आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती एवं उनकी ग्रन्थ सम्पदा
प्रो. भागचन्द्र जैन ‘भास्कर’ नागपुर (महाराष्ट्र)
आचार्य नेमिचंद्र जैन सिद्धान्तग्रंथों के गंभीर अध्याय एवं विस्तृत चिन्तक थे। कर्म सिद्धान्त के मर्मज्ञ के रूप में वह अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करता है। उन्होंने धवला के आधार पर गोम्मटसार , जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड तथा जयधवला के आधार पर लब्धिसार नामक प्राचीन ग्रंथों की रचना की। इनके अतिरिक्त तिलोयपण्णत्ति और तत्त्वार्थवार्तिक के आधार पर त्रिलोकसार ग्रन्थ लिखा गया। क्षयसार और द्रव्यसंग्रह को भी इसके मूल में जाना जाता है। षट्खण्डागम की चमक और अगाधता का अवगाहन विद्वत्ता की पहचान बन गई थी। आचार्य नेमिचंद्र ने अपने गहन परायणकर सिद्धान्तचक्रवर्ती का विपरीत प्रभाव प्राप्त किया। आचार्य वीरसेन के समय तक इस प्रकार के विपरीत पद का कोई उल्लेख देखने में नहीं आया। आचार्य नेमिचंद्र कदाचित् प्रथम विद्वान थे जिन्हें इस उपाधि से अलंकृत किया गया। इस तथ्य को उन्होंने स्वयं निम्न गाथा में वर्णित किया है— जह कारण य छक्कण्डं साधिदं अविग्घ्न। तह मिच्च्केन मया छक्खखण्डं साधिदं होदि।।३ पत्रिका।।
आचार्य नेमिचंद्र कर्नाटक प्रदेशवासी विद्वान थे। उनके विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलेगी। केवल विशिष्ट के रूप में जीवकाण्ड में एक गाथा है और कर्मकाण्ड की अन्त में आठ गाथाएँ उपलब्ध हैं। इनमें से किसी भी विषय में अधिक कुछ नहीं कहा गया है। आपके आश्रयदाता चामुण्डराय का ही सर्किट्री अधिक है। इनमें गोम्मट चामुण्डराय के गुरु का नाम अजितसेन मिलता है, पर स्वयं के गुरु का नामोल्लेख नहीं मिलता। त्रिलोकसार की अंतिम गाथा क्रम १०१ में नेमिचंद्र मुनि और उनके गुरु अभयनंदी का उल्लेख हुआ है। कर्मकाण्ड के अन्त में अन्य प्रकरणों में अभयनन्दि के अतिरिक्त वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि के भी नामों का उल्लेख हुआ है (गाथा नं. ४ह, ७७, ८ह) इन गाथाओं में उन्हें ‘सुदसायरपाराग’ कहा गया है। संभव है उनका यह विरोध हो रहा हो और इसी आधार पर आचार्य नेमिचंद्र को सिद्धान्त चक्रवर्ती के विरुद्ध देकर उनका प्रति सम्मान प्रकट किया गया हो। इन गुरुओं में अभयनन्दि ज्येष्ठ रहे होंगे। नेमिचंद्र चार्य के शिष्य माधवचंद्र त्रैविद्या भी इसी कोटि के विद्वान थे, जिन्होंने त्रिलोकसार पर संस्कृत टीका की रचना की थी। इस विषय में अधिक जानकारी नहीं मिलती। वीरनन्दि चन्द्रप्रभाचरित के रचयिता होंगे। आ. नेमिचंद्र देशीयगण के थे। गंगनरेश राचमल्लदेव के प्रधान सचिव और सेनापति चामुण्डराय आचार्य नेमिचंद्र सी. च. वह परम शिष्य था। उसी की प्रार्थना पर उन्होंने षट्खण्डागम के आधार पर जीवकाण्ड का प्रणयन किया और उसी के नाम पर अपना गोम्मटसार रखा। श्रवणबेलगोल की प्रसिद्ध भगवान बाहुबली की 5 फीट ऊंची अद्वितीय प्रतिमा का निर्माण सेनापति चामुण्डराय ने किया था और उनके उपनाम के आधार पर उन्हें गोम्मटेश्वर कहा जाने लगा। वह एक वीर योद्धा और कुशल प्रशासक तो था ही, जैन संस्कृति का मान्य विद्वान भी था। उन्होंने जीवकाण्ड पर कन्नड़ वृत्तान्त भी लिखा था।
समय
आचार्य नेमिचंद्र चामुण्डराय के गुरु थे। चामुण्डराय ने अपना चामुण्डराय पुराण संभवतः सं. ९०० (वि. सं. १०५) में समाप्त किया गया। आचार्य नेमिचंद्र ने कर्मकाण्ड में गोम्मट जिन की कृति—निर्माण का उल्लेख किया है। यह उल्लेख चामुण्डराय पुराण में नहीं मिलता। गोम्मट जिन रमूित का निर्माण कब हुआ, यह विषय मध्यभेद में है। रामूइत की प्रतिष्ठा गंगनरेश राजमल्ल द्वितीय के राज्यकाल (वि.स. १०३१—१०४) में हुई। बाहुबली चरित के अनुसार यह प्रतिष्ठा वि. सं. १ वंश— भविष्य में हुई। उस समय कल्कि सं. यह प्रतिष्ठा वि. एस. १ वंश— भविष्य में हुई। उस समय कल्कि सं. 12 चैत्र शुक्ल ५ रविवार था।
प्रो. घोषाल ने इस तिथि की गणना करके उक्त तिथि को २ अप्रैल ९६६ निश्चित किया, गोविंद पा ने इस १३ मार्च ९६६ निश्चित किया। डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री ने भी इसी तारीख का समर्थन किया। डॉ. हीरालाल जी ने यह दिनांक २० मार्च. १०२८, श्रीकण्ठशास्त्री ने ३ मार्च १०२८, श्रीकण्ठशास्त्री ने ९ ७७७—८ ई. और प्रेमीजी ने ९वर्ष ई. की तिथि सुझाई गई है। इन सभी तिथियों में डॉ. नेमिचंद्र शास्त्री द्वारा स्मरण की गई तिथि ही आज मान्य है। इसलिए आचार्य नेमिचंद्र को भी समय ही माना जाना चाहिए। रत्न ने अपना अजीतनाथ पुराण संभवतः सं. ९१५ (वि सं. १०५) में समाप्त किया गया था। गैंग रामलाल का समय भी वि. सं. १० ११—१० अंत हो रहा है। अमितगति ने अपने संस्कृत पंचसंग्रह को वि. एस. दस बातें समाप्त कर दी गईं छुट्टियाँ गोम्मटसार जीवकाण्ड के विषय को आत्मज्ञान दिया गया है। अत: नेमिचंद्र का समय दशमी शताब्दी का स्वर्ण होना चाहिए। चामुण्डपुराण में चामुण्डराय ने गोम्मटेश्वर ऋमुइट की स्थापना का कोई उल्लेख नहीं किया। परन्तु गोम्मटसार कर्मकाण्ड में इसकी चर्चा हुई है। इसलिए यह सिद्ध होता है कि गोम्मटेश्वर की धरती का पूर्व प्रतिष्ठित स्थान हुआ है। चामुण्डराय का एक नाम गोम्मट भी था। इसलिए बाहुबली की रमित को गोम्मटेश्वर कहा गया। चामुण्डराय गंगनरेश राजमल्ल के प्रधान सचिव और सेनापति थे। नेमिचंद्र सी. च. भगवान चामुण्डराय के गुरु थे।
चामुण्डराय
चामुण्डराय मध्यकाल का एक ऐसा जाज्वल्यमान व्यक्तित्व रहा है जिसमें योद्धा, अध्यात्मवेत्ता, ज्ञान और मनीषी विद्या की सभी विशेषताएं एक साथ समाहित रहती हैं। वे मातृभक्त, जिनभक्त और सरस्वती के महान उपासक थे, जिन्होंने श्रवणबेलगोल में भगवान बाहुबली की 5 फीट ऊंची भव्य प्रतिमा का निर्माण किया था। चामुण्डराय ने अपने चामुण्डराय पुराण में स्वयं के बारे में जो कुछ भी बताया था, उसके अनुसार उनका जन्म ब्रह्मक्षत्रिय परिवार में हुआ था। वे गंगवंशीय नोणम्ब कुलान्तकदेव (मारसिंह) राजा के महामात्य (महामंत्री) थे (झोङ४—गन्६ ई. स.)। अजितसेन भट्टारक उनके गुरु थे और रचमल्ल (चतुर्थ) उनके उत्तराधिकारी थे। उसने राजादित्य, गोविंदरस आदि देवताओं के दण्ड पाये और अपने युद्धकौशल से अन्य देवताओं के मन में तीव्र भय पैदा कर दिया। वज्रदेव को युद्ध में पराजित कर उसने समरधुरन्धर पदवी प्राप्त की, गोवर्धन में जगदेकमल्ल से हुए नोलम्ब युद्ध ने उसे वीर मार्तण्ड बनाया, उच्चंगी के किले में राजादित्य के विरुद्ध युद्ध से उसे रणरंग गीत बना दिया। बागेयूर के किले में विभुवनवीर को मारने से उसे वैरिकुल कालदंड कहा गया, राजा, बास, सिवर, वुणांक और अन्य योद्धाओं को काम राजा के किले में पराजित करने से भुज विक्रम उपाधि मिली, मुंद्राय या चलदंक गंग और गंगरमट को युद्ध में मारने के समय परशुराम कहा गया।
