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भगवान ऋषभदेव निर्वाणभूमि कैलाशगिरी सिद्धक्षेत्र चालीसा
April 19, 2020
जिनेन्द्र भक्ति
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भगवान ऋषभदेव निर्वाणभूमि कैलाशगिरी सिद्धक्षेत्र चालीसा
दोहा
युग की आदी में हुए,ऋषभदेव भगवान |
मोक्षकल्याण हुआ जहाँ, गिरि कैलाश महान ||१||
उस पावन गिरिराज का, चालीसा सुखकार |
वंदन कर लो भक्ति से, मिले सुफल अविकार ||
२||
चौपाई
जय जय जय कैलाशगिरी की, जय जय हो प्रभु ऋषभदेव की ||१||
जन्मे प्रभुवर तृतिय काल में, शाश्वत तीर्थ अयोध्या जी में ||२||
गर्भ,जन्म से पावन नगरी, कई इतिहासों की है जननी ||३||
दीक्षा, केवलज्ञान जहां पे, तीर्थ प्रयाग कहाया जग में ||४||
प्रभु कैलाशगिरी जा पहुंचे, चौदह दिन तक योग निरोधें ||५||
निज आतम में ध्यान लगाया, मुक्तिरमा को था परणाया ||६||
माघ कृष्ण चौदस का दिन था, सिद्धशिला को प्राप्त किया था ||७||
अगणित देव इन्द्र परिकर था, निर्वाणोत्सव का अवसर था ||८||
दीप असंख्यों वहाँ जलाया, सबने मोक्षकल्याण मनाया ||९||
चक्री भरत आदि विह्वल थे , गणधर संबोधन से संभले ||१०||
पुनः उन्होंने उस पावन गिरि , भूत भावि अरु वर्तमान की ||११||
चौबीसी प्रतिमा बनवाई , पञ्चकल्याणक विधी कराई ||१२||
रत्नों की प्रतिमाएं मनोहर, दर्श से आनंदित होता मन ||१३||
आज नहीं होते हैं दर्शन, किन्तु कथा है शास्त्र के अंदर ||१४||
बाहुबली श्री आदिनाथ के, द्वितिय पुत्र अद्वितीय हुए थे ||१५||
केवलज्ञान हुआ जब उनको , पहुंचे थे कैलाशगिरी को ||१६||
साठ सहस सुत सगर चक्रि के, उनने पितु से आज्ञा लेके ||१७||
चारों ओर थी खाई खुदाई, शास्त्रों में यह घटना आई ||१८||
एक बार मुनि बालि वहाँ पे, ध्यानलीन मानी रावण ने ||१९||
मुनिवर पर उपसर्ग किया था,मुनि ने इक पग दबा दिया था ||२०||
बालि मुनी को उससे भय ना, जिनमंदिर की रक्षा करना ||२१||
ध्येय मात्र उन मुनिवर का था, रोया रावणराज दबा था ||२२||
रोने से रावण कहलाया, नाम दशानन उसने पाया ||२३||
उस पावन गिरिराज पे जाके, कई एक मुनि मोक्ष पधारे ||२४||
वर्तमान में वह पावन गिरि, तिब्बत स्थित पर्वत श्रेणी ||२५||
उसके पश्चिम दिशा में प्यारा, मानसरोवर बना है न्यारा ||२६||
राक्षसताल दिशा दक्षिण में,कई एक नदि यहाँ से निकलें ||२७||
तीर्थ को अष्टापद कहते हैं , नाम रजतगिरि गणपर्वत हैं ||२८||
ऊंचे-ऊंचे शिखर यहाँ के, सदा बर्फ से आच्छादित हैं ||२९||
मानसखंड प्रदेश कहाया, भरत चक्रि ने विजय थी पाया ||३०||
यज्ञ युधिष्ठिर ने जब कीन्हा ,राजा ने बहु भेंट थी दीन्हा ||३१||
जैन और जैनेतर भाई, सब वन्दना करें हरषाई ||३२||
अति महत्त्व है परिक्रमा का, मार्ग कठिन पर मन है रमता ||३३||
उस कैलाश मानसरवर के , मार्ग अनेकों हैं जाने के ||३४||
रुकने हेतु धर्मशाला है, जो जाए हिम्मत वाला है ||३५||
तीर्थपुरी स्थान पे जाकर, दर्रा के समाप्त होने पर ||३६||
झरने गर्म नीर के वहं पर, चूनखड़ी टीला भी वहाँ पर ||
३७||
यात्रा में दो माह है लगता , जाने को मन उत्सुक रहता ||३८||
ऊँकार का प्यारा पर्वत, सूर्यकिरण से लगे स्वर्ण सम ||३९||
तीरथ की यात्रा सुखकारी , भव-भव कल्मष धुलने वाली ||४०||
शम्भु छंद
युग की आदी के तीर्थराज , कैलाशगिरी को वंदन है |
वृषभेश्वर के निर्वाण से पावन , मोक्षधाम को प्रणमन है ||
करके परोक्ष में तीर्थवंदना ,’इंदु’ नमन कार लो तीरथ |
आत्मा कुंदन सम बन जावे, गाते जो तार्थ की कीरत ||१||
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