा देते हैं, जिससे वहाँ आपस में हमेशा कलह और द्वेष का वातावरण बना रहता है। नरक में नारकी को इतने जोर की प्यास लगती है कि वह यदि सारे समुद्र का पानी भी पी जावे, तो भी प्यास नहीं बुझ सकती, फिर भी उन्हें पानी की एक बूँद तक पीने को नहीं मिलती है।
 
विशेषार्थ – भवनवासी देवों के एक कुल का नाम असुर है, इन असुर कुमार देवों में अम्बाबरीष नामक देव तीसरे नरकपर्यन्त जाकर नारकियों को स्वयं भी दु:ख देते हैं तथा आपस में लड़ाते हैं और उनका दु:ख देखकर प्रसन्न होते हैं।

नरक की भूख, आयु और मनुष्यगति प्राप्ति का वर्णन

तीन लोक को नाज जु खाय, मिटै न भूख कणा न लहाय।
ये दु:ख बहु सागर लौं सहै, करम जोग तैं नरगति लहै।।१२।।
 
अर्थ – नरक में भूख इतने जोर की लगती है कि तीनों लोकों का सम्पूर्ण अनाज खा लेने पर भी वह मिट नहीं सकती, लेकिन वहाँ तो अनाज का एक दाना भी प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार नरक के तीव्र दु:ख इस जीव ने बहुत सागर (सुदीर्घकाल) तक सहे, फिर कहीं शुभकर्म का संयोग मिलता है, तो वह मनुष्यगति में जन्म लेता है।
 
विशेषार्थ – उन नरकों में यह जीव ऐसे अपार दु:ख कम से कम दश हजार वर्ष और अधिक से अधिक तेंतीस सागरपर्यन्त भोगता है।

मनुष्यगति में गर्भवास और प्रसवजन्य दु:ख

जननी-उदर बस्यो नव मास, अंग-सकुचतैं पाई त्रास।
निकसत जे दु:ख पाये घोर, तिनको कहत न आवै ओर।।१३।।
 
अर्थ – यह जीव मनुष्यगति में माता के गर्भ में नौ मास तक रहा, जहाँ शरीर के सिकुड़े रहने से कष्ट पाया। माता के गर्भ से बाहर निकलते समय जो भयानक कष्ट इस जीव ने पाया है, वह वर्णनातीत है।
 
विशेषार्थ – माता के रज और पिता के वीर्य के आधार से शरीर की रचना करने वाला यह जीव दशरात्रि तक कललरूप पर्याय में, दशरात्रि तक कलुषीकृत पर्याय में और दशरात्रि तक स्थिरीभूत पर्याय में रहता है। दूसरे मास में बुदबुद, तीसरे मास में घनभूत, चौथे में मांसपेशी, पाँचवें में पाँचपुलक, छठे में आँगोपांग और चर्म तथा सातवें में रोम एवं नखों की उत्पत्ति होती है। आठवें मास में स्पन्दन क्रिया और नौवें या दसवें मास में निर्गमन होता है।

मनुष्यगति में बाल्यावस्था, जवानी व वृद्धावस्था के दु:ख

बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणी-रत रह्यो।
अर्धमृतक सम बूढ़ापनो, कैसे रूप लखै आपनो।।१४।।
 
अर्थ – बालपन-लड़कपन में इस जीव को ज्ञान न मिला (अज्ञानी रहा)। जवानी में यह स्त्री में तल्लीन रहा और बुढ़ापा तो आधे मरे हुए के समान है ही। ऐसी दशा में यह जीव भला अपना आत्म-स्वरूप कैसे जान सकता है?
विशेषार्थ – मेरी आत्मा चैतन्यमयी, अखण्ड, अमूर्तिक एवं ज्ञान-दर्शन का पिण्ड है। इस प्रकार के स्वभाव की श्रद्धा आज तक नहीं हुई यही ‘‘कैसे रूप लखै आपनो’’ इस पंक्ति का विशेष भाव है।

देवगति में भवनत्रिक के दु:ख

कभी अकाम निर्जरा करै, भवनत्रिक में सुर-तन धरै।
विषय-चाह-दावानल दह्यौ, मरत विलाप करत दु:ख सह्यो।।१५।।

अर्थ – कभी इस जीव ने अकाम निर्जरा की, तो मंद कषाय के परिणाम स्वरूप मरकर भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों में से किसी एक का शरीर धारण किया परन्तु वहाँ भी हर समय इन्द्रियों के विषयों की चाहरूपी भयानक अग्नि में जलता रहा और मरते समय रो-रोकर दारुण दु:ख सहन किया।

विशेषार्थ – अनायास (बिना इच्छा के) भूख, प्यास, वेदना, रोग एवं आपत्ति-विपत्ति आ जाने पर समता परिणामों से सहन कर लेना अर्थात् मन्दकषाय द्वारा फल देकर कर्मों का स्वयं झड़ जाना अकाम निर्जरा कहलाती है। भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिषी देवों को भवनत्रिक कहते हैं।

देवगति में वैमानिक देवों के दु:ख

जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दु:ख पाय।
तहँ ते चय थावर-तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै।।१६।।
 
अर्थ – कभी यह जीव स्वर्ग में विमानवासी देव भी हुआ, तो भी उसने वहाँ सम्यग्दर्शन के अभाव में दु:ख ही पाया। आयु पूर्ण होने पर देवगति से चयकर वह तिर्यंचगति में स्थावर के शरीर को धारण करने के दु:खरूप कुगतिभ्रमण करता है। इस प्रकार यह जीव संसार में पंचपरिवर्तनों को पूरा करता है।
 
विशेषार्थ – विमानों में रहने वाले अथवा स्वर्ग एवं ग्रैवेयक आदि में रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं। स्थावर नामकर्म के उदय से युक्त जीव स्थावर कहलाते हैं। चय शब्द का अर्थ मरण ही है, किन्तु सौधर्मादि विमानवासियों की गति उत्तम है अतएव वहाँ से निकलने को ‘चय या च्युत’ होना, इस शब्द का प्रयोग होता है। नरकगति एवं भवनत्रिक ये गतियाँ हीन हैं, अतएव इनसे निकलने को ‘उद्वर्तन’ (उद्धार) तथा तिर्यंच और मनुष्य गति सामान्य है अत: उनसे निकलने को ‘काल करना’ इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप संसार चक्र में परिभ्रमण करना परिवर्तन कहलाता है। छहढाला की इस प्रथम ढाल में सर्वप्रथम मंगलाचरण में तीन लोक में सारभूत पदार्थ वीतरागता और विज्ञानता (केवलज्ञान) को नमस्कार किया गया है। इन्हें ही मोक्ष का कारण एवं मोक्ष स्वरूप बताया गया है।
 
पश्चात् ग्रंथ उद्देश्य का निर्देश करते हुए कहा गया है कि तीनों लोकों में अनन्तानन्त जीव हैं, जो सुख चाहते हैं और दु:ख से डरते हैं। दु:ख को हरण करने वाली और सुखोत्पादक शिक्षा करुणावान् गुरु ने दी है। मोह के वशीभूत हुए ये जीव अनन्तकालपर्यन्त निगोदपर्याय में अतीव दु:ख भोगते हैं। एकेन्द्रिय पर्याय में अनिर्वचनीय दु:ख सहन करते हुए बहुत काल व्यतीत होता है। त्रस पर्याय की प्राप्ति तो चिंतामणि रत्न की प्राप्ति सदृश अतीव दुर्लभ है। इस त्रस पर्याय में भी चारों गतियों संबंधी भयावह दु:ख भार सहन करना पड़ता है। प्रथम ढाल में वर्णित नरक, तिर्यंच, गर्भवास आदि एवं भवनत्रिकादि के दु:खों का विवेचन करते समय विद्वानों को प्रथमानुयोग ग्रंथों के उदाहरण देकर विषय को खूब अच्छी तरह स्पष्ट कर देना चाहिए, ताकि सभी श्रोता दु:ख से भयभीत होकर पाप क्रियाओं का त्याग करें |

दूसरी ढाल


(पद्धड़ी छन्द)

संसार परिभ्रमण के कारण

ऐसे मिथ्यादृग-ज्ञान-चरण, वश भ्रमत भरत दुख जन्म-मरण।
तातैं इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान।।१।।
 
अर्थ – यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के आधीन होकर चारों गतियों में भ्रमण करता है और जन्म-मरण के दु:खों को सहता है इसलिए भलीभांति समझकर उनको त्यागिए। उन तीनों का मैं संक्षेप में वर्णन करता हूँ, सो सुनिए।
 
विशेषार्थ – मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार परिभ्रमण के कारण हैं।

अगृहीत-मिथ्यादर्शन और जीवतत्त्व का स्वरूप

जीवादि प्रयोजनभूत तत्व, सरधै तिनमांहि विपर्ययत्व।
चेतन को है उपयोग रूप, विन मूरति चिनमूरति अनूप।।२।।
 
अर्थ – जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष-ये सात सारभूत तत्त्व (द्रव्य) हैं। इनका उल्टा (विपरीत) श्रद्धान करना मिथ्यादर्शन है। यदि ऐसा जन्मजात संस्कारवश होता है, तो उसे ‘अगृहीत मिथ्यादर्शन’ कहते हैं। जो देखता-जानता है अर्थात् जिसमें ज्ञान एवं दर्शन होता है, उसे जीव (आत्मा) कहते हैं। यह अमूर्तिक, चैतन्यस्वरूप एवं उपमा रहित है।
 
विशेषार्थ – चेतना की परिणति विशेष का नाम उपयोग है, या जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं, या जो परिणाम चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं रहता, उसे उपयोग कहते हैं अथवा स्व एवं पर को ग्रहण करने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं। रूप, रस, गंध और स्पर्श सहित वस्तु को मूर्तिक एवं इनसे रहित को अमूर्तिक कहते हैं।

जीव तत्त्व का विपरीत-श्रद्धान

पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतैं न्यारी है जीव-चाल।
ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान।।३।।
 
अर्थ – यह जीव (आत्मा) का स्वभाव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-इन पाँच द्रव्यों से भिन्न है, क्योंकि ये पाँचों द्रव्य अजीव हैं। अज्ञानी जीव इस तथ्य को न जानकर इससे उल्टा स्वरूप मान बैठता है।
 
जैसे– वह अजीवरूप देह को ही आत्मा समझता है, दर्पण के प्रतिबिम्ब को वह अपना ही रूप समझता है और अपनी आत्मा के विकास की इच्छा से शरीर के प्रसाधन जुटाने लगता है।

मिथ्यादृष्टि की मान्यताएँ

मैं सुखी-दु:खी मैं रज्र् राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव।
मेरे सुत-तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन।।४।।
 
अर्थ – मिथ्यादर्शन के प्रभाव से यह जीव ऐसा मानता है कि मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं धनी हूँ, धन मेरा है, गाय-बैल मेरे हैं, मेरा खूब प्रभाव है, पुत्र मेरे हैं, स्त्री मेरी है, मैं बलवान हूँ, मैं निर्बल हूँ, मैं कुरूप हूँ, मैं सुन्दर हूँ, मैं मूर्ख हूँ, मैं चतुर हूँ। वास्तव में ये सब पर-पदार्थ के ही परिणमन हैं, आत्मा के नहीं किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव को इनमें अपनत्व की प्रतीति होती है।
 
विशेषार्थ – पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच द्रव्य अजीव हैं और इनसे पृथक् स्वभाव वाला जीव द्रव्य चैतन्यस्वरूप है किन्तु इस प्रकार की यथार्थ श्रद्धा न होकर देह को ही आत्मा मानना एवं देहोत्पन्न होने वाली कुरूप-सुरूप, सबल-निर्बल, धनी-निर्धन, मूर्ख-ज्ञानी तथा सुखी-दुखी आदि अवस्थाओं को आत्मा की अवस्थाएँ मानना जीव तत्त्व की विपरीत श्रद्धा कहलाती है।

अजीव एवं आस्रव तत्त्व का विपरीत श्रद्धान

तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान।
रागादि प्रगट ये दु:ख दैन, तिनही को सेवत गिनत चैन।।५।।
 
अर्थ – जीव तत्त्व की तरह अजीव तत्त्व का भी मिथ्या श्रद्धान होता है। मिथ्यादृष्टि जीव शरीर की उत्पत्ति को ही अपनी (आत्मा की) उत्पत्ति समझता है और शरीर के नाश को अपना (आत्मा का) नाश मानता है। आत्मा को शरीर के सदृश अजीव-तत्त्व की आत्मरूप मान्यता ही अजीव-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। धन-दौलत आदि के रागादि भाव स्पष्टत: दु:ख देने वाले हैं, उन्हीं राग-द्वेष, मान-माया, क्रोध-लोभ, पंचेन्द्रिय के विषयों का वह सेवन करता है और उसमें सुख मानता है। दुखद कर्मास्रवों को सुख का कारण मानना ही यह आस्रव-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है।

बंध और संवर तत्त्व का विपरीत श्रद्धान

शुभ-अशुभ बंध के फल मँझार, रति-अरति करै निज पद विसार।
आतम-हित हेतु विराग-ज्ञान, ते लखैं आपको कष्ट दान।।६।।
 
अर्थ – मिथ्यादृष्टि जीव पूर्व में बंधे हुए शुभ कर्मों का फल भोगने में तो रुचि रखता है और अशुभ-कर्मों का फल भोगने में अरुचि रखता है क्योंकि वह अपनी आत्मा के स्वरूप को भूला हुआ है। ऐसी शुभ फल में रुचि एवं अशुभ फल में अरुचि रखना, बंध-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। आत्मा का हित करने वाले वैराग्य और तत्त्व-ज्ञान हैं। इस जीव को मिथ्यादर्शन के कारण वैराग्य और निज-ज्ञान की बातें कष्टदायक प्रतीत होती हैं। (राग-रङ्ग और पर-ज्ञान में ही वह निमग्न रहना चाहता है और उनमे ही सुख ढूँढ़ता है।) यह संवर-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है।

निर्जरा एवं मोक्ष तत्त्व का अन्यथा श्रद्धान और अगृहीत मिथ्याज्ञान का स्वरूप

रोके न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय।
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दु:खदायक अज्ञान जान।।७।।
 
अर्थ –इच्छाओं को रोकना तप कहलाता है, जिससे कर्मों की निर्जरा होती है। मिथ्यादृष्टि जीव अपनी इच्छाओं को नहीं रोकता है, इसलिए वह अपनी आत्म शक्ति को व्यर्थ में खोता है। यह निर्जरा तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। इसलिए वह आनन्दरूप आकुलता से रहित मोक्ष तत्त्व को नहीं समझ पाता है, यही मोक्ष तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। इस प्रकार का विपरीत श्रद्धान अगृहीत मिथ्यादर्शन है और ऐसे ही उल्टे श्रद्धान के साथ जो कुछ ज्ञान होता है, उसे अगृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं जो अनन्त दु:खदायक है।

अगृहीत-मिथ्याचारित्र का लक्षण

इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्र।
यों मिथ्यात्त्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह।।८।।
 
अर्थ –अगृहीत मिथ्यादर्शन और अगृहीत मिथ्याज्ञान के साथ पाँचों इन्द्रियों के जो विषय हैं, उनमें प्रवृत्ति (आचरण) करना ही अगृहीत मिथ्याचारित्र है। इस तरह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र, जो (अनादिकालीन) स्वभाव से ही जीवों के बने रहते हैं, उनका वर्णन किया। अब गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जो दूसरों के उपदेश से ग्रहण किये जाते हैं, उनके वर्णन को अच्छी तरह से सुनो।

गृहीत-मिथ्यादर्शन और कुगुरु का स्वरूप

जो कुगुरु कुंददेव कुधर्म सेव, पोषे चिर दर्शन मोह एव।
अन्तर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन अम्बर तैं सनेह।।९।।
 
अर्थ – कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा करने से चिरकाल तक मिथ्यात्व की ही पुष्टि होती है। जो अन्तरंग में राग-द्वेषरूप परिणाम और बहिरंग परिग्रह (धन-वस्त्र-शस्त्रादि) युक्त हैं तथा महत्व (यश, बड़प्पन) की चाह से कुलिंग (खोटा भेष) धारण करते हैं, वे पत्थर की नाव के समान हैं-जो स्वयं तो डूबती ही है, बैठने वालों को भी डुबो देती है अर्थात् वे खोटे गुरु जन्म-मरणरूपी संसार में डूबे हुए प्राणियों को अनन्त संसार में ही भटका देते हैं।

कुदेव का स्वरूप

धारैं कुलिंग लहि महत-भाव, ते कुगुरु जन्म जल उपलनाव।
जे रागद्वेष मल करि मलीन, वनिता गदादि जुत चिन्ह चीन।।१०।।
 
अर्थ –जो रागद्वेषरूपी मैल से मलिन (दूषित) हैं, जिनको स्त्री, गदा, त्रिशूल, खप्पर आदि अस्त्र-शस्त्र के चिन्ह होने से पहिचाना जा सकता है, वे सब कुदेव हैं। देव के सच्चे स्वरूप को न जानने वाले अज्ञानी लोग ही केवल उनकी सेवा (पूजा, भक्ति, विनय) किया करते हैं अत: उनके संसार के भ्रमण में कभी कमी नहीं हो सकती है अपितु भटकना बढ़ता ही है।
 
विशेष-यहाँ इस परिभाषा के अनुसार चव्रेश्वरी, पद्मावती आदि शासन देवियाँ तथा क्षेत्रपाल, धरणेन्द्र आदि शासन देवों को कुदेव में ग्रहण नहीं करना, क्योंकि तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के अनुसार चौबीसों तीर्थंकर भगवान के शासन देव-देवी नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं, उनकी पूजा-अर्चना आगम सम्मत मानी गई है।

कुधर्म का लक्षण एवं गृहीत मिथ्याज्ञान के कथन की प्रतिज्ञा

ते हैं कुदेव, तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भव भ्रमण छेव।
रागादि भाव हिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत।।११।।
जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधैं जीव लहै अशर्म।
यावूँ गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान।।१२।।

अर्थ – राग-द्वेष आदि परिणाम भाविंहसा है, त्रस और स्थावर जीवों का घात होना द्रव्यहिंसा है, ये दोनों क्रियाएँ कुधर्म हैं। इस प्रकार कुगुरु, कुदेव और कुधर्म में जो जीव श्रद्धान करता है, वह सर्वदा दु:ख ही प्राप्त करता है, अत: इनको गृहीत मिथ्यात्व (मिथ्यादर्शन) समझो।

गृहीत मिथ्याज्ञान का लक्षण

एकान्तवाद-दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त।
रागी कुमतिन कृत श्रुताभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास।।१३।।
 
अर्थ –जो शास्त्र एकान्त पक्ष से दूषित हैं या जो विषय-वासनाओं के पोषक होने से निन्दनीय हैं तथा रागी-द्वेषी कुबुद्धि गुरुओं द्वारा रचे गये हैं, उन समस्त शास्त्रों का पठन-पाठन (अध्ययन) गृहीत मिथ्याज्ञान है। जीव (आत्मा) के लिए ये अन्त में बहुत दु:खदायी सिद्ध होते हैं।
 
विशेषार्थ – भिन्न-भिन्न धर्मों की अपेक्षा एक वस्तु का विरोध रहित अनेक धर्मात्मक कथन करने वाला सिद्धान्त अनेकान्त है और अनेक धर्मों की अपेक्षा न करके वस्तु का एक ही रूप से कथन करना एकान्त है।

गृहीत-मिथ्याचारित्र का स्वरूप

जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविधविध देह दाह।
आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन।।१४।।
 
अर्थ – अपनी कीर्ति, धन का लाभ, सम्मान आदि की इच्छा से तप करके जो अनेक प्रकार से शरीर को कष्ट देते हैं और जिनको आत्मा क्या है, शरीर क्या है, इसका ज्ञान नहीं है, उनकी क्रियाएँ संसार सुख को तो प्रदान करने वाली हैं, किन्तु मोक्षपद प्राप्त कराने वाली नहीं है।
 
विशेषार्थ – जैसे तिल और बालू-रेत के लक्षण को न जानने वाले के द्वारा तेल के लिए बालू-रेत पेलने की क्रिया मिथ्या है, वैसे ही जीव और शरीर के भेद को जाने बिना जो-जो क्रियाएँ हैं, वे सब मिथ्याचारित्र हैं। इस पद्य की चतुर्थ पंकित का स्पष्टीकरण पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के शब्दों में शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें- आत्मा और अनात्मा-स्व और पर के ज्ञान से रहित जो-जो क्रियाएँ हैं वे सब शरीर को क्षीण-कृश करने वाली हैं ऐसा नहीं है प्रत्युत-भस्म लगाना, जटा बढ़ाना, पंचाग्नि तप आदि क्रियाएँ भी भवनवासी आदि देवों में उत्पन्न कराने में कारण बन जाती हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि सम्यग्दर्शन के बिना ये क्रियाएँ मोक्षमार्ग को प्राप्त कराने में असमर्थ हैं।
 
कदाचित् ये देव भगवंतों के पंचकल्याणक आदि में जाकर वहाँ सम्यग्दृष्टि भी बन सकते हैं और यदि नहीं भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सवेंâ तो भी हजारों, लाखों वर्षों तक देवयोनि के सुखों का अनुभव तो करते ही हैं अत: ये भी मिथ्या तपश्चरण सर्वथा शरीर को सुखाने वाले या व्यर्थ नहीं हैं किन्तु हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों से व जुआ आदि दुव्र्यसनों से रहित होने से संसार के भौतिक सुखों को देने वाले ही हैं और नरकों के दु:खों से बचाने वाले ही हैं।

मिथ्याचारित्र और संसार के त्याग का उपदेश

ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पन्थ लाग।
जगजाल भ्रमण को देहु त्याग, अब ‘दौलत’ निज आतम सुपाग।।१५।।
 
अर्थ –इस द्वितीय ढाल के अन्त में पं. दौलतराम जी अपने को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि ये सब (खोटे तप) मिथ्याचारित्र हैं, इनको छोड़ो। हे दौलत! अब तुम आत्मा के हितकारी मार्ग में लगकर जगत के जंजाल में भटकना त्याग कर अपनी आत्मा में अच्छी तरह लीन हो जाओ।
 
विशेषार्थ – मिथ्याचारित्र आदि का त्याग ही संसार चक्र के भ्रमण की परिसमाप्ति है अत: इसे छोड़कर आत्म कल्याण के मार्ग में लगो, यही उपदेश का भाव है। इस ढाल में चतुर्गति भ्रमण व दु:खों का निदान, सात तत्त्वों का उल्टा श्रद्धान, कुगुरु, कुदेव, कुधर्म का स्वरूप, गृहीत-अगृहीत के भेद से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का वर्णन विशद् रूप में किया गया है। अन्त में संसार के दन्द-फन्द छोड़कर आत्मस्वरूप में लवलीन होने की शिक्षा दी गई है।

तृतीय ढाल


(नरेन्द्र छंद) जोगीरासा

(आत्महित, सच्चा सुख और द्विविध मोक्षमार्ग का लक्षण)

आतम को हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिए।
आकुलता शिवमांहि न तातैं, शिवमग लाग्यो चहिए।।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण, शिवमग सो दुविध विचारो।
जो सत्यारथ-रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो।।१।।

अर्थ –आत्मा का कल्याण या भलाई सुख में है और वह सुख निराकुल या दु:ख रहित होना चाहिए (जिसके पीछे कभी भी चिंता या क्लेश न हो) आकुलता, चिन्ता या दु:ख मोक्ष में नहीं है, अत: मोक्षमार्ग में हमें लगना चाहिए। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (इनकी एकता) ही मोक्षमार्ग है। इस मोक्षमार्ग के दो भेद हैं-निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग, जो सत्यार्थरूप या वास्तविक मार्ग है, वह ‘निश्चय मोक्षमार्ग’ है और जो ‘निश्चय मोक्षमार्ग’ का कारण है, वह ‘व्यवहार मोक्षमार्ग’ है।

विशेषार्थ –मोक्ष जाने के दो मार्ग हैं-व्यवहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्ग। जो सत्यार्थरूप है, अर्थात् जिसके सम्पन्न होने पर उत्तर काल में मोक्ष प्राप्त हो ही जाता है, वह निश्चय मोक्षमार्ग है और जो निश्चय का कारण अर्थात् साधन है वह व्यवहार मोक्षमार्ग है। अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग मोक्ष का साक्षात् कारण है और व्यवहार मोक्षमार्ग परम्परागत कारण है।

(निश्चय रत्नत्रय का स्वरुप)

परद्रव्यनतैं भिन्न आप में, रुचि सम्यक्त्व भला है।
आप रूप को जानपनो सो, सम्यक्ज्ञान कला है।।
आप रूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई।
अब व्यवहार मोक्ष-मग सुनिये, हेतु नियत को होई।।२।।

अर्थ – पर अर्थात् दूसरे पदार्थों को अपनी आत्मा से भिन्न जान कर अपनी आत्मा में प्रीति या श्रद्धान करना ‘निश्चय सम्यग्दर्शन’ है। अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान करना ही ‘निश्चय सम्यक्ज्ञान’ है। अपनी आत्मा के स्वरूप में स्थिरता से लीन रहना ही ‘निश्चय सम्यक्चारित्र’ है। अब व्यवहार मोक्षमार्ग का वर्णन करते हैं-उसे सुनिये, क्योंकि वह ‘निश्चय मोक्षमार्ग’ का निमित्त कारण है।

(व्यवहार सम्यग्दर्शन का स्वरूप)

जीव अजीव तत्त्व अरु आस्रव, बन्धरु संवर जानो।
निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानो ।।
है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो।
तिनको सुन सामान्य विशेषैं, दिढ़ प्रतीति उर आनो ।।३।।

अर्थ – जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्त्वों का स्वरूप जैसा श्री जिनेन्द्रदेव ने वर्णन किया है, वैसा ही मानना या अटल श्रद्धान करना, सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सातों तत्त्वों का सामान्य और विशेष वर्णन आगे करते हैं, उसे समझो और दृढ़ता से हृदय में धारण कर लो।

विशेषार्थ – जिनेन्द्र भगवान ने जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्त्व कहे हैं। उसका जैसा का तैसा श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। इन तत्त्वों के स्वरूप का सामान्य और विशेषरूप से वर्णन किया जाता है, उसे सुनकर मन में अटल विश्वास करना चाहिए। सात तत्त्वों की यथावत् श्रद्धा करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। हिंसारहित धर्म, क्षुधादि १८ दोष रहित देव और निर्गंरथ गुरु पर श्रद्धा करना भी व्यवहार सम्यक्त्व है।

(जीव के भेद, बहिरात्मा और उत्तम अंतरात्मा का लक्षण)

बहिरातम अन्तर आतम, परमातम जीव त्रिधा है।
देह जीव को एक गिनै, बहिरातम तत्त्व मुधा है।।
उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर आतम ज्ञानी।
द्विविध संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निज ध्यानी।।४।।

अर्थ – जीव तीन प्रकार के होते हैं-१. बहिरात्मा २. अन्तरात्मा ३. परमात्मा। जो शरीर और आत्मा को एक गिनते हैं, वे तत्त्वों को न जानने वाले अविवेकी मूढ़ ‘बहिरात्मा’ या मिथ्यादृष्टि जीव हैं। जो भेदविज्ञान से आत्मा और शरीरादि पर- पदार्थ को भिन्न जानते हैं, वे ‘अन्तरात्मा’ (सम्यग्दृष्टि) जीव हैं। वे अन्तरात्मा भी तीन प्रकार के होते हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य। जो २४ प्रकार के परिग्रह-रहित शुद्ध-परिणामी आत्मध्यानी मुनि हैं, वे उत्तम अन्तरात्मा हैं।

विशेषार्थ– पुद्गल परमाणुओं के पिण्ड से निर्मित शरीर को जो चैतन्य- स्वरूप आत्मा द्रव्य मानते हैं, वे बहिरात्मा हैं। जड़ एवं नाशवान शरीर से चैतन्यस्वरूप अपने आत्मद्रव्य को भिन्न मानने वाली आत्मा को अन्तरात्मा कहते हैं। अन्तरंग और बहिरंग दो प्रकार के परिग्रह से रहित शुद्ध उपयोग वाले एवं अपनी आत्मा का ध्यान करने वाले मुनि उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं। शुभ-अशुभ रागद्वेष की परिणति से रहित ज्ञान-दर्शन की अवस्था विशेष का नाम शुद्धोपयोग है।

(मध्यम, जघन्य, अन्तरात्मा और सकल परमात्मा का स्वरूप)

मध्यम अन्तर आतम हैं जे, देशव्रती अनगारी।
जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी।।
सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घाति निवारी।
श्री अरिहन्त सकल परमातम, लोकालोक निहारी।।५।।

अर्थ – देशव्रत को धारण करने वाले पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक, ऐलक, उपचार से महाव्रतों को धारण करने वाली आर्यिकाएँ तथा शुभोपयोग में स्थित छट्ठे गुणस्थान वाले महाव्रती मुनिराज को मध्यम अन्तरात्मा कहते हैं। जो इन्द्रिय के विषयों से विरक्त नहीं हैं तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरक्त नहीं हैं पर जिनकी जिनेन्द्रदेव में यथार्थ श्रद्धा है, ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों को जघन्य अन्तरात्मा कहते हैं। उत्तम, मध्यम और जघन्य, ये तीनों प्रकार के अन्तरात्मा मोक्षमार्ग पर चलने वाले हैं। परमात्मा दो प्रकार के हैं-एक सकल परमात्मा और दूसरे निकल परमात्मा। श्री अरहंत भगवान शरीर सहित होने से सकल परमात्मा हैं, उन्होंने चारों घातिया कर्मों का विनाश किया है और वे लोक तथा अलोक के दृष्टा अर्थात् केवलज्ञानी होते हैं।

विशेषार्थ – श्रावक के व्रतों का धारी सम्यग्दृष्टि पंचम गुणस्थानवर्ती जीव को देशव्रती और परिग्रह से रहित छठे गुणस्थानवर्ती जीव को अनगारी कहते हैं। चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि का शरीर के प्रति अहंभाव तो नष्ट हो जाता है किन्तु ममत्व बना रहता है यही उसके जघन्यता में कारण है। जो आत्माएँ कर्ममल से रहित तथा परमपद में स्थित हैं, उन्हें परमात्मा कहते हैं।

(निकल परमात्मा का स्वरूप और उसके ध्यान का उपदेश)

ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्म-मल, वर्जित सिद्ध महन्ता।
ते हैं निकल अमल परमातम, भोगैं शर्म अनन्ता।।
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजै।
परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै।।६।।

अर्थ –औदारिक आदि शरीर रहित शुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है, जो तीनों प्रकार के कर्म-मल (द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्म) से रहित हैं, ऐसे महान् हैं सिद्ध भगवान। वे शुद्ध निकल (अशरीरी) परमात्मा हैं, ज्ञान के कारण ही वे अनन्त काल तक अनन्त सुख भोगते हैं अत: अपनी आत्मा के चरम (पूर्ण) विकास के लिए बहिरात्मपना (मिथ्यादृष्टि) त्यागने योग्य समझकर उसे त्यागो और अन्तरात्मा बनकर सदा दोनों प्रकार के परमात्माओं का ध्यान लगाओ, जिससे सच्चे आनन्द (चिर शान्ति अर्थात् मोक्ष) की प्राप्ति हो।

विशेषार्थ – द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ये तीन प्रकार के कर्म हैं। ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों को द्रव्यकर्म, राग-द्वेष, मोहरूप खोटे परिणामों को भावकर्म और औदारिक आदि तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण नोकर्म कहलाता है। जैसे ज्ञान जीव की निजी वस्तु है वैसे ही सच्चा सुख भी जीव का स्वभावसिद्ध वैभव है। शरीर में एकत्वबुद्धि का त्याग, भेदविज्ञान की प्रगटता एवं तत्त्व में तल्लीनता ही इस सुख की प्राप्ति का उपाय है।

(अजीव, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्य का लक्षण)

चेतनता बिन सो अजीव है, पञ्च भेद ताके हैं।
पुद्गल, पञ्च वरन, रस, गंध दु, फरस वसू जाके हैं।।
जिय-पुद्गल को चलन सहाई, धर्म-द्रव्य अनरूपी।
तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन विन मूर्ति निरूपी।।७।।

अर्थ – अजीव वह है, जिसमें चेतना या आत्मा नहीं है। इसके पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। जिसमें रूप (वर्ण), रस, गंध, और स्पर्श हो, उसे पुद्गल-द्रव्य कहते हैं। वर्ण पाँच (काला, श्वेत, लाल, नीला, पीला) हैं, रस पाँच (खट्टा, मीठा, चरपरा, कडुवा, कषायला) हैं, गंध दो (सुगंध, दुर्गन्ध) और स्पर्श आठ (गर्म, ठण्डा, हल्का, भारी, कोमल, कठोर, रूखा, चिकना) होते हैं। धर्म-द्रव्य अमूर्तिक है, वह स्वयं चलते हुए जीव और पुद्गल को चलने में सहायक होता है। अधर्मद्रव्य को श्री जिनेन्द्र भगवान ने अमूर्तिक कहा है और वह जीव तथा पुद्गल को ठहरने में सहायक होता है।