इसी तरह प्रतिपक्ष राक्षस, भटमारि आदि और भी अन्य उपाधियाँ उन्हें अपने कुशल समर योद्धा होने के उपलक्ष्य में दी गई थीं। इसी क्रम में आध्यात्मिक और नैतिक होने के कारण उसे गुणकाव, सम्यकत्व रत्नाकर, शौचाभरण, सत्य युधिष्ठिर! और सुभट्टचूड़ामणि भी कहा गया। चामुण्डराय को गोम्मट, गोम्मटराय, राय या अन्न भी कहा जाता था। उनके ही नाम पर भगवान बाहुबली की प्रतिमा को गोम्मटेश्वर कहा जाने लगा। इसके अतिरिक्त उन्होंने चन्द्रगिरि पर ही ब्रह्मदेव स्तंभ, त्यागी और चामुण्डराय वसदि (मंदिर) का भी निर्माण किया। यही स्तंभ पर चामुण्डराय की प्रशस्ति भी मिलती है। उनके सुपुत्र जिनदेव ने भी यहाँ एक मन्दिर बनवाया था। चामुण्डराय ने अपने त्रिषटलक्षण महापुराण (शक सं. ६ न्यूनतम) में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों और लेखकों का उल्लेख किया है।
जैसे—
१. गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वाति जिन्होंने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की (पद्य ३)
२. सिद्धसेनाचार्य जिन्होंने सन्मतित्वर प्रकरण लिखा (पद्य ४)
३. समन्तभद्राचार्य पारमार्थिक तत्त्वार्थभाष्य या गन्ध हस्तिभाष्य बड़ा प्रसिद्ध ग्रन्थ रहा है। ६ हजार पदों में रचित इस ग्रन्थ का उल्लेख गुणवर्म के कन्नड़ पुष्पदन्तपुराण (१.२२) में, हस्तिमल्ल ने विक्रान्तकौरव में किया है।
४. धर्मभूषण ने न्यायदीपिका में और लघु समन्तभद्र ने अष्टसहस्री टिपण्ण में गन्धहस्तमहाभाष्य का उल्लेख किया है। पर यह ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। इस पर मुख्तार सा. ने विस्तार से विचार किया है प्राचीन जैन वाक्यों की सूची में।
५. पूज्यपाद भट्टारक एक प्रसिद्ध दार्शनिक एवं दार्शनिक थे।
६. कवि भगवान के समान त्रिषष्टशलाका पुरुषपुराण (पद्म ८) उपलब्ध है और चामुण्डराय ने जिसका उपयोग अपने कन्नड़ पुराण में किया है।
७. वीरसेन भट्टारक और हरसेनाचार्य। वीरसेन आर्यनन्दि के शिष्य और चन्द्रसेन के शिष्य थे। ये पंचस्तूप्तन्वयी थे जो बाद में सेनान्वय के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने ऐलाचार्य से सिद्धान्त का अध्ययन किया। उनके उपलब्ध ग्रंथ हैं—१) धवलटिका मात्र हजार श्लोक प्रमाण और जयधवलटिका, २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लेखन के बाद उनकी मृत्यु हो गई और फिर मेसन ने १० हजार श्लोक प्रमाण टीका और जोड़ी ८१७ ई. में। इन ग्रंथों को सिद्धान्त कहा गया है। हेसमसन का शिष्य राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष था। ईसान के दो ग्रंथ और मिलते हैं—१) पाश्र्वभ्युदय और महापुराण जो गुणभद्र के बाद में पूर्ण किए गए (पद्य ११—१३, प्रथम)
८. धर्मसेनाचार्य जो चन्द्रिकावतवंश के थे (पद्य १४)
गोम्मट शब्द का प्रयोग श्रवणबेलगोल , कारकल और वेणुर प्रसंग में तथा नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के पंचसंग्रह या गोम्मटसार में हुआ है। बेल गोल के स्वरूप में बाहुबली को गोम्मटेश्वर कहा गया है। इसमें चट्टान में गोम्मटदेव , गोम्मटीशजिन , गोम्मटनाथ आदि नामों से भी स्मरण किया गया है। चामुण्डराय ने इस रामूट का निर्माण बेल गोल में किया। (इम्. घ्घ् घुर्दल्म्गूग्दह झ्. १५) चामुण्डराय के लिए नेमिचन्द्र चार्य ने गोम्मटसार की रचना की। चामुण्डराय से संबंधित श्रवणबेलगोला की भव्य बाहुबली स्वामी के साथ तो है ही गोम्मटसार के साथ भी रहता है। गोम्मटसार की अंतिम गाथाओं (जीवकाण्ड, गाथा ७% और कर्मकाण्ड, गाथा सुगंध%—चुली) में चामुण्डराय के दूसरे नाम गोम्मटसार या गोम्मट का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार चामुण्डराय का यह अपर नाम गोम्मट का उल्लेख श्रवणबेलगोला के एक शिलाखंड (१६ इ.) में भी हुआ है। (२३४) चामुण्डराय का यह नाम गृहस्थी का नाम घरेलू रहा होगा। गोम्मट शब्द का प्रयोग दृष्टान्तपाठ (पद्य १०,३), ज्ञानेश्वरी (पद्य ३.९), अमृतानुभाव (पद्य ६.११), भास्कर का शिशुपालवध (पद्य ६२५) आदि जैसे मराठी ग्रंथों में बहुत हुआ है। जिसका अर्थ है आकर्षक, सुन्दर। कन्नड़ में भी इसका प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है (२५, ३४५)घ् गोम्मटदेवतेलगु में ‘गुम्मडु’ शब्द मिलता है जिसका अर्थ है जो स्वयं को पूरा करता है। दक्षिणी कन्नड़ में गोम्मटदेव, तमिल में कुम्मट है। यह शब्द प्राकृत व्याकरण के धातुदेश ‘गुम्मड़’ में खोजा जा सकता है। वस्तुत: यह दक्षिण भारतीय चट्टान का शब्द होना चाहिए। हिन्दी में जो गुम्मट शब्द आया है वह बलात्कार गुम्मद—गुम्मज से आया है। डॉ. उपाध्ये ने भी यही सुझाव दिया है। जे. एल. जैनी ने गोम्मट का अर्थ दिव्यध्वनि किया है, अर्थात् गोम्मटसार की उत्पत्ति है—भगवान महावीर की दिव्यध्वनि का सार। गोम्मटदेव का अर्थ कहीं—कहीं महावीर के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। डॉ. पाई ने गोम्मट को मन्मथ से जोड़ा है जो भाषाविज्ञान की दृष्टि से सही नहीं लगता। आचार्य नेमिचंद्र सी. च. के सन्दर्भ में हमें पञ्चस्तुपान्व्य पर भी विचार करना चाहिए। क्योंकि यह पारंपरिक उत्तरापथ से लेकर दक्षिणापथ तक प्रचलित हो रही है। कदाचित् वह मूलसंघ की परंपरा से पूर्ववर्ती हो।
पञ्चस्तुपाँवय
