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हम कब समझेंगे अपने पुरातत्त्व का महत्त्व!

July 18, 2017जैन पुरातत्त्वjambudweep

हम कब समझेंगे अपने पुरातत्त्व का महत्त्व



प्रो. भागचन्द्र जैन भास्कर, नागपुर, सम्पादक प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार’
एक समय था जब हमारे पूर्वज जीर्णोद्धार का सही महत्व समझते थे। उनके मन में अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा थी, मान सम्मान था, पाप से भय था, पुण्यार्जन की ओर कदम अधिक बढ़ते थे माता —पिता की इज्जत थी, परार्थ का ध्यान अधिक था । आज इन सारी बातों का अवमूल्यन हो गया है, सब कुछ पटरी से उतर रहा है। व्यक्ति आत्मकेन्द्रित इतना अधिक हो गया है कि उसे लोक और लोकोत्तर की कोई विशेष चिन्ता नहीं है। मंदिर हमारी आध्यात्मिक श्रद्धा का श्रेष्ठतम प्रकल्प हैं, हमारे शुभ भावों का पवित्र निर्झर है, उसका कण—कण हमारे माथों का शृंगार है, उसकी हर र्इंट माटी की नहीं, सोने की है, उसका हर पाषाण पाषाण नहीं, आत्मतत्त्व का भूला—भटका एक भाग है, उसका शिखर, शिखर का कलश, वेदिका, मण्डप, अर्थमण्डप सब कुछ किसी मंदिर से कम महत्वशाली नहीं है। मंदिर इन सभी तत्वों का एक समन्वय है, समन्वित रूप है जिसमें हम अपने परम पूज्य आराध्य तीर्थंकर की प्रतिमा को प्रतिष्ठित करते हैं, उनकी पूजा करते हैं और सुबह—शाम, प्रति पल यह मंगल भावना भाते हैं कि भगवन् दिगम्बर मुद्रा का यह आधेय यह मंदिर कभी गिरे नहीं, एक लम्बे समय तक हमारे लिये पूजा का स्थल बना रहे। इसमें प्रतिष्ठित प्रतिमाएं हमारे लिए आदर्श हैं, उनके प्रति कभी अवमानना न हो सके उनकी और उनके मंदिर की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है । उसमें कभी शिथिलता न आए। यह सब हमारी आध्यात्मिक पूंजी है , पिटनल है । यदि पूंजी की हम रक्षा नहीं कर सके तो हमारी मानवता का प्रासाद कहां खड़ा रह सकेगा? वह इतना धूल—धूसरित हो जायेगा कि शायद हमारी पहचान हमारे अस्तित्व को समाप्त करने का कारण न बन जाये इसका खतरा हमारे शिर पर मंडराा रहेगा। जिस प्रकार मंदिर और उसमें प्रतिष्ठित मूर्तियां हमारे लिए पूज्य हैं उसी प्रकार उसके निर्माता भी हमारे लिए पूज्य हैं । वह साधु और गृहस्थवर्ग हमारा आदर्श है जिसने हमारे लिए इतने भव्य मंदिरों का निर्माण किया। मूर्तियों और मंदिरों आदि स्थानों पर उत्कीर्ण शिलालेख हमारे सामाजिक तथा पारिवारिक और संधों, सम्प्रदायों के ज्वलन्त इतिहास के अभिन्न अंग हैं। मूर्तियों के परिकर में उत्कीर्ण यक्ष—यक्षियां हमारी प्राचीन कला और संस्कृति की अमिट निशानी है। उनको नष्ट—भ्रष्ट करना साधना का अंग नहीं, बल्कि साधना के भंग होने का सशक्त प्रमाण है। 

