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पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की पूजन!

February 18, 2017पूजायेंjambudweep

पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की पूजन

 

रचयित्री-बाल ब्र.कु. माधुरी शास्त्री

शंभु छंद

सम्यग्दर्शन और ज्ञान चरित की जहाँ एकता होती है।

कलियुग में भी वहाँ मुक्ति पथ की सहजरूपता होती है।।

माँ रत्नमती जी का जीवन है इसी त्रिवेणी का संगम।

मैं भी स्नान करूँ उसमें इस हेतु कर रहा आराधन।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात:! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात:! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात:! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

नरेन्द्र छंद

मलिन आत्मा को शान्ती के शीतलजल से धोऊँ।

स्वाभाविक गुण में रम करके शाँत स्वभावी होऊँ।।

माता रत्नमती जी की मैं शाँत छवी को ध्याऊँ।

मिथ्या कल्मष धो करके समकित निधि को पा जाऊँ।।१।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

यह असार संसार न इसमें शांति कभी मिल सकती।

भव आतप मिट जावे जिससे तप में ही वह शक्ती।।

माता रत्नमती जी की मैं शाँत छवी को ध्याऊँ।

मिथ्या कल्मष धो करके समकित निधि को पा जाऊँ।।२।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

 

नश्वर जग का सुख वैभव नश्वर धन कंचन काया।

अविनश्वर बस एक मात्र मुक्ती सुख मुझको भाया।।

माता रत्नमती जी की मैं शाँत छवी को ध्याऊँ।

मिथ्या कल्मष धो करके समकित निधि को पा जाऊँ।।३।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

 

मोह अग्नि में जल कर मानव कैसा झुलस रहा है।

काम मोह की उपशान्ती में समकित बरस रहा है।।

माता रत्नमती जी की मैं शाँत छवी को ध्याऊँ।

मिथ्या कल्मष धो करके समकित निधि को पा जाऊँ।।४।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

 

एक नहीं दो नहीं अनन्ते भव नरकों में बिताये।

जहाँ न तिल भर अन्न मिला यह क्षुधा कहाँ से जाये।।

माता रत्नमती जी की मैं शाँत छवी को ध्याऊँ।

मिथ्या कल्मष धो करके समकित निधि को पा जाऊँ।।५।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

 

 

दीपक की टिमकारी भी कुछ बाह्य अंधेरा हरती।

ज्ञान रश्मि अन्तर के मोहित तप को भी हर सकती।।

माता रत्नमती जी की मैं शाँत छवी को ध्याऊँ।

मिथ्या कल्मष धो करके समकित निधि को पा जाऊँ।।६।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

 

आत्मा को जड़ कर्मों ने चिरकाल भ्रमण करवाया।

अष्टगंध की धूप धूपघट में खेने को आया।।

माता रत्नमती जी की मैं शाँत छवी को ध्याऊँ।

मिथ्या कल्मष धो करके समकित निधि को पा जाऊँ।।७।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

 

जाने कितने मिष्ट मधुर फल मैंने अब तक खाये।

फिर भी तृप्ति हुई क्या जग में काल अनन्त गमाये।।

माता रत्नमती जी की मैं शाँत छवी को ध्याऊँ।

मिथ्या कल्मष धो करके समकित निधि को पा जाऊँ।।८।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

 

 

अष्ट द्रव्य की थाली लेकर इस आशा से आया।

ज्ञानामृत का पान करूँ मैं छूटे ममता माया।।

माता रत्नमती जी की मैं शाँत छवी को ध्याऊँ।

मिथ्या कल्मष धो करके समकित निधि को पा जाऊँ।।९।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

जयमाला

दोहा

आत्म शक्ति को प्रकट कर, लीना संयम धार।

यही एक अनमोल है, रत्न त्रिजग में सार।।

शंभु छंद

जै जै जैनी दीक्षा जग में, मुक्ति पद कारण मानी है।

इसके बल पर नर-नारी ने, निज की शक्ति पहचानी है।।

कुछ कारण पाकर जो प्राणी, जग से विरक्त हो जाते हैं।

व्यवहार क्रियाओं में रत हो, वे निश्चय में खो जाते हैं।।१।।

इस युग में मुनिपथ दर्शक इक, आचार्य शांतिसागर जी हुए।

उनके तृतीय पट्टाधिपती, आचार्य धर्मसागर जी हैं।।

बस इन्हीं गुरु के आश्रय से, माँ मोहिनी का जीवन बदला।

लग गई विरागी धुन इनके, दिल में जो घटना चक्र चला।।२।।

आ गई पुरानी बात याद, जब मैना घर से निकली थी।

ह शर्त आज मंजूर हुई जो, माँ के मुँह से निकली थी।।

मैना तुम इक दिन मुझको भी, भवदधि से पार लगा देना।

दे रही साथ मैं आज तुम्हें, निज सम मुझको भी बना लेना।।३।।

संवत् दो सहस्र अठाइस की, मगसिर वदि तीज तिथि आई।

अजमेर महानगरी में तब, दीक्षा की पुण्य तिथि आई।।

जहाँ राग और वैराग्य भाव, का मिला अनोखा संगम था।

पत्थर दिल पिघल गये लेकिन, माँ मोहिनी का निश्चय प्रण था।।४।।

माँ रत्नमती की अमर कथा, जग को संदेश सुनाती है।

निज का उत्थान तभी होता, जब मोह की मति भग जाती है।।

हे ज्ञानमति जी की जननी, युग-युग तक तुम जयशील रहो।

निज जन्म सफल करने वाली, मुझको भी भवोदधि तीर करो।।५।।

दोहा

जननी जग में जन रहीं, पर तुमसी न अनेक।

नमन ‘माधुरी’ है तुम्हें, मातृ भक्ति जहाँ लेश।।

ॐ ह्रीं आर्यिकाश्रीरत्नमतीमात्रे जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।

 

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