विशेषार्थ – लोकान्त के आगे धर्म द्रव्यरूपी पटरी नहीं है अत: सिद्ध जीव आगे नहीं जा सके। धर्म और अधर्म द्रव्य स्वयं चलते एवं स्वयं ठहरते हुए जीव, पुद्गल को चलने एवं ठहरने में सहयोगी होते हैं।

(आकाश, काल और आस्रव का स्वरूप व भेद)

सकल-द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो।
नियत वर्तना निशिदिन सो, व्यवहार काल परिमानो।।
यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा।
मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा।।८।।

अर्थ – अजीव का चौथा भेद आकाश द्रव्य है, जिसमें छहों द्रव्यों का निवास है। यह दो प्रकार का है-
१. लोकाकाश- जितने स्थान में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छहों द्रव्य रहते हैं।
२. अलोकाकाश- जिस स्थान में केवल आकाश ही आकाश है, अन्य कोई द्रव्य नहीं। अजीव का पाँचवाँ भेद काल द्रव्य अर्थात् समय है। सभी द्रव्यों के परिणमन (परिवर्तन) में जो सहायक होता है, उसे काल द्रव्य कहते हैं।
यह भी दो प्रकार का है-
१. निश्चयकाल – जो स्वयं परिवर्तनशील है तथा अन्य सब द्रव्यों के परिवर्तन में कुम्हार के चाक के समान सहायक (अंतरंग कारण) है।
२. व्यवहारकाल-रात्रि-दिवस, घड़ी, घण्टा, प्रहर, मिनट आदि। अब आस्रव-तत्त्व का वर्णन करते हैं, जो कर्मों के आगमन में सहायक है। मन-वचन-काय की चंचलता तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के कारण आत्मा में जो हलचल (प्रवृत्ति) होती है, उससे कर्मों का योग (आगमन) होता है, इसे आस्रव-तत्त्व कहते हैं।
कर्मों का आस्रव उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार नाव में छिद्र हो जाने पर पानी भरने लगता है। इसके ५७ भेद हैं-५ मिथ्यात्व (विपरीत, एकांत, विनय, संशय, अज्ञान),१२ अविरति (पापों में प्रवृत्ति), २५ कषाय (जो आत्मा को दु:ख दे या पराधीन करे), १५ प्रमाद (अच्छे कार्यों में उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति न करना)।

विशेषार्थ – जिस प्रकार किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें भस्म (राख) डाली जाए, तो वह समा जाती है, फिर उसमें शर्वरा डाली जाए, तो वह भी समा जाती है, फिर उसमें सुइयाँ डाली जाएँ, तो वे भी समा जाती हैं, उसी प्रकार आकाश में भी अवगाहन शक्ति है, इसलिए उसमें सर्वद्रव्य एक साथ रह सकते हैं। अपनी-अपनी पर्यायरूप से स्वयं परिणमित होते हुए जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में जो निमित्त हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं। कालद्रव्य असंख्यात है अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं अत: कालद्रव्य भी असंख्यात है। इस प्रकार अजीव तत्त्व का वर्णन हुआ, अब आस्रव तत्त्व का वर्णन किया जाता है। मन, वचन, काय, मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद और कषाय सहित जो आत्मा की प्रवृत्ति है, उसे आस्रव कहते हैं। जो आत्मा को कषता है अर्थात् दु:ख देता है, पराधीन करता है अथवा उसके चारित्र आदि गुणों को घातता है, उसे कषाय कहते हैं। पापरूप प्रवृत्ति को अविरति और असावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना या धार्मिक कार्यों में अनुत्साह रखना प्रमाद है।

(आस्रव त्याग का उपदेश और बंध, संवर, निर्जरा का लक्षण)

ये ही आतम के दु:खकारण, तातैं इनको तजिये।
जीव प्रदेश बँधे विधिसों सो, बन्धन कबहूँ न सजिये।।
शम-दमतैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरिये।
तप-बलतैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये।।९।।

अर्थ – ये आस्रव भाव (त्रियोग, मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय, प्रमाद) आत्मा के लिए दु:ख के कारण हैं, इसलिए इनको त्यागना चाहिए। इन्हीं भावों के निमित्त से आये शुभ-अशुभ पुद्गल कर्मो का आत्मा के साथ दूध और जल के समान मिलकर एकमेक हो जाना ‘बन्ध-तत्त्व’ है। कषायों के शमन (समता भाव रखने) और दमन (इन्द्रिय व मन को वश में करने) से कर्मों का आना रुक जाता है, इसी को संवर-तत्त्व कहते हैं। ऐसे संवर तत्त्व का आदर करना चाहिए। जैसे नाव का छेद बंद कर देने से पानी का भरना रुक जाता है। तप के प्रभाव से आठों कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय) का झड़ना (क्षय) या एकदेश दूर होना निर्जरा तत्त्व है। इस निर्जरा-तत्त्व का सदा आचरण करना चाहिए।

विशेषार्थ – कषायों के उपशम अर्थात् न होने देने को शम और इन्द्रियों एवं मन की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना दम कहलाता है।

(मोक्ष का लक्षण और व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप)

सकल-कर्म तैं रहित अवस्था, सो शिवथिर सुखकारी।
इहविधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी।।
देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो।
येहु मान समकित को कारण, अष्ट-अंग-जुत धारो।।१०।।

अर्थ – सब कर्मों से रहित अवस्था को ही मोक्ष कहते हैं, जो स्थाई सुख देने वाली है। इस प्रकार मोक्ष-तत्त्व का लक्षण हुआ। इस प्रकार सात तत्त्वों (जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष) पर श्रद्धा करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। श्री जिनेन्द्र भगवान, सब परिग्रहों से रहित दिगम्बर जैन गुरु (मुनिराज), दयामय धर्म-इन तीनों का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यक्त्व का कारण समझो। इस सम्यक्त्व को उसके आठ अंगों सहित धारण करो।

विशेषार्थ – किसी स्थान विशेष का नाम मोक्ष नहीं है, अपितु बन्धन- मुक्ति का नाम मोक्ष है अर्थात् कर्मबंध से रहित जीव की अवस्था विशेष मोक्ष है। ‘‘इह विधि’’ अर्थात् जिस प्रकार भगवान जिनेन्द्र ने सात तत्त्वों का प्रतिपादन किया है, उसी प्रकार श्रद्धा करना चाहिए।

(सम्यक्त्व के पच्चीस दोष और आठ गुण)

वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो।
शज्रदिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।।
अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेपहु कहिये।
बिन जानेतैं दोष-गुनन को, कैसे तजिये गहिये।।११।।

अर्थ – आठों मदों को छोड़ो, तीन मूढ़ताओं (खोटे देव, खोटे शास्त्र, खोटे गुरु) को मन से हटाओ, छ: अनायतनों का त्याग करो। शंका आदि आठ दोषों को दूर कर ‘प्रशम, संवेग, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य’-सम्यक्त्व की इन ४ भावनाओं को चित्त में धारण करो। अब सम्यग्दर्शन के आठ अंग और पच्चीस दोषों का स्वरूप संक्षेप में कहते हैं, क्योंकि दोष और गुण जाने बिना जीव कैसे दोषों को त्यागे और गुणों को ग्रहण करे ?

विशेषार्थ –सांसारिक कार्यों में उत्साह न होना प्रशम, धर्मकार्यों में तत्परता और संसार से भीरुता होना संवेग, सभी प्राणी सुखी रहें, दुखी कोई न हो, ऐसी भावना होना अनुकम्पा एवं अपनी आत्मा को तथा स्वर्ग-नरक आदि के अस्तित्व को स्वीकार करना आस्तिक्य है, ये चारों ही सम्यक्त्व की भावनाएँ हैं।

(सम्यक्त्व के आठ अंगों का निरूपण)

जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख-वांछा भानै।
मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछानै।।
निजगुण अरु पर औगुण ढाँकैं , वा जिन-धर्म बढ़ावै।
कामादिक कर वृषतैं, चिगते, निज पर को सु दिढ़ावै।।१२।।

अर्थ – १. श्री जिनेन्द्र भगवान के कहे गये वचनों में शंका नहीं करना एवं उनके उपदेशों में अटल श्रद्धा रखना, यह नि:शंकित अंग है। २. धर्म सेवन करके उसके बदले संसार के सुखों की इच्छा न करना, नि:कांक्षित अंग है। ३. मुनिराज (या अन्य किसी धर्मात्मा) के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना, सो निर्विचिकित्सा अंग है। ४. तत्त्व-खरे (सच्चे) और कुतत्त्व-खोटे तत्त्वों (सिद्धान्तों) की परख कर मूढ़ताओं और अनायतनों में नहीं फसना, सो अमूढ़दृष्टि अंग है। ५. अपने गुणों को छिपाना और दूसरों के अवगुणों को प्रगट न करना तथा आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना-दूषित नहीं होने देना), सो उपगूहन अंग है। ६. काम-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि किसी विकारवश से यदि धर्म से कोई चलायमान हो गया हो, तो उस समय जिस तरह बने, अपने को और उसको धर्म में दृढ़ करना, सो स्थितिकरण अंग है। ७. जैसे-गाय अपने बछ़ड़े से नि:स्वार्थ प्रीति करती है, वैसे ही साधर्मी-बंधुओं से प्रीति करना, सो वात्सल्य अंग है। इससे द्वेष-कलुषता आदि अपने-आप समाप्त हो जाते हैं। ८. अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने के लिए मंदिर आदि का निर्माण, जैन साहित्य का प्रसार आदि जैसे बने जैनधर्म की उन्नति या प्रचार अथवा प्रभावना करना प्रभावना अंग है। इस प्रकार सम्यक्त्व के ये ८ अंग या गुण हैं। इन गुणों से विपरीत ८ आचरण दोष हैं, जिनसे सदा बचना चाहिए। वे ८ दोष हैं-शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना।

विशेषार्थ –जैसे अक्षर, मात्रा एवं अनुस्वार आदि से हीन मंत्र कार्य- सिद्धि में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार अंगहीन सम्यक्त्व जन्म सन्तति के छेद में समर्थ नहीं होता अत: आठों अंगों का पालन अनिवार्य है।

(आठ मदों का वर्णन)

धर्मीसों गौ-बच्छ-प्रीतिसम, कर जिन-धर्म दिपावै।
इन गुणतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै।।
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठानै।
मद न रूप को, मद न ज्ञान को, धन बल को मद भानै।।१३।।

अर्थ – सम्यग्दृष्टि जीव पिता आदि पितृपक्ष (कुल) के, मामा आदि मातृपक्ष (जाति) के, राजा आदि (शासक) होने का घमण्ड नहीं करता है। वह अपने रूप का, ज्ञान का, धन-सम्पत्ति का, अपनी शक्ति का, तपस्या का, अपने उच्च पद का भी घमण्ड नहीं करता है। जो इन पर-वस्तुओं पर घमण्ड नहीं करता है, वही अपने ‘निज-स्वरूप’ या आत्मा को समझता है। यदि जीव इन पर घमण्ड करे, तो ये आठ दोष सम्यक्त्व को मलिन (दूषित) कर देते हैं।

(छह अनायतन और तीन मूढ़ता)

तप को मद न मद जु प्रभुता को, करै न सो निज जानै।
मद धारै तो यही दोष वसु, समकित को मल ठानै।।
कुगुरु-कुदेव-कुवृष-सेवक की, नहिं प्रशंस उचरै है।
जिनमुनि जिनश्रुत बिन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करै है।।१४।।

अर्थ – खोटे-गुरु, खोटे-देव, खोटा-धर्म और इन तीनों के सेवक अर्थात् खोटे-गुरु के भक्त, खोटे-देव के भक्त और खोटे-धर्म के भक्त-ये छ: अनायतन हैं अत: सम्यग्दृष्टि जीव इन छहों की भक्ति-विनय तो दूर, कभी प्रशंसा तक नहीं करता है। यदि प्रशंसा भी करे, तो उसे सम्यक्त्व में दोष लगता है। सिवाय जिनेन्द्र भगवान, सच्चे मुनि और जिनेन्द्र कथित शास्त्रों के अतिरिक्त किसी कुदेव, कुगुरु या कुशास्त्र को सम्यग्दृष्टि नमस्कार नहीं करता है। यदि करता है, तो उसके सम्यक्त्व में मूढ़ता नामक दोष लगता है।

विशेषार्थ – जो मद में आकर धर्मात्माओं का अनादर करता है, वह जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए रत्नत्रय धर्म का अनादर करता है क्योंकि धर्म, रत्नत्रय- धारियों के बिना प्राप्त नहीं होता इसलिए मद करने से सम्यक्त्व मलिन हो जाता है। सम्यक्त्व के नाशक कुदेवादिक की प्रशंसा करना अनायतन कहलाता है। धर्म और सम्यक्त्व में दोषजनक अविवेकीपन के कार्य को मूढ़ता कहते हैं। धर्म समझकर बालू और पत्थरों का ढेर लगाना, गंगा आदि नदीरूप तीर्थों में स्नान, समुद्र में स्नान, जल में प्रवेश करके मरना, अग्नि में जल कर मरना, गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथिवी, अग्नि और बड़ वृक्ष आदि की पूजा करना लोकमूढ़ता कहलाती है। लौकिक-पारमार्थिक हेय-उपादेय एवं स्वपर ज्ञान रहित अज्ञानीजनों के कुल परिपाटी से आया हुआ और अन्य भी जो धर्माचरण है, उसको भी लोकमूढ़ता जानना चाहिए। वर की इच्छा से रागी-द्वेषी देवों की सेवा करना अथवा ख्याति-पूजा-लाभ-रूप-लावण्य-सौभाग्य-पुत्र-स्त्री-राज्य आदि संपदा की प्राप्ति के लिए मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना करना देवमूढ़ता कहलाती है। अज्ञानी लोगों को चित्त चमत्कार (आश्चर्य) उत्पन्न करने वाले ज्योतिष मंत्रवाद आदि को देखकर मिथ्यादेव-मिथ्याआगम एवं मिथ्या तप करने वाले कुलिंगियों को भय-वांछा-स्नेह और लोभ से धर्म के लिए प्रणाम, पूजा, विनय एवं सत्कार आदि करना पाखण्डीमूढ़ता है।

(अविरत सम्यग्दृष्टि की महत्ता और उदासीनता)

दोषरहित गुणसहित सुधी जे, सम्यक्दरश सजे हैं।
चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजे हैं।।
गेही पै गृह में न रचै ज्यों, जलतैं भिन्न कमल है।
नगरनारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है।।१५।।

अर्थ – २५ दोषों से रहित और ८ गुणों से सहित ऐसे सम्यग्दर्शन से जो बुद्धिमान शोभायमान है, वह यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण चारित्र मोहनीयकर्म के उदय से विंचित् भी व्रतादि नहीं धारण कर सका है, तो भी उसे इन्द्र तक पूजते हैं। यद्यपि वह गृहस्थ है, फिर भी गृह-कुटुम्बादि में आसक्त नहीं है। जैसे-कमल जल में रहते हुए भी उससे भिन्न है, वैसे ही वेश्या के प्यार जैसा केवल दिखाऊ प्रेम उसका गृह-कुटुम्बादि पर है। अथवा जैसे कीचड़ में पड़ा सोना यद्यपि ऊपर से कीचड़ में सना हुआ दिखाई देता है, किन्तु वास्तव में वह निर्मल है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की अवास्तविक आसक्ति गृहकुटुम्बादि पर पदार्थों पर रहती है, परन्तु वास्तव में उसका अन्तर निज आत्म निधि की ओर दृष्टि लगाए रहता है।

विशेषार्थ – अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य यदि पुरुषार्थ करे, तो शीघ्र ही संयम धारण कर अपने सम्यक्त्व को पूर्णतया निर्दोष और पूर्ण बना सकता है किन्तु इन्द्रों में संयम धारण की योग्यता नहीं है।

(सम्यग्दृष्टि की अनुत्पत्ति के स्थान और सम्यक्त्व की महिमा)

थम नरक बिन षट् भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी।
थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत सम्यक् धारी।।
तीनलोक तिहुँ काल माहिं नहिं, दर्शन सो सुखकारी।
सकल धरम को मूल यही, इस बिन करनी दु:खकारी।।१६।।

अर्थ – सम्यक्त्वी जीव पहले नरक के सिवाय शेष छ: नरकों में, ज्योतिषी-व्यन्तर-भवनवासी देवों में, नपुंसकों में, स्त्रियों में, स्थावरों में, दो इन्द्रिय-त्रि इन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीवों में तथा पशु-पर्याय में जन्म धारण नहीं करता है। तीनों लोकों और तीनों कालों में सम्यग्दर्शन के समान अन्य कोई भी सुख देने वाला नहीं है। सब धर्मों की जड़ यही है। बिना सम्यग्दर्शन के सभी क्रियाएँ संसार भ्रमण का ही कारण है।

विशेषार्थ – सम्यग्दर्शन होने के पूर्व ही यदि किन्हीं जीवों ने नरकायु- तिर्यंचायु का बंध कर लिया है, तो वे प्रथम नरक में और भोगभूमिज तिर्यंचों में उत्पन्न होंगे, क्योंकि आयुबंध छूटता नहीं है। यह व्यवस्था मात्र क्षायिक सम्यक्त्व की है। क्षायोपशमिक और उपशम सम्यग्दृष्टि जीव तो नरक और तिर्यंच गतियों में उत्पन्न होते ही नहीं हैं। सम्यग्दर्शन ही सब धर्मों की जड़ है। जैसे जड़ के बिना वृक्ष फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना अन्य सम्पूर्ण क्रियाएँ मोक्ष सुख देने में समर्थ नहीं हो सकतीं। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा इस पद्य का विशेषार्थ इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-

विशेषार्थ –सम्यग्दर्शन संपूर्ण धर्मों का मूल है अत: इसके बिना जितनी भी क्रियाएँ हैं-चारित्र है वह दु:ख को देने वाला नहीं है किन्तु नाना प्रकार के संसार के सुख भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों के सुखों को तथा वैमानिक देवों के भी सुखों को देने वाला है। हाँ, यदि वे क्रियाएँ जीवबलि आदि हैं तो अवश्य ही दु:ख देने वाली हैं। यदि क्रियाएँ मिथ्याचारित्र में पंचाग्नि तप आदि रूप से हैं तो भी देवों के सुखों को प्राप्त करा देती हैं और यदि जैन परम्परा के अनुसार अणुव्रत, महाव्रत आदिरूप हैं तो परम्परा से सम्यक्त्व के लिए कारण हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि सम्यक्त्व के बिना क्रियाएँ संसार का अंत करने वाली नहीं हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने वाली नहीं हैं। अत: उपर्युक्त १६वें पद्य की चतुर्थ पंक्ति में ‘‘इस बिन करनी दुखकारी’’ के स्थान पर ‘‘इस बिन न क्रिया भवहारी’’ पढ़ना चाहिए।

(सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक् नहीं हैं)

मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान-चरित्रा।
सम्यव्ता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा।।
‘दौल’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै।
यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै।।१७।।

अर्थ – सम्यक्दर्शन ही मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी है। बिना पहले इस पर आए मोक्षरूपी महल में प्रवेश असंभव है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र मिथ्या बने रहते हैं, वे सम्यक् माने ही नहीं जाते हैं इसलिए हे आत्महितैषी भव्य! ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शन को धारण करो। कवि स्वयं को सम्बोधन कर कहते हैं हे दौलतराम! तू समझ, सुन, फिर सचेत हो जा। तू विवेकी है, इसलिए समय व्यर्थ नष्ट मत कर। समझ ले कि यदि इस पर्याय में सम्यग्दर्शन तुझे प्राप्त नहीं हुआ, तो तेरा मनुष्य जन्म वृथा गया पुन: यह मनुष्य पर्याय मिलना बहुत कठिन है।

विशेषार्थ – जैसे प्रथम घड़ा औंधा रखा जाने पर उसके ऊपर अन्य घड़े सीधे नहीं रखे जा सकते, वैसे ही श्रद्धा समीचीन हुए बिना ज्ञान और चरित्र भी समीचीनता अर्थात् सम्यक्त्वपने को प्राप्त नहीं होते, इसलिए सम्यक्त्व को मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी कहा गया है। इस ढाल का अध्ययन कर यह शिक्षा ग्रहण करना चाहिए कि मनुष्य प्रति समय मर रहा है एवं काल अबाध गति से भाग रहा है अत: समय रहते सचेत हो जाना चाहिए अर्थात् सम्यक्त्व ग्रहण कर लेना चाहिए। जैसे बिना धागे वाली सुई गुम हो जाने पर मिलना कठिन हो जाता है, वैसे ही सम्यक्त्व बिना यह जीव नरक-निगोदादि कुगतियों में चला जाता है, जहाँ से निकलकर मनुष्य भव प्राप्त कर पाना अतीव दुर्लभ है।

चौथी ढाल


(रोला छंद)

सम्यग्ज्ञान का लक्षण और समय

सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यक्ज्ञान।
स्वपर अर्थ बहु धर्म जुत, जो प्रकटावन भान।।
 
अर्थ –सम्यक्दर्शन धारण करने के उपरांत भव्य जीव को सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। जैसे सूर्य सब वस्तुओं और स्वयं को जैसा का तैसा दर्शाता है, उसी प्रकार जो अनेक धर्मों से युक्त ‘स्व’ (अपने आपको) एवं पर-पदार्थों को जैसा का तैसा बतलाता है-वह ‘सम्यक्ज्ञान’ है। सम्यक्ज्ञान से आत्मा और अनात्मा के गुण-दोष स्पष्टत: जाने जा सकते हैं। सूर्य और सम्यक्ज्ञान दोनो ही तम (अंधकार) के नाशक हैं-प्रथम बाह्य अंधकार को हटाता है तो दूसरा अन्तर (आत्मा) के अज्ञानरूपी अंधकार का निवारण करता है।

सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में अन्तर

सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधो।
लक्षण श्रद्धा जान, दुहू में भेद अबाधो।।
सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई।
युगपत् होते हू प्रकाश, दीपकतैं होई।।१।।
 
अर्थ – यद्यपि सम्यक्दर्शन के साथ ही सम्यक्ज्ञान होता है, फिर भी उनको अलग-अलग समझना चाहिए। सम्यक्दर्शन का लक्षण है-सच्ची श्रद्धा या विश्वास और सम्यक्ज्ञान का लक्षण है ठीक जानना। इस प्रकार इन दोनों में लक्षण भेद (बाधा-रहित) है। सम्यक्दर्शन को ‘कारण’ समझो और उसका ‘कार्य’ सम्यक्ज्ञान है। दोनों एक समय एक साथ उत्पन्न होते हुए भी कारण-कार्य के भेद से भिन्न-भिन्न हैं। जैसे दीपक के जलने के साथ प्रकाश होता है, तो भी दीपक को प्रकाश का कारण माना जाता है।

सम्यग्ज्ञान के भेद, देशप्रत्यक्ष के भेद व लक्षण

तास भेद दो हैं परोक्ष, परतिछ तिन माहीं।
मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनतैं उपजाहीं।।
अवधिज्ञान मनपर्जय, दो हैं देश-प्रतच्छा।
द्रव्यक्षेत्र परिमाण लिये, जानैं जिय स्वच्छा।।२।।
 
अर्थ – सम्यक्ज्ञान के दो भेद हैं-परोक्ष और प्रत्यक्ष। मति और श्रुत ये दोनों परोक्ष ज्ञान हैं जो पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं। जो ज्ञान बिना किसी (इन्द्रिय, मन) की सहायता से उत्पन्न होता है, उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यह दो प्रकार का है-देशप्रत्यक्ष व सकलप्रत्यक्ष। जो ज्ञान अपनी आत्मा से ही जानता हुआ पदार्थों को भी द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की मर्यादा लेकर जानता है, उसे देशप्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा सहित रूपीपदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है।
 
विशेषार्थ –सम्यग्ज्ञान के मूल में दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष ज्ञान के भी दो भेद हैं-सकलप्रत्यक्ष और देशप्रत्यक्ष। छहों द्रव्यों की त्रिकालवर्ती अनन्तगुण और पर्यायों को जो एक साथ दर्पण सदृश स्पष्ट जानता है, वह सकलप्रत्यक्ष है। जैसे-केवलज्ञान। जो ज्ञानरूपी पदार्थ को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए जानता है, वह देशप्रत्यक्ष है।
 
यथा–अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानता है, वह परोक्ष ज्ञान है। जैसे-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। पाँचों सम्यग्ज्ञानों में से आत्मा के कल्याण का सम्बन्ध सम्यग्-श्रुतज्ञान से है, कारण कि शब्दात्मक होने से श्रुतज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है।

सकलप्रत्यक्ष ज्ञान और ज्ञान का महत्त्व

सकल द्रव्य के गुण अनन्त, परजाय अनन्ता।
जानै एवै काल, प्रगट केवलि भगवन्ता।।
ज्ञान समान न आन, जगत में सुख को कारन।
इहि परमामृत जन्म-जरा-मृतु रोग निवारन।।३।।
 
अर्थ – जो ज्ञान छहों द्रव्यों के तीनों कालों और तीनों लोकों में होने वाले समस्त पर्यायों और गुणों को एक साथ दर्पण के समान स्पष्ट जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। यह सकलप्रत्यक्ष सम्यक्ज्ञान है। इस संसार में सम्यक्ज्ञान के समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं है। यह सम्यक्ज्ञान ही जन्म, जरा और मृत्युरूपी तीनों रोगों को विनष्ट करने हेतु प्राणी के लिए उत्तम अमृत के समान है।
 
विशेषार्थ – लोक में यह प्रसिद्ध है कि अमृत पीने से मनुष्य अजर, अमर हो जाता है यह मान्यता तो असत्य हो सकती है किन्तु ज्ञानरूपी अमृत पीने वाला तो निश्चित अजर-अमरपने को प्राप्त हो जाता है, इसलिए इसे परमामृत कहा है।

ज्ञानी और अज्ञानी के कर्म निर्जरा में अन्तर

कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जे।
ज्ञानी के छिनमाहिं, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते।।
मुनिव्रत धार, अनन्त बार ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो।।४।।
(शिवसौख्य न पायो।।४।।)
अर्थ – मिथ्यादृष्टि जीव आत्मज्ञान (सम्यक्ज्ञान) के बिना करोड़ों जन्मों तक तप करके जितने कर्मों का नाश करता है, उतने कर्मों का नाश सम्यक्ज्ञानी जीव अपने मन-वचन-काय के निरोधरूप गुप्तियों से क्षण मात्र में सहज ही कर लेता है। यह जीव द्रव्यलिंगी मुनि बनकर महाव्रतों का निरतिचार पालन कर अनन्त बार स्वर्ग में जाकर नवग्रैवेयक विमानों में उत्पन्न हुआ, परन्तु मिथ्यात्व के कारण आत्मा के भेदविज्ञान (सम्यक्ज्ञान या स्वानुभव) के अभाव में इसे मोक्ष सुख नहीं प्राप्त हो सका। इस पद्य में पं. दौलतराम की एक पंक्ति में संशोधन करते हुए पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने आगमिक अर्थ को स्पष्ट किया है-
मुनिव्रत धारण कर ग्रैवेयक तक गये किन्तु यदि सम्यक्त्व नहीं है, तो मोक्ष सुख प्राप्त नहीं होता है। अथवा मुनिव्रतों को धारण कर-करके अनंतों बार ग्रैवेयक में जाने की बात उनके लिये भी घटित होगी कि जो अभव्य जीव हैं। वे अनंतों बार मुनि बन-बनकर ग्रैवेयक तक प्राप्त कर लेते हैं किन्तु वे ही अभव्य जीव मोक्षमार्ग प्राप्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि अभव्य जीव सम्यग्दर्शन सहित भावलिंगरूप रत्नत्रय को प्राप्त नहीं करते हैं। इतना अवश्य समझना कि नवग्रैवेयक तक जाने वाले मुनि ही होते हैं। द्रव्य से कोई भी नग्न दिगम्बर मुद्रा धारण किये बिना सोलह स्वर्गों के ऊपर नहीं जा सकते हैं और वहाँ अहमिन्द्रों का सुख भी अनुपम है, संसार के अन्य सुखों की उपमा से रहित ही है इसलिये ‘‘सुख लेश न पायो’’ यह पंक्ति तो बिल्कुल ही गलत है, हाँ, इतना अवश्य है कि वे यदि द्रव्यलिंगी साधु हैं, भव्य हैं तो कभी न कभी मोक्ष जाएँगे ही जाएँगे और यदि अभव्य हैं तो कभी भी रत्नत्रय प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि वे मोक्ष जाएँगे ही नहीं। यहाँ यह ध्यान रखना है कि पंच परिवर्तन की अपेक्षा भव्य जीव भी कदाचित् अनंत बार नवग्रैवेयक तक जा सकते हैं। इसीलिए ‘‘शिवसौख्य न पायो’’ यह आगमसम्मत पंक्ति पढ़ना चाहिए।

तत्त्वाभ्यास की प्रेरणा, ज्ञान के दोषों का त्याग और मनुष्य पर्याय, सुकुल एवं जिनवाणी की दुर्लभता

तातैं जिनवर कथित तत्त्व, अभ्यास करीजै।
संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजै।।
यह मानुष-पर्याय, सुकुल, सुनिवो जिनवानी।
इह विध गये न मिलै, सुमणि ज्यों उदधि समानी।।५।।
 
अर्थ – इसलिए श्री जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदेशित जीवाजीव आदि तत्त्वों का अभ्यास अर्थात् पठन-पाठन-मनन करें और सम्यक्ज्ञान के तीनों दोषों-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय को त्याग कर अपने आत्मस्वरूप को जानें। जिस प्रकार समुद्र में डूबा हुआ अमूल्य रत्न फिर हाथ नहीं आता है, उसी प्रकार यह मनुष्य पर्याय पाना, उसमें भी उत्तम श्रावक कुल पाना और सर्वोपरि जिनवाणी के श्रवण जैसा दुर्लभ अवसर व्यर्थ गँवा देने पर बारम्बार प्राप्त नहीं होता इसलिए यह अपूर्व अवसर यूँ ही न खोने दें।
 
विशेषार्थ – संशय, विभ्रम और अनध्यवसाय ये तीन दोष सम्यग्ज्ञान के हैं। संशय-विरुद्ध अनेक कोटि का अवलम्बन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे-मैं शरीर हूँ या जीव ? (डाँवा डोल प्रवृत्ति)। विभ्रम-विपरीत ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। जैसे-यह शरीर ही आत्मा है। अनध्यवसाय-‘‘कुछ है’’ इस प्रकार निश्चय रहित ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे-मैं कुछ भी हूँ।

ज्ञान की महिमा, उसका कारण और विवेक प्राप्ति

धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै।
ज्ञान आप को रूप भये, फिर अचल रहावै।।
तास ज्ञान को कारन, स्व-पर विवेक बखानौ।
कोटि उपाय बनाय, भव्य ताको उर आनौ।।६।।
 
अर्थ – धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब-समाज, हाथी-घोड़े, राज्य-वैभव आदि कोई भी वस्तु आत्मा की उन्नति में सहायक सिद्ध नहीं होते हैं, कुछ दिन साथ रहकर अवश्य नष्ट हो जाते हैं किन्तु सम्यक्ज्ञान आत्मा का वास्तविक स्वरूप है, वह एक बार प्राप्त हो जाए तो अक्षय हो जाता है। आत्मा और पर-वस्तुओं का भेद विज्ञान ही उस सम्यक्ज्ञान का कारण है, इसलिए प्रत्येक आत्महितैषी भव्यजीव को सतत प्रयास एवं करोड़ों उपाय करके भी उस सम्यक्ज्ञान को अपने हृदय में धारण करना चाहिए।

सम्यग्ज्ञान का महत्व और विषय चाह रोकने का उपाय

जे पूरब शिव गये, जाहि, अब आगे जै हैं।
सो सब महिमा ज्ञानतनी, मुनिनाथ कहै हैं।।
विषय-चाह दव-दाह, जगत-जन अरनि दझावै।
तासु उपाय न आन, ज्ञान घनघान बुझावै।।७।।
 
अर्थ – भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों में जो भी जीव मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, करेंगे और आज भी विदेह क्षेत्र से कर रहे हैं, वह सब सम्यक्ज्ञान का ही प्रभाव है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव एवं उनके गणधरों की दिव्य देशना में वर्णित है। जिस प्रकार दावानल वन की समस्त वस्तुओं को जलाकर भस्मीभूत कर देता है, उसी प्रकार पंचेन्द्रियसंबंधी विषयों की चाह संसारी जीवों को घेर कर जलाती है, सताती है, दु:ख देती है। फिर जैसे मूसलाधार वर्षा उस दावानल को बुझा सकती है, उसी प्रकार यह सम्यक्ज्ञानरूपी मेघसमूह विषयों की चाह को शान्त कर देता है। अन्य कोई भी उपाय कार्यकारी सिद्ध नहीं हो सकता है।
 