जैन मुनि सम्प्रदाय किसी न किसी संघ, गण, गच्छ, अन्वय आदि से सम्बद्ध रहा है। इन नामों के पीछे क्या इतिहास रहा है, यह अभी भी पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। पर इतना स्पष्ट है कि इन संघों और अन्वयों के अनुयायी श्रावक गण हुए होते थे। धवला टीकाकार वीरसेन स्वयं पञ्चस्तुपान्व्ययी थे (शक सं. ७३८; ६ इ.)। पहाड़पुर (राजस्थान) ताम्रपत्र शिला (४ङ ई. गुप्त सं. पर्वत) में पंचस्तूप निकाय का दो बार उल्लेख हुआ है—वटगोहल्यामवास्याद्रकाशिक पंचस्तूपनिकायिक—निग्र्रंथ— श्रमणाचार्य — शिष्य—प्रशिष्याधिष्ठित—विहारे…..। इस अध्याय में पंचस्तूपनिकाय के आचार्य गुहनन्दि के शिष्य-प्रशिष्यों के विहार का उल्लेख है जो वाटगोहालि में था। यदि काशिका को काशी मान लिया जाए तो पंचस्तूपावन का संबंध वाराणसी से प्रस्थापित हो सकता है। श्रवणबेलगोला के एक ठोस स्वरूप (प्र.घ्घ् नद. वट) में ‘ममस्तूपांवय’ का उल्लेख है जो पंचस्तूपांवय होना चाहिए। इसी प्रकार वीरसेन ने धवलटिका (८१६ ई.) में और मस्सेन ने जयधवला (शक सं. ८, संग्रह ई.) में इसका उल्लेख किया गया है। गुणभद्र ने महापुराण (उत्तरपुराण, पृ. ७७७— ) में वीरसेन और मूलसंघ का सेनान्वयी माना है— मूलसंघवाराशौ, मणिनामिव खोजशिषाम्। महापुरुषरत्नानां स्थानं सेनान्वयोऽजनि।।२।। इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार के अनुसार पुण्ड्रवर्धन के अर्हद्वली ने पञ्चस्तूपनिवास से कुछ मुनियों को आमंत्रित किया जिनके नाम सेनान्त और भद्रान्त थे। इस सन्दर्भ में उन्होंने एक प्राचीन पद्य उद्धृत किया है— आयातौ नन्दीवीरो प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाताद् देवाश्चान्न्योऽपराधिजित इत्यतिपौ सेनभद्राहाऽयौ च। पञ्चस्तुप्यात् सगुप्तो गणधर वृषभ: शाल्मलीवृक्षमूलात् निर्यातौ सिंहचन्द्रौ प्रथितगुणगणौ केसरात्खण्डपूर्वात्।।ज़।। दो अन्य पद्य भी उद्धृत हुए हैं— अन्ये जगु ऋगुहाया नन्दिनो महान्:। देवाञ्चाशोकवन्नात् पंचस्तूप्यात् तत: सेन:।।गाँठ।। पंचस्तुप्यस्तु सेनानां वीराणां शाल्मलीद्रुम:। खण्डकेसर नामा च भद्र: सिंहोऽस्य सन्मत:।। गुहनन्दिके अनुसार इन्द्रनन्दि (११वीं शती) ने सेनान्त और भद्रान्त साधुओं को पञ्चस्तुपान्व्ययी कहा है। पर्वतपुर शिला श्रुतावतार के इन उल्लेखों से यही सिद्ध होता है कि यह पंचस्तुपांवय उत्तर भारत में ४ऊँचे ई। तक बड़ा प्रसिद्ध रहा है। गुहनन्दि उनके प्राचीनतम आचार्य का नाम था। लगभग सातवीं शादी से दक्षिण में उसका अस्तित्व शुरू हुआ। इस अन्वय के एक साधुवृषभनन्दिने श्रवणबेलगोल में सुलेखना पूर्ण मृत्यु वर्ण की। बाद में ई.वीरसेनने स्वयं को पंचस्तपन्व्ययी कहा। उनके गुरु आर्यनन्दि और दादागुरुचन्द्रसेनथे। लगता है, इस अन्वय कोवीरसेनके बाद सेनान्वय कहा जाने लगा। गुणभद्र ने सेसेन औरवीरसेनको सेनान्वय के क्षमा रखा है। और फिर गुणनन्दि जैसे नाम भी आ गये। हम जानते हैंवीरसेनऔर वे उनसेन सिद्धान्त मर्मज्ञ थे जो धरसेन से सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किया गया था। पर धरसेन के अन्वय का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सेनगण का प्राचीनतम उल्लेख मूलगुण्ड शिला (९०० ई.) में मिलता है। पर पंचस्तूपन्नवय के विषय में स्पष्ट: कुछ नहीं कहा जा सकता। अधिक संभव है, यह अन्वय बंगाल में आविर्भूत हुआ और उसने श्रवणबेलगोल तक यात्रा की जिसमें आचार्य तपस्वी के रूप में प्रसिद्ध भी हुए।
डॉ. उपाध्ये का भी यही मत है। संभवतः, पंच—परमेष्ठियों के नाम पर पंचस्तूप की परंपरा प्रचलित हुई हो और उसी के आधार पर पंचस्तूपन्नवय की परंपरा अविभुत हुई हो, जिसमें धरसेनादिक आचार्य सम्मिलित हुए हों। बाद में पंचस्तूप समाप्त हो गए और मथुरा का एक बहुत ही विशाल स्तूप शेष रहा। फिर भी उत्तरापथ में पंचस्तूप किसी तरह चलता रहा और बाद में वह दक्षिण में फैल गया। यह भी संभावना हो सकती है कि पंचस्तूप प्राचीन मूलसंघ का पूर्ववर्ती हो और उसके स्थान पर ही मूलसंघ का प्रभुत्व हो। फिर किसी कारणवश दोनों परम्पराएं समवर्ती रूप में प्रचलित हो जाती हैं।
गुरु
आचार्य नेमिचंद्र ने अपने गुरुओं के रूप में भिन्न-भिन्न स्थानों पर अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि का स्मरण किया है। कर्मकाण्ड की गाथा क्र. ४:३८, ६:३८ और ७:१० में तीनों को नमस्कार किया है। पर त्रिलोकसार की गाथा क्र. १०१८ में उन्होंने अपने को अभयनन्दि का वत्स्य शिष्य माना है। यह स्थायी रूप से हो सकता है कि इन तीनों गुरुओं में उन्हें अभयनन्दि से अधिक स्नेह-वात्सल्य प्राप्त होता है। ये तीनों गुरु श्रुतसमुद्र के पारगामी रहे हैं। इन्हें वीरनन्दि चन्दप्रभाचरित के कर्ता हो सकते हैं और इन्द्रनन्दि ज्वालामालिनिककल्प (वि. सं. ६) के रचयिता के रूप में माने जा सकते हैं। अभयनन्दि इन सभी में वयोवृद्ध रहे होंगे। पं. वैलाशचन्द्र जी ने विस्तार सत्व त्रिभंगी नामक कर्मग्रंथ के रचयिता के रूप में कनकन्दि का उल्लेख किया है। इसके दो उदाहरण जैन सिद्धान्त भवन में सुरक्षित हैं। एक में 45 गाथाएँ हैं और दूसरी में 45 गाथाएँ हैं। इन गाथाओं को नेमिचंद्र चार्य ने अपने कर्मकाण्ड में गाथा क्र. ३सूरद से ३गुट तक अन्तर्भूत कर लिया गया है। संभवतः कनकनंदनी ने इन गाथाओं की रचनाएँ और कर्मकांड के लिए की हो। नेमिचंद्र ने उन्हें कनकन्दि गुरु कहा है। कनकनान्दि के गुरु इन्द्रनन्दि थे और इन्द्रनन्दि के गुरु अभयनन्दि थे। अत: नेमिचंद्र के ज्येष्ठ सहपाठी के रूप में उनका स्मरण यहां किया गया है। हम जानते हैं, श्रुतावतार में इन्द्रनन्दि ने यह बताया है कि वप्पभट्टी ने षट्खण्डागम से महाबन्ध को पृथक किया था और व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक छठे खण्ड को संक्षिप्त कर उसमें मोड़ा था। वीरसेन ने व्याख्याप्रज्ञप्ति के आधार पर सत्कर्म नामक छठे खण्ड की रचना की और उसे पाँच खण्डों के साथ-साथ छह खण्डों के साथ मिलकर रचा। ये अभयनन्दि वप्पदेव के बाद हुए होंगे और वप्पदेव वीरसेन गुरु आलाचार्य से पूर्व हुए। अभयनन्दि ने पूज्यपाद देवनन्दि के जैनेन्द्र व्याकरण पर महावृत्तान्त लिखा था और उनके प्रधानमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र (६—१०५ ई.) ने अपने ‘शब्दभोज भास्कर ‘ नामक न्यास ग्रंथ में नमस्कार किया है: नेमिचंद्र के गुरु अभयनन्दि ही हो सकते हैं।
रचनाएँ
आचार्य नेमिचंद्र की उत्कृष्ट रचनाएँ हैं – गोम्मटसार , लब्धिसार , क्षपणासार और त्रिलोकसार। बाहुबलीचित में प्रवाहित त्रिमूर्ति का उल्लेख है (पद्य पीसी) इसके अतिरिक्त द्रव्यसंग्रह का भी नाम उसकी स्थापना में समाहित किया जा रहा है।
(१) गोम्मटसार
गोम्मटसार की रचनाएँ आचार्य नेमिचंद्र ने अपने शिष्य चामुण्डराय के लिए की थी। इसका मूल आधार षट्खण्डागम की धवला टीका है। गोम्मटसार के दो भाग हैं—जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड। जीवकाण्ड में जीव की प्ररूपणा की गई है और कर्मकाण्ड में कर्म विषयक विचार को प्रस्तुत किया गया है। यह वस्तुत: संग्रह ग्रंथ है। आचार्य ने भले ही इसका संकेत नहीं दिया हो कि उनका संग्रह किस ग्रंथ से बनाया गया है। पर षट्खण्डागम का मंथन करने के बाद इस पुस्तक ने यह निष्कर्ष निकाला है कि यह संग्रह धवला टीका से किया गया है। इसके साथ ही पंचसंग्रह का भी उपयोग अच्छी तरह से हुआ है।