साधु सम्प्रदाय हमारे लिए निरसन्देह पूज्य है 

साधु सम्प्रदाय हमारे लिए निरसन्देह पूज्य है, अनुकरणीय है, श्लाघनीय है। पर उसकी सीमा और गरिमा को ध्यान में रखना साधु सम्प्रदाय का भी कर्तव्य है। समाज के मन में उसके प्रति जो श्रद्धा और भक्ति है उसका दुरुपयोग नहीं होना चाहिए। एक साधारण त्यागी अनपढ़ या कम सुशिक्षित व्यक्ति भी यदि साधु बन जाता है , दिगम्बरत्व धारण कर लेता है तो समाज उसकी कथित या अंकित रेखा की सीमा के उल्लंघन करने का साहस नहीं उठा पाती भले ही वह गलत है। अपेक्षित नवीन मंदिरों का निर्माण भी साधु समाज की साधना का अंग है। उसकी प्रतिष्ठा कराने का भी उत्तरदायित्व उसी पर है, जीर्णोद्धार कराना भी उसकी सीमा के बाहर नहीं है। परन्तु विशाल परिमाण के अनपेक्षित मंदिरों के निर्माण में करोड़ों रूपये लगाना और फिर उन्हें इकट्ठा करना /कराना उसकी साधना का अंग नहीं माना जा सकता है। अभिग्रह का पालन किये बिना लाखों रूपयों की कीमत रखकर आहार लेना साधना का अंग नहीं , एक प्रकार का गहन भंग है। समाज का कोई भी व्यक्ति सीधे किसी साधु से यह सब कुछ नहीं कह पाता परन्तु सामाजिक असन्तोष से वह अपरिचित भी नहीं रहता। मैं बार बार अपने सम्पादकीय वक्तव्यों में लिखता आ रहा हूं कि जीर्णोद्धार की दशा और दिशा क्या वैâसी होनी चाहिए। सौ वर्ष से प्राचीन मंदिर पुरातत्त्व की सीमा में आ जाते हैं । उनका जीर्णोद्धार तो किया जा सकता है, पर उन्हें गिराया नहीं जा सकता । बिना अनुमति के उन्हें गिराना कानून की दृष्टि में भी अपराध तो है ही, सांस्कृतिक अपराध भी है। सांस्कृतिक अपराध इसलिए है कि हमारा प्राचीन इतिहास और पुरातत्त्व नष्ट—भ्रष्ट हो जाता है और उसके स्थान पर अपनी यशोगाथा लिखाने का अनुचित उपक्रम प्रारम्भ हो जाता है। उदाहरण के तौर पर नागपुर का परवार दि.जैन मंदिर लगभग दो सौ वर्ष पुराना था। बहुत मजबूत था। इतना मजबूत कि बुलडोजर ने भी एक बार अपने हाथ खड़े कर दिये। त्यागी भवन जो अभी कुछेक वर्षों पहले एक परिवार विशेष के आर्थिक सहयोग से बनाया गया था वह भी आशीर्वाद की पृष्ठभूमि में नेस्तनाबूद कर दिया गया । परवारपुरा मंदिर से बुन्देलखण्ड से आये जैनों का इतिहास जुड़ा हुआ था। आज वह सारा इतिहास चौपट हो गया। बिना सरकारी अनुमति प्राप्त किये और नक्शा पास कराये यह सारा दुश्चक्र एक दुस्साहस का ही परिणाम कहा जा सकता है। समाज के बीच में इस सन्दर्भ में काफी घूमा हूं और इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि अधिकांश सुशिक्षित समाज मंदिर गिराने के पक्ष में नहीं है परन्तु कार्यकारिणी के कतिपय सदस्यों ने आशीर्वाद लेकर इतने मजबूत मंदिर को धराशायी कर दिया। आज इतना बड़ा प्लाट अपराधियों का अड्डा बन गया। ऐसा भी लगता है कि निकट भविष्य में यह मंदिर अपना नया रूप सरलता और सहजता पूर्वक जल्दी नहीं ले पायेगा। जिस भव्य मंदिर की कल्पना समाज को परोसी गई है वह पूरी होते—होते एक अरब की हो जायेगी।

इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है

इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि नागपुर की जैन समाज संख्या और अर्थ की दृष्टि से बहुत सशक्त है, सम्पन्न है। परन्तु यहां पर कोई भी जैन कालेज , अस्पताल, स्कूल या छात्रावास नहीं है । यहां समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो शिक्षा और आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ है। आश्चर्य तो यह है कि साधु सम्प्रदाय का इस ओर बिलकुल ध्यान नहीं जाता । क्यों ? ज्ञानाराधना में उसकी कोई अभिरुचि दिखाई नहीं देती। एक और उदाहरण हमारे सामने है यहीं का। लगभग बीस वर्ष पहले रामटेक में एक भव्य मंदिर के निर्माण का उपक्रम किया गया था । उस समय उसकी लागत लगभग पांच करोड़ थी। यह योजना आज भी अधूरी है और कम से कम पचास करोड़ रूपये लग चुके हैं। यदि मानस्तंभ बनाने की योजना बनाई गई तो दस—पांच मंदिर तोड़े बिना यह योजना पूरी नहीं हो सकती । मैंने उस समय भी विरोध किया था और आज भी कर रहा हूं। रामटेक नागपुर से ३५ किमी. दूर है, तहसील है, वहां न कोई अच्छा अस्पताल है और न कॉलेज । इतना पैसा लगाकर वहां यदि अस्पताल या कॉलेज स्थापित कर दिया जाता तो अधिक उपयोगी होता । अभी तो दर्शन करने वालों की संख्या भी अधिक नहीं है। इतने बड़े—बड़े प्रकल्पों में समाज में भ्रष्टाचार भी पनपने लगता है। अधिकारियों या उनके रिश्तेदारों के नाम से नये—नये प्रतिष्ठान शुरु हो जाते हैं। ब्रह्मचारी वर्ग और प्रतिष्ठाचार्य कमीशन खाने में जुट जाता है। दान का आधा पैसा तो यों ही बरबाद हो जाता है। यह कहानी यही की नहीं, जबलपुर, कुण्डलपुर, नेमावर आदि सभी स्थानों की है। मंदिर और दान का पैसा खाने में ऐसे लोगों को संकोच नहीं होता! उनका मोबाइल चेक किया जाये तो यह स्थिति अधिक स्पष्ट हो जाती है । अनपेक्षित नवनिर्माण के कारण साधु सम्प्रदाय मानसिक तनाव से भी घूमता रहता है। वह राग द्वेष के जंजाल में फंसता चला जाता है। उससे सामाजिक विघटन भी प्रारम्भ हो जाता है। गोलापूर्व —परवार, खण्डेलवाल—परवार, खण्डेलवाल — अग्रवाल समुदायों के बीच अन्यमनस्कता बढ़ने लगती है। साधु—संघों के बीच पारस्परिक मतभेद उभरने लगते हैं, विद्वानों की खरीद —फरोख्त शुरु हो जाती है पुरस्कारों आदि के माध्यम से। संघों से सम्बद्ध ब्रह्मचारी भैयावर्ग की अर्थ लोलुपता भी समाज में विरोध के स्वर गुंजित कर देती है। जैन कला और पुरातत्व के विध्वंस की कहानी कदाचित देवगढ़ से शुरू होती है। उसका विस्तार ललितपुर, जबलपुर, नागपुर आदि नगरों तक हो जाता है। अभी—अभी पता चला है कि बजरंगढ़ और गुना के प्राचीन मंदिर भी टूट चुके हैं । इस टूटन से तेरापन्थ और बीसपन्थ का विवाद उभरकर सामने आ रहा है। सामाजिक समरसता भी धूल धूसरित हो रही है। शासन देवी—देवता पूज्य हैं या नहीं यह विषय यहां अप्रासंगिक है पर कला और पुरातत्व से उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता । शताब्दियों से यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर का अंग है और एक बहुत बड़ा वर्ग उसका पुजारी है। यदि उन्हें कूड़ा—कचड़ा मानकर बाहर फैक दिया जाये तो एक वर्ग—ाqवशेष का मन आहत होगा और विद्वेषात्मक स्थिति पैदा हो जायेगी। सामाजिक असन्तोष के इन कतिपय मुद्दों की ओर हमने यहां मात्र संकेत किया है। समाज का अधिकांश वर्ग एक भीड़ का रूप है और भीड़ का कोई धर्म नहीं होता। उसमें समझ इस तरह की नहीं रहती । उसे श्रृद्धा, भक्ति के सूत्रों से बांध दिया जाता है, यशोगाथा और पाषाण पर नामोत्कीर्णन का प्रलोभन देकर पैसा इक्ट्ठा कर लिया जाता है । वह देखता है, सोचता—ाqवचारता है पर संकोच और भय के कारण कुछ कह नहीं पाता । जो कहता है, उसे विरोध और धमकियों का सामना करना पड़ता है। मेरे पास तो धमकियों भरे फोन आते रहते हैं। सोचता हूं उन्हें पुलिस के हवाले कर दूं पर बहुत कुछ सोचकर पीछे हट जाता है।