विशेषार्थ – सम्यग्ज्ञान की महिमा दर्शाते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि आज तक जितने भी जीव मोक्ष गये हैं, आज जा रहे हैं और आगे जावेंगे, यह सब प्रभाव मात्र सम्यग्ज्ञान का ही है। जैसे-मूसलाधार जल की वर्षा वन की भयंकर अग्नि को बुझा देती है, वैसे ही सम्यग्ज्ञानरूपी मेघ की वर्षा विषयों की चाहरूपी दावाग्नि को शांत कर देती है।

पुण्य-पाप में हर्ष-विषाद का निषेध

पुण्य-पाप फलमाहिं, हरख बिलखौ मत भाई।
यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसैं फिर थाई।।
लाख बात की बात यहै, निश्चय उर लाओ।
तोरि सकलजग-दंद-कुंद, निज आतम ध्याओ।।८।।
 
अर्थ – आत्महितैषी जीव का यह कत्र्तव्य है कि वह धन-पुत्रादि की प्राप्ति में हर्ष और रोग-वियोग आदि होने पर विषाद न करें, क्योंकि ये पुण्य-पाप तो पुद्गलरूप कर्म की पर्याएँ हैं, जो एक के बाद एक उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं। सारे उपदेशों का सार यही है कि समस्त सांसारिक उलझनों चिन्ताओं से नाता तोड़कर आत्मचिन्तन में प्रवृत्त होना चाहिए। विशेषार्थ-जो अशुभ गतियों एवं अशुभ प्रवृत्तियों से जीव की रक्षा करे, उसे पुण्य कहते हैं और जो शुभ गतियों एवं शुभ प्रवृत्तियों से जीव की रक्षा करे, उसे पाप कहते हैं।

सम्यक्चारित्र के भेद, अहिंसा और सत्य अणुव्रत के लक्षण

सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दिढ़ चारित लीजै।
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै।।
त्रस-हिंसा को त्याग, वृथा थावर न संघारै।
पर-वधकार कठोर निन्द्य, नहिं वचन उचारै।।९।।
 
अर्थ –सम्यक्ज्ञान प्राप्त करके पुन: सम्यक्चारित्र धारण करना चाहिए। सम्यक्चारित्र के दो भेद हैं-एकदेश और सकलदेश। यहाँ एकदेश चारित्र का ही वर्णन करते हैं, जिसे श्रावक पालन करते हैं। श्रावकों के बारह व्रत होते हैं, उन्हें क्रमवार कहते हैं। एकदेश चारित्रधारी श्रावक त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी होता है और एकेन्द्रिय (स्थावर) जीवों का भी अनावश्यक घात नहीं करता है। (यह पहला अहिंसाणुव्रत है) वह श्रावक स्थूल झूठ का त्यागी होता है और ऐसे वचन भी नहीं बोलता है, जो दूसरे के लिए प्राणघातक हों, दु:खदायक हों, कठोर हों या निन्दा के योग्य हों। (यह दूसरा सत्याणुव्रत है।)
 
विशेषार्थ-अच्छे कार्यों को करने का नियम लेना और बुरे कार्यों को छोड़ना व्रत कहलाता है। हिंसादि पाँचों पापों का स्थूलरूप से एकदेश त्याग करना अणुव्रत है।

अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण अणुव्रतों का स्वरूप तथा दिग्व्रत का लक्षण

जल मृतिका बिन और, नाहिं कछु गहैं अदत्ता।
निजवनिता बिन सकल, नारिसों रहै विरत्ता।।
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै।
दश दिश गमन प्रमान ठान, तसु सीम न नाखै।।१०।।
 
अर्थ – जल और मिट्टी, जिनका कोई स्वामी नहीं और जो सबके उपयोग के लिए हैं, को छोड़कर अन्य किसी भी बिना दी हुई वस्तु को नहीं ग्रहण करना, अचौर्याणुव्रत है। अपनी विवाहिता स्त्री के सिवाय संसार की सब स्त्रियों से विरक्त रहना, ब्रह्मचर्याणुव्रत है। (इसे स्वदारा सन्तोषव्रत भी कहते हैं)। अपनी शक्ति का विचार करके धन, धान्य आदि परिग्रह का थोड़ा आवश्यक प्रमाण करना (मर्यादा बाँधना), परिग्रह परिमाणाणुव्रत है। अब गुणव्रतों का वर्णन करते हैं। दशों दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा निश्चय करके उस मर्यादा का उलंघन न करना ‘दिग्व्रत’ नामक पहला गुणव्रत है।
 
विशेषार्थ – परिग्रह परिमाण अणुव्रत तीन प्रकार का है- # उत्तम (२) मध्यम (३) जघन्य # उत्तम-जितना परिग्रह है, उससे कम की मर्यादा करना। # मध्यम-वर्तमान में जितना परिग्रह है, उससे अधिक नहीं रखूँगा। # जघन्य-वर्तमान में जितना परिग्रह है उससे अधिक का प्रमाण करना। मूलगुणों और अणुव्रतों को दृढ़ करने वाले व्रत गुणव्रत कहलाते हैं।

देशव्रत नामक गुणव्रत का लक्षण

ताहू में फिर ग्राम, गली गृह बाग बजारा।
गमनागमन प्रमान ठान, अन सकल निवारा।।
 
अर्थ – दिग्व्रत में जीवनपर्यन्त के लिए की गई आवागमन के विस्तृत क्षेत्र की सीमा में भी समय की मर्यादा और बाँध देना अर्थात् घड़ी, घण्टा, दिन, महीना, वर्ष आदि काल के नियमानुसार अमुक प्रान्त, नगर, बाग, बाजार, गली, घर आदि तक आने-जाने की मर्यादा (सीमा) निश्चित कर लेना ‘देशव्रत’ नामक गुणव्रत कहलाता है। व्रती श्रावक इसका कभी उल्लंघन नहीं करता है।

अपध्यान एवं पापोपदेश अनर्थदण्डविरतिव्रतों के लक्षण

काहू की धनहानि, किसी जय हार न चिन्तै।
देय न सो उपदेश, होय अघ बनज कृषीतैं।।११।।
 
अर्थ – किसी के धन का नाश हो जावे, किसी की जीत हो जावे, किसी की हार हो जावे, ऐसा विचार नहीं करना पहला ‘अपध्यान’ नामक ‘अनर्थदण्डविरतिव्रत’ है। ऐसे व्यापार-उद्योग या खेती करने (जिससे पाप-बंध होता हो) का दूसरों को उपदेश नहीं देना, ‘पापोपदेश’ नामक दूसरा अनर्थदण्डविरतिव्रत है।

प्रमादचर्या, हिंसादान और दु:श्रुति अनर्थदण्ड त्यागव्रतों का स्वरूप

कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै।
असि धनु हल हिन्सोपकरण, नहिं दे यश लाधै।।
राग-द्वेष-करतार, कथा कबहूँ न सुनीजै।
औरहु अनरथदण्ड हेतु, अघ तिन्हैं न कीजै।।१२।।
 
अर्थ – प्रमाद (शिथिलाचार) वश कौतूहल या आलस्य के कारण निष्प्रयोजन (व्यर्थ में) पानी बहाने, जमीन खोदने, वृक्ष काटने, आग जलाने आदि का त्याग करने को ‘प्रमादचर्या अनर्थदण्डविरतिव्रत’ कहते हैं। यश की अभिलाषा से तलवार, धनुष, हल या हिंसा के कारणभूत (साधन) वस्तुओं को किसी दूसरे को नहीं देना सो ‘हिंसादान अनर्थदण्डविरतिव्रत’ है। राग-द्वेष उत्पन्न करने वाली विकथा, किस्सा-कहानी के कहने-सुनने का त्याग करने को ‘दु:श्रुति अनर्थदण्डविरतिव्रत’ कहते हैं।

शिक्षाव्रतों के लक्षण

धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये।
परब चतुष्टय माहिं, पाप तज प्रोषध धरिये।।
भोग और उपभोग, नियम करि ममत निवारै।
मुनि को भोजन देय, फेर निज करहि अहारै।।१३।।
 
अर्थ – जो व्रत मुनिधर्म पालन करने की शिक्षा देते हैं, उन्हें ‘शिक्षाव्रत’ कहते हैं। इसके ४ भेद हैं-१. रागद्वेष को त्याग कर अपने परिणामों को स्थिर कर एकान्त स्थान में प्रतिदिन विधिपूर्वक देववंदना-सामायिक करना ‘सामायिक शिक्षाव्रत’ है। (२) प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को कषाय और व्यापार आदि आरंभ के सांसारिक कार्यों को त्याग कर धर्मध्यानपूर्वक प्रोषधोपवास (धारणा एवं पारणा के दिन एकाशन सहित उपवास) करना ‘प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत’ है। परिग्रह परिमाणव्रत में परिमित भोगोपभोग की वस्तुओं में से जीवन भर के लिए अथवा कुछ निश्चित समय के लिए नियम (परिमाण) करना ‘भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत’ है। इसे ‘देशावकाशिक शिक्षाव्रत’ भी कहते हैं। दिगम्बर (निर्ग्र्रंथ) मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि त्यागीव्रती को ‘आहारदान’ देकर फिर स्वयं भोजन करना ‘वैय्यावृत्ति शिक्षाव्रत’ है। इसे ‘अतिथि संंविभाग शिक्षाव्रत’ भी कहते हैं।
 
विशेषार्थ –जो वस्तुएँ एक ही बार भोगने में आती हैं, उन्हें भोग करते हैं। जैसे-भोजन, पान आदि। जो वस्तुएँ बार-बार भोगने में आती हैं, उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे-वस्त्र, मकान, स्त्री आदि।

अतिचार न लगाने का आदेश और व्रत पालन का फल

बारह व्रत के अतीचार, पन-पन न लगावै।
मरण समय संन्यास धार, तसु दोष नशावै।।
यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै।
तहँतैं चय नर-जन्म पाय, मुनि ह्वै शिव जावै।।१४।।
 
अर्थ – जो गृहस्थजन श्रावक के पूर्वोक्त बारह व्रतों (पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत) को विधिपूर्वक जीवनपर्यन्त पालते हुए उनके पाँच-पाँच अतिचारों को भी टालते हैं और मृत्यु के समय पूर्वोपार्जित दोषों को नष्ट करने के लिए विधिपूर्वक समाधिमरण (सल्लेखना) धारण करते हैं, वह आयु पूर्ण होने पर व्रतों के प्रभाव से सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं और वहाँ से चय कर मनुष्य पर्याय धारण कर मुनिव्रत का पालन करते हुए उसी पर्याय से मोक्ष चले जाते हैं।
 
विशेषार्थ – ग्रहण किये हुए व्रतों का प्रमाद आदि के कारण एकदेश भंग हो जाना अतिचार कहलाता है। आत्मकल्याण हेतु क्रमश: (धीरे-धीरे) काय और कषाय का त्याग करने को संन्यास, सल्लेखना, समाधि या संथारा कहते हैं। जिसकी परिणति में श्रद्धा, ज्ञान में विवेक और आचरण में सत् क्रिया हो, उसे श्रावक कहते हैं। चतुर्थ ढाल में आठ छंदों द्वारा सम्यग्ज्ञान एवं उसकी महिमा का विवेचन किया गया है, तत्पश्चात् श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन है।

पंचम ढाल


(चाल छंद)

भावनाओं के चिन्तवन का कारण, अधिकारी और लाभ

मुनि सकलव्रती बड़भागी, भव-भोगनतैं वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिंतैं अनुप्रेक्षा भाई।।१।।

अर्थ – संसार, शरीर एवं भोगों से विरक्त होकर जिन्होंने सकलव्रतों को धारण किया है, वे दिगम्बर (निर्गंरथ) मुनिराज बड़े भाग्यवान हैं। संसार, शरीर और भोगों की असारता तथा अनित्य आदि बारह भावनाओं के स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करना ‘अनुप्रेक्षा’ है। जैसे माता संतान को जन्म देती है, उसी प्रकार अनुप्रेक्षा वैराग्य उत्पन्न करती है इसलिए वे मुनिराज वैराग्य को उत्पन्न करने के लिए बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हैं।

विशेषार्थ – संसार, शरीर और भोगों आदि का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाती है। अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म नाम वाली ये अनुप्रेक्षाएँ बारह हैं।

भावनाओं का फल

इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागै।
जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिवसुख ठानै।।२।।

अर्थ –जिस प्रकार हवा के लगने से अग्नि वेग से धधक उठती है, उसी प्रकार इन बारह भावनाओं का बारम्बार चिन्तवन करने से समतारूपी भाव जाग्रत हो उठता है, अर्थात् यह जीव अपनी आत्मा के वास्तविकरूप को पहिचानने लगता है। फलस्वरूप वह जीव परपदार्थों से नाता तोड़कर समतारस का पान करता है और कालान्तर में अविनाशी मोक्षसुख को प्राप्त करता है।

विशेषार्थ- जैसे- वायु के संयोग से अग्नि में वृद्धि होती है, वैसे ही भावनाओं के चिंतन से वैराग्य दृढ़ होता है, जिससे समता में वृद्धि होती है और समता से आत्मिक सुख प्राप्त होता है।

अनित्य भावना का लक्षण

जोवन गृह गो धन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी।
इन्द्रीय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई।।३।।

अर्थ – यौवन, घर, गाय-बैल, द्रव्य, स्त्री, घोड़ा, हाथी, आज्ञा के अनुकूल चलने वाले नौकर तथा इन्द्रियों के भोग-ये क्षणिक हैं, स्थाई नहीं हैं। इन्द्रधनुष या बिजली के अस्तित्व सा चंचल इनका अस्तित्व है। कोई भी पदार्थ नित्य या स्थाई नहीं है, ऐसा विचार कर बार-बार चिन्तवन करना ‘अनित्य भावना’ है।

विशेषार्थ- स्वस्वामी भाव से ग्रहण किए हुए चेतन, अचेतन एवं मिश्र पदार्थ तथा इन्द्रिय आदि के भोग इन्द्रधनुष एवं बिजली के सदृश क्षणभंगुर हैं, ऐसा चिन्तन करना अध्रुव अर्थात् अनित्य भावना है। जैसे विवेकी मनुष्यों को जूठे भोजन में ममत्व नहीं होता, उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, धन, वैभव का वियोग आदि हो जाने पर भी ममत्व नहीं होता, यही इस भावना का फल है।

अशरण-भावना का लक्षण

सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते।
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई।।४।।

अर्थ – संसार में जो इन्द्र (सुरपति), नागेन्द्र (असुरपति), चक्रवर्ती (खगपति) आदि महिमावान हुए उन सबको भी मृत्यु (काल) उसी प्रकार विनष्ट कर देती है, जैसे हिरण को सिंह मार डालता है। संसार के भौतिक रत्न, मंत्र और तंत्र भी मृत्यु से नहीं बचा सकते। संसार में कोई भी शरण नहीं है और मरने से कोई बचाने वाला नहीं है-ऐसा चिन्तवन करना ही ‘अशरण भावना’ है। विशेषार्थ – महावन में व्याघ्र से पकड़े हुए हिरण के बच्चे को एवं महासमुद्र में जहाज से छूटे हुए पक्षी को जैसे कोई शरण नहीं है, वैसे ही मरण आदि के समय इन्द्र, चक्रवर्ती, कोटिभट, सहस्रभट, पुत्र एवं स्त्री आदि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भोंहरा, मणि, मंत्र, तंत्र, औषधि, आज्ञा एवं महल आदि अचेतन पदार्थ कोई भी शरण नहीं हैं, ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है।

संसार-भावना का लक्षण

चहुँगति दु:ख जीव भरै हैं, परिवर्तन पञ्च करै हैं।
सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहि लगारा।।५।।

अर्थ – संसार में प्रत्येक प्राणी चारों गतियों के दु:खों को सहता है और पाँचों (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भव) परिवर्तन करता रहता है, किन्तु कभी शांति नहीं पाता। वास्तव में यह संसार असार है, उसमें लेशमात्र भी सुख नहीं है। सांसारिक सुख तो सुखाभास, नश्वर, भ्रमरूप और परिणाम में कटु हैं, ऐसा विचार करना ‘संसार भावना’ है।

विशेषार्थ – द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप यह संसार अनन्त दु:खों एवं कष्टों से भरा हुआ है, सारहीन है तथा कहीं भी चैन और सुख नहीं है, ऐसा विचार करना संसार भावना है।

एकत्व-भावना का लक्षण

शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगै जिय एकहि तेते।
सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी।।६।।

अर्थ – अपने पुण्य कर्मों के अच्छे और पाप कर्मों के निन्दनीय फल को प्रत्येक प्राणी अकेला ही भोगता है अर्थात् यह जीव सदा एकाकी है। उसमें पुत्र-स्त्री आदि कोई भी हिस्सेदार नहीं होते हैं। ये सभी रिश्तेदार स्वार्थ के अभिप्राय से ही नाता रखते हैं एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में मुँह मोड़ लेंगे-ऐसा विचार करना ‘एकत्व भावना’ है।

विशेषार्थ – जो अपना आत्मा है वही सदा अविनाशी, परमहितकारी एवं परमबंधु है, विनश्वर तथा अहितकारी पुत्र, कलत्र और मित्र आदि बंधु नहीं हैं अथवा पुण्य और पाप कर्मों के जितने फल हैं, उनको यह जीव अकेला ही भोगता है, स्त्री-पुत्रादि कोई भाग नहीं बाँट सकता, ऐसा चिन्तन करना एकत्व भावना है। देव-पूजा, गुरु उपासना एवं स्वाध्याय आदि धार्मिक कार्यों की ओर मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति लगाना शुभोपयोग कहलाता है। विषय-कषायों की ओर त्रियोग की प्रवृत्ति लगाना अशुभोपयोग कहलाता है।

अन्यत्व-भावना का लक्षण

जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।
तो प्रगट जुदे धन धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत रामा।।७।।

अर्थ – जिस प्रकार दूध और पानी एकमेक होकर मिल जाते हैं, किन्तु अपने-अपने गुणादिक की अपेक्षा से दोनों अलग-अलग रहते हैं, उसी प्रकार यह जीव और शरीर भी एकमेक होकर मिले हुए हैं, तो भी वे दोनों अपने-अपने स्वरूपादिक की अपेक्षा से अलग-अलग हैं-एक नहीं। जब लेशमात्र भी पृथक् न दिखने वाले जीव तथा शरीर भी जुदे-जुदे हैं, तब स्पष्टरूप से अलग दिखने वाले धन, मकान, पुत्र, स्त्री आदि एक (अपने) कैसे हो सकते हैं ? ऐसा बारम्बार विचार करना ‘अन्यत्व भावना’ है। इस भावना के चिन्तवन से ‘भेदज्ञान’ की सिद्धि होती है। यद्यपि अनादिकाल से शरीर व आत्मा एक साथ रह रहे हैं, किन्तु जो शरीर है वह आत्मा नहीं और जो आत्मा है वह शरीर नहीं। इसी प्रकार संसार की कोई वस्तु मेरी नहीं और मैं भी किसी का नहीं। अन्य वस्तु अन्य रूप है और मैं अन्य रूप हूँ, ऐसी भावना भानी चाहिए।

विशेषार्थ – संसार की कोई भी वस्तु मेरी नहीं है, दूध-पानी सदृश एकमेक होने वाला शरीर भी मेरा नहीं है, ऐसा चिन्तन करना अन्यत्व भावना है। एकत्व भावना में ‘‘मैं एक हूँ’’ इस प्रकार विधिरूप से एकपने का चिन्तन किया जाता है किन्तु अन्यत्व भावना में ‘देहादिक पदार्थ मेरे नहीं हैं, मुझसे भिन्न हैं’ इस प्रकार निषेधरूप से चिन्तन किया जाता है।

अशुचि-भावना का लक्षण

पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली।
नवद्वार बहैं घिनकारी, अस देह करै किम यारी।।८।।

अर्थ – यह देह ऊपर से देखने में कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, विश्लेषण करने पर अत्यन्त घृणित एवं घोर अपवित्र है। यह काया माँस, खून, पीप, मल-मूत्र आदि की थैली है और हड्डी-चरबी आदि से युक्त होने से पूर्ण अपवित्र है। घृणा उत्पन्न करने वाले नवद्वारों से सदैव मल बहता रहता है-ऐसी अपवित्र देह में भला प्रेम कैसे किया जाये ? ऐसा विचार करना ‘अशुचि भावना’ है। इसके चिन्तवन से शरीर एवं भोगों से विरक्ति होती है, वैराग्य दृढ़ होता है।

विशेषार्थ – यह शरीर हड्डी, माँस आदि ग्लानिदायक वस्तुओं का घर है, नवद्वारों का पींजरा है, मल, मूत्र आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान है, केवल इतना ही नहीं अपितु अपने संसर्ग से पवित्र एवं सुगंधित पदार्थों को भी अपवित्र कर देता है, ऐसा चिन्तन करना अशुचि भावना है।

आस्रव भावना का लक्षण

जो योगन की चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई।
आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हैं निरवेरे।।९।।

अर्थ – हे भव्यजीवों! मन-वचन-काय की चंचलता से कर्मों का आस्रव होता है, अर्थात् कर्म आत्मप्रदेशों में बंधते हैं। यह कर्मास्रव जीव के लिए बहुत दु:खदायी है इसलिए बुद्धिमान एवं चतुर प्राणियों को यह वास्तविकता समझकर उससे बचना चाहिए अर्थात् उनको दूर करना चाहिए, ऐसा विचार करना ‘आस्रव भावना’ है।

विशेषार्थ – जैसे छिद्र सहित रत्नों से भरा जहाज भी समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही अनन्त गुणों का भण्डार यह आत्मा आस्रवों के कारण संसार-समुद्र में डूब रहा है, ऐसा विचार करना आस्रव भावना है।

संवर-भावना का लक्षण

जिन पुण्य पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना।
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके।।१०।।

अर्थ – जो विवेकी प्राणी बंध का कारण होने से पुण्य (शुभोपयोग) और पाप (अशुभोपयोग) रूप भावों को नहीं करते हैं, केवल कर्मबंधरोधक, आत्म-मंथन अर्थात् आत्मा के चिन्तवन (शुद्धोपयोग) में मन लगाते हैं-वे आते हुए नवीन कर्मों को रोककर ‘संवर’ को पाकर सुख की उपलब्धि करते हैं। अपने चित्त में ऐसा विचार करना ‘संवर भावना’ है। कर्मों के संवर से दु:ख स्वत: समाप्त हो जाता है।

विशेषार्थ – जैसे वही जहाज छिद्र बंद हो जाने से जल के न घुसने पर निर्विघ्न पार हो जाता है वैसे ही यह जीवरूपी जहाज आस्रवरूपी छिद्रों के बंद हो जाने से सुख को प्राप्त हो जाता है, ऐसा चिन्तन करना संवर भावना है। हिंसा आदि लोकनिंद्य कार्यों को पाप और सच्चे देव द्बारा कथित धार्मिक कार्यों का फल पुण्य कहलाता है।

निर्जरा-भावना का लक्षण

निज काल पाय विधि झरना, तासों निजकाज न सरना।
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै।।११।।

अर्थ – अपनी-अपनी स्थिति (समय) पूर्ण (पूरा) कर सम्पूर्ण संसारी जीवों के कर्मों का नष्ट (क्षय) होना (झरना) सविपाक या अकाम निर्जरा है। जैसे-आम अपना समय आने पर ही पकता या गिरता है, उसी प्रकार सविपाक निर्जरा में कर्म अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही फल देकर झड़ जाते हैं। इस अकाम निर्जरा से आत्मा (जीव) का कुछ भी कल्याण नहीं होता है। तप के द्वारा कर्मों का नाश किया जाना अविपाक या सकाम निर्जरा है। जैसे-कोई कच्चा आम तोड़कर पाल में दबा कर असमय में ही पका दिया जाता है, उसी प्रकार अविपाक निर्जरा में कर्म स्थिति पूर्ण हुए बिना ही तप आदि के बल से नष्ट कर दिये जाते हैं। यह सकाम निर्जरा ही मोक्ष सुख को प्राप्त को कराती है इसलिए सकाम निर्जरा के कारणों को जानकर कर्मों को स्वयं तप के द्वारा दूर करना चाहिए, ऐसा विचार करना ‘निर्जरा भावना’ है।

लोक-भावना का लक्षण

किनहू न करौ न धरै को, षट् द्रव्यमयी न हरै को।
सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता।।१२।।

अर्थ – इस लोक को किसी ने नहीं बनाया है और न कोई इसे धारण किए हुए है। यह लोक छ: द्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) से भरा हुआ है और कोई इसका कभी नाश नहीं कर सकता है। इस स्वयंसिद्ध लोक में यह जीव समतापरिणति के अभाव में भ्रमण करता है और दु:ख सहता है। ऐसा विचार करना, दसवीं ‘लोक भावना’ है।

बोधि दुर्लभ-भावना का लक्षण

अन्तिम ग्रीवकलौं की हद, पायों अनन्त बिरियाँ पद।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ।।१३।।

अर्थ – मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव (प्राणी) ने मंद कषाय के फलस्वरूप असंख्य बार नौवें ग्रैवेयक (स्वर्ग का विमान) में उत्पन्न होकर अहमिन्द्र पद प्राप्त किया, परन्तु इसे एक बार भी सम्यक्ज्ञान का उदय नहीं हुआ क्योंकि उसका पाना कोई सरल काम नहीं है। ऐसे बड़ी कठिनता से उपलब्ध होने वाले सम्यक्ज्ञान की साधना आत्मचिन्तवन करने वाले भावलिंगी मुनि ही कर सकते हैं, ऐसा विचार करना ‘बोधिदुर्लभ भावना’ है।

विशेषार्थ – एकेन्द्रिय, विकलत्रय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, नरपर्याय, उत्तम कुल, उत्तम देश, सांगोपांगता, सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, कार्य कुशलता, निरोगता, दीर्घायु, श्रेष्ठ बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, श्रद्धान करना, संयम, विषय सुखों से पराङ्मुखता एवं क्रोधादि कषायों से निवृत्ति ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। काकतालीय न्याय से ये कदाचित् मिल भी जाएँ, तो भी बोधि और समाधि की प्राप्ति तो अति दुर्लभ है, ऐसा सदैव चिंतन करना चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होना बोधि है तथा इस बोधि को निर्विघ्नतापूर्वक अन्य भव में ले जाना समाधि है। दिगम्बर मुनिराज ही इसे अपने हृदय में धारण करके मोक्ष पद प्राप्त करते हैं। बिना सम्यग्ज्ञान के तो इस जीव ने अनन्तों बार मुनिव्रत धारण कर नवम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया किन्तु मोक्ष प्राप्त नहीं कर सका, इसलिए इसे अतिदुर्लभ कहा है।

धर्म-भावना का लक्षण

जे भाव मोहतैं न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे।
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै।।१४।।

अर्थ – सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, तप आदि जितने भी भाव हैं, वे सब मोह-भाव से भिन्न हैं (क्योंकि ये भाव धर्मरूप हैं)। इस धर्म को जब यह जीव धारण करता है, तब ही वह शाश्वत सुख अर्थात् मोक्ष (सब कर्मों से रहित अवस्था) को प्राप्त करता है, ऐसा चिन्तवन करना ‘धर्म प्रभावना’ है।

विशेषार्थ – वस्तु का स्वभाव धर्म, अहिंसा धर्म, उत्तम क्षमादि दस- लक्षण धर्म, निश्चय एवं व्यवहार धर्म तथा शुद्ध आत्मानुभव रूप, मोह-क्षोभ रहित आत्मपरिणाम वाला धर्म, ये धर्म के भिन्न-भिन्न लक्षण हैं। धर्म में कर्तव्य-पालन की प्रधानता रहती है किन्तु धर्म भावना में धर्म के लक्षणों का बार-बार चिन्तन किया जाता है।

मुनिधर्म को सुनने की प्रेरणा

सो धर्म मुनिन-करि धरिये, तिनकी करतूत उचरिये।
(तिनकी गुणकीर्ति उचरिये)
ताकों सुनिये भवि प्राणी, अपनी अनुभूति पिछानी।।१५।।

अर्थ – ऐसे रत्नत्रयस्वरूप हितकारी धर्म को भावलिंगी निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैसे मुनि ही धारण करते हैं और कोई अन्य नहीं, क्योंकि रत्नत्रय का पूर्ण पालन केवलमात्र वे ही करने में समर्थ हैं इसलिए अगली अध्याय में उन मुनियों की क्रियाओं (कत्र्तव्यों) अर्थात् सकलचारित्र का वर्णन किया जाता है। हे भव्यजीवों! उन मुनि के कत्र्तव्यों को सुनो और अपनी आत्मा के अनुभव को पहचानो अर्थात् समझो। यहां ‘करतूत’ शब्द लोकविरुद्ध है प्राय: गलत क्रियाओं को ‘करतूत’ कहते हैं अत: ‘गुणकीर्ति’ पद अच्छी चर्या और क्रिया का बोध कराने वाला है।

छठवीं ढाल


(हरिगीता छंद)

अहिंसा, सत्य, अचौर्य तथा ब्रह्मचर्य महाव्रतों का लक्षण

षट्काय जीव न हननतैं, सब विधि दरब-हिंसा टरी।
रागादि भाव निवारतैं, हिंसा न भावित अवतरी।।
जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयौ गहैं।
अठदशसहस विधि शील धर, चिद्ब्रह्म में नित रमि रहैं।।१।।
 
अर्थ – छहकाय के जीवों का घात करना ‘द्रव्यहिंसा’ और राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान इत्यादि भावों की उत्पत्ति ‘भावहिंसा’ कहलाती है। मुनिराज इन दोनों प्रकार की हिंसाओं को नहीं करते, इसलिए उनके अहिंसा महाव्रत’ होता है। स्थूल अथवा सूक्ष्म दोनों प्रकार का झूठ भी मुनिराज कभी नहीं बोलते, इसलिए उनके ‘सत्य महाव्रत’ होता है। अन्य वस्तुओं का तो पूछना ही क्या, जिस मिट्टी और जल को सर्वसाधारण जीव बिना किसी रोक-टोक (निषेध) के प्रयोग में लेते हैं, मुनि उनको भी किसी के द्वारा दिए बिना ग्रहण नहीं करते इसलिए उनके ‘अचौर्य महाव्रत’ होता है। शील के १८००० भेदों का सदैव पालन करते मुनि चैतन्यरूपी आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं, इसलिए उनके ‘ब्रह्मचर्य महाव्रत’ होता है।
 
विशेषार्थ–पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच स्थावर और त्रसकाय, ये षट्काय जीव कहलाते हैं । इसप्रकार (मन, वचन, काय कृत, कारित, अनुमोदनारूप ९) नवकोटि से हिंसादि पाँचों पापों का सर्वथा त्याग करना महाव्रत है ।

 

परिग्रह त्याग महाव्रत, ईर्या और भाषा समिति स्वरूप

अन्तर चतुर्दश भेद बाहर, संग दशधा तैं टलैं।
परमाद तजि चउकर मही लखि, समिति ईर्या तै चलैं।।
जग सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं।
भ्रमरोग-हर जिनके वचन, मुख-चन्द्रतैं अमृत झरैं।।२।।
 
अर्थ –मुनिराज १४ प्रकार के अन्तरंग एवं १० प्रकार के बहिरंग परिग्रहों से सदा दूर रहते हैं, इसलिए उनके ‘परिग्रह त्याग महाव्रत’ होता है। सूर्योदय होने के बाद दिन में एकाग्रचित्त से चार हाथ आगे की भूमि देखकर जीव-जन्तुओं की हिंसा से बचते हुए मुनिराज मार्ग में चलते हैं अत: उनके ‘ईर्या समिति’ होती है।
 
विशेषार्थ –परिग्रह के मुख्यत: दो भेद हैं-अभ्यन्तर और बाह्य। अभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। बाह्य परिग्रह दश प्रकार का है-क्षेत्र (खेत), वास्तु (मकान), हिरण्य, स्वर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र और बर्तन।
 

एषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापना समिति

छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तनैं घर अशन को।
लैं तप बढ़ावन हेतु नहिं तन, पोषते तजि रसन को।।
शुचि ज्ञान संजम उपकरण, लखिवैं गहैं लखिवैं धरैं।
निर्जन्तु थान विलोक तन, मल मूत्र श्लेषम परिहरैं।।३।।
 