जीवकाण्ड
जीवकाण्ड का विषय बीस प्रतिशत से जुड़ा हुआ है और कर्मकाण्ड में कर्म का विवेचन किया गया है। सत्प्ररूपणा आचार्य भूतबली की रचनाएँ हैं। यह जीवसमास नामक प्रथम अधिकार है। षट्खण्डागम का जो अन्तर्विष्ट मूल से निहित है। ये बीस सूत्र कौन से हैं, इसका पता पंचसंग्रह की दूसरी गाथा से स्पष्ट हो जाता है। अनुरूप गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा और चौदह मार्ग तथा उपयोग ये बीस प्ररूपणाएँ हैं। इनका विवेचन पंचसंग्रह के जीवसमास नामक प्रथम अधिकार में उपलब्ध है। धवलटीकाकार ने कदाचित् इस प्राकृत पंचसंग्रह का उपयोग किया होगा। इसमें प्राकृत पंचसंग्रह की लगभग सभी गाथाएँ समाहित हैं। जीवसमास नामक कोई ग्रन्थ भी उपलब्ध नहीं है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में एक जीवसमास ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है जो लगभग बारहवीं शताब्दी का है। वह जीवसमास पंचसंग्रह के जीवसमास पर आधारित है। जीवसमास की गाथा संख्या श्लेष में आर्ष शब्द का प्रयोग किया गया है, जो पंचसंग्रह को ध्वन्तिका से भी पूर्वतर का अनुरूप करने के लिए बाध्य करता है। आचार्य नेमिचंद्र ने जीवसमास और जीवत्थाण का उपयोग कर जीवकाण्ड की रचना की। जीवकाण्ड , लब्धिसार और त्रिलोकसार की रचनाएँ श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर चामुण्डराय द्वारा निर्मित जिनालय में इन्द्रनीलमणि नेमीश्वर प्रतिबिम्ब के सन्निध्य में हुई हैं। उन्हें चामुण्डराय का गुणगान किया गया है। जीवकाण्ड की रचनाएँ छह खण्डागमों के प्रथम खण्ड जीवस्थान के आधार पर हुई है तथा कर्मकाण्ड तथा पंचसंग्रह में शेष खण्डों के विषय को समाहित किया गया है। जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड की एक विशेष संज्ञा ‘पंचसंग्रह‘ दी गई है। ऐसा लगता है, आचार्य नेमिचंद्र ने पंचसंग्रह नामक ग्रंथ को स्वतंत्र रूप से तैयार किया था, जिसे हमने यहां सम्मिलित किया है। जीवकाण्ड में ७३४ गाथाएँ हैं। इसमें जीवस्थान, क्षुद्रबंध, बन्ध स्वामित्व, वेदना खण्ड और वर्गाखण्ड, इन पाँच विषयों का वर्णन इन बीस प्ररूपणाओं में जीव की विभिन्न अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है। संभवतः पंचसंग्रह की रचनाएँ गोम्मटसार के पूर्व हुई हैं और फिर उनके आधार पर जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड का संग्रह किया गया है। जीवकाण्ड का संग्रह पंचसंग्रह के जीवसमास अधिकार तथा षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवट्ठाण के सत्प्ररूपण नामक अधिकारों से किया गया है। जीवकाण्ड में पंचसंग्रह की अपेक्षा विस्तार अधिक हुआ है। इसमें गणित विषय अधिक है।
गोम्मटसार की टीकाएँ
गोम्मटसार पर अभी तक खोजी गई टीका सम्यग्ज्ञानचंद्रिका के अतिरिक्त कर्मकाण्ड में दो महत्वपूर्ण संस्कृत टीकाएँ प्राप्त हुई हैं—१) अभयचंद्र की मन्दप्रबोधिका और २) केशववर्णी की जीवतत्त्वप्रदीपिका। ये दोनों पुस्तकें कोलकाता से गोम्मटसार के साथ प्रकाशित हुई हैं। उसी में पंडित टोडरमल की सम्यग्ज्ञानचंद्रिका भी छपी हुई हैं, मण्डप्रबोधितका टीकाकृत जीवकाण्ड की ३ गुणा गाथा तक ही मुद्रण के रूप में उपलब्ध होती है। जीवत्वप्रदीपिका एक विस्तृत टीका है जिसके आधार पर उत्तरकाल में टीकाएँ लिखी गई हैं। जीवतत्त्व प्रदीपिकाकार ने मन्दप्रबोधिका का भी आधार लिया है ३ आधारभूत गाथाओं तक और बाद में कर्णात्वृत्ति को सामने मूल्य अपनी टीका पूरी की है—श्रीमदअभसचन्द्रसैद्धान्त—चक्रर्वितविहित—व्याख्यानं विश्रान्तमिति कर्णात्वृत्तिनुरूपमयमनुवदति (पृ. ७६०, ६६०)। इस जीवतत्त्वप्रदीपिका के लेखक केशववर्णी हैं। यह लगभग सभी विद्वान स्वीकार करते हैं । इस विचार के पीछे निम्नलिख्तिआ कारिका का आधार है— श्रत्वा कर्णात्की वृत्तिं वर्णिश्रीकाशवै: कृति:। कृतेयमन्यथा किंचिद्विशोधां तद् बहुश्रुतै:।। (जीवकाण्ड प्र.१३२)
जीवतत्व प्रबोधिका टीका वस्तुत: केशववर्णी कृत नहीं है, उसके रचयिता नेमिचंद्र हैं ऐसे डॉ. उपाध्ये का मत रहा है । उनका कहना है कि यह भ्रम टोडरमल जी द्वारा लिखित उनकी खोजी टीका के अंतिम चरण से हुआ है— केशववर्णी भव्य विचार कर्णाट्टिका के अनुसार। संस्कृत टीका कीनी यहु नो प्रारंभिक सो शुद्ध करेहु।।
यह पद्य जीवतत्त्व प्रदीपिका के अंतिम पद्य का ही अनुवाद है । वह जिस कर्नाटक वृत्ति पर आधारित रही है वह चामुण्डराय विरचित टीका थी जो आज उपलब्ध नहीं है। उस टीका का नाम वीरमार्तण्डी था। आचार्य नेमिचंद्र ने भी चामुण्डराय को मार्तण्ड कहा है। इस संस्कृत टीका के रचयिता वस्तुत: नेमिचंद्र हैं । उन्होंने केशववर्णित कर्नाटकवृत्ति के आधार पर यह टिप्पणी लिखी थी। केशवर्णित टीका का नाम भी जीवतत्त्वप्रदीपिका था ।
यह श्लोक अभयचंद्र ने अपनी टीका के मंगल श्लोक में लिखा है—
यहाँ ‘कृताम्’ के स्थान पर ‘कृत:’ शब्द टोडरमलजी को मिला जिसके कारण यह भूल गया। जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका संस्कृत कन्नड़ मिश्रित टीका है जो केशववर्णित है और उसी पर आधारित संस्कृत टीका नेमिचंद्र की है जिसमें गणितादि प्रक्रिया और जोड़ दी गई है, नया कुछ भी नहीं है । यही टीका अधिक प्रचलित है । प्राकृत शोध संस्थान श्रवणबेलगोल में कर्णाटकवृत्ति पर काम हो रहा है। प्रकाश में आने पर स्थिति और भी स्पष्ट हो। डॉ. उपाध्ये ने जीवकाण्ड के ही पृष्ठ १०. २० फुट—८ उद्धरणकार यह सिद्ध किया कि जीवतत्त्वप्रदीपिका के लेखक आचार्य नेमिचंद्र थे । वे मूलसंघ, शारदागच्छ, बलात्कारगण, कुंदकुंदन्वय और नंदी आम्नय के थे । ज्ञानभूषण भट्टारक के छात्र थे। प्रभाचन्द्र भट्टारक ने उन्हें आचार्यपद दिया था। कर्नाटक के राजा मल्लिभूपाल की प्रेरणा से उन्होंने प्राचीन शास्त्र भगवान मुनिन्द्र से जैन सिद्धान्त का अध्ययन किया था। लाला वर्णी की प्रेरणा से वे गुजरात से चित्रवत् आये जहाँ जिन्दास शाह द्वारा निर्मित पाश्र्वनाथ मंदिर में स्थित हैं। उन्होंने धर्मचन्द्र, अभयचन्द्र और अन्य धामिक लोगों के लाभ की दृष्टि से खण्डेलवाल परिवार के शाह संघ और शाह साहस के निवेदन पर संस्कृत टीका जीवतत्त्वप्रदीपिका त्रैविद्याविद्या विशालकीट की सहायता से और कर्णाटक वृत्ति के आधार पर यह टीका लिखी। इस टीका की पहली प्रतिलिपि अभचन्द्र ने लिखी थी जिसे निर्ग्रन्थाचार्य और त्रैविद्या चक्रवर्ती ने लिखा था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आचार्य नेमिचंद्र का नाम गद्य में स्पष्ट रूप से दिया गया है—नेमिचन्द्रेणाल्पमेधसा……..यथा कर्णात्वृत्ति व्यारचि। इतना ही नहीं, गोम्मटसार की इस टीका के अंत में भी यह लिखा गया है— इत्याचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचितायां गोम्मटसारपरनाम पंचसंग्रहवृत्तो जीवतत्त्वप्रदीपिकायां…।
