दर्शन के लिए श्री जिनमंदिर को जावे। मंदिर का शिखर दिखते ही इस दृष्टाष्टक स्तोत्र को पढ़ते हुए मंदिर के पास पहुँचे अथवा मंदिर के पास पहुँचकर मंदिर की प्रदक्षिणा देते हुए दृष्टाष्टक स्तोत्र पढ़ें।
दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि, भव्यात्मनां विभवसंभवभूरिहेतु।
दुग्धाब्धिफेनधवलोज्वलकूटकोटि-नद्धध्वजप्रकरराजिविराजमानम्।।१।।
दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भुवनैकलक्ष्मी-धामर्द्धिवर्द्धितमहामुनिसेव्यमानम् ।।
विद्याधरामरबधूजनपुष्पदिव्य-पुष्पांजलिप्रकरशोभितभूमिभागम् ।।२।।
पुन: उचित स्थान पर पैर धोकर चैत्यालय के अन्दर प्रवेश करें। ‘‘निःसही निःसही निःसही’’ ऐसा उच्चारण करके श्री जिनेन्द्रदेव के मुख को देखकर नमस्कार करके ‘‘निःसंगोऽहं जिनानां’’ इत्यादिरूप से प्रसिद्ध ‘ईर्यापथशुद्धि’ नामक स्तोत्र को पढ़ें। यदि जिनमंदिर की बाहर से प्रदक्षिणा नहीं है तो इसी ‘निःसंगोऽहं’ स्तोत्र को पढ़ते हुए वेदी में विराजमान जिनेन्द्रदेव की तीन प्रदक्षिणा देवें।
निःसंगोहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिःपरीत्येत्य भक्त्या।
स्थित्वा गत्वा निषद्योच्चरणपरिणतोऽन्तः शनैर्हस्तयुग्मम्।।
भाले संस्थाप्य बुद्ध्या मम दुरितहरं कीर्तये शक्रवंद्यं।
निंदादूरं सदाप्तं क्षयरहितममुं ज्ञानभानुं जिनेंद्रम् ।।१।।
हे भगवन् ! मैं निःसंग हो, जिनगृह की प्रदक्षिणा करके।
भक्ती से प्रभु सन्मुख आकर, करकुड्मल शिर नत करके।।
निंदारहित दुरितहर अक्षय, इंद्रवंद्य श्री आप्त जिनेश।
सदा करूँ संस्तवन मोहतमहर! तव ज्ञानभानु परमेश।।१।।
श्रीमत्पवित्रमकलंकमनंतकल्पं, स्वायंभुवं सकलमंगलमादितीर्थम्।
नित्योत्सवं मणिमयं निलयं जिनानां, त्रैलोक्यभूषणमहं शरणं प्रपद्ये।।२।।
जिनमंदिर श्रीयुत पावन, अकलंक अनंतकल्प सच में।
स्वयं हुए अकृत्रिम सब, मंगलयुत प्रथम तीर्थ जग में।।
नित्य महोत्सव सहित मणीमय, जिनवर चैत्यालय उत्तम।
तीन लोक के भूषण उनकी, शरण लिया मैं हे भगवन्।।२।।
श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलांक्षनं।
जीयात्त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।।३।।
स्याद्वादमय अमोघ शासन, श्रीमत् सदा परम गंभीर।
त्रिभुवनपति शासन जिनशासन, सदा रहे जयशील सुधीर।।३।।
श्रीमुखालोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत् ।
आलोकनविहीनस्य तत्सुखावाप्तयः कुतः।।४।।
श्रीमुख के अवलोकन से, श्रीमुख का अवलोकन होता।
अवलोकन से रहित जनों को, वह सुख प्राप्त कहाँ होता।।४।।
अद्याभवत् सफलता नयनद्वयस्य, देव! त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन।
अद्य त्रिलोकतिलक! प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणम् ।।५।।
हे भगवन् ! मम नेत्र युगल शुचि, सफल हुए हैं आज अहो।
तव चरणांबुज का दर्शन कर, जन्म सफल है आज अहो।।
हे त्रैलोक्य तिलक जिन! तव, दर्शन से प्रतिभासित होता।
यह संसार वार्धि चुल्लुक, जलसम हो गया अहो ऐसा।।५।।
दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम्।
दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम्।।१।।
दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वंदनेन च।
न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम्।।२।।
वीतरागमुखं दृष्ट्वा, पद्मराग-सम-प्रभं।
जन्म-जन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति।।३।।
दर्शनं जिनसूर्यस्य, संसार-ध्वान्त-नाशनं।
बोधनं चित्त-पद्मस्य, समस्तार्थ-प्रकाशनम्।।४।।
दर्शनं जिनचंद्रस्य, सद्धर्मामृत-वर्षणम्।
जन्म-दाह-विनाशाय, वर्धनं सुख-वारिधे।।५।।