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वर्षों से पत्थरों की मार झेलती एक जैन प्रतिमा!

July 20, 2017जैन पुरातत्त्वjambudweep

वर्षों से पत्थरों की मार झेलती एक जैन प्रतिमा


 जैन—बौद्ध, शैव—शाक्त, वैदिक—वैष्णव, भारत की धरती पर अंकुरित, पल्लवित—पुष्पित पंथ प्राणिमात्र के प्रति अजस्र करूणा प्रवाहित करने वाले पंथ हैं, पर विडम्बना यह कि स्वार्थवश एक दूसरे से श्रेष्ठ होने की प्रतिस्पर्धा बनी रही। दूसरे पंथों की तुच्छता सिद्ध करने हेतु अनेक झूठी—सच्ची कहानियाँ गठी गयीं। इन सबसे देश के साम्प्रदायिक—सद्भव की अत्यधिक क्षति हुई। स्वार्थी तत्वों द्वारा धार्मिक सूत्रों की मनमानी व्याख्या की गयी और उसे भोली—भाली जनता को परोसा गया। परिणामत: पंथ या धर्म विशेष के प्रति घृणा का जो बीज वपन किया गया वह शनै:—शनै:— वट—वृक्ष सा वृद्धि पाता रहा और विवेकहीन जनता भी उसी को अंतिम सत्य मान बैठी । वर्तमान बौद्धिक युग में ये सब दु:स्वप्न सा लगता है, पर इस चेतन व सजग युग में जनमत द्वारा जब मध्ययुगीन जीवन आँख बन्द कर जिया जाता है, तो क्षोभ होता है। यह अविश्वसनीय है, पर सत्य है कि ऐसे उदाहरण आज भी हैं, और वह है ग्राम राई की — जैन प्रतिमा। यहां एक बात उल्लेखनीय है कि जैन धर्म, अत्यन्त प्राचीन है, किन्तु जैन धर्म में कभी भी साम्प्रदायिक द्वेष नहीं रहा — ‘‘जैन—परम्परा की धार्मिक उदारता की परिचायक सूत्रकृतांग की पूर्वनिर्दिष्ट वह गाथा है, जिसमें कहा गया है कि जो अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों के मतों की निन्दा करते हैं तथा उनके प्रति विद्वेषभाव रखते हैं, वे संसार—चक्र में परिभ्रमित होते हैं सम्भवत: धार्मिक उदारता के लिये इससे महत्वपूर्ण और कोई कथन नहीं हो सकता ।’’ जैन धर्म में साम्प्रदायिक सद्भाव की मिशाल इससे बढ़कर और क्या हो सकती है, जब सत्रहवी शताब्दी के आध्यात्मिक जैन साधक आनन्दघन कहते है:
राम कहो रहमान कहो कोउ,
कान्ह कहो महादेव री,
पारसनाथ कहो कोउ ब्रम्हा ,
सफल ब्रम्ह स्वमेव री।
भाजन भेद कहावत नाना,
एक मृतिका का रूप री,
तापे खण्ड कल्पनारोपित
आज अखण्ड सरूप री।’’
जो धर्म राग—द्वेष से रहित होने का बारम्बार उद्घोष करता है, वह मिथ्या वचनों में बंध सकता है क्या? पर, एक समय ऐसा भी आया था जब जैनधर्म के विरोधियों द्वारा विद्वेषवश कहा गया था कि—‘‘यदि मतवाला हाथी आ रहा हो और बचने के साधन—रूप में सामने जिन—मंदिर हो तो जिन मंदिर में छुप कर प्राणों की रक्षा करने की अपेक्षा हाथी के पैरों तले कुचलकर मरना श्रेयस्कर है।’’ मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले की कोलारस तहसील के ग्राम राई में आज भी इसका ज्वलंत उदाहरण दृष्टव्य है। उक्त ग्राम तहसील मुख्यालय कोलारस से ८ कि.मी. पश्चिम में स्थित है। यह ग्राम दक्षिणावर्ती प्रस्तर—शंखो के उत्खनन के लिये विख्यात है। इस ग्राम में पुरातात्विक महत्व के जीवाश्म—अवशेष, पुरातन स्थर एवं गुफाएँ आदि हैं, पर यह सम्पत्ति जनता की अंध—श्रद्धा व शासन—प्रशासन की उपेक्षा के कारण शनै:—शनै: नष्ट होती आ रही है।