जीवतत्त्व प्रदीपिका के लेखक नेमिचंद्र और नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती दोनों अलग-अलग हैं । अत: यह स्थापित किया जा सकता है कि जीवतत्त्वप्रदीपिका के लेखक केशववर्णी नहीं, नेमिचंद्र है जो सिद्धान्त चक्र नेमिचंद्र से भिन्न है ।। नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार की रचना की थी। केशववर्णी अभयसूरि सिद्धान्त चक्रवर्ती के शिष्य थे। उन्होंने धर्मभूषण भट्टारक की प्रेरणा से कर्णाट्टवृत्ति में योगदान दिया। १२५ ई. एस.) में लिखा था । डॉ. उपाध्ये ने लक्ष्मीसेन भट्टारक मठ, कोल्हापुर में इसकी पाण्डुलिपि देखी और उनके अध्ययन करके यह स्पष्ट किया कि इस कन्नड़वृत्ति का भी नाम जीवतत्त्व प्रदीपिका है। यह प्रदीपिका संस्कृत जीवत्त्वप्रदीपिका से बड़ी है । कन्नड़ वृत्तों से यह प्राचीन होती है और बीच—बीच में संस्कृत भी है । मणिप्रवालशैली में है । अभयचंद्र की मंदप्रबोधिका से भी केशववर्णी ने अपनी वृत्ति को मंडित किया है। संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका कर्णाटक वृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पर पूर्णत: आधारित है । नेमिचंद्र ने कन्नड़ में लिखित भाग को संस्कृत में प्राकृत किया। इसलिए उनका यह लेखन सही है—यथा कर्णात्वृत्ति व्यारचि या कर्णाआवृत्तित:। इन दोनों वृत्तियों में मंदप्रबोधिका प्राचीन है । अभयचंद्र ने इस वृत्ति में बालचंद्र पंडितदेव का उल्लेख किया है। श्रवणबेलगोल शैल (Em. Ghghgh. Nd. Sup) में उनका उल्लेख बोलुन्दु पंडित नाम से हुआ है ।
यह पृ.१३१ ई. का है । अभयचन्द्र की मृत्यु १६५ ई. यह बेलूर रॉक (सं. न्नदात्.५ नद.१३१-१अधिकतम) के अनुसार है। टोडरमल ने संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका के आधार पर अपनी हिन्दी टीका १७ गीत ई. में समाप्त की । नेमिचंद्र ने कर्णाटक राजा मल्लिभूपाल का उल्लेख किया जिसे जैनोत्तम कहा गया। इस राजा का नाम इतिहास में कहीं नहीं मिलता। संभव है, किसी छोटे राज्य का राजा रहा हो। एकमाली राजा का उल्लेख विजयी और विद्यानन्द आचार्यों के सन्दर्भ में मिलता है। इन आचार्यों का सम्मान किया गया था जब कर्नाटक के एक छोटे जिले का राजा था। ई. सन् १५बुस का एक रिकार्ड है जिसके आधार पर उसे १९वीं शताब्दी के प्रथम चरण में रखा जा सकता है। अन्त में डॉ. उपाध्ये के मंत्र को संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि केशववर्णी संस्कृत टीका जीवतत्त्वप्रदीपिका के कर्ता नहीं थे । यह टीका चामुण्डराय की कर्णाटक वृत्ति पर भी आधारित नहीं रही। इसके रचयिता नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से पृथक् नेमिचंद्र थे जो केशवर्णी द्वारा रचित कन्नड़ जीवतत्व प्रदीपिका के ऋणी थे (१३५ इ.)। नेमिचंद्र सालुव मल्लिराय के समकालीन थे: हीमसोलवीं शती में रखा जा सकता है। मन्दप्रबोधिका वृक्ष के सन्दर्भ में पं. कैलाशचंद्र जी ने सभी टीकाओं का मिलान करके यह स्पष्ट कर दिया कि केशववर्णी के सामने कर्णाटक वृत्तिलेखन समय मन्दप्रबोधिका वृत्ति विद्यामान था । उन्होंने कर्णाटकवृत्ति में अपनी रचयिता अभयचंद्र चक्रवर्ती का निर्देश किया है।
डॉ. उपाध्ये ने भी उद्धरण देकर सिद्ध किया है— देसविरदे पमत्ते इदरे य खाओव समिय भावो दु । सो खलु चरितत्तमोहं पादुच्च भणियं तथा उवरिं।।१३।। गाथा ३ आधार के अन्त में जीवतत्त्वप्रदीपिका देकर मन्द प्रबोधिका के सामने यह वाक्य दिया गया है— श्रीमदभयचन्द्र सैद्धान्तचक्रर्वितविहित व्याख्यानं । विश्रान्तमिति कर्णात्वृत्यनुसारमनुवदति ।। केशववर्णी ने अपनी टीका में गोम्मटसार के हर कथन को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उनके गुरु अभयसिद्धान्तचक्रवर्ती थे । यह टीका बड़ी वैदुष्यपूर्ण है । मन्दप्रबोधिका टीका के रचयिता अभयचंद्र ने अपने सखा बालचन्द्र का उल्लेख किया है। समांतर उल्लेख श्रवणबेलगोला के शिलाखंड (सन१३) में हुआ है । उनका प्रसिद्ध बेलूर रोम में भी हुआ है। कैलाशचंद्र जी ने अभयचंद्र का स्वर्ग सन् तेरहवीं शताब्दी में तथा बालचंद्र का स्वर्ग सन् बारहवीं शताब्दी में बताया और इस तरह मन्दप्रबोधिका टीका की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के तीसरे चरण में की। केशववर्णी ने अपनी वृत्ति धर्मभूषण भट्टारक के अनुसार संभवत:। १२०० (१२००) में समाप्त । संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका केशववर्णी की कर्णाटक वृत्ति का ही संस्कृत रूपान्तरण है । इस संस्कृत टीका के रचयिता नेमिचंद्र है । जिन्हें अभयचन्द्र ने ‘ नेमिचन्द्र जिनं नटवा’ का महान स्मरण किया है। वे मूलसंघ, शारदागच्छ, बलात्कार, कुंदकुंदनव्य और नंदी आम्नय के थे ।
उनके गुरु का नाम भट्टारक ज्ञानभूषण था। उन्हें मल्लि भूपाल का सहयोग मिल रहा है। भगवान प्रभाचंद्र ने उन्हें भट्टारक पद दिया था। विशालकीट का भी समर्थन इस प्रवृत्ति के लेखन में उन्हें मिला था। यह रचना उन्होंने चित्रवूट के पाशर्वनाथ जिनालय में जीवित कर्णावतवृत्ति से की है । यह पाद्यात्मक परावर्तन का सार है । गद्यात्मक प्रवृत्ति में नेमिचंद्र ने अपना नाम दिया पर रचनाकाल का संकेत नहीं किया। भूपाल का समय सोलहवीं शताब्दी का है । डॉ. उपाध्ये ने यह सिद्ध किया है । सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका के रचयिता पं. टोडरमलजी हैं जिन्हें वे सं. १८१८ में समाप्त हो गया । यह टीका गोम्मटसार, जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, लब्धिसार और क्षपणासार पर है । संस्कृत टीका के आधार पर वह यह टीका लिखी है । संदृष्टियों की दृष्टि से यह टीका बड़ी उपयोगी है । वे बहुश्रुत और गंभीर विद्वान् थे । मोक्षमार्ग प्रकाशक उनकी अद्वितीय कृति है। पं. राजमल की प्रेरणा से यह टिप्पणी लिखी गई थी। गोम्मटसार पर उनकी एक भाषा पीठिका भी उपलब्ध है।