अर्थ – छ्यालीस दोषों से रहित एवं बत्तीस अन्तरायों को टालकर और रसना इन्द्रिय की लोलुपता छोड़कर (रसों का आंशिक या पूरा त्यागकर) शरीर को पुष्ट करने का अभिप्राय न रखते हुए केवल तप बढ़ाने के लिए, मुनिराज उत्तम कुल वाले श्रावक के यहाँ अनुद्दिष्ट प्रासुक भोजन (आहार) को दिन में एक बार ग्रहण करते हैं, इसलिए उनके ‘एषणा समिति’ होती है। शुद्धि-पवित्रता के साधन कमण्डलु, ज्ञान के साधन शास्त्र एवं संयम के साधन पिच्छिका को जीवों की विराधना (हिंसा) बचाने के लिए मुनिराज देखभाल कर रखते और उठाते हैं, इसलिए उनके ‘आदान-निक्षेपण समिति’ होती है। मल-मूत्र-कफ आदि शरीर के मैलों को मुनिराज जीव रहित स्थान देख कर त्यागते (छोड़ते) हैं, अत: उनके ‘व्युत्सर्ग या प्रतिष्ठापन समिति’ होती है।
 
विशेषार्थ – दाता के आश्रित सोलह उद्गम दोष, पात्र के आश्रित सोलह उत्पादन दोष तथा आहार संबंधी दस और भोजन क्रिया संबंधी चार-ऐसे कुल छियालीस दोष हैं।
 

तीन गुप्तियाँ और पंचेन्द्रिय विजय

सम्यक् प्रकार निरोध मन वच, काय आतम ध्यावते।
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते।।
रस रूप गंध तथा फरस अरु, शब्द शुभ असुहावने।
तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय, जयन पद पावने।।४।।
 
अर्थ – मुनिराज जब भली प्रकार से मन, वचन और काय की क्रिया (प्रवृत्ति) को रोककर अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, तब उनकी शांत एवं अचल आकृति को देखकर उसे पत्थर समझकर उससे हिरण या अन्य चौपाये अपनी खुजली मिटाने (रगड़ कर खुजाने) लगते हैं इसलिए उनके तीनों गुप्तियाँ (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति) होती हैं। वे अपने लिए पाँचों इन्द्रियों के २७ विषयों-५ रस, ५ वर्ण, २ गंध,८ स्पर्श, ७ शब्द-मे न तो प्रिय (शुभ) होने पर राग करते हैं और न ही अप्रिय (अशुभ) होने पर द्वेष करते हैं इसलिए पंचेन्द्रियों को वश में करने (विरक्त रहने) से वे जितेन्द्रिय कहलाते हैं।
 
विशेषार्थ – यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति का नाम समिति है और मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति की निवृत्ति का नाम गुप्ति है। पाँच इन्द्रियों और मन के उâपर विजय प्राप्त करना अर्थात् उन्हें वश में रखना इन्द्रियविजय कहलाता है।

छह आवश्यक और सात शेष गुण

समता सम्हारैं, थुति उचारैं, वन्दना जिनदेव को।
नित करैं श्रुतिरति, धरैं प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेव को।।

(प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करते)

जिनके न न्हौन, न दन्त-धोवन, लेश अम्बर आवरन।
भूमाहिं पिछली रयनि में कछु, शयन एकासन करन।।५।।

अर्थ
– दिगम्बर जैन मुनि सदा सामायिक करते हैं स्तुति करते हैं श्री जिनेन्द्र भगवान की वंदना करते हैं स्वाध्याय मनोयोग से करते हैं प्रतिक्रमण करते हैं देह से ममत्व त्याग करके कायोत्सर्ग करते हैं -इसलिए उनके ६ आवश्यक होते हैं। शरीर का शृँगार त्याग के कारण वे मुनिराज
(१) स्नान नहीं करते
(२) दातौन नहीं करते
(३) रंचमात्र भी कपड़ा शरीर ढाँकने में काम नहीं लेते
(४) रात के अंतिम भाग में जमीन पर एक ही करवट लेटकर थोड़ी सी नींद लेते हैं।
 
विशेषार्थ – जो किसी के वश में नहीं होते, उन्हें अवश कहते हैं, अर्थात् आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) आदि से ग्रस्त हो जाने पर भी, उनके एवं इन्द्रियों के वशीभूत न होकर, जो दिन और रात्रि के आवश्यक कार्य साधुओं को करने ही चाहिए, उन्हीं कार्यों को आवश्यक कहते हैं।
 
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने इस पद्य को संशोधित करके मुनियों के आचार ग्रंथ के अनुसार स्पष्टीकरण किया है, जो कि दृष्टव्य है- पण्डित दौलतराम जी और कवि बुधजन जी ने समता, स्तुति, वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग ये छ: आवश्यक (मुनियों के) कहे हैं किन्तु मूलाचार, अनगार धर्मामृत एवं अन्य सभी आचार्यप्रणीत आचारग्रंथों में सामायिक (समता), चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक कहे हैं। मूलाचार, आचारसार आदि ग्रंथों में साधुओं के २८ मूलगुणों के अन्तर्गत छह आवश्यक क्रियाओं में प्रतिक्रमण के बाद ‘प्रत्याख्यान’ क्रिया है न कि स्वाध्याय। प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। यावज्जीवन किसी वस्तु का त्याग अथवा प्रतिदिन आहार के बाद गुरु के पास अगले दिन आहार लेने तक आहार-भोजन का त्याग आदि प्रत्याख्यान है।
 
इसी प्रकार- अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों में मुनियों के लिए पिछली रात्रि में ‘वैरात्रिक’ स्वाध्याय का विधान है और रात्रि के अर्ध रात्रि में सोने का-निद्रा लेने का विधान है, अत: यह संशोधित पाठ आगमसम्मत है।

शेष सात गुण एवं समता

इक बार दिन में लैं अहार, खड़े अलप निज पान में।
कचलोंच करत न डरत परिषह, सों लगे निज ध्यान में।।
अरि मित्र महल मसान कंचन, काँच निंदन थुति करन।
अर्घावतारन असि-प्रहारन, में सदा समता धरन।।६।।
 
अर्थ – मुनि दिन में एक बार ही अपने हाथ में लेकर खड़े-खड़े थोड़ा सा आहार लेते हैं। वे अपरिग्रही अपने केशों का अपने हाथों से लोंच करते हैं। वे परिषह (दु:ख) से नहीं डरते हैं और अपनी आत्मा में लीन रहते हैं। इस प्रकार ये २८ मूलगुण साधु पालते हैं-५. महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियजय, ६ आवश्यक·२१ मूलगुण, फिर १. न नहाना २. दाँत न धोना ३. जमीन पर सोना ४. नग्न रहना ५. एक बार भोजन करना ६. खड़े-खड़े करपात्र में आहार लेना ७. अपने बालों का लोंच करना – २१ + ७ = २८ मूलगुण हैं। आत्मा के अतिरिक्त अन्य समस्त भौतिक पदार्थों से उदासीन रहने के कारण उनके लिए समस्त ऐश्वर्य तुच्छ हैं-साधु के लिए शत्रु और मित्र, महल और श्मशान, कंचन और काँच, निंदा और स्तुति, पूजन करना या तलवार से मारना-ये सब समान हैं अर्थात् मुनि हर एक अवस्था में शांत-चित्त रहा करते हैं। वे राग-द्वेष से ऊपर उठ जाते हैं अर्थात् वे सम-भाव धारण कर लेते हैं और आने वाली समस्त आपत्तियों और कष्टों को साम्य परिणामों से सहन कर लेते हैं।
 
विशेषार्थ – क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस-मच्छर, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार, अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा और अज्ञान यह बाईस प्रकार के परिषह हैं तथा रागद्वेष के अभावरूप प्रवृत्ति को समता कहते हैं।

मुनियों का तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरण चारित्र

तप तपैं द्वादश धरैं वृष दश, रतनत्रय सेवैं सदा।
मुनि साथ में वा एक विचरैं, चहैं नहिं भव सुख कदा।।
यों है सकल संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब।
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब।।७।।
 
अर्थ – मुनि बारह प्रकार के तप तपते हैं, दश प्रकार के धर्म को धारण करते हैं, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी तीन गुण रत्नों की रक्षा करते हैं, मुनियों के साथ या एकाकी विचरण करते हैं और सांसारिक सुखों की इच्छा भी नहीं करते, इस प्रकार मुनि के सकल-चारित्र का वर्णन हुआ। अब स्वरूपाचरण या निश्चयचारित्र को कहते हैं, जिसके उदय से अपनी आत्मा की ज्ञानादि सम्पत्ति प्रकट होती है और पर-पदार्थों की ओर झुकाव सब प्रकार से मिटता है।
 
विशेषार्थ – प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये छह अंतरंग तप और अनशन, ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छ: बाह्यतप होते हैं।

स्वरूपाचरण चारित्र (शुद्धोपयोग) का वर्णन

जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया।
वरणादि अरु रागादि तैं, निज भाव को न्यारा किया।।
निजमाहिं निज के हेतु निजकर, आपको आपै गह्यौ।
गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यौ।।८।।
 
अर्थ – जिस प्रकार कोई व्यक्ति तीक्ष्ण छेनी से पाषाण को भेद देता (तराशता) है, ठीक उसी प्रकार जब वीतरागी मुनिराज अपने अन्तरंग में भेदविज्ञानरूपी छेनी को डालकर सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और उससे आत्मा के स्वरूप को रूप-रस-गंध और स्पर्शरूप द्रव्यकर्म से तथा राग-द्वेष आदिरूप भावकर्म से अलग कर अपनी आत्मा में, आत्मा के लिए, आत्मा के द्वारा, आत्मा को अपने-आप (स्वत:) जान लेते हैं-तब उनके लिए गुण, गुणी, ज्ञाता और ज्ञेय इनमें कुछ भी भेद (अंतर) नहीं रह जाता है। इस प्रकार अभेदपने का अलौकिक साम्राज्य उपस्थित हो जाता है और यही ‘स्वरूपाचरण चारित्र’ है।
 
विशेषार्थ – सकल संयम की साधना की चरमावस्था के पश्चात् आत्मा की जो वीतराग परिणति प्रगट होती है वह स्वरूपाचरण चारित्र है। इसी का अपर नाम निश्चयचारित्र, यथाख्यातचारित्र अथवा वीतरागचारित्र है। जैसा कि परमात्मप्रकाश में कहा गया है कि राग-द्वेषाभाव-लक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चय-चारित्रं भवति……..। रागद्वेष के अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरण ही निश्चयचारित्र है। आगे भी स्वरूपाचरणचारित्र को ही वीतरागचारित्र कहा है। यथा……स्वरूपे चरणं चारित्रमिति वीतरागचारित्रं तस्यैव भवति। अर्थात् स्वरूप के आचरण रूप वीतरागचारित्र भी उसी समभावधारी के ही होता है। इसी प्रकार वृहद् द्रव्य-संग्रह एवं प्रवचनसार आदि ग्रंथों में भी कहा गया है।

स्वरूपाचरण चारित्र (निश्चयचारित्र) का वर्णन

जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को, न विकल्प वच भेद न जहाँ।
चिद्भाव कर्म चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ।।
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दशा।
प्रगटे जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एवै लसा।।९।।
 
अर्थ – वीतराग मुनिराज स्वरूपाचरण चारित्र के समय जब आत्मध्यान में मग्न हो जाते हैं, तब ध्यान (चिंतवन), ध्याता (ध्यान करने वाला) और ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) में कुछ भी अन्तर नहीं रहता, वचन का विकल्प भी नहीं होता। वहाँ आत्मा ही कर्म (कर्ता के द्वारा खास इच्छित), आत्मा ही कत्र्ता (कार्य करने वाला) और आत्मा का भाव ही क्रिया (किया जाना) होता है, अर्थात् कर्ता-कर्म-क्रिया ये तीनों बिल्कुल अभिन्न (एक) तथा परस्पर अविरोधी हो जाते हैं, तब सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र भी एक साथ एकरूप होकर प्रकाशमान हो जाते हैं, शुद्धोपयोग की अटल अवस्था प्रकट हो जाती है अर्थात् अभेद रत्नत्रय की उपलब्धि होती है।
 
विशेषार्थ– शुभाशुभ राग-द्वेषादि से रहित आत्मा की चारित्र-परिणति को शुद्धोपयोग कहते हैं।

स्वरूपाचरण चारित्र का लक्षण और निर्विकल्प ध्यान

परमाण नय निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखै।
दृग-ज्ञान सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखै।।
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं।
चितपिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुण, करण्ड च्युत पुनि कलनितैं।।१०।।
 
अर्थ – उस स्वरूपाचरण चारित्र के समय मुनियों के आत्मानुभव में प्रमाण, नय और निक्षेप का प्रकाश (उदय) नहीं होता अर्थात् वे जुदा-जुदा प्रतीत नहीं होते वरन् ऐसा विचार (महसूस) होता है कि वे (मुनि) अनन्त- दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप (अनन्त चतुष्टय के धारी) हैं, उनमें अन्य कोई राग-द्वेषादि भाव नहीं हैं। वे स्वयं ही साध्य हैं, स्वयं ही साधक हैं-कर्म तथा उसके फल (संसार परिभ्रमण) से मुक्त (बाधा रहित) हैं। वे स्वयं को चैतन्यपिण्ड, तेजस्वी, अखण्ड तथा उत्तमोत्तम गुणों का भण्डारस्वरूप अनुभव करते हैं, जो पाप तथा कर्म से रहित है। इस प्रकार सब प्रकार के विकल्पों से रहित आत्मा में स्थिरता (निर्विकल्पता) को स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं।
 
विशेषार्थ– वस्तु के सर्वांशों को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। वस्तु के एकदेश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। नय ज्ञान द्वारा बाधा रहित जाने हुए पदार्थों में प्रसंगवशात् नामादि की स्थापना करना निक्षेप है।

अलौकिक आनंद एवं अरिहंत अवस्था

यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यो।
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो।।
तब ही शुकलध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि कानन दह्यो।
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोक को शिवमग कह्यो।।११।।
 
अर्थ – इस स्वरूपाचरण चारित्र के समय मुनिराज पूर्वोक्त विचार कर जब आत्म-चिन्तवन में लीन हो जाते हैं, तब उन्हें जो वचनातीत आनन्द प्राप्त होता है, वह (आनन्द) इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती और अहमिन्द्र को भी नहीं मिलता। उस स्वरूपाचरण चारित्र के प्रकट होने पर उसके प्रभाव से शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा चार घातिया कर्म (ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय, अन्तराय) रूपी जंगल को जलाकर मुनिराज नष्ट कर देते हैं जिससे उन्हें ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति हो जाती है। फलस्वरूप वे तीनों लोकों एवं तीनों कालों की सब बातों (अनन्तानन्त पदार्थों के गुण-पर्यायों) को जानकर संसार के भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, यही ‘अरिहन्त’ अवस्था है।
 
विशेषार्थ – स्वरूपाचरणचारित्र श्रेणी की अवस्था में उत्पन्न होता है जिसके उत्पन्न होने के बाद अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, यही बात पण्डित जी ने लिखी है कि-
‘‘तब ही शुकलध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि-कानन दह्यो।।

सिद्ध स्वरूप का वर्णन

पुनि घाति शेष अघाति विधि, छिनमाँहिं अष्टम भू वसैं।
वसुकर्म विनसै सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं।।
संसार खार अपार पारावार, तरि तीरहिं गये।
अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये।।१२।।

अर्थ – अरिहन्त अवस्था या केवलज्ञान के उदय के पश्चात् वे भव्य जीव शेष ४ अघातिया कर्मों (वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र) की ८५ प्रकृतियों का नाशकर क्षण मात्र में अष्टम भू (मोक्ष) को पा लेते हैं। आठों कर्मों का नाश हो जाने पर उनमें सम्यक्त्वादि आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। ऐसे भव्य जीव संसाररूपी दुखदायी एवं अथाह समुद्र से उत्तीर्ण (पार) हुए और होते हैं अर्थात् जन्म-मरण की बाधा से मुक्त हो अविनाशी ‘मोक्ष सुख’ को प्राप्त कर लेते हैं। ये ही निर्विकार, अशरीरी, अमूर्तिक, शुद्धचैतन्यस्वरूप तथा अविनाशी होकर ‘सिद्ध’ कहलाते हैं।
 
विशेषार्थ– मोहनीय कर्म के नाश से सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है। दर्शनावरणी के नाश से दर्शन गुण प्रकट होता है। ज्ञानावरणी के नाश से ज्ञान गुण प्रकट होता है। गोत्रकर्म के नाश से अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है। नामकर्म के नाश से सूक्ष्मत्व गुण प्रकट होता है। आयुकर्म के नाश से अवगाहनत्व गुण प्रकट होता है। वेदनीयकर्म के नाश से अव्याबाधत्व गुण प्रकट होता है तथा अंतरायकर्म के नाश से वीर्यत्व गुण प्रकट होता है।

मोक्ष पर्याय की महिमा, मनुष्य पर्याय की सार्थकता एवं शाश्वत सुख की प्राप्ति

निजमाँहि लोक अलोक गुण, परजाय प्रतिबिम्बित थये।
रहि हैं अनन्तानन्त काल, यथा तथा शिव परणये।।
धनि धन्य हैं जे जीव नरभव, पाय यह कारज किया।
तिनही अनादि भ्रमण पञ्च प्रकार, तजि वर सुख लिया।।१३।।
 
अर्थ – उन सिद्ध भगवान की आत्मा में लोक और अलोक (समस्त पदार्थ) अपने-अपने गुणों और पर्यायों सहित एक साथ दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थ के समान झलकने लगते हैं। वे जैसे मोक्ष को गये हैं, वैसे ही वहाँ रहने वाले अन्य सिद्ध जीवों के समान अनन्तानन्त काल तक रहेंगे अर्थात् अपरिमित समय व्यतीत हो जाने पर भी उनकी अखण्ड शान्ति आदि में लेशमात्र भी बाधा न पड़ेगी। जिन प्राणियों ने मनुष्य की पर्याय प्राप्तकर यह शुद्ध चैतन्यरूप भी प्राप्त किया है, वह अत्यन्त धन्य (प्रशंसा के पात्र) हैं। उन्होंने ही अनादिकाल से चले आ रहे पंच परावर्तनरूप संसार के परिभ्रमण को त्यागकर उत्तम सुख (मोक्ष) पाया है।
 
विशेषार्थ – आत्म स्थित केवलज्ञान में स्वच्छ निर्मल दर्पण के सदृश सम्पूर्ण-द्रव्य अपने गुण एवं पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित होते हैं अन्तर केवल इतना है कि केवलज्ञान में दर्पण की तरह छाया और आकृति नहीं पड़ती है।

रत्नत्रय का फल एवं शीघ्र आत्म हित की शिक्षा

मुख्योपचार दुभेद यों, बड़भागि रत्नत्रय धरैं।
अरु धरैंगे ते शिव लहैं तिन, सुयश-जल जगमल हरैं।।
इमि जानि आलस हानि साहस, ठानि यह सिख आदरो।
जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निजहित करो।।१४।।
 
अर्थ – सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र (रत्नत्रय) के जो दो भेद-व्यवहार और निश्चय कहे गये हैं, उनको जो भाग्यशाली जीव धारण करते हैं और धारण करेंगे तो वे (अवश्य) मोक्ष प्राप्त करते हैं और करेंगे तथा उनका सुयशरूपी जल संसार के कर्मरूपी मैल को हरता है और हरेगा, ऐसा जानकर आलस्य को त्यागो और हिम्मत बाँधकर यह उपदेश ग्रहण करो कि जब तक रोग या बुढ़ापा इस शरीर को नहीं जकड़ता है, उसके पहले ही हम जल्दी से जल्दी आत्महित करने में लग जाएँ।
 
विशेषार्थ – बड़भागी का अर्थ भाग्यशाली अर्थात् पुण्यवान है। पुण्य हेय नहीं है, पुण्य की वांछा हेय है। रत्नत्रय धारण करने योग्य उत्तम शरीर आदि के साधन एवं परिणामों की निर्मलता का योग पुण्य से ही प्राप्त होता है अत: भाग्यशाली को ही मोक्ष का पात्र कहा है। सिद्ध परमात्मा का सुकीर्तिरूपी जल भव्यात्माओं के संसाररूपी मैल को हरण करने वाला है अत: जब तक श्रेणी आरोहण नहीं कर पाते, तब तक पंचपरमेष्ठियों का गुणगान निरन्तर करना चाहिए। ‘‘यह तो शुभ राग है’’ ऐसा भय नहीं करना चाहिए। इस प्रकार सात तत्त्वों के चिंतन द्वारा श्रद्धा निर्मल करके जिनेन्द्र की भक्ति द्वारा शक्ति (साहस) प्राप्त कर आलस्य और प्रमाद को छोड़कर शीघ्र ही चारित्र धारण करने का पुरुषार्थ करना चाहिए क्योंकि रोग एवं वृद्धावस्था आ जाने पर पीछे कुछ भी नहीं हो सकेगा।
अन्तिम उपदेशयह राग आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये।
चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद बेइये।।
कहा रच्यो पर पद में न तेरो, पद यहै क्यों दु:ख सहै।
अब दौल! होउ सुखी स्वपद रुचि, दाव मत चूकौ यहै।।१५।।
 
अर्थ – यह मोह (राग) रूपी अग्नि अनादिकाल से इस संसारी जीव को निरन्तर जला रही है, इसलिए उसे समतारूपी अमृत पीना चाहिए जिससे मोह का विनाश हो। विषय-कषायों का यह जीव अनन्तकाल से सेवन कर रहा है, अत: उनका त्याग कर आत्मपद (मोक्ष) प्राप्त करने का उद्योग करना चाहिए। प्राणी परायी वस्तुओं में क्यों अनुरक्त है ? जबकि वह उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है एवं फलस्वरूप चिरकाल से दु:ख सहता है। प्राणी का वास्तविक स्वरूप तो अनन्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र (रत्नत्रय) रूप है, उसी में उसे होना चाहिए, तभी सच्चा सुख (मोक्ष) प्राप्त होगा। अत: इस ग्रंथ के रचयिता कवि दौलतराम स्वयं अपनी आत्मा को सम्बोधित करते हैं कि हे दौलत! तुझे अपने आत्म-स्वरूप को पहिचानना होगा। यह मनुष्य भव, उत्तम श्रावक कुल आदि का सुयोग बारम्बार नहीं मिलता, इसलिए इस सुअवसर को व्यर्थ ही नष्ट नहीं हो जाने देना है प्रत्युत् संसार के प्रति आसक्ति (मोह) का त्यागकर भव-भ्रमण से मुक्ति हेतु एकाग्रचित्त होकर प्रयत्न करना है, यही करना जीवात्मा का वास्तविक लक्ष्य भी है।
 
विशेषार्थ – जैसे राग की दाह प्राणियों को जलाती है अर्थात् दु:ख देती है वैसे ही मोह, राग एवं द्वेष संसारी जीवों को अनादिकाल से निरन्तर जला रहे हैं इसलिए ये आग से भी भयंकर हैं।

ग्रन्थ निर्माण का समय, आधार, लघुता एवं फल

इक नव वसु इक वर्ष की, तीज सुकल बैसाख।
कर्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि ‘बुधजन’ की भाख।।१।।
लघु-धी तथा प्रमादतैं, शब्द अर्थ की भूल।
सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावौ भव-कूल।।२।।
 
अर्थ –पं. दौलतराम जी ने अपने पूर्ववर्ती पं. बुधजन जी कृत ‘छहढाला’ के आधार पर यह तत्त्वोपदेश विक्रम संवत् १८९१ की मिती वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को पूर्ण किया। पण्डित जी कहते हैं कि अल्पबुद्धि तथा प्रमाद के कारण कहीं शब्द या अर्थ की भूल रह गई हो, तो विद्वत्जन उसे सुधार करके पढ़ें, जिससे वे इस संसार से पार होने में समर्थ हो सवें।
 
विशेषार्थ –जिस प्रकार तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहार को रोकने वाली ढाल होती है, उसी प्रकार जीव को अहितकारी शत्रु-मिथ्यात्व, रागादि आस्रवों को तथा अज्ञानाधिकार को रोकने के लिए ढाल के समान इसमें छह प्रकरण हैं, जो छह प्रकार के छंदों में लिखे गये हैं इसलिए इस ग्रंथ का नाम छहढाला रखा गया है।
+ 1

प्रथम ढाल


मंगलाचरण

-सोरठा-
तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता।
शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिवैं।।

अर्थ – त्रिभुवन अर्थात् तीन लोकों में सर्वोत्तम वस्तु है, वीतराग विज्ञानता अर्थात् रागद्वेष रहित केवलज्ञान। यही केवलज्ञान आनन्दस्वरूप है और मोक्ष देने वाला है अत: मैं मन-वचन-काय को संभालकर केवलज्ञान को नमस्कार करता हूँ।

विशेषार्थ – अनन्तानन्त आकाश द्रव्य के बहुमध्य भाग के जितने प्रदेशों में छह द्रव्यों का आवास है, उसे लोक कहते हैं। ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक के भेद से यह तीन प्रकार का है और तीन वातवलयों के आधार पर अवस्थित है। रागयुक्त जीवद्रव्य की शुद्धावस्था अर्थात् अठारह दोषों से रहित अवस्था होना वीतरागता है और विशिष्टज्ञान अर्थात् केवलज्ञान का नाम विज्ञानता है। (चौपाई छन्द) ग्रन्थ रचना का उद्देश्य व जीव की चाह जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दु:खतैं भयवन्त। तीनों लोकों में जो अनन्त जीव हैं, वे सभी सुख चाहते हैं और दु:ख से डरते हैंं इसलिए आचार्य कृपा करके उन जीवों को दु:ख हरने वाली और सुख को देने वाली शिक्षा प्रदान करते हैं।

विशेषार्थ – ज्ञान, दर्शन अर्थात् जानने-देखने की शक्ति से युक्त द्रव्य को जीव कहते हैं। जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मन:पर्ययज्ञान का विषय न हो, मात्र केवलज्ञान का विषय हो, उसे अनन्त कहते हैं अथवा जिसमें घंटे की ध्वनि सदृश व्यय निरन्तर होता रहे, आय कभी न हो, फिर भी राशि समाप्त न हो, उसे अनन्त कहते हैं। ‘‘संसार के सभी प्राणी सुखी रहें’’ आत्मा के इस सुकोमल भाव का नाम करुणा है। सम्यग्दृष्टि जीव का यह सुकोमल परिणाम शुभ राग है किन्तु मोह का कार्य कदापि नहीं है।

संसार भ्रमण का कारण ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्यान।
मोह-महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि।।२।।

अर्थ – हे भव्यजीवों! यदि तुम अपनी भलाई या सुख चाहते हो तो उस कल्याणकारी उपदेश को स्थिर मन से सुनो। यह जीव अनादिकाल से मोहरूपी मदिरा-शराब पीकर अपने स्वरूप को भूलकर व्यर्थ में चारों गतियों में भ्रमण कर रहा है।

विशेषार्थ – रत्नत्रय की प्राप्ति की योग्यता युक्त जीव को भव्य कहते हैं। परपदार्थों में अपनत्व बुद्धि होना, मोह कहलाता है। जिसकी आदि अर्थात् प्रारंभ न हो, उसे अनादि कहते हैं। कृति की प्रामाणिकता और निगोद के दु:ख तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा।
काल अनन्त निगोद मँझार, बीत्यो एकेन्द्री-तन धार।।३।।

अर्थ –इस जीव के संसार-भ्रमण की बहुत लम्बी कहानी है, किन्तु कुछ थोड़ी-सी, जैसी श्रीगुरु-पूर्वाचार्यों ने वर्णन की है, वैसी ही यहाँ मैं भी कह रहा हूँ। इस जीव ने निगोद में एक इन्द्रिय जीव का शरीर धारण कर अनन्त काल बिताया है।
 
विशेषार्थ –जिस काल को सर्वावधि ज्ञान भी नहीं जान सकता, मात्र केवलज्ञान ही जान पाता है, उस अपरिमित काल को अनन्त काल कहते हैं। साधारण नामकर्म के उदय से एक शरीर के आश्रित अनन्तानन्त जीवों का समान रूप से रहना निगोद कहलाता है अथवा जीव की एक पर्यायविशेष, जिसमें एक श्वाँस के समय का अठारहवाँ भाग पूरा होते ही मरण हो जाता है। निगोद के दो भेद हैं-नित्य निगोद, इतर निगोद।
 
नित्य निगोद – जहाँ के जीवों ने अनादिकाल से आज तक त्रस की पर्याय प्राप्त नहीं की, वह नित्य निगोद कहलाता है।
इतर निगोद – निगोद से निकलकर दूसरी पर्याएँ पाकर पुन: निगोद में उत्पन्न होना इतर निगोद कहलाता है।

निगोद के दु:ख व निगोद से निकलकर प्राप्त पर्यायें

एक स्वाँस में अठ-दस बार, जन्म्यो मरयो भरयो दु:ख भार।
निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो।।४।।

अर्थ – इस जीव ने निगोद में एक श्वास मात्र काल में अठारह बार जन्म लिया और मरण को प्राप्त किया। इस प्रकार अनेक दु:खों का भार उसने सहा है। निगोद से निकलकर यह जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव हुआ।
 
विशेषार्थ – निरोग मनुष्य की नाड़ी की एक फड़कन एक श्वाँस कहलाती है। जिस वनस्पति में एक शरीर के अनेक जीव स्वामी होते हैं, वह साधारण वनस्पति है तथा जिस वनस्पति में एक शरीर का एक ही जीव स्वामी होता है, उसे प्रत्येक वनस्पति कहते हैं।

त्रस पर्याय की दुर्लभता और तिर्यंचगति के दु:ख

दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणी, त्यों पर्याय लही त्रसतणी।
लट पिपील अलि आदि शरीर, धर-धर मर्यो सही बहुपीर।।५।।
 
अर्थ – जैसे चिन्तामणि-रत्न बड़ी कठिनता से प्राप्त होता है, उसी प्रकार स्थावर से त्रस की पर्याय पाना अति दुर्लभ है। त्रस-पर्याय पाकर भी जब जीव ने लट, चींटी, भौंरा आदि विकलत्रय शरीर को बारम्बार धारण किया और मरण को प्राप्त हुआ, तो उसे वहाँ भी बहुत अधिक दु:ख ही सहना पड़ा।
 
विशेषार्थ – इच्छित पदार्थ देने वाले रत्नविशेष को चिन्तामणि रत्न कहते हैं। त्रस नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई जीव की अवस्थाविशेष को त्रस कहते हैं।

तिर्यंच गति में असैनी और सैनी के दु:ख

कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो।
सिंहादिक सैनी ह्वै व्रूर, निबल पशू हति खाये भूर।।६।।
 
अर्थ – तिर्यंचगति में विकलत्रय से निकलकर कभी भाग्यवश यह जीव पंचेन्द्रिय ‘असैनी’ पशु हुआ तो मन के न होने से वह बिल्कुल अज्ञानी रहा और इसी तरह दु:खी रहा। जब ‘सैनी’ हुआ तो यदि सिंह आदि कुरुर पशु हो गया, तो उसने बहुत से निर्बल पशुओं को मार-मार कर खाया, अत: वहाँ भी घोर पाप का बंध किया।
 
विशेषार्थ – शिक्षा एवं उपदेश ग्रहण करने की शक्ति से युक्त अर्थात् मन सहित प्राणी सैनी कहलाते हैं तथा शिक्षा और उपदेश ग्रहण करने की शक्ति से रहित अर्थात् मन रहित प्राणी को असैनी कहते हैं।

पंचेन्द्रिय पशुओं के निर्बलता आदि अन्य दु:ख

कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन।
छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास।।७।।
 
अर्थ – कभी यह जीव निर्बल पशु हुआ तो बलवान हिंसक पशुओं द्वारा खाया गया, इससे बहुत दु:खी हुआ। यदि खाया न गया और बचा रहा तो छेदा जाना, भेदा जाना, भूख-प्यास सहना, भारी बोझ ढोना, सदी, गर्मी सहना आदि अनेक प्रकार के दु:ख उठाता रहा।
 
विशेषार्थ – मायाचारी अर्थात् मन, वचन एवं काय की कुटिलता से, मिथ्या उपदेश देने से, परिग्रह में अधिक ममत्व रखने से, शीलव्रत भंग करने से नील एवं कापोत लेश्या युक्त परिणामों से, मरणकाल में आत्र्तध्यान करने से, जाति एवं कुल में दूषण लगने से तथा स्वर्ण, घी, तेल आदि में मिलावट करके बेचने से तिर्यंचगति में जन्म लेना पड़ता है।

तिर्यंचगति में दु:खों की अधिकता और नरकगति की प्राप्ति का कारण

वध-बन्धन आदि दु:ख घने, कोटि जीभतैं जात न भने।
अति संक्लेश-भावतैं मर्यो, घोर श्वभ्र-सागर में पर्यो।।८।।
 
अर्थ – तिर्यंचगति में इस जीव को मारे जाने, बाँधे जाने आदि के अनेक दु:ख सहन करने पड़े जिनका वर्णन करोड़ों जिह्वा से भी नहीं किया जा सकता है। इस दु:खमय दशा में वह जीव बहुत ही संक्लेश परिणामों से मृत्यु को प्राप्त हुआ, उसके फलस्वरूप भयानक नरकगतिरूप समुद्र में जा गिरा।
 
