स्वात्म सुधारस सौख्यप्रद, परमाह्लाद करंत।
नमूँ नमूँ नित भक्ति से, हो मुझ शांति अनंत।।१।
जय जय जिनेश्वर तीर्थकर, प्रभु सिद्ध पद को पा लिया।
जय जय जिनेश्वर सर्व हितकर, मोक्षमार्ग दिखा दिया।।
संपूर्ण कर्म विनाश कर, कृतकृत्य त्रिभुवनपति बने।
यममल्ल को भी चूर कर, प्रभु आप मृत्युंजयि बने।।२।।
तत्क्षण ऋजूगति से प्रभो, लोकांत में जाकर बसें।
धर्मास्तिकाय अभाव से, उससे उपरि नहिं जा सवें।।
तब इंद्रगण ने मोक्षकल्याणक मनाया हर्ष से।
चउविध असंख्यों देव ने, उत्सव किया अतिभक्ति से।।३।।
देवेन्द्र ने त्रय कुंड की, रचना करी विधिवत् वहाँ।
तीर्थेश का चौकोन कुण्ड, सुगार्हपत्य कहा महा।।
इसमें जिनेश्वर देह का, संस्कार करने हेतु से।
अग्नी प्रगट की मुकुट से, अग्नीकुमार सुरेन्द्र ने।।४।।
गणधर सुकुंड त्रिकोन आह्वनीय अग्नी से दिपे।
सामान्य केवलि मुनी का है, गोल कुंड समीप में।।
इसमें अगनि है दक्षिणाग्नी, नाम इन त्रय कुंड में।
जो अग्नि भी वह भी वहाँ, पूजित हुई सुरवृंद से।।५।।
निर्वाणकल्याणक समय की, अग्नि भी तो पूज्य है।
देवेन्द्र ने वर्णन किया, यह कहे आदि पुराण है।।
जिनवर शरीर स्पर्श से, सब क्षेत्र पर्वत पूज्य हैं।
जिनवर चरण की धूलि से, पृथ्वी कहाती तीर्थ है।।६।।
सब इंद्रगण मिलकर वहाँ, आनंद नृत्य किया तभी।
खुशियाँ मनाई भक्ति से, स्तव किया बहुविध सभी।।
भगवन्! मुझे भी शक्ति ऐसी, दीजिए यांचा करूँ।
पंडित सुपंडित मरण ऐसा, मिले यह वांछा करूँ।।७।।
इस विध सुरासुर इंद्रगण, गणधर गुरू मुनिगण सभी।
चक्राधिपति बलदेव नारायण मनुज मांगे सभी।।
फिर-फिर करें यांचा प्रभू से, हर्ष से जय जय करें।
निर्वाणकल्याणक महोत्सव, कर सफल निज भव करें।।८।।
मैं भी यहाँ पर नाथ के, निर्वाण की पूजा करूँ।
मोहारि नाशन हेतु भगवन्!, आपकी अर्चा करूँ।।
धनि धन्य है यह शुभ घड़ी, धनि धन्य मेरा जन्म है।
धनि धन्य हैं ये नेत्र मेरे, धन्य मेरा कंठ है।।९।।
प्रभु आप भक्ती से मुझे, निज तत्त्व का श्रद्धान हो।
निज तत्त्व परमानंद में, रम जाऊँ यह वरदान दो।।
आनन्त्य दर्शन ज्ञान सुख, वीरजमयी निजआतमा।
कैवल्य ‘ज्ञानमती’ सहित, बन जाऊँ मैं परमात्मा।।१०।।
जय जय तीर्थकर, सर्वहितंकर, त्रिभुवन गुरुवर नित्य नमूँ।
निर्वाणकल्याणक , निजसुखदायक, भवदुखघातक नित प्रणमूँ।।११।।