आचार्य नेमिचंद्र के समय तक धवला और जयधवला जैसे सिद्धान्त ग्रंथों का प्रकाशन-पाठन लोकप्रिय हो चुका था। ये सिद्धान्तग्रन्थ अगाध, गम्भीर और वृहदाकार थे। नेमिचंद्र स्वयं सिद्धान्त ग्रंथों के मर्मज्ञ थे। उन्होंने इन ग्रंथों का संक्षिप्त रूपांतरण आवश्यक रूप से समझाया और उनका संग्रह भी लोकप्रिय बनाया। गोम्मटसंगहसुत्त—कर्मकाण्ड, गाथा ६६६, ६प्ररूप। इसके पीछे उनके विद्वान शिष्य चामुण्डराय की जिज्ञासा थी। उन्हें गोम्मट कहा जाता था। सो राओ गोम्मटो जयु (कर्मकाण्ड, गा.९ २)। उन्होंने इस सन्दर्भ में तीन गोम्मटों को जयवंत कहा है—
१) गोम्मटसंग्रहसूत्र,
२) गोम्मट शिखर पर स्थित गोम्मट जिन, और
३) गोम्मटराज के द्वारा उत्पन्न दक्षिण कुक्कुट जिन नाम भ. बाहुबली की उत्तुंग प्रतिमा (कर्मकाण्ड, गा.६प्रदर्शक)।
इनमें जीवतत्त्वप्रदीपिका के अनुसार प्रथम का सम्बन्ध गोम्मटसार से है, द्वितीय का सम्बन्ध चामुण्डराय द्वारा तीव्र प्रसाद में नेमीश्वर की इन्द्रनीलमणि की एक हाथ की प्रतिमा से है जो चन्द्रगिरि पर चामुण्डराय वसति में अवस्थित थी। आज वह अनुपलब्ध है। तीसरा का उत्तर भारत में बी द्वारा निर्मित। बाहुबली की प्रतिमा जो कुक्कुटों से व्याप्त होने जाने के कारण कुक्कुट जिन कहलाती थी, दक्षिण में दक्षिण कुक्कुट जिन के नाम से वासी प्रतिमा विंध्यगिरि पर बनवाई गई। यह गाथा इस प्रकार है— गोम्मटसंगहसुत्तं गोम्मटिंसहरुवरि गोम्मटजिणोय। गोम्मटविणिम्यदक्खिण कुक्कुट्जिणो जयु।।कर्म। ९.
गोम्मटसार की मन्दप्रबोधिनी टीका में गोम्मटसार को ‘पंचसंग्रह‘ अभिधान दिया गया है—गोम्मटसारनामधेय—पंचसंग्रह शास्त्रं प्रारम्भमाण:, म. प्र. टी. प्र. ३. जीवतत्त्व प्रदीपिका टीकाकार (पृ. २) का भी यही मत है—गोम्मटसार पञ्चसंग्रह प्रपंचमारचयन्। आचार्य नेमिचंद्र ने कहीं भी अपने ग्रंथ गोम्मटसार को ‘पंचसंग्रह’ नहीं कहा। टीकाकारों ने जो यह नाम दिया है, वह कदाचित अमितगति के पंचसंग्रह को ध्यान में रखा होगा। अमितगति ने दी. प्राकृत पंचसंग्रह के आधार पर संस्कृत पंचसंग्रह की पंक्तियाँ हैं। आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती थे। उनके समय तक धवला, जयधवला आदि सिद्धान्त ग्रंथों का लेखन-पाठन काफी लोकप्रिय हो चुका था। आचार्य नेमिचंद्र ने उन ग्रंथों के आधार पर गोम्मटसार जैसे ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों को उन्होंने स्वयं अपनी धारणा में जीवित रूप से संग्रहीत ग्रंथ माना है। गोम्मटसार के टीकाकारों ने इस ‘पंचसंग्रह’ की भी संज्ञा दी है—
२) गोम्मटसारपंचसंग्रह प्रपंचमारच्यन् (जीव. केशव टी. वर्णी प्र. २)। मन्दप्रबोधिनी टीकाकार ने इसे जीवस्थान खण्डों में निर्मित माना और केशववर्णी ने इसे छह खण्डों में निर्मित कहा। परन्तु इनमें से बन्धक, बन्ध्यमान, बन्ध के स्वामी बन्ध के कारण और बन्ध के भेद इन पाँच तत्त्वों पर विचार किया गया है। आचार्य नेमिचन्द्र ने कहीं भी अपने ग्रन्थ गोम्मटसार को ‘पंचसंग्रह’ का अभिधान नहीं दिया। टीकाकारों ने जो यह नाम दिया है, वह कदाचित अमितगति के पंचसंग्रह को ध्यान में रखा होगा। उपलब्ध प्राकृत पंचसंग्रह आचार्य नेमिचंद्र की स्वतंत्र कृति होनी चाहिए जिसका विषय गोम्मटसार से मिलता है। इसमें कर्मस्तव, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, जीवसमास, शतक और सत्तरी ये पाँच प्रकरण हैं। इन प्रकरणों को ४४५ गाथाओं में व्यवस्थित किया गया है। जिस पर ८ लिखित भाष्य गाथाएँ भी रची गई हैं। इसमें कुश अंश प्राकृत गद्य में भी है। इसमें ९ विचित्र गाथाएँ हैं जो पाँच द्वारों में विभक्त हैं—ग्रंथशतक, सप्तति, कसायपाहुड़ षटकर्म और कर्मप्रकृति। संभवत: इसी प्राकृत पंचसंग्रह को देखकर आचार्य नेमिचंद्र ने अपना पंचसंग्रह ग्रंथ तैयार किया हो। इसी पंचसंग्रह के आधार पर अमितगति ने संस्कृत पंचसंग्रह की जड़ें बनाईं। आचार्य नेमिचंद्र के ग्रन्थ भले ही संग्रह ग्रन्थ कहे जाएं, पर उनके विविधता पर विचार करने के बाद ऐसा लगता है कि उन्हें स्वतंत्र ग्रन्थों की श्रेणी दी जानी चाहिए। यह तथ्य इन ग्रंथों के विशिष्ट देखने से समझ में आ सकता है। श्री पं. वैशालशचंद्र शास्त्री और बालचंद्र सिद्धान्तशास्त्री ने षट्खण्डागम, धवला, जयधवला, मूलाचार, तत्वार्थक, गोम्मटसार, प्राकृत पंचसंग्रह आदि ग्रंथों का विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन किया है। उन्होंने इसी प्रसंग में कर्मकाण्ड की विशेषताओं का भी उल्लेख किया है। इन पहलुओं को हम संक्षेप में इस प्रकार देख सकते हैं।
सत्प्ररूपणा और जीवकाण्ड
सत्प्ररूपणा में पहले उत्थान का विवेचन है, बाद में गुणस्थानों का। पंचसंग्रह के जीवसमास में पहले गुणस्थानों को बाद में रखने को लिया गया है। गोम्मटसार में भी पंचसंग्रह का ही क्रम रखा गया है। सत्प्ररूपणा की धवला टीका में बहुत सी गाथाएँ पंचसंग्रह के जीवसमास नामक अधिकार से ली गई हैं। जीवकाण्ड का संकलन पंचसंग्रह के जीवसमास नामक अधिकार और षट्खण्डागम के जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणा और द्रव्यप्रमाणानुगम अधिकारों की धवला टीका के आधार पर हुआ है। उसी का विस्तार गोम्मटसार में किया गया है। नेमिचन्द्राचार्य ने जीवसमास की १९९ गाथाओं में समाहित विषय को २७ गाथाओं में पूरा किया है। उन्होंने संक्षिप्त जीवसमास और षट्खण्डागम के विस्तृत जीवट्ठाण के विषय को मध्यममार्ग अपनाकर गोम्मटसार के वैशिष्ट्य को प्रस्तुत किया है। सिद्धान्त ग्रंथों में दो शैलियाँ प्रचलित रहीं—ओघ (संक्षेप) और आदेश (विस्तार)। गुणस्थानों के वर्णन में ओघ का प्रयोग हुआ है और निर्देश में आदेश का प्रयोग हुआ है।
१. प्रथम गुणस्थान के वर्णन में जीवसमास ने तीन गाथाएँ ली हैं, जबकि जीवकाण्ड में इस विषय को ग्यारह गाथाओं में गौँथा गया है।
२. जीवसमास में सोलह गाथाओं तक के सोलह गुणस्थानों का वर्णन है जो जीवकाण्ड में सोलह गाथा पर्यन्त है।