विशेषार्थ –श्वभ्र नाम नरक का है, वहाँ जन्म लेते ही अनिर्वचनीय दु:ख भोगने पड़ते हैं तथा वहाँ अकाल मरण नहीं होता।

नरक की भूमि स्पर्श और नदीजन्य दु:ख

तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस डसें नहिं तिसो।
तहाँ राध-शोणित-वाहिनी, कृमि-कुल-कलित-देह दाहिनी।।९।।
 
अर्थ –उस नरक की भूमि के स्पर्श करने मात्र से ही इतना कष्ट होता है कि जितना हजारों बिच्छुओं के एक साथ शरीर में काटने पर भी नहीं होता है। नरक में पीव और रक्त की वैतरणी नदी बहती है, जो कीड़ों के समूहों से भरी हुई है और यदि कोई भूमि के स्पर्श से उस नदी में शांति की आशा से घुस जाए, तो उसका वह खून भरा पानी शरीर को दग्ध करने वाला-जलाने वाला ही होता है।
 
विशेषार्थ – वहाँ खून-पीव आदि सप्त धातुएँ एवं विकलत्रय जीव नहीं होते किन्तु नारकी जीव विक्रिया से स्वयं उस रूप बन जाते हैं।

नरक में सेमर वृक्ष, सर्दी और गर्मी के दु:ख

सेमर-तरु-जुत दल-असिपत्र-असि ज्यों देह विदारैं तत्र।
मेरु समान लोह गलि जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय।।१०।।
 
अर्थ –नरक की भूमि में ऐसे सेमर वृक्ष हैं, जिनमें तलवार के समान तीक्ष्ण पत्ते लगे हैं, जो अपनी तीक्ष्ण धार से नारकी के शरीर को वहीं पर विदीर्ण कर देते हैं-टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं। वहाँ इतनी भीषण ठण्ड अथवा गर्मी होती है कि सुमेरु पर्वत के समान विराट लोहे का गोला भी गल जाता है।
विशेषार्थ – मेरुपर्वत जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में अवस्थित है। इसकी नींव एक हजार योजन, जमीन से ऊँचाई ९९ हजार योजन, मोटाई दश हजार योजन और चूलिका की ऊँचाई चालीस योजन प्रमाण है। छंद में जो ‘गलि’ शब्द आया है, उसके दो अर्थ हैं ‘गलना’ और ‘पिघलना’। जिस प्रकार गर्मी में मोम पिघल जाता है, उसी प्रकार सुमेरु पर्वत के बराबर लोहे का गोला गर्म बिल में फैका जाए, तो वह बीच में ही पिघलने लगता है तथा जिस प्रकार ठण्ड और बरसात में नमक गल जाता है, उसी प्रकार सुमेरु के बराबर लोहे का गोला ठण्डे बिल में फेका जाए, तो बीच में ही गलने लगता है।
पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे तथा पाँचवें नरक के दूसरे-तीसरे भाग में गर्मी है और पाँचवें नरक के प्रथम-द्वितीय-तृतीय भाग में सर्दी है एवं छठवें तथा सातवें नरक में भयंकर सर्दी है।

नरक में अन्य नारकियों व असुरकुमारों द्वारा उदीरित और प्यास के दु:ख

तिल-तिल करैं देह के खण्ड, असुर भिड़ावैं दुष्ट प्रचण्ड।
सिन्धु-नीरतैं प्यास न जाय, तो पण एक न बूंद लहाय।।११।।
 
अर्थ – नारकी एक-दूसरे के शरीर के तिल के बराबर छोटे-छोटे टुकड़े कर देते हैं। दुष्ट प्रकृति के असुरकुमार जाति के देव वहाँ जाकर उन नारकियों को आपस में लड़ा देते हैं, जिससे वहाँ आपस में हमेशा कलह और द्वेष का वातावरण बना रहता है। नरक में नारकी को इतने जोर की प्यास लगती है कि वह यदि सारे समुद्र का पानी भी पी जावे, तो भी प्यास नहीं बुझ सकती, फिर भी उन्हें पानी की एक बूँद तक पीने को नहीं मिलती है।
 
विशेषार्थ – भवनवासी देवों के एक कुल का नाम असुर है, इन असुर कुमार देवों में अम्बाबरीष नामक देव तीसरे नरकपर्यन्त जाकर नारकियों को स्वयं भी दु:ख देते हैं तथा आपस में लड़ाते हैं और उनका दु:ख देखकर प्रसन्न होते हैं।

नरक की भूख, आयु और मनुष्यगति प्राप्ति का वर्णन

तीन लोक को नाज जु खाय, मिटै न भूख कणा न लहाय।
ये दु:ख बहु सागर लौं सहै, करम जोग तैं नरगति लहै।।१२।।
 
अर्थ – नरक में भूख इतने जोर की लगती है कि तीनों लोकों का सम्पूर्ण अनाज खा लेने पर भी वह मिट नहीं सकती, लेकिन वहाँ तो अनाज का एक दाना भी प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार नरक के तीव्र दु:ख इस जीव ने बहुत सागर (सुदीर्घकाल) तक सहे, फिर कहीं शुभकर्म का संयोग मिलता है, तो वह मनुष्यगति में जन्म लेता है।
 
विशेषार्थ – उन नरकों में यह जीव ऐसे अपार दु:ख कम से कम दश हजार वर्ष और अधिक से अधिक तेंतीस सागरपर्यन्त भोगता है।

मनुष्यगति में गर्भवास और प्रसवजन्य दु:ख

जननी-उदर बस्यो नव मास, अंग-सकुचतैं पाई त्रास।
निकसत जे दु:ख पाये घोर, तिनको कहत न आवै ओर।।१३।।
 
अर्थ – यह जीव मनुष्यगति में माता के गर्भ में नौ मास तक रहा, जहाँ शरीर के सिकुड़े रहने से कष्ट पाया। माता के गर्भ से बाहर निकलते समय जो भयानक कष्ट इस जीव ने पाया है, वह वर्णनातीत है।
 
विशेषार्थ – माता के रज और पिता के वीर्य के आधार से शरीर की रचना करने वाला यह जीव दशरात्रि तक कललरूप पर्याय में, दशरात्रि तक कलुषीकृत पर्याय में और दशरात्रि तक स्थिरीभूत पर्याय में रहता है। दूसरे मास में बुदबुद, तीसरे मास में घनभूत, चौथे में मांसपेशी, पाँचवें में पाँचपुलक, छठे में आँगोपांग और चर्म तथा सातवें में रोम एवं नखों की उत्पत्ति होती है। आठवें मास में स्पन्दन क्रिया और नौवें या दसवें मास में निर्गमन होता है।

मनुष्यगति में बाल्यावस्था, जवानी व वृद्धावस्था के दु:ख

बालपने में ज्ञान न लह्यो, तरुण समय तरुणी-रत रह्यो।
अर्धमृतक सम बूढ़ापनो, कैसे रूप लखै आपनो।।१४।।
 
अर्थ – बालपन-लड़कपन में इस जीव को ज्ञान न मिला (अज्ञानी रहा)। जवानी में यह स्त्री में तल्लीन रहा और बुढ़ापा तो आधे मरे हुए के समान है ही। ऐसी दशा में यह जीव भला अपना आत्म-स्वरूप कैसे जान सकता है?
विशेषार्थ – मेरी आत्मा चैतन्यमयी, अखण्ड, अमूर्तिक एवं ज्ञान-दर्शन का पिण्ड है। इस प्रकार के स्वभाव की श्रद्धा आज तक नहीं हुई यही ‘‘कैसे रूप लखै आपनो’’ इस पंक्ति का विशेष भाव है।

देवगति में भवनत्रिक के दु:ख

कभी अकाम निर्जरा करै, भवनत्रिक में सुर-तन धरै।
विषय-चाह-दावानल दह्यौ, मरत विलाप करत दु:ख सह्यो।।१५।।

अर्थ – कभी इस जीव ने अकाम निर्जरा की, तो मंद कषाय के परिणाम स्वरूप मरकर भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों में से किसी एक का शरीर धारण किया परन्तु वहाँ भी हर समय इन्द्रियों के विषयों की चाहरूपी भयानक अग्नि में जलता रहा और मरते समय रो-रोकर दारुण दु:ख सहन किया।

विशेषार्थ – अनायास (बिना इच्छा के) भूख, प्यास, वेदना, रोग एवं आपत्ति-विपत्ति आ जाने पर समता परिणामों से सहन कर लेना अर्थात् मन्दकषाय द्वारा फल देकर कर्मों का स्वयं झड़ जाना अकाम निर्जरा कहलाती है। भवनवासी, व्यन्तरवासी और ज्योतिषी देवों को भवनत्रिक कहते हैं।

देवगति में वैमानिक देवों के दु:ख

जो विमानवासी हू थाय, सम्यग्दर्शन बिन दु:ख पाय।
तहँ ते चय थावर-तन धरै, यों परिवर्तन पूरे करै।।१६।।
 
अर्थ – कभी यह जीव स्वर्ग में विमानवासी देव भी हुआ, तो भी उसने वहाँ सम्यग्दर्शन के अभाव में दु:ख ही पाया। आयु पूर्ण होने पर देवगति से चयकर वह तिर्यंचगति में स्थावर के शरीर को धारण करने के दु:खरूप कुगतिभ्रमण करता है। इस प्रकार यह जीव संसार में पंचपरिवर्तनों को पूरा करता है।
 
विशेषार्थ – विमानों में रहने वाले अथवा स्वर्ग एवं ग्रैवेयक आदि में रहने वाले देव वैमानिक कहलाते हैं। स्थावर नामकर्म के उदय से युक्त जीव स्थावर कहलाते हैं। चय शब्द का अर्थ मरण ही है, किन्तु सौधर्मादि विमानवासियों की गति उत्तम है अतएव वहाँ से निकलने को ‘चय या च्युत’ होना, इस शब्द का प्रयोग होता है। नरकगति एवं भवनत्रिक ये गतियाँ हीन हैं, अतएव इनसे निकलने को ‘उद्वर्तन’ (उद्धार) तथा तिर्यंच और मनुष्य गति सामान्य है अत: उनसे निकलने को ‘काल करना’ इस शब्द का प्रयोग किया जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप संसार चक्र में परिभ्रमण करना परिवर्तन कहलाता है। छहढाला की इस प्रथम ढाल में सर्वप्रथम मंगलाचरण में तीन लोक में सारभूत पदार्थ वीतरागता और विज्ञानता (केवलज्ञान) को नमस्कार किया गया है। इन्हें ही मोक्ष का कारण एवं मोक्ष स्वरूप बताया गया है।
 
पश्चात् ग्रंथ उद्देश्य का निर्देश करते हुए कहा गया है कि तीनों लोकों में अनन्तानन्त जीव हैं, जो सुख चाहते हैं और दु:ख से डरते हैं। दु:ख को हरण करने वाली और सुखोत्पादक शिक्षा करुणावान् गुरु ने दी है। मोह के वशीभूत हुए ये जीव अनन्तकालपर्यन्त निगोदपर्याय में अतीव दु:ख भोगते हैं। एकेन्द्रिय पर्याय में अनिर्वचनीय दु:ख सहन करते हुए बहुत काल व्यतीत होता है। त्रस पर्याय की प्राप्ति तो चिंतामणि रत्न की प्राप्ति सदृश अतीव दुर्लभ है। इस त्रस पर्याय में भी चारों गतियों संबंधी भयावह दु:ख भार सहन करना पड़ता है। प्रथम ढाल में वर्णित नरक, तिर्यंच, गर्भवास आदि एवं भवनत्रिकादि के दु:खों का विवेचन करते समय विद्वानों को प्रथमानुयोग ग्रंथों के उदाहरण देकर विषय को खूब अच्छी तरह स्पष्ट कर देना चाहिए, ताकि सभी श्रोता दु:ख से भयभीत होकर पाप क्रियाओं का त्याग करें |

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दूसरी ढाल


(पद्धड़ी छन्द)

संसार परिभ्रमण के कारण

ऐसे मिथ्यादृग-ज्ञान-चरण, वश भ्रमत भरत दुख जन्म-मरण।
तातैं इनको तजिये सुजान, सुन तिन संक्षेप कहूँ बखान।।१।।
 
अर्थ – यह जीव मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के आधीन होकर चारों गतियों में भ्रमण करता है और जन्म-मरण के दु:खों को सहता है इसलिए भलीभांति समझकर उनको त्यागिए। उन तीनों का मैं संक्षेप में वर्णन करता हूँ, सो सुनिए।
 
विशेषार्थ – मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संसार परिभ्रमण के कारण हैं।

अगृहीत-मिथ्यादर्शन और जीवतत्त्व का स्वरूप

जीवादि प्रयोजनभूत तत्व, सरधै तिनमांहि विपर्ययत्व।
चेतन को है उपयोग रूप, विन मूरति चिनमूरति अनूप।।२।।
 
अर्थ – जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष-ये सात सारभूत तत्त्व (द्रव्य) हैं। इनका उल्टा (विपरीत) श्रद्धान करना मिथ्यादर्शन है। यदि ऐसा जन्मजात संस्कारवश होता है, तो उसे ‘अगृहीत मिथ्यादर्शन’ कहते हैं। जो देखता-जानता है अर्थात् जिसमें ज्ञान एवं दर्शन होता है, उसे जीव (आत्मा) कहते हैं। यह अमूर्तिक, चैतन्यस्वरूप एवं उपमा रहित है।
 
विशेषार्थ – चेतना की परिणति विशेष का नाम उपयोग है, या जीव का जो भाव वस्तु के ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है, उसे उपयोग कहते हैं, या जो परिणाम चैतन्य को छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं रहता, उसे उपयोग कहते हैं अथवा स्व एवं पर को ग्रहण करने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं। रूप, रस, गंध और स्पर्श सहित वस्तु को मूर्तिक एवं इनसे रहित को अमूर्तिक कहते हैं।

जीव तत्त्व का विपरीत-श्रद्धान

पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतैं न्यारी है जीव-चाल।
ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान।।३।।
 
अर्थ – यह जीव (आत्मा) का स्वभाव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-इन पाँच द्रव्यों से भिन्न है, क्योंकि ये पाँचों द्रव्य अजीव हैं। अज्ञानी जीव इस तथ्य को न जानकर इससे उल्टा स्वरूप मान बैठता है।
 
जैसे– वह अजीवरूप देह को ही आत्मा समझता है, दर्पण के प्रतिबिम्ब को वह अपना ही रूप समझता है और अपनी आत्मा के विकास की इच्छा से शरीर के प्रसाधन जुटाने लगता है।

मिथ्यादृष्टि की मान्यताएँ

मैं सुखी-दु:खी मैं रज्र् राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव।
मेरे सुत-तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन।।४।।
 
अर्थ – मिथ्यादर्शन के प्रभाव से यह जीव ऐसा मानता है कि मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं धनी हूँ, धन मेरा है, गाय-बैल मेरे हैं, मेरा खूब प्रभाव है, पुत्र मेरे हैं, स्त्री मेरी है, मैं बलवान हूँ, मैं निर्बल हूँ, मैं कुरूप हूँ, मैं सुन्दर हूँ, मैं मूर्ख हूँ, मैं चतुर हूँ। वास्तव में ये सब पर-पदार्थ के ही परिणमन हैं, आत्मा के नहीं किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव को इनमें अपनत्व की प्रतीति होती है।
 
विशेषार्थ – पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच द्रव्य अजीव हैं और इनसे पृथक् स्वभाव वाला जीव द्रव्य चैतन्यस्वरूप है किन्तु इस प्रकार की यथार्थ श्रद्धा न होकर देह को ही आत्मा मानना एवं देहोत्पन्न होने वाली कुरूप-सुरूप, सबल-निर्बल, धनी-निर्धन, मूर्ख-ज्ञानी तथा सुखी-दुखी आदि अवस्थाओं को आत्मा की अवस्थाएँ मानना जीव तत्त्व की विपरीत श्रद्धा कहलाती है।

अजीव एवं आस्रव तत्त्व का विपरीत श्रद्धान

तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान।
रागादि प्रगट ये दु:ख दैन, तिनही को सेवत गिनत चैन।।५।।
 
अर्थ – जीव तत्त्व की तरह अजीव तत्त्व का भी मिथ्या श्रद्धान होता है। मिथ्यादृष्टि जीव शरीर की उत्पत्ति को ही अपनी (आत्मा की) उत्पत्ति समझता है और शरीर के नाश को अपना (आत्मा का) नाश मानता है। आत्मा को शरीर के सदृश अजीव-तत्त्व की आत्मरूप मान्यता ही अजीव-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। धन-दौलत आदि के रागादि भाव स्पष्टत: दु:ख देने वाले हैं, उन्हीं राग-द्वेष, मान-माया, क्रोध-लोभ, पंचेन्द्रिय के विषयों का वह सेवन करता है और उसमें सुख मानता है। दुखद कर्मास्रवों को सुख का कारण मानना ही यह आस्रव-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है।

बंध और संवर तत्त्व का विपरीत श्रद्धान

शुभ-अशुभ बंध के फल मँझार, रति-अरति करै निज पद विसार।
आतम-हित हेतु विराग-ज्ञान, ते लखैं आपको कष्ट दान।।६।।
 
अर्थ – मिथ्यादृष्टि जीव पूर्व में बंधे हुए शुभ कर्मों का फल भोगने में तो रुचि रखता है और अशुभ-कर्मों का फल भोगने में अरुचि रखता है क्योंकि वह अपनी आत्मा के स्वरूप को भूला हुआ है। ऐसी शुभ फल में रुचि एवं अशुभ फल में अरुचि रखना, बंध-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। आत्मा का हित करने वाले वैराग्य और तत्त्व-ज्ञान हैं। इस जीव को मिथ्यादर्शन के कारण वैराग्य और निज-ज्ञान की बातें कष्टदायक प्रतीत होती हैं। (राग-रङ्ग और पर-ज्ञान में ही वह निमग्न रहना चाहता है और उनमे ही सुख ढूँढ़ता है।) यह संवर-तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है।

निर्जरा एवं मोक्ष तत्त्व का अन्यथा श्रद्धान और अगृहीत मिथ्याज्ञान का स्वरूप

रोके न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय।
याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दु:खदायक अज्ञान जान।।७।।
 
अर्थ –इच्छाओं को रोकना तप कहलाता है, जिससे कर्मों की निर्जरा होती है। मिथ्यादृष्टि जीव अपनी इच्छाओं को नहीं रोकता है, इसलिए वह अपनी आत्म शक्ति को व्यर्थ में खोता है। यह निर्जरा तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। इसलिए वह आनन्दरूप आकुलता से रहित मोक्ष तत्त्व को नहीं समझ पाता है, यही मोक्ष तत्त्व का विपरीत श्रद्धान है। इस प्रकार का विपरीत श्रद्धान अगृहीत मिथ्यादर्शन है और ऐसे ही उल्टे श्रद्धान के साथ जो कुछ ज्ञान होता है, उसे अगृहीत मिथ्याज्ञान कहते हैं जो अनन्त दु:खदायक है।

अगृहीत-मिथ्याचारित्र का लक्षण

इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्याचरित्र।
यों मिथ्यात्त्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह।।८।।
 
अर्थ –अगृहीत मिथ्यादर्शन और अगृहीत मिथ्याज्ञान के साथ पाँचों इन्द्रियों के जो विषय हैं, उनमें प्रवृत्ति (आचरण) करना ही अगृहीत मिथ्याचारित्र है। इस तरह मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र, जो (अनादिकालीन) स्वभाव से ही जीवों के बने रहते हैं, उनका वर्णन किया। अब गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जो दूसरों के उपदेश से ग्रहण किये जाते हैं, उनके वर्णन को अच्छी तरह से सुनो।

गृहीत-मिथ्यादर्शन और कुगुरु का स्वरूप

जो कुगुरु कुंददेव कुधर्म सेव, पोषे चिर दर्शन मोह एव।
अन्तर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन अम्बर तैं सनेह।।९।।
 
अर्थ – कुगुरु, कुदेव और कुधर्म की सेवा करने से चिरकाल तक मिथ्यात्व की ही पुष्टि होती है। जो अन्तरंग में राग-द्वेषरूप परिणाम और बहिरंग परिग्रह (धन-वस्त्र-शस्त्रादि) युक्त हैं तथा महत्व (यश, बड़प्पन) की चाह से कुलिंग (खोटा भेष) धारण करते हैं, वे पत्थर की नाव के समान हैं-जो स्वयं तो डूबती ही है, बैठने वालों को भी डुबो देती है अर्थात् वे खोटे गुरु जन्म-मरणरूपी संसार में डूबे हुए प्राणियों को अनन्त संसार में ही भटका देते हैं।

कुदेव का स्वरूप

धारैं कुलिंग लहि महत-भाव, ते कुगुरु जन्म जल उपलनाव।
जे रागद्वेष मल करि मलीन, वनिता गदादि जुत चिन्ह चीन।।१०।।
 
अर्थ –जो रागद्वेषरूपी मैल से मलिन (दूषित) हैं, जिनको स्त्री, गदा, त्रिशूल, खप्पर आदि अस्त्र-शस्त्र के चिन्ह होने से पहिचाना जा सकता है, वे सब कुदेव हैं। देव के सच्चे स्वरूप को न जानने वाले अज्ञानी लोग ही केवल उनकी सेवा (पूजा, भक्ति, विनय) किया करते हैं अत: उनके संसार के भ्रमण में कभी कमी नहीं हो सकती है अपितु भटकना बढ़ता ही है।
 
विशेष-यहाँ इस परिभाषा के अनुसार चव्रेश्वरी, पद्मावती आदि शासन देवियाँ तथा क्षेत्रपाल, धरणेन्द्र आदि शासन देवों को कुदेव में ग्रहण नहीं करना, क्योंकि तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ के अनुसार चौबीसों तीर्थंकर भगवान के शासन देव-देवी नियम से सम्यग्दृष्टि होते हैं, उनकी पूजा-अर्चना आगम सम्मत मानी गई है।

कुधर्म का लक्षण एवं गृहीत मिथ्याज्ञान के कथन की प्रतिज्ञा

ते हैं कुदेव, तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भव भ्रमण छेव।
रागादि भाव हिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत।।११।।
जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरधैं जीव लहै अशर्म।
यावूँ गृहीत मिथ्यात्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान।।१२।।

अर्थ – राग-द्वेष आदि परिणाम भाविंहसा है, त्रस और स्थावर जीवों का घात होना द्रव्यहिंसा है, ये दोनों क्रियाएँ कुधर्म हैं। इस प्रकार कुगुरु, कुदेव और कुधर्म में जो जीव श्रद्धान करता है, वह सर्वदा दु:ख ही प्राप्त करता है, अत: इनको गृहीत मिथ्यात्व (मिथ्यादर्शन) समझो।

गृहीत मिथ्याज्ञान का लक्षण

एकान्तवाद-दूषित समस्त, विषयादिक पोषक अप्रशस्त।
रागी कुमतिन कृत श्रुताभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास।।१३।।
 
अर्थ –जो शास्त्र एकान्त पक्ष से दूषित हैं या जो विषय-वासनाओं के पोषक होने से निन्दनीय हैं तथा रागी-द्वेषी कुबुद्धि गुरुओं द्वारा रचे गये हैं, उन समस्त शास्त्रों का पठन-पाठन (अध्ययन) गृहीत मिथ्याज्ञान है। जीव (आत्मा) के लिए ये अन्त में बहुत दु:खदायी सिद्ध होते हैं।
 
विशेषार्थ – भिन्न-भिन्न धर्मों की अपेक्षा एक वस्तु का विरोध रहित अनेक धर्मात्मक कथन करने वाला सिद्धान्त अनेकान्त है और अनेक धर्मों की अपेक्षा न करके वस्तु का एक ही रूप से कथन करना एकान्त है।

गृहीत-मिथ्याचारित्र का स्वरूप

जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविधविध देह दाह।
आतम अनात्म के ज्ञानहीन, जे जे करनी तन करन छीन।।१४।।
 
अर्थ – अपनी कीर्ति, धन का लाभ, सम्मान आदि की इच्छा से तप करके जो अनेक प्रकार से शरीर को कष्ट देते हैं और जिनको आत्मा क्या है, शरीर क्या है, इसका ज्ञान नहीं है, उनकी क्रियाएँ संसार सुख को तो प्रदान करने वाली हैं, किन्तु मोक्षपद प्राप्त कराने वाली नहीं है।
 
विशेषार्थ – जैसे तिल और बालू-रेत के लक्षण को न जानने वाले के द्वारा तेल के लिए बालू-रेत पेलने की क्रिया मिथ्या है, वैसे ही जीव और शरीर के भेद को जाने बिना जो-जो क्रियाएँ हैं, वे सब मिथ्याचारित्र हैं। इस पद्य की चतुर्थ पंकित का स्पष्टीकरण पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के शब्दों में शास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें- आत्मा और अनात्मा-स्व और पर के ज्ञान से रहित जो-जो क्रियाएँ हैं वे सब शरीर को क्षीण-कृश करने वाली हैं ऐसा नहीं है प्रत्युत-भस्म लगाना, जटा बढ़ाना, पंचाग्नि तप आदि क्रियाएँ भी भवनवासी आदि देवों में उत्पन्न कराने में कारण बन जाती हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि सम्यग्दर्शन के बिना ये क्रियाएँ मोक्षमार्ग को प्राप्त कराने में असमर्थ हैं।
 
कदाचित् ये देव भगवंतों के पंचकल्याणक आदि में जाकर वहाँ सम्यग्दृष्टि भी बन सकते हैं और यदि नहीं भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सवेंâ तो भी हजारों, लाखों वर्षों तक देवयोनि के सुखों का अनुभव तो करते ही हैं अत: ये भी मिथ्या तपश्चरण सर्वथा शरीर को सुखाने वाले या व्यर्थ नहीं हैं किन्तु हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों से व जुआ आदि दुव्र्यसनों से रहित होने से संसार के भौतिक सुखों को देने वाले ही हैं और नरकों के दु:खों से बचाने वाले ही हैं।

मिथ्याचारित्र और संसार के त्याग का उपदेश

ते सब मिथ्याचारित्र त्याग, अब आतम के हित पन्थ लाग।
जगजाल भ्रमण को देहु त्याग, अब ‘दौलत’ निज आतम सुपाग।।१५।।
 
अर्थ –इस द्वितीय ढाल के अन्त में पं. दौलतराम जी अपने को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि ये सब (खोटे तप) मिथ्याचारित्र हैं, इनको छोड़ो। हे दौलत! अब तुम आत्मा के हितकारी मार्ग में लगकर जगत के जंजाल में भटकना त्याग कर अपनी आत्मा में अच्छी तरह लीन हो जाओ।
 
विशेषार्थ – मिथ्याचारित्र आदि का त्याग ही संसार चक्र के भ्रमण की परिसमाप्ति है अत: इसे छोड़कर आत्म कल्याण के मार्ग में लगो, यही उपदेश का भाव है। इस ढाल में चतुर्गति भ्रमण व दु:खों का निदान, सात तत्त्वों का उल्टा श्रद्धान, कुगुरु, कुदेव, कुधर्म का स्वरूप, गृहीत-अगृहीत के भेद से मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का वर्णन विशद् रूप में किया गया है। अन्त में संसार के दन्द-फन्द छोड़कर आत्मस्वरूप में लवलीन होने की शिक्षा दी गई है।
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तृतीय ढाल


(नरेन्द्र छंद) जोगीरासा

(आत्महित, सच्चा सुख और द्विविध मोक्षमार्ग का लक्षण)

आतम को हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिए।
आकुलता शिवमांहि न तातैं, शिवमग लाग्यो चहिए।।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण, शिवमग सो दुविध विचारो।
जो सत्यारथ-रूप सो निश्चय, कारण सो व्यवहारो।।१।।

अर्थ –आत्मा का कल्याण या भलाई सुख में है और वह सुख निराकुल या दु:ख रहित होना चाहिए (जिसके पीछे कभी भी चिंता या क्लेश न हो) आकुलता, चिन्ता या दु:ख मोक्ष में नहीं है, अत: मोक्षमार्ग में हमें लगना चाहिए। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र (इनकी एकता) ही मोक्षमार्ग है। इस मोक्षमार्ग के दो भेद हैं-निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग, जो सत्यार्थरूप या वास्तविक मार्ग है, वह ‘निश्चय मोक्षमार्ग’ है और जो ‘निश्चय मोक्षमार्ग’ का कारण है, वह ‘व्यवहार मोक्षमार्ग’ है।

विशेषार्थ –मोक्ष जाने के दो मार्ग हैं-व्यवहार मोक्षमार्ग और निश्चय मोक्षमार्ग। जो सत्यार्थरूप है, अर्थात् जिसके सम्पन्न होने पर उत्तर काल में मोक्ष प्राप्त हो ही जाता है, वह निश्चय मोक्षमार्ग है और जो निश्चय का कारण अर्थात् साधन है वह व्यवहार मोक्षमार्ग है। अर्थात् निश्चय मोक्षमार्ग मोक्ष का साक्षात् कारण है और व्यवहार मोक्षमार्ग परम्परागत कारण है।

(निश्चय रत्नत्रय का स्वरुप)

परद्रव्यनतैं भिन्न आप में, रुचि सम्यक्त्व भला है।
आप रूप को जानपनो सो, सम्यक्ज्ञान कला है।।
आप रूप में लीन रहे थिर, सम्यक्चारित सोई।
अब व्यवहार मोक्ष-मग सुनिये, हेतु नियत को होई।।२।।

अर्थ – पर अर्थात् दूसरे पदार्थों को अपनी आत्मा से भिन्न जान कर अपनी आत्मा में प्रीति या श्रद्धान करना ‘निश्चय सम्यग्दर्शन’ है। अपने आत्म-स्वरूप का ज्ञान करना ही ‘निश्चय सम्यक्ज्ञान’ है। अपनी आत्मा के स्वरूप में स्थिरता से लीन रहना ही ‘निश्चय सम्यक्चारित्र’ है। अब व्यवहार मोक्षमार्ग का वर्णन करते हैं-उसे सुनिये, क्योंकि वह ‘निश्चय मोक्षमार्ग’ का निमित्त कारण है।

(व्यवहार सम्यग्दर्शन का स्वरूप)

जीव अजीव तत्त्व अरु आस्रव, बन्धरु संवर जानो।
निर्जर मोक्ष कहे जिन तिनको, ज्यों का त्यों सरधानो ।।
है सोई समकित व्यवहारी, अब इन रूप बखानो।
तिनको सुन सामान्य विशेषैं, दिढ़ प्रतीति उर आनो ।।३।।

अर्थ – जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-इन सात तत्त्वों का स्वरूप जैसा श्री जिनेन्द्रदेव ने वर्णन किया है, वैसा ही मानना या अटल श्रद्धान करना, सो व्यवहार सम्यग्दर्शन है। सातों तत्त्वों का सामान्य और विशेष वर्णन आगे करते हैं, उसे समझो और दृढ़ता से हृदय में धारण कर लो।

विशेषार्थ – जिनेन्द्र भगवान ने जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये सात तत्त्व कहे हैं। उसका जैसा का तैसा श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। इन तत्त्वों के स्वरूप का सामान्य और विशेषरूप से वर्णन किया जाता है, उसे सुनकर मन में अटल विश्वास करना चाहिए। सात तत्त्वों की यथावत् श्रद्धा करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। हिंसारहित धर्म, क्षुधादि १८ दोष रहित देव और निर्गंरथ गुरु पर श्रद्धा करना भी व्यवहार सम्यक्त्व है।

(जीव के भेद, बहिरात्मा और उत्तम अंतरात्मा का लक्षण)

बहिरातम अन्तर आतम, परमातम जीव त्रिधा है।
देह जीव को एक गिनै, बहिरातम तत्त्व मुधा है।।
उत्तम मध्यम जघन त्रिविध के, अन्तर आतम ज्ञानी।
द्विविध संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निज ध्यानी।।४।।

अर्थ – जीव तीन प्रकार के होते हैं-१. बहिरात्मा २. अन्तरात्मा ३. परमात्मा। जो शरीर और आत्मा को एक गिनते हैं, वे तत्त्वों को न जानने वाले अविवेकी मूढ़ ‘बहिरात्मा’ या मिथ्यादृष्टि जीव हैं। जो भेदविज्ञान से आत्मा और शरीरादि पर- पदार्थ को भिन्न जानते हैं, वे ‘अन्तरात्मा’ (सम्यग्दृष्टि) जीव हैं। वे अन्तरात्मा भी तीन प्रकार के होते हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य। जो २४ प्रकार के परिग्रह-रहित शुद्ध-परिणामी आत्मध्यानी मुनि हैं, वे उत्तम अन्तरात्मा हैं।