इसी ग्राम में है एक भग्र जैन मंदिर, जो कभी भव्य रहा होगा, किन्तु वर्तमान में चारों ओर की आकर्षक दीवारें एवम् छत ही शेष है। इस मन्दिर में अर्हन्तों की दो चित्ताकर्षक खण्डित प्रतिमाएं —एक बड़ी, एक छोटी, खड़ी हुई अवस्था में है। इस प्रतिमाओं का सौंदर्य पत्थरों की मार से विनष्ट हो चुका है। इन प्रतिमाओं का सौन्दर्य पत्थरों की मार से विनष्ट हो चुका है। इस क्षेत्र में ये प्रतिमाएं नंगा बाबा के नाम से प्रसिद्ध हैं और यह अंधविश्वास आज भी है कि जो इनसे जितने पत्थर मारेगा, उसकी कामना उतनी ही शीघ्र पूर्ण होगी। परिणामत: दोनों ही प्रतिमायें पत्थरों की चोटों से चुटीली पड़ चुकी है और लगभग ८ फुट ऊंचें पत्थरों के ढेर में प्रतिमायें दब चुकी हैं ।
यही कारण है कि प्रतिमाएं किन तीर्थंकरों की हैं, चिन्ह —प्रदर्शन के अभाव में आज भी अंधेरे में हैं , कोलारस के नौगजा (सेसई ग्राम में) इसी तरह की ९वीं —१०वीं शताब्दी की जो जैन प्रतिमाएं हैं, वे भगवान शान्तिनाथ की हैं, अत: यह अनुमान ही किया जा सकता है कि राई ग्राम की ये प्रतिमाएं भी भगवान शांतिनाथ की होंगी। मन्दिर भी ९ वीं—१०वीं श्ताब्दी का होगा। राई ग्राम से मात्र ५ कि.मी. की दूरी से राजस्थान की सीमा प्रारम्भ होती है।कोलारस के आसपास एवं राई ग्राम से संलग्न राजस्थान प्रान्त में जैन—धर्मावलम्बियों की संख्या प्रचुर मात्रा में है, पर आश्चर्य यह कि इस कुप्रथा को रोकने व मंदिर तथा प्रतिमा के संरक्षण की बात तो दूर, इस स्थल के बारे में लोग अनभिज्ञ हैं। खंण्डित होने के कारण ये प्रतिमाएं भले ही पूज्य नहीं रहीं , पर अन्य सहस्राधिक खण्डित मूर्तियों की भांति इन्हें संग्रहालय में स्थान तो दिलाया ही जा सकता है ।
आज जो इस स्थल का गौरवशाली इतिहास भी लुप्त है। एक ही स्थल पर आसपास जैन—मंदिर, भैरव जी का मंदिर व पठान बाबा की प्राचीनतम् मजार—धार्मिक सद्भाव का उत्कृष्ट उदाहरण है यह स्थल , पर पुरातत्वविदों की दृष्टि से भी ओझल है!! इस आलेख के माध्यम से जैन—धर्म में आस्था रखने वाले प्रबुद्ध एवम् सुधी जनों से मैं प्रार्थना कर रहा हूँ कि कोई साहसी आगे आये और जैन—धर्म के प्रति सैंकड़ों वर्षों पूर्व बोये गये विष—बीज से उत्पन्न ‘‘नंगा बाबा को पत्थर मारने’’ के वृक्ष को समूल नष्ट करे तथा इस स्थल के लुप्त गौरव को पुन: स्थापित करें।
 
संदर्भ स्थल-
१. डा. सागरमल जैन, धार्मिक सहिष्णुता एवं जैनधर्म. पा.वि.शो.सं., वाराणसी, पृ. २८—२९ २. वही, पृ.२१
 
लखनलाल खरे स. प्राध्यापक — हन्दी,
शासकीय महाविद्यालय, कोलारस जि. शिवपुरी
अर्हत् वचन जुलाई १९९७
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