मुझे लगता है अब अपनी कला

मुझे लगता है अब अपनी कला और पुरातत्व के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए कुछ प्रकल्प शुरू किये जाने चाहिए। हमारा साधु सम्प्रदाय इस क्षेत्र से बिलकुल अनभिज्ञ है। वह कला और पुरातत्त्व का महत्व नहीं समझता और न ही समाज में ज्ञान चेतना का विस्तार करना चाहता है। वह भूल जाता है कि पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी ने जो विद्यालय और महाविद्यालय प्रस्थापित किये थे उनसे कितना सामाजिक अभ्युत्थान हुआ है। आज भी ऐसे प्रकल्पों की आवश्यकता है जो सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर कर सवेंâ। वर्णीजी के नाम से द्वेषग्रस्त होने में कोई औचित्य नहीं है बल्कि उनका नाम और काम प्रेरक सूत्र बन जाता तो अधिक अच्छा होता। मंदिरों के विध्वंस को रोकने के लिए अब सामाजिक जागरूकता का होना नितान्त आवश्यक है। अब समाज का कत्र्तव्य है कि तथ्यों की जांच पड़ताज कर वह ऐसे साधु समाज का खुलकर विरोध करे जो मंदिरों की तो़ड़—फोड़ करने का पक्षधर है। लगता है धीरे—धीरे यह एक व्यवसाय का रूप ले रहा है जो हमारी प्राचीन धरोहर को पन्थवाद से घसीटकर नष्ट—भ्रष्ट कर देगा। महासभा प्रारम्भ से ही इस प्रकार के दुस्साहस का विरोध करती रही है। उसके अध्यक्ष श्री निर्मल कुमार सेठी ने वास्तु शास्त्र आदि के बहाने मंदिरों को तोड़ने के उपक्रम पर घनघोर चिन्ता व्यक्त की है। मुझे अब लगता है, साधु सम्प्रदाय और साधारण गृहस्थ वर्ग अभी पुरातत्त्व के महत्व को समझता नहीं है। उनमें जागरूकता पैदा करने के लिए एक पुरातत्त्व स्कूलकी स्थापना की जानी चाहिए जो समय—समय पर समाज के बीच जाकर या शिविर आदि लगाकर कुछ नई चेतना जाग्रत करें, उसे शिक्षित करें। प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार पत्रिका यह काम कर रही है पर एक विशेष स्तर के साथ। उसमें भी एतद्विषयक एक स्तम्भ शुरु होना चाहिए। पहले इसके अधिकारी इसमें समझने का प्रयत्न करें तब कहीं समाज में उसका क्रियान्वित रूप सामने आ सकता है। इस सम्पादकीय वक्तव्य से किसी वर्ग विशेष की आलोचना करने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं है। पर वस्तुस्थिति को सामने रखना चाहता हूँ।
जैन गजट (७ अप्रैर २०१४)
 
Tags: Jain Archeology
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