विशेषार्थ– पुद्गल परमाणुओं के पिण्ड से निर्मित शरीर को जो चैतन्य- स्वरूप आत्मा द्रव्य मानते हैं, वे बहिरात्मा हैं। जड़ एवं नाशवान शरीर से चैतन्यस्वरूप अपने आत्मद्रव्य को भिन्न मानने वाली आत्मा को अन्तरात्मा कहते हैं। अन्तरंग और बहिरंग दो प्रकार के परिग्रह से रहित शुद्ध उपयोग वाले एवं अपनी आत्मा का ध्यान करने वाले मुनि उत्तम अन्तरात्मा कहलाते हैं। शुभ-अशुभ रागद्वेष की परिणति से रहित ज्ञान-दर्शन की अवस्था विशेष का नाम शुद्धोपयोग है।

(मध्यम, जघन्य, अन्तरात्मा और सकल परमात्मा का स्वरूप)

मध्यम अन्तर आतम हैं जे, देशव्रती अनगारी।
जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी।।
सकल निकल परमातम द्वैविध, तिनमें घाति निवारी।
श्री अरिहन्त सकल परमातम, लोकालोक निहारी।।५।।

अर्थ – देशव्रत को धारण करने वाले पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक, ऐलक, उपचार से महाव्रतों को धारण करने वाली आर्यिकाएँ तथा शुभोपयोग में स्थित छट्ठे गुणस्थान वाले महाव्रती मुनिराज को मध्यम अन्तरात्मा कहते हैं। जो इन्द्रिय के विषयों से विरक्त नहीं हैं तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से भी विरक्त नहीं हैं पर जिनकी जिनेन्द्रदेव में यथार्थ श्रद्धा है, ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों को जघन्य अन्तरात्मा कहते हैं। उत्तम, मध्यम और जघन्य, ये तीनों प्रकार के अन्तरात्मा मोक्षमार्ग पर चलने वाले हैं। परमात्मा दो प्रकार के हैं-एक सकल परमात्मा और दूसरे निकल परमात्मा। श्री अरहंत भगवान शरीर सहित होने से सकल परमात्मा हैं, उन्होंने चारों घातिया कर्मों का विनाश किया है और वे लोक तथा अलोक के दृष्टा अर्थात् केवलज्ञानी होते हैं।

विशेषार्थ – श्रावक के व्रतों का धारी सम्यग्दृष्टि पंचम गुणस्थानवर्ती जीव को देशव्रती और परिग्रह से रहित छठे गुणस्थानवर्ती जीव को अनगारी कहते हैं। चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरतसम्यग्दृष्टि का शरीर के प्रति अहंभाव तो नष्ट हो जाता है किन्तु ममत्व बना रहता है यही उसके जघन्यता में कारण है। जो आत्माएँ कर्ममल से रहित तथा परमपद में स्थित हैं, उन्हें परमात्मा कहते हैं।

(निकल परमात्मा का स्वरूप और उसके ध्यान का उपदेश)

ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्म-मल, वर्जित सिद्ध महन्ता।
ते हैं निकल अमल परमातम, भोगैं शर्म अनन्ता।।
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजै।
परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजै।।६।।

अर्थ –औदारिक आदि शरीर रहित शुद्ध ज्ञान ही जिनका शरीर है, जो तीनों प्रकार के कर्म-मल (द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्म) से रहित हैं, ऐसे महान् हैं सिद्ध भगवान। वे शुद्ध निकल (अशरीरी) परमात्मा हैं, ज्ञान के कारण ही वे अनन्त काल तक अनन्त सुख भोगते हैं अत: अपनी आत्मा के चरम (पूर्ण) विकास के लिए बहिरात्मपना (मिथ्यादृष्टि) त्यागने योग्य समझकर उसे त्यागो और अन्तरात्मा बनकर सदा दोनों प्रकार के परमात्माओं का ध्यान लगाओ, जिससे सच्चे आनन्द (चिर शान्ति अर्थात् मोक्ष) की प्राप्ति हो।

विशेषार्थ – द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ये तीन प्रकार के कर्म हैं। ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों को द्रव्यकर्म, राग-द्वेष, मोहरूप खोटे परिणामों को भावकर्म और औदारिक आदि तीन शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणुओं का ग्रहण नोकर्म कहलाता है। जैसे ज्ञान जीव की निजी वस्तु है वैसे ही सच्चा सुख भी जीव का स्वभावसिद्ध वैभव है। शरीर में एकत्वबुद्धि का त्याग, भेदविज्ञान की प्रगटता एवं तत्त्व में तल्लीनता ही इस सुख की प्राप्ति का उपाय है।

(अजीव, पुद्गल, धर्म और अधर्म द्रव्य का लक्षण)

चेतनता बिन सो अजीव है, पञ्च भेद ताके हैं।
पुद्गल, पञ्च वरन, रस, गंध दु, फरस वसू जाके हैं।।
जिय-पुद्गल को चलन सहाई, धर्म-द्रव्य अनरूपी।
तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन विन मूर्ति निरूपी।।७।।

अर्थ – अजीव वह है, जिसमें चेतना या आत्मा नहीं है। इसके पाँच भेद हैं-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। जिसमें रूप (वर्ण), रस, गंध, और स्पर्श हो, उसे पुद्गल-द्रव्य कहते हैं। वर्ण पाँच (काला, श्वेत, लाल, नीला, पीला) हैं, रस पाँच (खट्टा, मीठा, चरपरा, कडुवा, कषायला) हैं, गंध दो (सुगंध, दुर्गन्ध) और स्पर्श आठ (गर्म, ठण्डा, हल्का, भारी, कोमल, कठोर, रूखा, चिकना) होते हैं। धर्म-द्रव्य अमूर्तिक है, वह स्वयं चलते हुए जीव और पुद्गल को चलने में सहायक होता है। अधर्मद्रव्य को श्री जिनेन्द्र भगवान ने अमूर्तिक कहा है और वह जीव तथा पुद्गल को ठहरने में सहायक होता है।

विशेषार्थ – लोकान्त के आगे धर्म द्रव्यरूपी पटरी नहीं है अत: सिद्ध जीव आगे नहीं जा सके। धर्म और अधर्म द्रव्य स्वयं चलते एवं स्वयं ठहरते हुए जीव, पुद्गल को चलने एवं ठहरने में सहयोगी होते हैं।

(आकाश, काल और आस्रव का स्वरूप व भेद)

सकल-द्रव्य को वास जास में, सो आकाश पिछानो।
नियत वर्तना निशिदिन सो, व्यवहार काल परिमानो।।
यों अजीव, अब आस्रव सुनिये, मन-वच-काय त्रियोगा।
मिथ्या अविरत अरु कषाय, परमाद सहित उपयोगा।।८।।

अर्थ – अजीव का चौथा भेद आकाश द्रव्य है, जिसमें छहों द्रव्यों का निवास है। यह दो प्रकार का है-
१. लोकाकाश- जितने स्थान में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छहों द्रव्य रहते हैं।
२. अलोकाकाश- जिस स्थान में केवल आकाश ही आकाश है, अन्य कोई द्रव्य नहीं। अजीव का पाँचवाँ भेद काल द्रव्य अर्थात् समय है। सभी द्रव्यों के परिणमन (परिवर्तन) में जो सहायक होता है, उसे काल द्रव्य कहते हैं।
यह भी दो प्रकार का है-
१. निश्चयकाल – जो स्वयं परिवर्तनशील है तथा अन्य सब द्रव्यों के परिवर्तन में कुम्हार के चाक के समान सहायक (अंतरंग कारण) है।
२. व्यवहारकाल-रात्रि-दिवस, घड़ी, घण्टा, प्रहर, मिनट आदि। अब आस्रव-तत्त्व का वर्णन करते हैं, जो कर्मों के आगमन में सहायक है। मन-वचन-काय की चंचलता तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के कारण आत्मा में जो हलचल (प्रवृत्ति) होती है, उससे कर्मों का योग (आगमन) होता है, इसे आस्रव-तत्त्व कहते हैं।
कर्मों का आस्रव उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार नाव में छिद्र हो जाने पर पानी भरने लगता है। इसके ५७ भेद हैं-५ मिथ्यात्व (विपरीत, एकांत, विनय, संशय, अज्ञान),१२ अविरति (पापों में प्रवृत्ति), २५ कषाय (जो आत्मा को दु:ख दे या पराधीन करे), १५ प्रमाद (अच्छे कार्यों में उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति न करना)।

विशेषार्थ – जिस प्रकार किसी बर्तन में पानी भरकर उसमें भस्म (राख) डाली जाए, तो वह समा जाती है, फिर उसमें शर्वरा डाली जाए, तो वह भी समा जाती है, फिर उसमें सुइयाँ डाली जाएँ, तो वे भी समा जाती हैं, उसी प्रकार आकाश में भी अवगाहन शक्ति है, इसलिए उसमें सर्वद्रव्य एक साथ रह सकते हैं। अपनी-अपनी पर्यायरूप से स्वयं परिणमित होते हुए जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में जो निमित्त हो, उसे कालद्रव्य कहते हैं। कालद्रव्य असंख्यात है अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं अत: कालद्रव्य भी असंख्यात है। इस प्रकार अजीव तत्त्व का वर्णन हुआ, अब आस्रव तत्त्व का वर्णन किया जाता है। मन, वचन, काय, मिथ्यात्व, अविरत, प्रमाद और कषाय सहित जो आत्मा की प्रवृत्ति है, उसे आस्रव कहते हैं। जो आत्मा को कषता है अर्थात् दु:ख देता है, पराधीन करता है अथवा उसके चारित्र आदि गुणों को घातता है, उसे कषाय कहते हैं। पापरूप प्रवृत्ति को अविरति और असावधानीपूर्वक प्रवृत्ति करना या धार्मिक कार्यों में अनुत्साह रखना प्रमाद है।

(आस्रव त्याग का उपदेश और बंध, संवर, निर्जरा का लक्षण)

ये ही आतम के दु:खकारण, तातैं इनको तजिये।
जीव प्रदेश बँधे विधिसों सो, बन्धन कबहूँ न सजिये।।
शम-दमतैं जो कर्म न आवैं, सो संवर आदरिये।
तप-बलतैं विधि-झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये।।९।।

अर्थ – ये आस्रव भाव (त्रियोग, मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय, प्रमाद) आत्मा के लिए दु:ख के कारण हैं, इसलिए इनको त्यागना चाहिए। इन्हीं भावों के निमित्त से आये शुभ-अशुभ पुद्गल कर्मो का आत्मा के साथ दूध और जल के समान मिलकर एकमेक हो जाना ‘बन्ध-तत्त्व’ है। कषायों के शमन (समता भाव रखने) और दमन (इन्द्रिय व मन को वश में करने) से कर्मों का आना रुक जाता है, इसी को संवर-तत्त्व कहते हैं। ऐसे संवर तत्त्व का आदर करना चाहिए। जैसे नाव का छेद बंद कर देने से पानी का भरना रुक जाता है। तप के प्रभाव से आठों कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय) का झड़ना (क्षय) या एकदेश दूर होना निर्जरा तत्त्व है। इस निर्जरा-तत्त्व का सदा आचरण करना चाहिए।

विशेषार्थ – कषायों के उपशम अर्थात् न होने देने को शम और इन्द्रियों एवं मन की स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना दम कहलाता है।

(मोक्ष का लक्षण और व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप)

सकल-कर्म तैं रहित अवस्था, सो शिवथिर सुखकारी।
इहविधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी।।
देव जिनेन्द्र, गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो।
येहु मान समकित को कारण, अष्ट-अंग-जुत धारो।।१०।।

अर्थ – सब कर्मों से रहित अवस्था को ही मोक्ष कहते हैं, जो स्थाई सुख देने वाली है। इस प्रकार मोक्ष-तत्त्व का लक्षण हुआ। इस प्रकार सात तत्त्वों (जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष) पर श्रद्धा करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। श्री जिनेन्द्र भगवान, सब परिग्रहों से रहित दिगम्बर जैन गुरु (मुनिराज), दयामय धर्म-इन तीनों का यथार्थ श्रद्धान ही सम्यक्त्व का कारण समझो। इस सम्यक्त्व को उसके आठ अंगों सहित धारण करो।

विशेषार्थ – किसी स्थान विशेष का नाम मोक्ष नहीं है, अपितु बन्धन- मुक्ति का नाम मोक्ष है अर्थात् कर्मबंध से रहित जीव की अवस्था विशेष मोक्ष है। ‘‘इह विधि’’ अर्थात् जिस प्रकार भगवान जिनेन्द्र ने सात तत्त्वों का प्रतिपादन किया है, उसी प्रकार श्रद्धा करना चाहिए।

(सम्यक्त्व के पच्चीस दोष और आठ गुण)

वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो।
शज्रदिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो।।
अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, तिन संक्षेपहु कहिये।
बिन जानेतैं दोष-गुनन को, कैसे तजिये गहिये।।११।।

अर्थ – आठों मदों को छोड़ो, तीन मूढ़ताओं (खोटे देव, खोटे शास्त्र, खोटे गुरु) को मन से हटाओ, छ: अनायतनों का त्याग करो। शंका आदि आठ दोषों को दूर कर ‘प्रशम, संवेग, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य’-सम्यक्त्व की इन ४ भावनाओं को चित्त में धारण करो। अब सम्यग्दर्शन के आठ अंग और पच्चीस दोषों का स्वरूप संक्षेप में कहते हैं, क्योंकि दोष और गुण जाने बिना जीव कैसे दोषों को त्यागे और गुणों को ग्रहण करे ?

विशेषार्थ –सांसारिक कार्यों में उत्साह न होना प्रशम, धर्मकार्यों में तत्परता और संसार से भीरुता होना संवेग, सभी प्राणी सुखी रहें, दुखी कोई न हो, ऐसी भावना होना अनुकम्पा एवं अपनी आत्मा को तथा स्वर्ग-नरक आदि के अस्तित्व को स्वीकार करना आस्तिक्य है, ये चारों ही सम्यक्त्व की भावनाएँ हैं।

(सम्यक्त्व के आठ अंगों का निरूपण)

जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख-वांछा भानै।
मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछानै।।
निजगुण अरु पर औगुण ढाँकैं , वा जिन-धर्म बढ़ावै।
कामादिक कर वृषतैं, चिगते, निज पर को सु दिढ़ावै।।१२।।

अर्थ – १. श्री जिनेन्द्र भगवान के कहे गये वचनों में शंका नहीं करना एवं उनके उपदेशों में अटल श्रद्धा रखना, यह नि:शंकित अंग है। २. धर्म सेवन करके उसके बदले संसार के सुखों की इच्छा न करना, नि:कांक्षित अंग है। ३. मुनिराज (या अन्य किसी धर्मात्मा) के शरीर को मैला देखकर घृणा न करना, सो निर्विचिकित्सा अंग है। ४. तत्त्व-खरे (सच्चे) और कुतत्त्व-खोटे तत्त्वों (सिद्धान्तों) की परख कर मूढ़ताओं और अनायतनों में नहीं फसना, सो अमूढ़दृष्टि अंग है। ५. अपने गुणों को छिपाना और दूसरों के अवगुणों को प्रगट न करना तथा आत्मधर्म को बढ़ाना (निर्मल रखना-दूषित नहीं होने देना), सो उपगूहन अंग है। ६. काम-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि किसी विकारवश से यदि धर्म से कोई चलायमान हो गया हो, तो उस समय जिस तरह बने, अपने को और उसको धर्म में दृढ़ करना, सो स्थितिकरण अंग है। ७. जैसे-गाय अपने बछ़ड़े से नि:स्वार्थ प्रीति करती है, वैसे ही साधर्मी-बंधुओं से प्रीति करना, सो वात्सल्य अंग है। इससे द्वेष-कलुषता आदि अपने-आप समाप्त हो जाते हैं। ८. अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करने के लिए मंदिर आदि का निर्माण, जैन साहित्य का प्रसार आदि जैसे बने जैनधर्म की उन्नति या प्रचार अथवा प्रभावना करना प्रभावना अंग है। इस प्रकार सम्यक्त्व के ये ८ अंग या गुण हैं। इन गुणों से विपरीत ८ आचरण दोष हैं, जिनसे सदा बचना चाहिए। वे ८ दोष हैं-शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितिकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना।

विशेषार्थ –जैसे अक्षर, मात्रा एवं अनुस्वार आदि से हीन मंत्र कार्य- सिद्धि में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार अंगहीन सम्यक्त्व जन्म सन्तति के छेद में समर्थ नहीं होता अत: आठों अंगों का पालन अनिवार्य है।

(आठ मदों का वर्णन)

धर्मीसों गौ-बच्छ-प्रीतिसम, कर जिन-धर्म दिपावै।
इन गुणतैं विपरीत दोष वसु, तिनकों सतत खिपावै।।
पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठानै।
मद न रूप को, मद न ज्ञान को, धन बल को मद भानै।।१३।।

अर्थ – सम्यग्दृष्टि जीव पिता आदि पितृपक्ष (कुल) के, मामा आदि मातृपक्ष (जाति) के, राजा आदि (शासक) होने का घमण्ड नहीं करता है। वह अपने रूप का, ज्ञान का, धन-सम्पत्ति का, अपनी शक्ति का, तपस्या का, अपने उच्च पद का भी घमण्ड नहीं करता है। जो इन पर-वस्तुओं पर घमण्ड नहीं करता है, वही अपने ‘निज-स्वरूप’ या आत्मा को समझता है। यदि जीव इन पर घमण्ड करे, तो ये आठ दोष सम्यक्त्व को मलिन (दूषित) कर देते हैं।

(छह अनायतन और तीन मूढ़ता)

तप को मद न मद जु प्रभुता को, करै न सो निज जानै।
मद धारै तो यही दोष वसु, समकित को मल ठानै।।
कुगुरु-कुदेव-कुवृष-सेवक की, नहिं प्रशंस उचरै है।
जिनमुनि जिनश्रुत बिन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करै है।।१४।।

अर्थ – खोटे-गुरु, खोटे-देव, खोटा-धर्म और इन तीनों के सेवक अर्थात् खोटे-गुरु के भक्त, खोटे-देव के भक्त और खोटे-धर्म के भक्त-ये छ: अनायतन हैं अत: सम्यग्दृष्टि जीव इन छहों की भक्ति-विनय तो दूर, कभी प्रशंसा तक नहीं करता है। यदि प्रशंसा भी करे, तो उसे सम्यक्त्व में दोष लगता है। सिवाय जिनेन्द्र भगवान, सच्चे मुनि और जिनेन्द्र कथित शास्त्रों के अतिरिक्त किसी कुदेव, कुगुरु या कुशास्त्र को सम्यग्दृष्टि नमस्कार नहीं करता है। यदि करता है, तो उसके सम्यक्त्व में मूढ़ता नामक दोष लगता है।

विशेषार्थ – जो मद में आकर धर्मात्माओं का अनादर करता है, वह जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए रत्नत्रय धर्म का अनादर करता है क्योंकि धर्म, रत्नत्रय- धारियों के बिना प्राप्त नहीं होता इसलिए मद करने से सम्यक्त्व मलिन हो जाता है। सम्यक्त्व के नाशक कुदेवादिक की प्रशंसा करना अनायतन कहलाता है। धर्म और सम्यक्त्व में दोषजनक अविवेकीपन के कार्य को मूढ़ता कहते हैं। धर्म समझकर बालू और पत्थरों का ढेर लगाना, गंगा आदि नदीरूप तीर्थों में स्नान, समुद्र में स्नान, जल में प्रवेश करके मरना, अग्नि में जल कर मरना, गाय की पूँछ आदि को ग्रहण करके मरना, पृथिवी, अग्नि और बड़ वृक्ष आदि की पूजा करना लोकमूढ़ता कहलाती है। लौकिक-पारमार्थिक हेय-उपादेय एवं स्वपर ज्ञान रहित अज्ञानीजनों के कुल परिपाटी से आया हुआ और अन्य भी जो धर्माचरण है, उसको भी लोकमूढ़ता जानना चाहिए। वर की इच्छा से रागी-द्वेषी देवों की सेवा करना अथवा ख्याति-पूजा-लाभ-रूप-लावण्य-सौभाग्य-पुत्र-स्त्री-राज्य आदि संपदा की प्राप्ति के लिए मिथ्यादृष्टि देवों की आराधना करना देवमूढ़ता कहलाती है। अज्ञानी लोगों को चित्त चमत्कार (आश्चर्य) उत्पन्न करने वाले ज्योतिष मंत्रवाद आदि को देखकर मिथ्यादेव-मिथ्याआगम एवं मिथ्या तप करने वाले कुलिंगियों को भय-वांछा-स्नेह और लोभ से धर्म के लिए प्रणाम, पूजा, विनय एवं सत्कार आदि करना पाखण्डीमूढ़ता है।

(अविरत सम्यग्दृष्टि की महत्ता और उदासीनता)

दोषरहित गुणसहित सुधी जे, सम्यक्दरश सजे हैं।
चरितमोहवश लेश न संजम, पै सुरनाथ जजे हैं।।
गेही पै गृह में न रचै ज्यों, जलतैं भिन्न कमल है।
नगरनारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है।।१५।।

अर्थ – २५ दोषों से रहित और ८ गुणों से सहित ऐसे सम्यग्दर्शन से जो बुद्धिमान शोभायमान है, वह यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण चारित्र मोहनीयकर्म के उदय से विंचित् भी व्रतादि नहीं धारण कर सका है, तो भी उसे इन्द्र तक पूजते हैं। यद्यपि वह गृहस्थ है, फिर भी गृह-कुटुम्बादि में आसक्त नहीं है। जैसे-कमल जल में रहते हुए भी उससे भिन्न है, वैसे ही वेश्या के प्यार जैसा केवल दिखाऊ प्रेम उसका गृह-कुटुम्बादि पर है। अथवा जैसे कीचड़ में पड़ा सोना यद्यपि ऊपर से कीचड़ में सना हुआ दिखाई देता है, किन्तु वास्तव में वह निर्मल है। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की अवास्तविक आसक्ति गृहकुटुम्बादि पर पदार्थों पर रहती है, परन्तु वास्तव में उसका अन्तर निज आत्म निधि की ओर दृष्टि लगाए रहता है।

विशेषार्थ – अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्य यदि पुरुषार्थ करे, तो शीघ्र ही संयम धारण कर अपने सम्यक्त्व को पूर्णतया निर्दोष और पूर्ण बना सकता है किन्तु इन्द्रों में संयम धारण की योग्यता नहीं है।

(सम्यग्दृष्टि की अनुत्पत्ति के स्थान और सम्यक्त्व की महिमा)

थम नरक बिन षट् भू ज्योतिष, वान भवन षंढ नारी।
थावर विकलत्रय पशु में नहिं, उपजत सम्यक् धारी।।
तीनलोक तिहुँ काल माहिं नहिं, दर्शन सो सुखकारी।
सकल धरम को मूल यही, इस बिन करनी दु:खकारी।।१६।।

अर्थ – सम्यक्त्वी जीव पहले नरक के सिवाय शेष छ: नरकों में, ज्योतिषी-व्यन्तर-भवनवासी देवों में, नपुंसकों में, स्त्रियों में, स्थावरों में, दो इन्द्रिय-त्रि इन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीवों में तथा पशु-पर्याय में जन्म धारण नहीं करता है। तीनों लोकों और तीनों कालों में सम्यग्दर्शन के समान अन्य कोई भी सुख देने वाला नहीं है। सब धर्मों की जड़ यही है। बिना सम्यग्दर्शन के सभी क्रियाएँ संसार भ्रमण का ही कारण है।

विशेषार्थ – सम्यग्दर्शन होने के पूर्व ही यदि किन्हीं जीवों ने नरकायु- तिर्यंचायु का बंध कर लिया है, तो वे प्रथम नरक में और भोगभूमिज तिर्यंचों में उत्पन्न होंगे, क्योंकि आयुबंध छूटता नहीं है। यह व्यवस्था मात्र क्षायिक सम्यक्त्व की है। क्षायोपशमिक और उपशम सम्यग्दृष्टि जीव तो नरक और तिर्यंच गतियों में उत्पन्न होते ही नहीं हैं। सम्यग्दर्शन ही सब धर्मों की जड़ है। जैसे जड़ के बिना वृक्ष फल नहीं दे सकता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना अन्य सम्पूर्ण क्रियाएँ मोक्ष सुख देने में समर्थ नहीं हो सकतीं। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा इस पद्य का विशेषार्थ इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-

विशेषार्थ –सम्यग्दर्शन संपूर्ण धर्मों का मूल है अत: इसके बिना जितनी भी क्रियाएँ हैं-चारित्र है वह दु:ख को देने वाला नहीं है किन्तु नाना प्रकार के संसार के सुख भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों के सुखों को तथा वैमानिक देवों के भी सुखों को देने वाला है। हाँ, यदि वे क्रियाएँ जीवबलि आदि हैं तो अवश्य ही दु:ख देने वाली हैं। यदि क्रियाएँ मिथ्याचारित्र में पंचाग्नि तप आदि रूप से हैं तो भी देवों के सुखों को प्राप्त करा देती हैं और यदि जैन परम्परा के अनुसार अणुव्रत, महाव्रत आदिरूप हैं तो परम्परा से सम्यक्त्व के लिए कारण हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि सम्यक्त्व के बिना क्रियाएँ संसार का अंत करने वाली नहीं हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने वाली नहीं हैं। अत: उपर्युक्त १६वें पद्य की चतुर्थ पंक्ति में ‘‘इस बिन करनी दुखकारी’’ के स्थान पर ‘‘इस बिन न क्रिया भवहारी’’ पढ़ना चाहिए।

(सम्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र सम्यक् नहीं हैं)

मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान-चरित्रा।
सम्यव्ता न लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा।।
‘दौल’ समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै।
यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै।।१७।।

अर्थ – सम्यक्दर्शन ही मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी है। बिना पहले इस पर आए मोक्षरूपी महल में प्रवेश असंभव है। इसके बिना ज्ञान और चारित्र मिथ्या बने रहते हैं, वे सम्यक् माने ही नहीं जाते हैं इसलिए हे आत्महितैषी भव्य! ऐसे पवित्र सम्यग्दर्शन को धारण करो। कवि स्वयं को सम्बोधन कर कहते हैं हे दौलतराम! तू समझ, सुन, फिर सचेत हो जा। तू विवेकी है, इसलिए समय व्यर्थ नष्ट मत कर। समझ ले कि यदि इस पर्याय में सम्यग्दर्शन तुझे प्राप्त नहीं हुआ, तो तेरा मनुष्य जन्म वृथा गया पुन: यह मनुष्य पर्याय मिलना बहुत कठिन है।

विशेषार्थ – जैसे प्रथम घड़ा औंधा रखा जाने पर उसके ऊपर अन्य घड़े सीधे नहीं रखे जा सकते, वैसे ही श्रद्धा समीचीन हुए बिना ज्ञान और चरित्र भी समीचीनता अर्थात् सम्यक्त्वपने को प्राप्त नहीं होते, इसलिए सम्यक्त्व को मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी कहा गया है। इस ढाल का अध्ययन कर यह शिक्षा ग्रहण करना चाहिए कि मनुष्य प्रति समय मर रहा है एवं काल अबाध गति से भाग रहा है अत: समय रहते सचेत हो जाना चाहिए अर्थात् सम्यक्त्व ग्रहण कर लेना चाहिए। जैसे बिना धागे वाली सुई गुम हो जाने पर मिलना कठिन हो जाता है, वैसे ही सम्यक्त्व बिना यह जीव नरक-निगोदादि कुगतियों में चला जाता है, जहाँ से निकलकर मनुष्य भव प्राप्त कर पाना अतीव दुर्लभ है।

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चौथी ढाल


(रोला छंद)

सम्यग्ज्ञान का लक्षण और समय

सम्यक् श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यक्ज्ञान।
स्वपर अर्थ बहु धर्म जुत, जो प्रकटावन भान।।
 
अर्थ –सम्यक्दर्शन धारण करने के उपरांत भव्य जीव को सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। जैसे सूर्य सब वस्तुओं और स्वयं को जैसा का तैसा दर्शाता है, उसी प्रकार जो अनेक धर्मों से युक्त ‘स्व’ (अपने आपको) एवं पर-पदार्थों को जैसा का तैसा बतलाता है-वह ‘सम्यक्ज्ञान’ है। सम्यक्ज्ञान से आत्मा और अनात्मा के गुण-दोष स्पष्टत: जाने जा सकते हैं। सूर्य और सम्यक्ज्ञान दोनो ही तम (अंधकार) के नाशक हैं-प्रथम बाह्य अंधकार को हटाता है तो दूसरा अन्तर (आत्मा) के अज्ञानरूपी अंधकार का निवारण करता है।

सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में अन्तर

सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधो।
लक्षण श्रद्धा जान, दुहू में भेद अबाधो।।
सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई।
युगपत् होते हू प्रकाश, दीपकतैं होई।।१।।
 
अर्थ – यद्यपि सम्यक्दर्शन के साथ ही सम्यक्ज्ञान होता है, फिर भी उनको अलग-अलग समझना चाहिए। सम्यक्दर्शन का लक्षण है-सच्ची श्रद्धा या विश्वास और सम्यक्ज्ञान का लक्षण है ठीक जानना। इस प्रकार इन दोनों में लक्षण भेद (बाधा-रहित) है। सम्यक्दर्शन को ‘कारण’ समझो और उसका ‘कार्य’ सम्यक्ज्ञान है। दोनों एक समय एक साथ उत्पन्न होते हुए भी कारण-कार्य के भेद से भिन्न-भिन्न हैं। जैसे दीपक के जलने के साथ प्रकाश होता है, तो भी दीपक को प्रकाश का कारण माना जाता है।

सम्यग्ज्ञान के भेद, देशप्रत्यक्ष के भेद व लक्षण

तास भेद दो हैं परोक्ष, परतिछ तिन माहीं।
मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनतैं उपजाहीं।।
अवधिज्ञान मनपर्जय, दो हैं देश-प्रतच्छा।
द्रव्यक्षेत्र परिमाण लिये, जानैं जिय स्वच्छा।।२।।
 
अर्थ – सम्यक्ज्ञान के दो भेद हैं-परोक्ष और प्रत्यक्ष। मति और श्रुत ये दोनों परोक्ष ज्ञान हैं जो पाँच इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं। जो ज्ञान बिना किसी (इन्द्रिय, मन) की सहायता से उत्पन्न होता है, उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। यह दो प्रकार का है-देशप्रत्यक्ष व सकलप्रत्यक्ष। जो ज्ञान अपनी आत्मा से ही जानता हुआ पदार्थों को भी द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की मर्यादा लेकर जानता है, उसे देशप्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा सहित रूपीपदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है।
 
विशेषार्थ –सम्यग्ज्ञान के मूल में दो भेद हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष ज्ञान के भी दो भेद हैं-सकलप्रत्यक्ष और देशप्रत्यक्ष। छहों द्रव्यों की त्रिकालवर्ती अनन्तगुण और पर्यायों को जो एक साथ दर्पण सदृश स्पष्ट जानता है, वह सकलप्रत्यक्ष है। जैसे-केवलज्ञान। जो ज्ञानरूपी पदार्थ को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिए हुए जानता है, वह देशप्रत्यक्ष है।
 
यथा–अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानता है, वह परोक्ष ज्ञान है। जैसे-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। पाँचों सम्यग्ज्ञानों में से आत्मा के कल्याण का सम्बन्ध सम्यग्-श्रुतज्ञान से है, कारण कि शब्दात्मक होने से श्रुतज्ञान श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है।

सकलप्रत्यक्ष ज्ञान और ज्ञान का महत्त्व

सकल द्रव्य के गुण अनन्त, परजाय अनन्ता।
जानै एवै काल, प्रगट केवलि भगवन्ता।।
ज्ञान समान न आन, जगत में सुख को कारन।
इहि परमामृत जन्म-जरा-मृतु रोग निवारन।।३।।
 
अर्थ – जो ज्ञान छहों द्रव्यों के तीनों कालों और तीनों लोकों में होने वाले समस्त पर्यायों और गुणों को एक साथ दर्पण के समान स्पष्ट जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। यह सकलप्रत्यक्ष सम्यक्ज्ञान है। इस संसार में सम्यक्ज्ञान के समान सुखदायक अन्य कोई वस्तु नहीं है। यह सम्यक्ज्ञान ही जन्म, जरा और मृत्युरूपी तीनों रोगों को विनष्ट करने हेतु प्राणी के लिए उत्तम अमृत के समान है।
 
विशेषार्थ – लोक में यह प्रसिद्ध है कि अमृत पीने से मनुष्य अजर, अमर हो जाता है यह मान्यता तो असत्य हो सकती है किन्तु ज्ञानरूपी अमृत पीने वाला तो निश्चित अजर-अमरपने को प्राप्त हो जाता है, इसलिए इसे परमामृत कहा है।