३. जीवसमास में ११ गाथाओं में जीवसमास का वर्णन मिलता है, जबकि जीवकाण्ड में यह प्रकरण सभी गाथाओं में पूरा हुआ है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी एक जीवसमास नामक ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है जिसका लेखक आज भी अज्ञात है। ऐसा लगता है कि यह ग्रंथ धवला टीकाकार का ऋणी है। उसे प्राचीन प्राकृत संग्रह तथा धवला के विषय का आधार बनाकर संकलित किया गया। आचार्य नेमिचन्द्र के जीवकाण्ड—कर्मकाण्ड का भी प्रभाव उस पर प्रकट होता है। जीवसमास शब्द का प्रयोग गुणस्थान के लिए प्रथमतर रहा होगा। आगे दोनों शब्दों का प्रयोग बना रहा है। नेमिचन्द्राचार्य ने भी जीवकाण्ड गाथा ९—१० में जीवसमास शब्द का प्रयोग किया है। इसलिए जीवसमास को गुणस्थान के विकासगत अध्ययन का आधार नहीं बनाया जा सकता है।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड
कर्मकाण्ड में ९ अधिकार हैं और ९ सम्पूर्ण गाथाएँ हैं। ९ अधिकार इस प्रकार हैं—
१) प्रकृतिसमुत्कीर्तन,
२) बन्धोदय सत्त्व,
३) सत्त्वस्थानभंग,
४) त्रिचूलिका,
५) स्थान समुत्किवर्त्न,
६) प्रत्यय,
७) भावचूलिका,
८) त्रिकरण चूलिका और
९) कर्मस्थिति रचनाएँ।
इस ग्रन्थ में जैन दर्शन के अनुसार षट्खण्डागम के आधार पर कर्म का विवेचन किया गया है। हम इसके विषय को षट्खण्डागम और महाबन्ध की स्थापना में दे चुके हैं। भवचक्र की प्रक्रिया कर्मबन्ध के कारण होती है। पृथ्वी विसता का मूल कारण भी कर्म ही है। लगभग सभी दर्शनों ने कर्मवाद के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। कर्म के अस्तित्व की मान्यता के साथ आत्मा के अस्तित्व की उपस्थिति भी जुड़ी हुई है। अनात्मवादी बौद्ध भी उसे अस्वीकार नहीं कर सके। सांख्य, योग, नैय्यायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि दर्शन तो उसे स्वीकार करते ही हैं। नैय्यायिक—वैशेषिक कर्म संस्कार को धर्म—अधर्म कहते हैं, योग उसे कर्मशय की संज्ञा देते हैं और बौद्ध कर्म के साथ ही अनुशय शब्द का प्रयोग करते हैं। जनदर्शन में कर्म दो प्रकार के होते हैं—द्रव्यकर्म और भावकर्म। भावकर्म एक प्रकार के संस्कार हैं और द्रव्यकर्म को योग—न्याय दर्शन की वृत्ति और प्रवृत्ति के साथ आधारित किया जा सकता है। जैन दर्शन में कर्म मात्र संस्कार ही नहीं हैं, वे हमारे रोग—दबेश की प्रवृत्ति से आकृत द्रव्य आत्मा के साथ बंध जाते हैं और समय के अनुरूप शुभ—अशुभ फल देते हैं। इसमें जीव की मन—वचन—काया की प्रवृत्ति मूल कारण बनती है। इसे जीव की क्रिया के साथ पौदग्लिक कर्मबन्ध कहा जाता है। इसे अनादि माना जाता है जिसे रत्नत्रय के पालन करने से समाप्त किया जा सकता है। उसी को निर्वाण या मोक्ष कहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, क्षय और योग की समाप्ति ही भवचक्र की समाप्ति है। इसी प्रकार का विस्तृत विवेचन यहाँ कर्मकाण्ड में किया गया है।
पंचसंग्रह—
सर्वप्रथम हम पंचसंग्रह पर विचार कर लें। पंचसंग्रह नाम से चार ग्रंथ उपलब्ध होते हैं – दो प्राकृत में और दो संस्कृत में। प्राकृत में एक दिगम्बर परम्परा का है और एक श्वेताम्बर परम्परा का। संस्कृत में दोनों दिगम्बर परम्पराएँ हैं—एक लक्ष्मणसुत प्राकृत पंचसंग्रह और दूसरा अमितगतिकृत पंचसंग्रह। इसमें बाधक, बान्ध्यमान बान्ध के स्वामी, बान्धक कारण और बान्ध के भेद इन पाँच तत्त्वों पर विचार किया गया है। दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह आचार्य नेमिचन्द्र की स्वतंत्र कृति होनी चाहिए। जिसका विषय गोम्मटसार से मिलता है—जुलता है। इसमें कर्मस्तव, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, जीवसमास, शतक और सत्तरी ये पाँच प्रकरण हैं। इन प्रकरणों के ४४५ गाथाओं में व्यवस्थित किया गया है जिस पर ८ रचनात्मक भाष्य गाथाएँ रची गई हैं। इसमें कुछ अंश प्राकृत गद्य में भी है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्राकृत पंचसंग्रह चन्द्रीश महत्तर द्वारा रचित है। इसकी रचना लगभग दशवीं शती की है।
इसमें ९ विचित्र गाथाएँ हैं जो पाँच द्वारों में विभक्त हैं—ग्रंथशतक, सप्तति, कसायपाहुड़, षट्कर्म और कर्मप्रकृति। पंचसंग्रहकार की इस पर स्वोपज्ञ संस्कृत वृत्ति भी है तथा आचार्य मलयगिरि कृत संस्कृत टीका है। यह भी कर्मप्रकृति की तरह प्राकृत गाथाबद्ध है। इसमें पाँच अधिकार भी हैं—योगोपयोग विषय मार्गणा, बंधक, बंधव्य, बंधहेतु और बंधविधि। दिगम्बर प्राकृतसंग्रह को प्रकाश में लाने का श्रेय पं. परमानन्द जी को जाता है। ‘अतिप्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह’ शीर्षक से उनका लेख अनेकान्त वर्ष ३ कि. 3 में प्रकाशित हुआ था। बाद में पं. हीरालाल द्वारा संपादित भारतीय ज्ञानपीठ से सन् १९६० में प्रकाशित हो चुका है। इस पंचसंग्रह के अंत में ‘इति पंचसंघहो समत्तो’ लिखा गया है। इसके अतिरिक्त ग्रंथकार आदि के विषय में कुछ भी नहीं मिलता।
पं. आशाधरजी ने भगवती राधा की टीका मूलाधना दर्पण की २वीं गाथा टीका में ‘तदुक्तं पंचसंग्रहे’ लिखी है। इससे तो स्पष्ट है कि तेरहवीं शती में यह ग्रंथ प्राकृत पंचसंग्रह के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था। उनके रचनाकार के विषय में आशाधर जी भी मौन रहे। पं. वैशाखचंद्र जी और बालचंद्र जी ने अपने समय में लगभग छठी शती निर्धारित कर यह विचार किया है कि आचार्य नेमिचन्द्र जी उनके रचनाकार नहीं हैं। उनके अनुसार धवलटिका में वीरसेन ने पंचसंग्रह की गाथाओं की उद्घृत किया है। वीरसेन ने धवला सिद्धांत की समाप्ति वि. सं. ८३८ (शक. सं.७ यथार्थ) में की और जयधवला टीका वि. सं. गर्भाशयी (शक सं. ५) में समाप्त हुई। अत: पंचसंग्रह लगभग छठी शती की रचनाएँ होनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि यह समय सबसे बड़े सबूतों के साथ निश्चित किया गया है। पर इसकी संभावना अभी भी समाप्त नहीं हो सकती है कि जिस तरह आचार्य नेमिचन्द्र ने धवला, जयधवला आदि का आधार लेकर गोम्मटसार ग्रन्थ लिखा है उसी तरह प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह के आधार पर उसी का संक्षिप्त संस्करण तैयार किया हो जिसे उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने विशेष: आशाधरजी ने लिखा है। उद्घृत किया हो। आचार्य अद्वैतंक, वीरसेन आदि ग्रंथों में जिन पंचसंग्रह की गाथाएँ उद्घृत हैं, वह प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह रहा होगा। आचार्य नेमिचन्द्र के संग्रह का ‘पंचसंग्रह’ और प्राचीन संग्रह को प्राकृत पंचसंग्रह नाम देकर बाद में विभेदक रेखा खींच दी गई हो। यदि यह संभावना सही हो तो या तो आचार्य नेमिचन्द्र के पंच संग्रह की खोज होनी चाहिए। या फिर प्रस्तुत प्राकृत पंचसंग्रह को आचार्य नेमिचन्द्र सी. च. का संग्रह को ग्रंथ मान लिया जाना चाहिए। मुझे ऐसा लगता है कि प्रस्तुत प्राकृत संग्रह के संग्रहकर्ता आचार्य नेमिचन्द्र रहे हैं। प्राचीन प्राकृत संग्रह ग्रंथ को उन्होंने पूरी तरह से इसमें जीवित कर लिया और इसी कारण वह आज अनुपलब्ध हो गया। धवलकर ने जिस प्राकृत संग्रह का उल्लेख किया है वह प्राचीन प्राकृत संग्रह रहा होगा जो आज उपलब्ध नहीं होता।