ज्ञानी और अज्ञानी के कर्म निर्जरा में अन्तर

कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जे।
ज्ञानी के छिनमाहिं, त्रिगुप्तितैं सहज टरैं ते।।
मुनिव्रत धार, अनन्त बार ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो।।४।।
(शिवसौख्य न पायो।।४।।)
अर्थ – मिथ्यादृष्टि जीव आत्मज्ञान (सम्यक्ज्ञान) के बिना करोड़ों जन्मों तक तप करके जितने कर्मों का नाश करता है, उतने कर्मों का नाश सम्यक्ज्ञानी जीव अपने मन-वचन-काय के निरोधरूप गुप्तियों से क्षण मात्र में सहज ही कर लेता है। यह जीव द्रव्यलिंगी मुनि बनकर महाव्रतों का निरतिचार पालन कर अनन्त बार स्वर्ग में जाकर नवग्रैवेयक विमानों में उत्पन्न हुआ, परन्तु मिथ्यात्व के कारण आत्मा के भेदविज्ञान (सम्यक्ज्ञान या स्वानुभव) के अभाव में इसे मोक्ष सुख नहीं प्राप्त हो सका। इस पद्य में पं. दौलतराम की एक पंक्ति में संशोधन करते हुए पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने आगमिक अर्थ को स्पष्ट किया है-
मुनिव्रत धारण कर ग्रैवेयक तक गये किन्तु यदि सम्यक्त्व नहीं है, तो मोक्ष सुख प्राप्त नहीं होता है। अथवा मुनिव्रतों को धारण कर-करके अनंतों बार ग्रैवेयक में जाने की बात उनके लिये भी घटित होगी कि जो अभव्य जीव हैं। वे अनंतों बार मुनि बन-बनकर ग्रैवेयक तक प्राप्त कर लेते हैं किन्तु वे ही अभव्य जीव मोक्षमार्ग प्राप्त नहीं कर पाते हैं क्योंकि अभव्य जीव सम्यग्दर्शन सहित भावलिंगरूप रत्नत्रय को प्राप्त नहीं करते हैं। इतना अवश्य समझना कि नवग्रैवेयक तक जाने वाले मुनि ही होते हैं। द्रव्य से कोई भी नग्न दिगम्बर मुद्रा धारण किये बिना सोलह स्वर्गों के ऊपर नहीं जा सकते हैं और वहाँ अहमिन्द्रों का सुख भी अनुपम है, संसार के अन्य सुखों की उपमा से रहित ही है इसलिये ‘‘सुख लेश न पायो’’ यह पंक्ति तो बिल्कुल ही गलत है, हाँ, इतना अवश्य है कि वे यदि द्रव्यलिंगी साधु हैं, भव्य हैं तो कभी न कभी मोक्ष जाएँगे ही जाएँगे और यदि अभव्य हैं तो कभी भी रत्नत्रय प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि वे मोक्ष जाएँगे ही नहीं। यहाँ यह ध्यान रखना है कि पंच परिवर्तन की अपेक्षा भव्य जीव भी कदाचित् अनंत बार नवग्रैवेयक तक जा सकते हैं। इसीलिए ‘‘शिवसौख्य न पायो’’ यह आगमसम्मत पंक्ति पढ़ना चाहिए।

तत्त्वाभ्यास की प्रेरणा, ज्ञान के दोषों का त्याग और मनुष्य पर्याय, सुकुल एवं जिनवाणी की दुर्लभता

तातैं जिनवर कथित तत्त्व, अभ्यास करीजै।
संशय विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजै।।
यह मानुष-पर्याय, सुकुल, सुनिवो जिनवानी।
इह विध गये न मिलै, सुमणि ज्यों उदधि समानी।।५।।
 
अर्थ – इसलिए श्री जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदेशित जीवाजीव आदि तत्त्वों का अभ्यास अर्थात् पठन-पाठन-मनन करें और सम्यक्ज्ञान के तीनों दोषों-संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय को त्याग कर अपने आत्मस्वरूप को जानें। जिस प्रकार समुद्र में डूबा हुआ अमूल्य रत्न फिर हाथ नहीं आता है, उसी प्रकार यह मनुष्य पर्याय पाना, उसमें भी उत्तम श्रावक कुल पाना और सर्वोपरि जिनवाणी के श्रवण जैसा दुर्लभ अवसर व्यर्थ गँवा देने पर बारम्बार प्राप्त नहीं होता इसलिए यह अपूर्व अवसर यूँ ही न खोने दें।
 
विशेषार्थ – संशय, विभ्रम और अनध्यवसाय ये तीन दोष सम्यग्ज्ञान के हैं। संशय-विरुद्ध अनेक कोटि का अवलम्बन करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं। जैसे-मैं शरीर हूँ या जीव ? (डाँवा डोल प्रवृत्ति)। विभ्रम-विपरीत ज्ञान को विपर्यय कहते हैं। जैसे-यह शरीर ही आत्मा है। अनध्यवसाय-‘‘कुछ है’’ इस प्रकार निश्चय रहित ज्ञान को अनध्यवसाय कहते हैं। जैसे-मैं कुछ भी हूँ।

ज्ञान की महिमा, उसका कारण और विवेक प्राप्ति

धन समाज गज बाज, राज तो काज न आवै।
ज्ञान आप को रूप भये, फिर अचल रहावै।।
तास ज्ञान को कारन, स्व-पर विवेक बखानौ।
कोटि उपाय बनाय, भव्य ताको उर आनौ।।६।।
 
अर्थ – धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब-समाज, हाथी-घोड़े, राज्य-वैभव आदि कोई भी वस्तु आत्मा की उन्नति में सहायक सिद्ध नहीं होते हैं, कुछ दिन साथ रहकर अवश्य नष्ट हो जाते हैं किन्तु सम्यक्ज्ञान आत्मा का वास्तविक स्वरूप है, वह एक बार प्राप्त हो जाए तो अक्षय हो जाता है। आत्मा और पर-वस्तुओं का भेद विज्ञान ही उस सम्यक्ज्ञान का कारण है, इसलिए प्रत्येक आत्महितैषी भव्यजीव को सतत प्रयास एवं करोड़ों उपाय करके भी उस सम्यक्ज्ञान को अपने हृदय में धारण करना चाहिए।

सम्यग्ज्ञान का महत्व और विषय चाह रोकने का उपाय

जे पूरब शिव गये, जाहि, अब आगे जै हैं।
सो सब महिमा ज्ञानतनी, मुनिनाथ कहै हैं।।
विषय-चाह दव-दाह, जगत-जन अरनि दझावै।
तासु उपाय न आन, ज्ञान घनघान बुझावै।।७।।
 
अर्थ – भूत, भविष्यत् और वर्तमान इन तीनों कालों में जो भी जीव मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, करेंगे और आज भी विदेह क्षेत्र से कर रहे हैं, वह सब सम्यक्ज्ञान का ही प्रभाव है, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव एवं उनके गणधरों की दिव्य देशना में वर्णित है। जिस प्रकार दावानल वन की समस्त वस्तुओं को जलाकर भस्मीभूत कर देता है, उसी प्रकार पंचेन्द्रियसंबंधी विषयों की चाह संसारी जीवों को घेर कर जलाती है, सताती है, दु:ख देती है। फिर जैसे मूसलाधार वर्षा उस दावानल को बुझा सकती है, उसी प्रकार यह सम्यक्ज्ञानरूपी मेघसमूह विषयों की चाह को शान्त कर देता है। अन्य कोई भी उपाय कार्यकारी सिद्ध नहीं हो सकता है।
 
विशेषार्थ – सम्यग्ज्ञान की महिमा दर्शाते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि आज तक जितने भी जीव मोक्ष गये हैं, आज जा रहे हैं और आगे जावेंगे, यह सब प्रभाव मात्र सम्यग्ज्ञान का ही है। जैसे-मूसलाधार जल की वर्षा वन की भयंकर अग्नि को बुझा देती है, वैसे ही सम्यग्ज्ञानरूपी मेघ की वर्षा विषयों की चाहरूपी दावाग्नि को शांत कर देती है।

पुण्य-पाप में हर्ष-विषाद का निषेध

पुण्य-पाप फलमाहिं, हरख बिलखौ मत भाई।
यह पुद्गल परजाय, उपजि विनसैं फिर थाई।।
लाख बात की बात यहै, निश्चय उर लाओ।
तोरि सकलजग-दंद-कुंद, निज आतम ध्याओ।।८।।
 
अर्थ – आत्महितैषी जीव का यह कत्र्तव्य है कि वह धन-पुत्रादि की प्राप्ति में हर्ष और रोग-वियोग आदि होने पर विषाद न करें, क्योंकि ये पुण्य-पाप तो पुद्गलरूप कर्म की पर्याएँ हैं, जो एक के बाद एक उत्पन्न और नष्ट होती रहती हैं। सारे उपदेशों का सार यही है कि समस्त सांसारिक उलझनों चिन्ताओं से नाता तोड़कर आत्मचिन्तन में प्रवृत्त होना चाहिए। विशेषार्थ-जो अशुभ गतियों एवं अशुभ प्रवृत्तियों से जीव की रक्षा करे, उसे पुण्य कहते हैं और जो शुभ गतियों एवं शुभ प्रवृत्तियों से जीव की रक्षा करे, उसे पाप कहते हैं।

सम्यक्चारित्र के भेद, अहिंसा और सत्य अणुव्रत के लक्षण

सम्यग्ज्ञानी होय, बहुरि दिढ़ चारित लीजै।
एकदेश अरु सकलदेश, तसु भेद कहीजै।।
त्रस-हिंसा को त्याग, वृथा थावर न संघारै।
पर-वधकार कठोर निन्द्य, नहिं वचन उचारै।।९।।
 
अर्थ –सम्यक्ज्ञान प्राप्त करके पुन: सम्यक्चारित्र धारण करना चाहिए। सम्यक्चारित्र के दो भेद हैं-एकदेश और सकलदेश। यहाँ एकदेश चारित्र का ही वर्णन करते हैं, जिसे श्रावक पालन करते हैं। श्रावकों के बारह व्रत होते हैं, उन्हें क्रमवार कहते हैं। एकदेश चारित्रधारी श्रावक त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी होता है और एकेन्द्रिय (स्थावर) जीवों का भी अनावश्यक घात नहीं करता है। (यह पहला अहिंसाणुव्रत है) वह श्रावक स्थूल झूठ का त्यागी होता है और ऐसे वचन भी नहीं बोलता है, जो दूसरे के लिए प्राणघातक हों, दु:खदायक हों, कठोर हों या निन्दा के योग्य हों। (यह दूसरा सत्याणुव्रत है।)
 
विशेषार्थ-अच्छे कार्यों को करने का नियम लेना और बुरे कार्यों को छोड़ना व्रत कहलाता है। हिंसादि पाँचों पापों का स्थूलरूप से एकदेश त्याग करना अणुव्रत है।

अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण अणुव्रतों का स्वरूप तथा दिग्व्रत का लक्षण

जल मृतिका बिन और, नाहिं कछु गहैं अदत्ता।
निजवनिता बिन सकल, नारिसों रहै विरत्ता।।
अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखै।
दश दिश गमन प्रमान ठान, तसु सीम न नाखै।।१०।।
 
अर्थ – जल और मिट्टी, जिनका कोई स्वामी नहीं और जो सबके उपयोग के लिए हैं, को छोड़कर अन्य किसी भी बिना दी हुई वस्तु को नहीं ग्रहण करना, अचौर्याणुव्रत है। अपनी विवाहिता स्त्री के सिवाय संसार की सब स्त्रियों से विरक्त रहना, ब्रह्मचर्याणुव्रत है। (इसे स्वदारा सन्तोषव्रत भी कहते हैं)। अपनी शक्ति का विचार करके धन, धान्य आदि परिग्रह का थोड़ा आवश्यक प्रमाण करना (मर्यादा बाँधना), परिग्रह परिमाणाणुव्रत है। अब गुणव्रतों का वर्णन करते हैं। दशों दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा निश्चय करके उस मर्यादा का उलंघन न करना ‘दिग्व्रत’ नामक पहला गुणव्रत है।
 
विशेषार्थ – परिग्रह परिमाण अणुव्रत तीन प्रकार का है- # उत्तम (२) मध्यम (३) जघन्य # उत्तम-जितना परिग्रह है, उससे कम की मर्यादा करना। # मध्यम-वर्तमान में जितना परिग्रह है, उससे अधिक नहीं रखूँगा। # जघन्य-वर्तमान में जितना परिग्रह है उससे अधिक का प्रमाण करना। मूलगुणों और अणुव्रतों को दृढ़ करने वाले व्रत गुणव्रत कहलाते हैं।

देशव्रत नामक गुणव्रत का लक्षण

ताहू में फिर ग्राम, गली गृह बाग बजारा।
गमनागमन प्रमान ठान, अन सकल निवारा।।
 
अर्थ – दिग्व्रत में जीवनपर्यन्त के लिए की गई आवागमन के विस्तृत क्षेत्र की सीमा में भी समय की मर्यादा और बाँध देना अर्थात् घड़ी, घण्टा, दिन, महीना, वर्ष आदि काल के नियमानुसार अमुक प्रान्त, नगर, बाग, बाजार, गली, घर आदि तक आने-जाने की मर्यादा (सीमा) निश्चित कर लेना ‘देशव्रत’ नामक गुणव्रत कहलाता है। व्रती श्रावक इसका कभी उल्लंघन नहीं करता है।

अपध्यान एवं पापोपदेश अनर्थदण्डविरतिव्रतों के लक्षण

काहू की धनहानि, किसी जय हार न चिन्तै।
देय न सो उपदेश, होय अघ बनज कृषीतैं।।११।।
 
अर्थ – किसी के धन का नाश हो जावे, किसी की जीत हो जावे, किसी की हार हो जावे, ऐसा विचार नहीं करना पहला ‘अपध्यान’ नामक ‘अनर्थदण्डविरतिव्रत’ है। ऐसे व्यापार-उद्योग या खेती करने (जिससे पाप-बंध होता हो) का दूसरों को उपदेश नहीं देना, ‘पापोपदेश’ नामक दूसरा अनर्थदण्डविरतिव्रत है।

प्रमादचर्या, हिंसादान और दु:श्रुति अनर्थदण्ड त्यागव्रतों का स्वरूप

कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधै।
असि धनु हल हिन्सोपकरण, नहिं दे यश लाधै।।
राग-द्वेष-करतार, कथा कबहूँ न सुनीजै।
औरहु अनरथदण्ड हेतु, अघ तिन्हैं न कीजै।।१२।।
 
अर्थ – प्रमाद (शिथिलाचार) वश कौतूहल या आलस्य के कारण निष्प्रयोजन (व्यर्थ में) पानी बहाने, जमीन खोदने, वृक्ष काटने, आग जलाने आदि का त्याग करने को ‘प्रमादचर्या अनर्थदण्डविरतिव्रत’ कहते हैं। यश की अभिलाषा से तलवार, धनुष, हल या हिंसा के कारणभूत (साधन) वस्तुओं को किसी दूसरे को नहीं देना सो ‘हिंसादान अनर्थदण्डविरतिव्रत’ है। राग-द्वेष उत्पन्न करने वाली विकथा, किस्सा-कहानी के कहने-सुनने का त्याग करने को ‘दु:श्रुति अनर्थदण्डविरतिव्रत’ कहते हैं।

शिक्षाव्रतों के लक्षण

धर उर समताभाव, सदा सामायिक करिये।
परब चतुष्टय माहिं, पाप तज प्रोषध धरिये।।
भोग और उपभोग, नियम करि ममत निवारै।
मुनि को भोजन देय, फेर निज करहि अहारै।।१३।।
 
अर्थ – जो व्रत मुनिधर्म पालन करने की शिक्षा देते हैं, उन्हें ‘शिक्षाव्रत’ कहते हैं। इसके ४ भेद हैं-१. रागद्वेष को त्याग कर अपने परिणामों को स्थिर कर एकान्त स्थान में प्रतिदिन विधिपूर्वक देववंदना-सामायिक करना ‘सामायिक शिक्षाव्रत’ है। (२) प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को कषाय और व्यापार आदि आरंभ के सांसारिक कार्यों को त्याग कर धर्मध्यानपूर्वक प्रोषधोपवास (धारणा एवं पारणा के दिन एकाशन सहित उपवास) करना ‘प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत’ है। परिग्रह परिमाणव्रत में परिमित भोगोपभोग की वस्तुओं में से जीवन भर के लिए अथवा कुछ निश्चित समय के लिए नियम (परिमाण) करना ‘भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत’ है। इसे ‘देशावकाशिक शिक्षाव्रत’ भी कहते हैं। दिगम्बर (निर्ग्र्रंथ) मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि त्यागीव्रती को ‘आहारदान’ देकर फिर स्वयं भोजन करना ‘वैय्यावृत्ति शिक्षाव्रत’ है। इसे ‘अतिथि संंविभाग शिक्षाव्रत’ भी कहते हैं।
 
विशेषार्थ –जो वस्तुएँ एक ही बार भोगने में आती हैं, उन्हें भोग करते हैं। जैसे-भोजन, पान आदि। जो वस्तुएँ बार-बार भोगने में आती हैं, उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे-वस्त्र, मकान, स्त्री आदि।

अतिचार न लगाने का आदेश और व्रत पालन का फल

बारह व्रत के अतीचार, पन-पन न लगावै।
मरण समय संन्यास धार, तसु दोष नशावै।।
यों श्रावक व्रत पाल, स्वर्ग सोलम उपजावै।
तहँतैं चय नर-जन्म पाय, मुनि ह्वै शिव जावै।।१४।।
 
अर्थ – जो गृहस्थजन श्रावक के पूर्वोक्त बारह व्रतों (पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत) को विधिपूर्वक जीवनपर्यन्त पालते हुए उनके पाँच-पाँच अतिचारों को भी टालते हैं और मृत्यु के समय पूर्वोपार्जित दोषों को नष्ट करने के लिए विधिपूर्वक समाधिमरण (सल्लेखना) धारण करते हैं, वह आयु पूर्ण होने पर व्रतों के प्रभाव से सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न होते हैं और वहाँ से चय कर मनुष्य पर्याय धारण कर मुनिव्रत का पालन करते हुए उसी पर्याय से मोक्ष चले जाते हैं।
 
विशेषार्थ – ग्रहण किये हुए व्रतों का प्रमाद आदि के कारण एकदेश भंग हो जाना अतिचार कहलाता है। आत्मकल्याण हेतु क्रमश: (धीरे-धीरे) काय और कषाय का त्याग करने को संन्यास, सल्लेखना, समाधि या संथारा कहते हैं। जिसकी परिणति में श्रद्धा, ज्ञान में विवेक और आचरण में सत् क्रिया हो, उसे श्रावक कहते हैं। चतुर्थ ढाल में आठ छंदों द्वारा सम्यग्ज्ञान एवं उसकी महिमा का विवेचन किया गया है, तत्पश्चात् श्रावक के बारह व्रतों का वर्णन है।
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पंचम ढाल


(चाल छंद)

भावनाओं के चिन्तवन का कारण, अधिकारी और लाभ

मुनि सकलव्रती बड़भागी, भव-भोगनतैं वैरागी।
वैराग्य उपावन माई, चिंतैं अनुप्रेक्षा भाई।।१।।

अर्थ – संसार, शरीर एवं भोगों से विरक्त होकर जिन्होंने सकलव्रतों को धारण किया है, वे दिगम्बर (निर्गंरथ) मुनिराज बड़े भाग्यवान हैं। संसार, शरीर और भोगों की असारता तथा अनित्य आदि बारह भावनाओं के स्वरूप का बारम्बार चिन्तवन करना ‘अनुप्रेक्षा’ है। जैसे माता संतान को जन्म देती है, उसी प्रकार अनुप्रेक्षा वैराग्य उत्पन्न करती है इसलिए वे मुनिराज वैराग्य को उत्पन्न करने के लिए बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हैं।

विशेषार्थ – संसार, शरीर और भोगों आदि का बार-बार चिन्तन करना अनुप्रेक्षा कहलाती है। अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म नाम वाली ये अनुप्रेक्षाएँ बारह हैं।

भावनाओं का फल

इन चिन्तत समसुख जागै, जिमि ज्वलन पवन के लागै।
जब ही जिय आतम जानै, तब ही जिय शिवसुख ठानै।।२।।

अर्थ –जिस प्रकार हवा के लगने से अग्नि वेग से धधक उठती है, उसी प्रकार इन बारह भावनाओं का बारम्बार चिन्तवन करने से समतारूपी भाव जाग्रत हो उठता है, अर्थात् यह जीव अपनी आत्मा के वास्तविकरूप को पहिचानने लगता है। फलस्वरूप वह जीव परपदार्थों से नाता तोड़कर समतारस का पान करता है और कालान्तर में अविनाशी मोक्षसुख को प्राप्त करता है।

विशेषार्थ- जैसे- वायु के संयोग से अग्नि में वृद्धि होती है, वैसे ही भावनाओं के चिंतन से वैराग्य दृढ़ होता है, जिससे समता में वृद्धि होती है और समता से आत्मिक सुख प्राप्त होता है।

अनित्य भावना का लक्षण

जोवन गृह गो धन नारी, हय गय जन आज्ञाकारी।
इन्द्रीय-भोग छिन थाई, सुरधनु चपला चपलाई।।३।।

अर्थ – यौवन, घर, गाय-बैल, द्रव्य, स्त्री, घोड़ा, हाथी, आज्ञा के अनुकूल चलने वाले नौकर तथा इन्द्रियों के भोग-ये क्षणिक हैं, स्थाई नहीं हैं। इन्द्रधनुष या बिजली के अस्तित्व सा चंचल इनका अस्तित्व है। कोई भी पदार्थ नित्य या स्थाई नहीं है, ऐसा विचार कर बार-बार चिन्तवन करना ‘अनित्य भावना’ है।

विशेषार्थ- स्वस्वामी भाव से ग्रहण किए हुए चेतन, अचेतन एवं मिश्र पदार्थ तथा इन्द्रिय आदि के भोग इन्द्रधनुष एवं बिजली के सदृश क्षणभंगुर हैं, ऐसा चिन्तन करना अध्रुव अर्थात् अनित्य भावना है। जैसे विवेकी मनुष्यों को जूठे भोजन में ममत्व नहीं होता, उसी प्रकार स्त्री, पुत्र, धन, वैभव का वियोग आदि हो जाने पर भी ममत्व नहीं होता, यही इस भावना का फल है।

अशरण-भावना का लक्षण

सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि काल दले ते।
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई।।४।।

अर्थ – संसार में जो इन्द्र (सुरपति), नागेन्द्र (असुरपति), चक्रवर्ती (खगपति) आदि महिमावान हुए उन सबको भी मृत्यु (काल) उसी प्रकार विनष्ट कर देती है, जैसे हिरण को सिंह मार डालता है। संसार के भौतिक रत्न, मंत्र और तंत्र भी मृत्यु से नहीं बचा सकते। संसार में कोई भी शरण नहीं है और मरने से कोई बचाने वाला नहीं है-ऐसा चिन्तवन करना ही ‘अशरण भावना’ है। विशेषार्थ – महावन में व्याघ्र से पकड़े हुए हिरण के बच्चे को एवं महासमुद्र में जहाज से छूटे हुए पक्षी को जैसे कोई शरण नहीं है, वैसे ही मरण आदि के समय इन्द्र, चक्रवर्ती, कोटिभट, सहस्रभट, पुत्र एवं स्त्री आदि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, भोंहरा, मणि, मंत्र, तंत्र, औषधि, आज्ञा एवं महल आदि अचेतन पदार्थ कोई भी शरण नहीं हैं, ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है।

संसार-भावना का लक्षण

चहुँगति दु:ख जीव भरै हैं, परिवर्तन पञ्च करै हैं।
सब विधि संसार असारा, यामें सुख नाहि लगारा।।५।।

अर्थ – संसार में प्रत्येक प्राणी चारों गतियों के दु:खों को सहता है और पाँचों (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भव) परिवर्तन करता रहता है, किन्तु कभी शांति नहीं पाता। वास्तव में यह संसार असार है, उसमें लेशमात्र भी सुख नहीं है। सांसारिक सुख तो सुखाभास, नश्वर, भ्रमरूप और परिणाम में कटु हैं, ऐसा विचार करना ‘संसार भावना’ है।

विशेषार्थ – द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप यह संसार अनन्त दु:खों एवं कष्टों से भरा हुआ है, सारहीन है तथा कहीं भी चैन और सुख नहीं है, ऐसा विचार करना संसार भावना है।

एकत्व-भावना का लक्षण

शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगै जिय एकहि तेते।
सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी।।६।।

अर्थ – अपने पुण्य कर्मों के अच्छे और पाप कर्मों के निन्दनीय फल को प्रत्येक प्राणी अकेला ही भोगता है अर्थात् यह जीव सदा एकाकी है। उसमें पुत्र-स्त्री आदि कोई भी हिस्सेदार नहीं होते हैं। ये सभी रिश्तेदार स्वार्थ के अभिप्राय से ही नाता रखते हैं एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में मुँह मोड़ लेंगे-ऐसा विचार करना ‘एकत्व भावना’ है।

विशेषार्थ – जो अपना आत्मा है वही सदा अविनाशी, परमहितकारी एवं परमबंधु है, विनश्वर तथा अहितकारी पुत्र, कलत्र और मित्र आदि बंधु नहीं हैं अथवा पुण्य और पाप कर्मों के जितने फल हैं, उनको यह जीव अकेला ही भोगता है, स्त्री-पुत्रादि कोई भाग नहीं बाँट सकता, ऐसा चिन्तन करना एकत्व भावना है। देव-पूजा, गुरु उपासना एवं स्वाध्याय आदि धार्मिक कार्यों की ओर मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति लगाना शुभोपयोग कहलाता है। विषय-कषायों की ओर त्रियोग की प्रवृत्ति लगाना अशुभोपयोग कहलाता है।

अन्यत्व-भावना का लक्षण

जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।
तो प्रगट जुदे धन धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत रामा।।७।।

अर्थ – जिस प्रकार दूध और पानी एकमेक होकर मिल जाते हैं, किन्तु अपने-अपने गुणादिक की अपेक्षा से दोनों अलग-अलग रहते हैं, उसी प्रकार यह जीव और शरीर भी एकमेक होकर मिले हुए हैं, तो भी वे दोनों अपने-अपने स्वरूपादिक की अपेक्षा से अलग-अलग हैं-एक नहीं। जब लेशमात्र भी पृथक् न दिखने वाले जीव तथा शरीर भी जुदे-जुदे हैं, तब स्पष्टरूप से अलग दिखने वाले धन, मकान, पुत्र, स्त्री आदि एक (अपने) कैसे हो सकते हैं ? ऐसा बारम्बार विचार करना ‘अन्यत्व भावना’ है। इस भावना के चिन्तवन से ‘भेदज्ञान’ की सिद्धि होती है। यद्यपि अनादिकाल से शरीर व आत्मा एक साथ रह रहे हैं, किन्तु जो शरीर है वह आत्मा नहीं और जो आत्मा है वह शरीर नहीं। इसी प्रकार संसार की कोई वस्तु मेरी नहीं और मैं भी किसी का नहीं। अन्य वस्तु अन्य रूप है और मैं अन्य रूप हूँ, ऐसी भावना भानी चाहिए।

विशेषार्थ – संसार की कोई भी वस्तु मेरी नहीं है, दूध-पानी सदृश एकमेक होने वाला शरीर भी मेरा नहीं है, ऐसा चिन्तन करना अन्यत्व भावना है। एकत्व भावना में ‘‘मैं एक हूँ’’ इस प्रकार विधिरूप से एकपने का चिन्तन किया जाता है किन्तु अन्यत्व भावना में ‘देहादिक पदार्थ मेरे नहीं हैं, मुझसे भिन्न हैं’ इस प्रकार निषेधरूप से चिन्तन किया जाता है।

अशुचि-भावना का लक्षण

पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली।
नवद्वार बहैं घिनकारी, अस देह करै किम यारी।।८।।

अर्थ – यह देह ऊपर से देखने में कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, विश्लेषण करने पर अत्यन्त घृणित एवं घोर अपवित्र है। यह काया माँस, खून, पीप, मल-मूत्र आदि की थैली है और हड्डी-चरबी आदि से युक्त होने से पूर्ण अपवित्र है। घृणा उत्पन्न करने वाले नवद्वारों से सदैव मल बहता रहता है-ऐसी अपवित्र देह में भला प्रेम कैसे किया जाये ? ऐसा विचार करना ‘अशुचि भावना’ है। इसके चिन्तवन से शरीर एवं भोगों से विरक्ति होती है, वैराग्य दृढ़ होता है।

विशेषार्थ – यह शरीर हड्डी, माँस आदि ग्लानिदायक वस्तुओं का घर है, नवद्वारों का पींजरा है, मल, मूत्र आदि अशुचि मलों की उत्पत्ति का स्थान है, केवल इतना ही नहीं अपितु अपने संसर्ग से पवित्र एवं सुगंधित पदार्थों को भी अपवित्र कर देता है, ऐसा चिन्तन करना अशुचि भावना है।

आस्रव भावना का लक्षण

जो योगन की चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई।
आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हैं निरवेरे।।९।।

अर्थ – हे भव्यजीवों! मन-वचन-काय की चंचलता से कर्मों का आस्रव होता है, अर्थात् कर्म आत्मप्रदेशों में बंधते हैं। यह कर्मास्रव जीव के लिए बहुत दु:खदायी है इसलिए बुद्धिमान एवं चतुर प्राणियों को यह वास्तविकता समझकर उससे बचना चाहिए अर्थात् उनको दूर करना चाहिए, ऐसा विचार करना ‘आस्रव भावना’ है।

विशेषार्थ – जैसे छिद्र सहित रत्नों से भरा जहाज भी समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही अनन्त गुणों का भण्डार यह आत्मा आस्रवों के कारण संसार-समुद्र में डूब रहा है, ऐसा विचार करना आस्रव भावना है।

संवर-भावना का लक्षण

जिन पुण्य पाप नहिं कीना, आतम अनुभव चित दीना।
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके।।१०।।

अर्थ – जो विवेकी प्राणी बंध का कारण होने से पुण्य (शुभोपयोग) और पाप (अशुभोपयोग) रूप भावों को नहीं करते हैं, केवल कर्मबंधरोधक, आत्म-मंथन अर्थात् आत्मा के चिन्तवन (शुद्धोपयोग) में मन लगाते हैं-वे आते हुए नवीन कर्मों को रोककर ‘संवर’ को पाकर सुख की उपलब्धि करते हैं। अपने चित्त में ऐसा विचार करना ‘संवर भावना’ है। कर्मों के संवर से दु:ख स्वत: समाप्त हो जाता है।

विशेषार्थ – जैसे वही जहाज छिद्र बंद हो जाने से जल के न घुसने पर निर्विघ्न पार हो जाता है वैसे ही यह जीवरूपी जहाज आस्रवरूपी छिद्रों के बंद हो जाने से सुख को प्राप्त हो जाता है, ऐसा चिन्तन करना संवर भावना है। हिंसा आदि लोकनिंद्य कार्यों को पाप और सच्चे देव द्बारा कथित धार्मिक कार्यों का फल पुण्य कहलाता है।

निर्जरा-भावना का लक्षण

निज काल पाय विधि झरना, तासों निजकाज न सरना।
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै।।११।।

अर्थ – अपनी-अपनी स्थिति (समय) पूर्ण (पूरा) कर सम्पूर्ण संसारी जीवों के कर्मों का नष्ट (क्षय) होना (झरना) सविपाक या अकाम निर्जरा है। जैसे-आम अपना समय आने पर ही पकता या गिरता है, उसी प्रकार सविपाक निर्जरा में कर्म अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही फल देकर झड़ जाते हैं। इस अकाम निर्जरा से आत्मा (जीव) का कुछ भी कल्याण नहीं होता है। तप के द्वारा कर्मों का नाश किया जाना अविपाक या सकाम निर्जरा है। जैसे-कोई कच्चा आम तोड़कर पाल में दबा कर असमय में ही पका दिया जाता है, उसी प्रकार अविपाक निर्जरा में कर्म स्थिति पूर्ण हुए बिना ही तप आदि के बल से नष्ट कर दिये जाते हैं। यह सकाम निर्जरा ही मोक्ष सुख को प्राप्त को कराती है इसलिए सकाम निर्जरा के कारणों को जानकर कर्मों को स्वयं तप के द्वारा दूर करना चाहिए, ऐसा विचार करना ‘निर्जरा भावना’ है।

लोक-भावना का लक्षण

किनहू न करौ न धरै को, षट् द्रव्यमयी न हरै को।
सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता।।१२।।

अर्थ – इस लोक को किसी ने नहीं बनाया है और न कोई इसे धारण किए हुए है। यह लोक छ: द्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) से भरा हुआ है और कोई इसका कभी नाश नहीं कर सकता है। इस स्वयंसिद्ध लोक में यह जीव समतापरिणति के अभाव में भ्रमण करता है और दु:ख सहता है। ऐसा विचार करना, दसवीं ‘लोक भावना’ है।

बोधि दुर्लभ-भावना का लक्षण

अन्तिम ग्रीवकलौं की हद, पायों अनन्त बिरियाँ पद।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ।।१३।।

अर्थ – मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव (प्राणी) ने मंद कषाय के फलस्वरूप असंख्य बार नौवें ग्रैवेयक (स्वर्ग का विमान) में उत्पन्न होकर अहमिन्द्र पद प्राप्त किया, परन्तु इसे एक बार भी सम्यक्ज्ञान का उदय नहीं हुआ क्योंकि उसका पाना कोई सरल काम नहीं है। ऐसे बड़ी कठिनता से उपलब्ध होने वाले सम्यक्ज्ञान की साधना आत्मचिन्तवन करने वाले भावलिंगी मुनि ही कर सकते हैं, ऐसा विचार करना ‘बोधिदुर्लभ भावना’ है।

विशेषार्थ – एकेन्द्रिय, विकलत्रय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, नरपर्याय, उत्तम कुल, उत्तम देश, सांगोपांगता, सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, कार्य कुशलता, निरोगता, दीर्घायु, श्रेष्ठ बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, श्रद्धान करना, संयम, विषय सुखों से पराङ्मुखता एवं क्रोधादि कषायों से निवृत्ति ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। काकतालीय न्याय से ये कदाचित् मिल भी जाएँ, तो भी बोधि और समाधि की प्राप्ति तो अति दुर्लभ है, ऐसा सदैव चिंतन करना चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होना बोधि है तथा इस बोधि को निर्विघ्नतापूर्वक अन्य भव में ले जाना समाधि है। दिगम्बर मुनिराज ही इसे अपने हृदय में धारण करके मोक्ष पद प्राप्त करते हैं। बिना सम्यग्ज्ञान के तो इस जीव ने अनन्तों बार मुनिव्रत धारण कर नवम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया किन्तु मोक्ष प्राप्त नहीं कर सका, इसलिए इसे अतिदुर्लभ कहा है।

धर्म-भावना का लक्षण

जे भाव मोहतैं न्यारे, दृग ज्ञान व्रतादिक सारे।
सो धर्म जबै जिय धारै, तब ही सुख अचल निहारै।।१४।।

अर्थ – सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, तप आदि जितने भी भाव हैं, वे सब मोह-भाव से भिन्न हैं (क्योंकि ये भाव धर्मरूप हैं)। इस धर्म को जब यह जीव धारण करता है, तब ही वह शाश्वत सुख अर्थात् मोक्ष (सब कर्मों से रहित अवस्था) को प्राप्त करता है, ऐसा चिन्तवन करना ‘धर्म प्रभावना’ है।

विशेषार्थ – वस्तु का स्वभाव धर्म, अहिंसा धर्म, उत्तम क्षमादि दस- लक्षण धर्म, निश्चय एवं व्यवहार धर्म तथा शुद्ध आत्मानुभव रूप, मोह-क्षोभ रहित आत्मपरिणाम वाला धर्म, ये धर्म के भिन्न-भिन्न लक्षण हैं। धर्म में कर्तव्य-पालन की प्रधानता रहती है किन्तु धर्म भावना में धर्म के लक्षणों का बार-बार चिन्तन किया जाता है।

मुनिधर्म को सुनने की प्रेरणा

सो धर्म मुनिन-करि धरिये, तिनकी करतूत उचरिये।
(तिनकी गुणकीर्ति उचरिये)
ताकों सुनिये भवि प्राणी, अपनी अनुभूति पिछानी।।१५।।

अर्थ – ऐसे रत्नत्रयस्वरूप हितकारी धर्म को भावलिंगी निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैसे मुनि ही धारण करते हैं और कोई अन्य नहीं, क्योंकि रत्नत्रय का पूर्ण पालन केवलमात्र वे ही करने में समर्थ हैं इसलिए अगली अध्याय में उन मुनियों की क्रियाओं (कत्र्तव्यों) अर्थात् सकलचारित्र का वर्णन किया जाता है। हे भव्यजीवों! उन मुनि के कत्र्तव्यों को सुनो और अपनी आत्मा के अनुभव को पहचानो अर्थात् समझो। यहां ‘करतूत’ शब्द लोकविरुद्ध है प्राय: गलत क्रियाओं को ‘करतूत’ कहते हैं अत: ‘गुणकीर्ति’ पद अच्छी चर्या और क्रिया का बोध कराने वाला है।

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छठवीं ढाल


(हरिगीता छंद)

अहिंसा, सत्य, अचौर्य तथा ब्रह्मचर्य महाव्रतों का लक्षण

षट्काय जीव न हननतैं, सब विधि दरब-हिंसा टरी।
रागादि भाव निवारतैं, हिंसा न भावित अवतरी।।
जिनके न लेश मृषा न जल, मृण हू बिना दीयौ गहैं।
अठदशसहस विधि शील धर, चिद्ब्रह्म में नित रमि रहैं।।१।।
 
अर्थ – छहकाय के जीवों का घात करना ‘द्रव्यहिंसा’ और राग-द्वेष-काम-क्रोध-मान इत्यादि भावों की उत्पत्ति ‘भावहिंसा’ कहलाती है। मुनिराज इन दोनों प्रकार की हिंसाओं को नहीं करते, इसलिए उनके अहिंसा महाव्रत’ होता है। स्थूल अथवा सूक्ष्म दोनों प्रकार का झूठ भी मुनिराज कभी नहीं बोलते, इसलिए उनके ‘सत्य महाव्रत’ होता है। अन्य वस्तुओं का तो पूछना ही क्या, जिस मिट्टी और जल को सर्वसाधारण जीव बिना किसी रोक-टोक (निषेध) के प्रयोग में लेते हैं, मुनि उनको भी किसी के द्वारा दिए बिना ग्रहण नहीं करते इसलिए उनके ‘अचौर्य महाव्रत’ होता है। शील के १८००० भेदों का सदैव पालन करते मुनि चैतन्यरूपी आत्मस्वरूप में लीन रहते हैं, इसलिए उनके ‘ब्रह्मचर्य महाव्रत’ होता है।
 
विशेषार्थ–पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच स्थावर और त्रसकाय, ये षट्काय जीव कहलाते हैं । इसप्रकार (मन, वचन, काय कृत, कारित, अनुमोदनारूप ९) नवकोटि से हिंसादि पाँचों पापों का सर्वथा त्याग करना महाव्रत है ।

 

परिग्रह त्याग महाव्रत, ईर्या और भाषा समिति स्वरूप

अन्तर चतुर्दश भेद बाहर, संग दशधा तैं टलैं।
परमाद तजि चउकर मही लखि, समिति ईर्या तै चलैं।।
जग सुहितकर सब अहितहर, श्रुति सुखद सब संशय हरैं।
भ्रमरोग-हर जिनके वचन, मुख-चन्द्रतैं अमृत झरैं।।२।।
 
अर्थ –मुनिराज १४ प्रकार के अन्तरंग एवं १० प्रकार के बहिरंग परिग्रहों से सदा दूर रहते हैं, इसलिए उनके ‘परिग्रह त्याग महाव्रत’ होता है। सूर्योदय होने के बाद दिन में एकाग्रचित्त से चार हाथ आगे की भूमि देखकर जीव-जन्तुओं की हिंसा से बचते हुए मुनिराज मार्ग में चलते हैं अत: उनके ‘ईर्या समिति’ होती है।
 
विशेषार्थ –परिग्रह के मुख्यत: दो भेद हैं-अभ्यन्तर और बाह्य। अभ्यन्तर परिग्रह चौदह प्रकार का है-मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद। बाह्य परिग्रह दश प्रकार का है-क्षेत्र (खेत), वास्तु (मकान), हिरण्य, स्वर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, वस्त्र और बर्तन।
 

एषणा, आदान निक्षेपण और प्रतिष्ठापना समिति

छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तनैं घर अशन को।
लैं तप बढ़ावन हेतु नहिं तन, पोषते तजि रसन को।।
शुचि ज्ञान संजम उपकरण, लखिवैं गहैं लखिवैं धरैं।
निर्जन्तु थान विलोक तन, मल मूत्र श्लेषम परिहरैं।।३।।
 
अर्थ – छ्यालीस दोषों से रहित एवं बत्तीस अन्तरायों को टालकर और रसना इन्द्रिय की लोलुपता छोड़कर (रसों का आंशिक या पूरा त्यागकर) शरीर को पुष्ट करने का अभिप्राय न रखते हुए केवल तप बढ़ाने के लिए, मुनिराज उत्तम कुल वाले श्रावक के यहाँ अनुद्दिष्ट प्रासुक भोजन (आहार) को दिन में एक बार ग्रहण करते हैं, इसलिए उनके ‘एषणा समिति’ होती है। शुद्धि-पवित्रता के साधन कमण्डलु, ज्ञान के साधन शास्त्र एवं संयम के साधन पिच्छिका को जीवों की विराधना (हिंसा) बचाने के लिए मुनिराज देखभाल कर रखते और उठाते हैं, इसलिए उनके ‘आदान-निक्षेपण समिति’ होती है। मल-मूत्र-कफ आदि शरीर के मैलों को मुनिराज जीव रहित स्थान देख कर त्यागते (छोड़ते) हैं, अत: उनके ‘व्युत्सर्ग या प्रतिष्ठापन समिति’ होती है।
 
विशेषार्थ – दाता के आश्रित सोलह उद्गम दोष, पात्र के आश्रित सोलह उत्पादन दोष तथा आहार संबंधी दस और भोजन क्रिया संबंधी चार-ऐसे कुल छियालीस दोष हैं।
 

तीन गुप्तियाँ और पंचेन्द्रिय विजय

सम्यक् प्रकार निरोध मन वच, काय आतम ध्यावते।
तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते।।
रस रूप गंध तथा फरस अरु, शब्द शुभ असुहावने।
तिनमें न राग विरोध पंचेन्द्रिय, जयन पद पावने।।४।।
 
अर्थ – मुनिराज जब भली प्रकार से मन, वचन और काय की क्रिया (प्रवृत्ति) को रोककर अपनी आत्मा का ध्यान करते हैं, तब उनकी शांत एवं अचल आकृति को देखकर उसे पत्थर समझकर उससे हिरण या अन्य चौपाये अपनी खुजली मिटाने (रगड़ कर खुजाने) लगते हैं इसलिए उनके तीनों गुप्तियाँ (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति) होती हैं। वे अपने लिए पाँचों इन्द्रियों के २७ विषयों-५ रस, ५ वर्ण, २ गंध,८ स्पर्श, ७ शब्द-मे न तो प्रिय (शुभ) होने पर राग करते हैं और न ही अप्रिय (अशुभ) होने पर द्वेष करते हैं इसलिए पंचेन्द्रियों को वश में करने (विरक्त रहने) से वे जितेन्द्रिय कहलाते हैं।
 
विशेषार्थ – यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति का नाम समिति है और मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति की निवृत्ति का नाम गुप्ति है। पाँच इन्द्रियों और मन के उâपर विजय प्राप्त करना अर्थात् उन्हें वश में रखना इन्द्रियविजय कहलाता है।

छह आवश्यक और सात शेष गुण

समता सम्हारैं, थुति उचारैं, वन्दना जिनदेव को।
नित करैं श्रुतिरति, धरैं प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेव को।।

(प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करते)

जिनके न न्हौन, न दन्त-धोवन, लेश अम्बर आवरन।
भूमाहिं पिछली रयनि में कछु, शयन एकासन करन।।५।।

अर्थ
– दिगम्बर जैन मुनि सदा सामायिक करते हैं स्तुति करते हैं श्री जिनेन्द्र भगवान की वंदना करते हैं स्वाध्याय मनोयोग से करते हैं प्रतिक्रमण करते हैं देह से ममत्व त्याग करके कायोत्सर्ग करते हैं -इसलिए उनके ६ आवश्यक होते हैं। शरीर का शृँगार त्याग के कारण वे मुनिराज
(१) स्नान नहीं करते
(२) दातौन नहीं करते
(३) रंचमात्र भी कपड़ा शरीर ढाँकने में काम नहीं लेते
(४) रात के अंतिम भाग में जमीन पर एक ही करवट लेटकर थोड़ी सी नींद लेते हैं।
 
विशेषार्थ – जो किसी के वश में नहीं होते, उन्हें अवश कहते हैं, अर्थात् आधि (मानसिक पीड़ा) व्याधि (शारीरिक पीड़ा) आदि से ग्रस्त हो जाने पर भी, उनके एवं इन्द्रियों के वशीभूत न होकर, जो दिन और रात्रि के आवश्यक कार्य साधुओं को करने ही चाहिए, उन्हीं कार्यों को आवश्यक कहते हैं।
 
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने इस पद्य को संशोधित करके मुनियों के आचार ग्रंथ के अनुसार स्पष्टीकरण किया है, जो कि दृष्टव्य है- पण्डित दौलतराम जी और कवि बुधजन जी ने समता, स्तुति, वन्दना, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण और कायोत्सर्ग ये छ: आवश्यक (मुनियों के) कहे हैं किन्तु मूलाचार, अनगार धर्मामृत एवं अन्य सभी आचार्यप्रणीत आचारग्रंथों में सामायिक (समता), चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक कहे हैं। मूलाचार, आचारसार आदि ग्रंथों में साधुओं के २८ मूलगुणों के अन्तर्गत छह आवश्यक क्रियाओं में प्रतिक्रमण के बाद ‘प्रत्याख्यान’ क्रिया है न कि स्वाध्याय। प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। यावज्जीवन किसी वस्तु का त्याग अथवा प्रतिदिन आहार के बाद गुरु के पास अगले दिन आहार लेने तक आहार-भोजन का त्याग आदि प्रत्याख्यान है।
 
इसी प्रकार- अनगार धर्मामृत आदि ग्रंथों में मुनियों के लिए पिछली रात्रि में ‘वैरात्रिक’ स्वाध्याय का विधान है और रात्रि के अर्ध रात्रि में सोने का-निद्रा लेने का विधान है, अत: यह संशोधित पाठ आगमसम्मत है।

शेष सात गुण एवं समता

इक बार दिन में लैं अहार, खड़े अलप निज पान में।
कचलोंच करत न डरत परिषह, सों लगे निज ध्यान में।।
अरि मित्र महल मसान कंचन, काँच निंदन थुति करन।
अर्घावतारन असि-प्रहारन, में सदा समता धरन।।६।।
 
अर्थ – मुनि दिन में एक बार ही अपने हाथ में लेकर खड़े-खड़े थोड़ा सा आहार लेते हैं। वे अपरिग्रही अपने केशों का अपने हाथों से लोंच करते हैं। वे परिषह (दु:ख) से नहीं डरते हैं और अपनी आत्मा में लीन रहते हैं। इस प्रकार ये २८ मूलगुण साधु पालते हैं-५. महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियजय, ६ आवश्यक·२१ मूलगुण, फिर १. न नहाना २. दाँत न धोना ३. जमीन पर सोना ४. नग्न रहना ५. एक बार भोजन करना ६. खड़े-खड़े करपात्र में आहार लेना ७. अपने बालों का लोंच करना – २१ + ७ = २८ मूलगुण हैं। आत्मा के अतिरिक्त अन्य समस्त भौतिक पदार्थों से उदासीन रहने के कारण उनके लिए समस्त ऐश्वर्य तुच्छ हैं-साधु के लिए शत्रु और मित्र, महल और श्मशान, कंचन और काँच, निंदा और स्तुति, पूजन करना या तलवार से मारना-ये सब समान हैं अर्थात् मुनि हर एक अवस्था में शांत-चित्त रहा करते हैं। वे राग-द्वेष से ऊपर उठ जाते हैं अर्थात् वे सम-भाव धारण कर लेते हैं और आने वाली समस्त आपत्तियों और कष्टों को साम्य परिणामों से सहन कर लेते हैं।
 
विशेषार्थ – क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस-मच्छर, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल, नग्नता, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार, अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा और अज्ञान यह बाईस प्रकार के परिषह हैं तथा रागद्वेष के अभावरूप प्रवृत्ति को समता कहते हैं।

मुनियों का तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरण चारित्र

तप तपैं द्वादश धरैं वृष दश, रतनत्रय सेवैं सदा।
मुनि साथ में वा एक विचरैं, चहैं नहिं भव सुख कदा।।
यों है सकल संयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब।
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै पर की प्रवृत्ति सब।।७।।
 
अर्थ – मुनि बारह प्रकार के तप तपते हैं, दश प्रकार के धर्म को धारण करते हैं, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी तीन गुण रत्नों की रक्षा करते हैं, मुनियों के साथ या एकाकी विचरण करते हैं और सांसारिक सुखों की इच्छा भी नहीं करते, इस प्रकार मुनि के सकल-चारित्र का वर्णन हुआ। अब स्वरूपाचरण या निश्चयचारित्र को कहते हैं, जिसके उदय से अपनी आत्मा की ज्ञानादि सम्पत्ति प्रकट होती है और पर-पदार्थों की ओर झुकाव सब प्रकार से मिटता है।
 
विशेषार्थ – प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये छह अंतरंग तप और अनशन, ऊनोदर, व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छ: बाह्यतप होते हैं।

स्वरूपाचरण चारित्र (शुद्धोपयोग) का वर्णन

जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया।
वरणादि अरु रागादि तैं, निज भाव को न्यारा किया।।
निजमाहिं निज के हेतु निजकर, आपको आपै गह्यौ।
गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यौ।।८।।
 
अर्थ – जिस प्रकार कोई व्यक्ति तीक्ष्ण छेनी से पाषाण को भेद देता (तराशता) है, ठीक उसी प्रकार जब वीतरागी मुनिराज अपने अन्तरंग में भेदविज्ञानरूपी छेनी को डालकर सम्यक्ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और उससे आत्मा के स्वरूप को रूप-रस-गंध और स्पर्शरूप द्रव्यकर्म से तथा राग-द्वेष आदिरूप भावकर्म से अलग कर अपनी आत्मा में, आत्मा के लिए, आत्मा के द्वारा, आत्मा को अपने-आप (स्वत:) जान लेते हैं-तब उनके लिए गुण, गुणी, ज्ञाता और ज्ञेय इनमें कुछ भी भेद (अंतर) नहीं रह जाता है। इस प्रकार अभेदपने का अलौकिक साम्राज्य उपस्थित हो जाता है और यही ‘स्वरूपाचरण चारित्र’ है।
 
विशेषार्थ – सकल संयम की साधना की चरमावस्था के पश्चात् आत्मा की जो वीतराग परिणति प्रगट होती है वह स्वरूपाचरण चारित्र है। इसी का अपर नाम निश्चयचारित्र, यथाख्यातचारित्र अथवा वीतरागचारित्र है। जैसा कि परमात्मप्रकाश में कहा गया है कि राग-द्वेषाभाव-लक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चय-चारित्रं भवति……..। रागद्वेष के अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यातस्वरूप स्वरूपाचरण ही निश्चयचारित्र है। आगे भी स्वरूपाचरणचारित्र को ही वीतरागचारित्र कहा है। यथा……स्वरूपे चरणं चारित्रमिति वीतरागचारित्रं तस्यैव भवति। अर्थात् स्वरूप के आचरण रूप वीतरागचारित्र भी उसी समभावधारी के ही होता है। इसी प्रकार वृहद् द्रव्य-संग्रह एवं प्रवचनसार आदि ग्रंथों में भी कहा गया है।

स्वरूपाचरण चारित्र (निश्चयचारित्र) का वर्णन

जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को, न विकल्प वच भेद न जहाँ।
चिद्भाव कर्म चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ।।
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दशा।
प्रगटे जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एवै लसा।।९।।
 
अर्थ – वीतराग मुनिराज स्वरूपाचरण चारित्र के समय जब आत्मध्यान में मग्न हो जाते हैं, तब ध्यान (चिंतवन), ध्याता (ध्यान करने वाला) और ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) में कुछ भी अन्तर नहीं रहता, वचन का विकल्प भी नहीं होता। वहाँ आत्मा ही कर्म (कर्ता के द्वारा खास इच्छित), आत्मा ही कत्र्ता (कार्य करने वाला) और आत्मा का भाव ही क्रिया (किया जाना) होता है, अर्थात् कर्ता-कर्म-क्रिया ये तीनों बिल्कुल अभिन्न (एक) तथा परस्पर अविरोधी हो जाते हैं, तब सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र भी एक साथ एकरूप होकर प्रकाशमान हो जाते हैं, शुद्धोपयोग की अटल अवस्था प्रकट हो जाती है अर्थात् अभेद रत्नत्रय की उपलब्धि होती है।
 
विशेषार्थ– शुभाशुभ राग-द्वेषादि से रहित आत्मा की चारित्र-परिणति को शुद्धोपयोग कहते हैं।

स्वरूपाचरण चारित्र का लक्षण और निर्विकल्प ध्यान

परमाण नय निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखै।
दृग-ज्ञान सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखै।।
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं।
चितपिण्ड चण्ड अखण्ड सुगुण, करण्ड च्युत पुनि कलनितैं।।१०।।
 
अर्थ – उस स्वरूपाचरण चारित्र के समय मुनियों के आत्मानुभव में प्रमाण, नय और निक्षेप का प्रकाश (उदय) नहीं होता अर्थात् वे जुदा-जुदा प्रतीत नहीं होते वरन् ऐसा विचार (महसूस) होता है कि वे (मुनि) अनन्त- दर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप (अनन्त चतुष्टय के धारी) हैं, उनमें अन्य कोई राग-द्वेषादि भाव नहीं हैं। वे स्वयं ही साध्य हैं, स्वयं ही साधक हैं-कर्म तथा उसके फल (संसार परिभ्रमण) से मुक्त (बाधा रहित) हैं। वे स्वयं को चैतन्यपिण्ड, तेजस्वी, अखण्ड तथा उत्तमोत्तम गुणों का भण्डारस्वरूप अनुभव करते हैं, जो पाप तथा कर्म से रहित है। इस प्रकार सब प्रकार के विकल्पों से रहित आत्मा में स्थिरता (निर्विकल्पता) को स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं।
 
विशेषार्थ– वस्तु के सर्वांशों को जानने वाले ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। वस्तु के एकदेश को जानने वाले ज्ञान को नय कहते हैं। नय ज्ञान द्वारा बाधा रहित जाने हुए पदार्थों में प्रसंगवशात् नामादि की स्थापना करना निक्षेप है।

अलौकिक आनंद एवं अरिहंत अवस्था

यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यो।
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो।।
तब ही शुकलध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि कानन दह्यो।
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोक को शिवमग कह्यो।।११।।
 
अर्थ – इस स्वरूपाचरण चारित्र के समय मुनिराज पूर्वोक्त विचार कर जब आत्म-चिन्तवन में लीन हो जाते हैं, तब उन्हें जो वचनातीत आनन्द प्राप्त होता है, वह (आनन्द) इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती और अहमिन्द्र को भी नहीं मिलता। उस स्वरूपाचरण चारित्र के प्रकट होने पर उसके प्रभाव से शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा चार घातिया कर्म (ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय, अन्तराय) रूपी जंगल को जलाकर मुनिराज नष्ट कर देते हैं जिससे उन्हें ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति हो जाती है। फलस्वरूप वे तीनों लोकों एवं तीनों कालों की सब बातों (अनन्तानन्त पदार्थों के गुण-पर्यायों) को जानकर संसार के भव्य जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, यही ‘अरिहन्त’ अवस्था है।
 
विशेषार्थ – स्वरूपाचरणचारित्र श्रेणी की अवस्था में उत्पन्न होता है जिसके उत्पन्न होने के बाद अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, यही बात पण्डित जी ने लिखी है कि-
‘‘तब ही शुकलध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि-कानन दह्यो।।

सिद्ध स्वरूप का वर्णन

पुनि घाति शेष अघाति विधि, छिनमाँहिं अष्टम भू वसैं।
वसुकर्म विनसै सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसैं।।
संसार खार अपार पारावार, तरि तीरहिं गये।
अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये।।१२।।

अर्थ – अरिहन्त अवस्था या केवलज्ञान के उदय के पश्चात् वे भव्य जीव शेष ४ अघातिया कर्मों (वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र) की ८५ प्रकृतियों का नाशकर क्षण मात्र में अष्टम भू (मोक्ष) को पा लेते हैं। आठों कर्मों का नाश हो जाने पर उनमें सम्यक्त्वादि आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। ऐसे भव्य जीव संसाररूपी दुखदायी एवं अथाह समुद्र से उत्तीर्ण (पार) हुए और होते हैं अर्थात् जन्म-मरण की बाधा से मुक्त हो अविनाशी ‘मोक्ष सुख’ को प्राप्त कर लेते हैं। ये ही निर्विकार, अशरीरी, अमूर्तिक, शुद्धचैतन्यस्वरूप तथा अविनाशी होकर ‘सिद्ध’ कहलाते हैं।
 
विशेषार्थ– मोहनीय कर्म के नाश से सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है। दर्शनावरणी के नाश से दर्शन गुण प्रकट होता है। ज्ञानावरणी के नाश से ज्ञान गुण प्रकट होता है। गोत्रकर्म के नाश से अगुरुलघुत्व गुण प्रकट होता है। नामकर्म के नाश से सूक्ष्मत्व गुण प्रकट होता है। आयुकर्म के नाश से अवगाहनत्व गुण प्रकट होता है। वेदनीयकर्म के नाश से अव्याबाधत्व गुण प्रकट होता है तथा अंतरायकर्म के नाश से वीर्यत्व गुण प्रकट होता है।

मोक्ष पर्याय की महिमा, मनुष्य पर्याय की सार्थकता एवं शाश्वत सुख की प्राप्ति

निजमाँहि लोक अलोक गुण, परजाय प्रतिबिम्बित थये।
रहि हैं अनन्तानन्त काल, यथा तथा शिव परणये।।
धनि धन्य हैं जे जीव नरभव, पाय यह कारज किया।
तिनही अनादि भ्रमण पञ्च प्रकार, तजि वर सुख लिया।।१३।।
 
अर्थ – उन सिद्ध भगवान की आत्मा में लोक और अलोक (समस्त पदार्थ) अपने-अपने गुणों और पर्यायों सहित एक साथ दर्पण में प्रतिबिम्बित पदार्थ के समान झलकने लगते हैं। वे जैसे मोक्ष को गये हैं, वैसे ही वहाँ रहने वाले अन्य सिद्ध जीवों के समान अनन्तानन्त काल तक रहेंगे अर्थात् अपरिमित समय व्यतीत हो जाने पर भी उनकी अखण्ड शान्ति आदि में लेशमात्र भी बाधा न पड़ेगी। जिन प्राणियों ने मनुष्य की पर्याय प्राप्तकर यह शुद्ध चैतन्यरूप भी प्राप्त किया है, वह अत्यन्त धन्य (प्रशंसा के पात्र) हैं। उन्होंने ही अनादिकाल से चले आ रहे पंच परावर्तनरूप संसार के परिभ्रमण को त्यागकर उत्तम सुख (मोक्ष) पाया है।
 
विशेषार्थ – आत्म स्थित केवलज्ञान में स्वच्छ निर्मल दर्पण के सदृश सम्पूर्ण-द्रव्य अपने गुण एवं पर्यायों सहित प्रतिबिम्बित होते हैं अन्तर केवल इतना है कि केवलज्ञान में दर्पण की तरह छाया और आकृति नहीं पड़ती है।

रत्नत्रय का फल एवं शीघ्र आत्म हित की शिक्षा

मुख्योपचार दुभेद यों, बड़भागि रत्नत्रय धरैं।
अरु धरैंगे ते शिव लहैं तिन, सुयश-जल जगमल हरैं।।
इमि जानि आलस हानि साहस, ठानि यह सिख आदरो।
जबलौं न रोग जरा गहै, तबलौं झटिति निजहित करो।।१४।।
 
अर्थ – सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र (रत्नत्रय) के जो दो भेद-व्यवहार और निश्चय कहे गये हैं, उनको जो भाग्यशाली जीव धारण करते हैं और धारण करेंगे तो वे (अवश्य) मोक्ष प्राप्त करते हैं और करेंगे तथा उनका सुयशरूपी जल संसार के कर्मरूपी मैल को हरता है और हरेगा, ऐसा जानकर आलस्य को त्यागो और हिम्मत बाँधकर यह उपदेश ग्रहण करो कि जब तक रोग या बुढ़ापा इस शरीर को नहीं जकड़ता है, उसके पहले ही हम जल्दी से जल्दी आत्महित करने में लग जाएँ।
 
विशेषार्थ – बड़भागी का अर्थ भाग्यशाली अर्थात् पुण्यवान है। पुण्य हेय नहीं है, पुण्य की वांछा हेय है। रत्नत्रय धारण करने योग्य उत्तम शरीर आदि के साधन एवं परिणामों की निर्मलता का योग पुण्य से ही प्राप्त होता है अत: भाग्यशाली को ही मोक्ष का पात्र कहा है। सिद्ध परमात्मा का सुकीर्तिरूपी जल भव्यात्माओं के संसाररूपी मैल को हरण करने वाला है अत: जब तक श्रेणी आरोहण नहीं कर पाते, तब तक पंचपरमेष्ठियों का गुणगान निरन्तर करना चाहिए। ‘‘यह तो शुभ राग है’’ ऐसा भय नहीं करना चाहिए। इस प्रकार सात तत्त्वों के चिंतन द्वारा श्रद्धा निर्मल करके जिनेन्द्र की भक्ति द्वारा शक्ति (साहस) प्राप्त कर आलस्य और प्रमाद को छोड़कर शीघ्र ही चारित्र धारण करने का पुरुषार्थ करना चाहिए क्योंकि रोग एवं वृद्धावस्था आ जाने पर पीछे कुछ भी नहीं हो सकेगा।
अन्तिम उपदेशयह राग आग दहै सदा, तातैं समामृत सेइये।
चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद बेइये।।
कहा रच्यो पर पद में न तेरो, पद यहै क्यों दु:ख सहै।
अब दौल! होउ सुखी स्वपद रुचि, दाव मत चूकौ यहै।।१५।।
 
अर्थ – यह मोह (राग) रूपी अग्नि अनादिकाल से इस संसारी जीव को निरन्तर जला रही है, इसलिए उसे समतारूपी अमृत पीना चाहिए जिससे मोह का विनाश हो। विषय-कषायों का यह जीव अनन्तकाल से सेवन कर रहा है, अत: उनका त्याग कर आत्मपद (मोक्ष) प्राप्त करने का उद्योग करना चाहिए। प्राणी परायी वस्तुओं में क्यों अनुरक्त है ? जबकि वह उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है एवं फलस्वरूप चिरकाल से दु:ख सहता है। प्राणी का वास्तविक स्वरूप तो अनन्त दर्शन-ज्ञान-चारित्र (रत्नत्रय) रूप है, उसी में उसे होना चाहिए, तभी सच्चा सुख (मोक्ष) प्राप्त होगा। अत: इस ग्रंथ के रचयिता कवि दौलतराम स्वयं अपनी आत्मा को सम्बोधित करते हैं कि हे दौलत! तुझे अपने आत्म-स्वरूप को पहिचानना होगा। यह मनुष्य भव, उत्तम श्रावक कुल आदि का सुयोग बारम्बार नहीं मिलता, इसलिए इस सुअवसर को व्यर्थ ही नष्ट नहीं हो जाने देना है प्रत्युत् संसार के प्रति आसक्ति (मोह) का त्यागकर भव-भ्रमण से मुक्ति हेतु एकाग्रचित्त होकर प्रयत्न करना है, यही करना जीवात्मा का वास्तविक लक्ष्य भी है।
 
विशेषार्थ – जैसे राग की दाह प्राणियों को जलाती है अर्थात् दु:ख देती है वैसे ही मोह, राग एवं द्वेष संसारी जीवों को अनादिकाल से निरन्तर जला रहे हैं इसलिए ये आग से भी भयंकर हैं।

ग्रन्थ निर्माण का समय, आधार, लघुता एवं फल

इक नव वसु इक वर्ष की, तीज सुकल बैसाख।
कर्यो तत्त्व उपदेश यह, लखि ‘बुधजन’ की भाख।।१।।
लघु-धी तथा प्रमादतैं, शब्द अर्थ की भूल।
सुधी सुधार पढ़ो सदा, जो पावौ भव-कूल।।२।।
 
अर्थ –पं. दौलतराम जी ने अपने पूर्ववर्ती पं. बुधजन जी कृत ‘छहढाला’ के आधार पर यह तत्त्वोपदेश विक्रम संवत् १८९१ की मिती वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को पूर्ण किया। पण्डित जी कहते हैं कि अल्पबुद्धि तथा प्रमाद के कारण कहीं शब्द या अर्थ की भूल रह गई हो, तो विद्वत्जन उसे सुधार करके पढ़ें, जिससे वे इस संसार से पार होने में समर्थ हो सवें।
 
विशेषार्थ –जिस प्रकार तीक्ष्ण शस्त्रों के प्रहार को रोकने वाली ढाल होती है, उसी प्रकार जीव को अहितकारी शत्रु-मिथ्यात्व, रागादि आस्रवों को तथा अज्ञानाधिकार को रोकने के लिए ढाल के समान इसमें छह प्रकरण हैं, जो छह प्रकार के छंदों में लिखे गये हैं इसलिए इस ग्रंथ का नाम छहढाला रखा गया है।
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