जीवकाण्ड एवं पंचसंग्रह
(१) जीवकाण्ड में बीस प्ररूपणाओं का वर्णन किया गया है—गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा १४ मार्गाएं और उपयोग। प्रभुप्ररूपणाओं का वर्णन पंचसंग्रह के जीवसमास नामक अधिकारों में मिलता है। जीवसमास की अधिकांश गाथाएँ जीवकाण्ड में यथावत् मिल जाती है। सत्प्ररूपणा में इन बीस प्ररूपणाओं का ऐसा वर्णन नहीं मिलता।
(२) जीवकाण्ड का संकलन षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवथान के सत्प्ररूपण और द्रव्य परिच्छेदानुगम नामक अधिकारों की धवलटिका के आधार पर किया गया है। (३) ऐसा लगता है, जीवकाण्ड पंचसंग्रह का रूपान्तरण है। पंचसंग्रह के ही विषय को जीवकाण्ड में विस्तारित किया गया है। इस विस्तार को हम गाथाओं की संख्या के आधार पर इस प्रकार देख सकते हैं— विषय जीवकाण्डगत गाथाएँ पंचसंग्रहगत गाथाएँ (१) गुणस्थान तालिका ३० (२) जीवसमास ५ ११ (३) पर्याप्त ११ २
(४) प्राण ५ ६
(५) संज्ञा ५ (स्वामीकथान विशेष ५
(६) मार्गणा मृत्यु की संख्या का कथन यहाँ नहीं है
(७) इन्द्रियमार्गणा इन्द्रिय विषय का विस्तार यहाँ नहीं है
(८) कायमार्गणा त्रसों का वासस्थान, जीवाणु यहाँ से अप्रतिष्ठत शरीर नहीं है, स्थावर जीवाणु के शरीर का आकार
(९) कषाय मार्गणा कषायों का भेद—प्रभेद यहाँ नहीं है
(१०) ज्ञान मार्गणा श्रुतज्ञान के भेद, दस गाथाएँ कालज्ञान के भेद सोलह गाथाएँ
( ११) लेश्या मार्ग का विस्तृत विवरण यहाँ नहीं है
(१२) समयक्त्व मार्गणा सम्यक्त्व के भेद छः द्रव्य, यहाँ नहीं है
नव वर्ष वर्णन
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि अमितगति ने अपने संस्कृत पंच संग्रह को लिखने के समय प्राकृत पंचसंग्रह तथा गोम्मटसार को गहराई से देखा था और उसका यथावश्यक उपयोग भी किया था। उन्होंने तीन प्राचीन मिथ्यामतों का संकलन कर्मकाण्ड से किया। प्रा. पंचसंग्रह में यह है ही नहीं। जीवकाण्ड के क्षय मार्ग में पंचसंग्रह की अपेक्षा अधिक विस्तारित की गई है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि अमितगति का संस्कृत पंचसंग्रह गोम्मटसार और प्राकृत पंचसंग्रह को सामने मूल्यांकित किया गया है। इसी प्रकार धवला में भी पंचसंग्रह की बहुत—सी गाथाएँ उद्घृत हुई हैं। जीवसमास नामक प्रकरण से धवला में ‘जीवसमा ए पि उत्तं’ मूल धवलकार ने पंचसंग्रह का स्वयं उल्लेख भी किया है। पंचसंग्रह में प्रथम प्रकरण जीवसमास है तथा षड्खण्डागम के प्रथम खण्ड का नाम ‘जीवस्थान’ है। दोनों का अर्थ लगभग समान है जो विभिन्न जातियों के ज्ञान से जुड़ा है। यह परिज्ञान सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के माध्यम से प्राप्त किया गया है। दोनों प्राचीन गाथाओं में समान रूप से उद्घृत हुई हैं। प्राकृत पंचसंग्रह की चौथी गाथा के बाद के गद्य भाग में मूल प्रकृतियों के विवरण पर षड्खण्डागम के जीवस्थान की द्वितीय चूलिका का प्रभाव प्रकट होता है। इस प्रकरण में दोनों ग्रंथों को प्रकृतिसमुच्चय कहा गया है। षड्खण्डागम की धवलताका से प्राचीन गाथाओं की एक लम्बी संख्या पंचसंग्रह के जीवसमास में ज्ञात अधिकार उपलब्ध होते हैं।
लब्धिसार—क्षपणसार
इसमें समास गाथाएँ हैं। लब्धिसार—क्षपणसार गोम्मटसार का ही उत्तरभाग है। लब्धिसार में कर्मबन्धन से मुक्त होने का उपाय बताया गया है। और यह उपाय है सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की पृष्ठभूमि में पाँच लब्धिएँ होती हैं—क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्राप्य और करणलब्धि। इनमें करणलब्धि से ही सम्यकत्व की प्राप्ति होती है। यह करणलब्धि अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की प्राप्ति से होती है। इसी से प्रथमोपशम सम्यकत्व की प्राप्ति होती है। दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय होने से क्षायिक सम्यकत्व की प्राप्ति होती है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उसी भव में या तीसरे/चौथे भव में मोक्ष प्राप्त करता है। क्षायिक सम्यकत्व के साथ दर्शनलब्धि का वर्णन समाप्त हो जाता है। चारित्रलब्धि में एकदेशचारित्र को अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यकत्व के साथ ग्रहण करता है और सादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशम या वैदिक सम्यकत्व के साथ ग्रहण करता है।
सकल चरित्र तीन प्रकार का होता है—क्षयोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक। कक्षायोपशमिक वर्ण छठे और सातवें गुणस्थान में होता है। वेदक सम्यकदृष्टि जीव को पहले क्षायिक या द्वितीयोपशम सम्यकत्व उत्पन्न होता है, फिर चारित्रमोह का उपशम करता है। तब वह ग्यारहवें उपशाान्त क्षय गुणस्थान में आनन्दित होता है। अन्तर्मुहूर्तकाल के बाद उसका पतन हो जाता है। द्वितीयोपशम सम्यकत्व का काल भी अन्तर्मुहूर्त है। चरित्रमोह का क्षय होने पर जीव बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में आनन्दित होता है। फिर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्म को नष्ट करके तेरहवीं संयोग केवली गुणस्थान में आनन्ददायक होता है और सर्वज्ञ बन जाता है। अन्तर्मुहूर्त प्रमाण आयु शेष रहने पर शेष चारों अघातिया कर्मों का नाश करके तृतीय शुक्ल ध्यान के द्वारा केवल योगली हो जाता है और मुक्त हो जाता है। ६ ९ ९ गाथाओं में से टीकाकार नेमिचन्द्र ने मात्र ३ ९ ९ गाथाओं तक ही टीका लिखी है। यहाँ तक कि चरित्रमोह की उपशमना का वर्णन किया गया है। आगे के चरित्रमोह क्षपणा वाले भाग पर माघचंद्र त्रैविद्या ने संस्कृत टीका लिखी है और उसे क्षपणासार की संज्ञा दी है।
द्रव्यसंग्रह
आचार्य श्रुतसागरसूरि के समय तक द्रव्यसंग्रह के कर्ता के रूप में सी। च. नेमिचन्द्र का ही स्मरण किया जाता था। जैसा निम्न श्लोक से पता चलता है—दंसन पुव्वं नानं, छद्मथानं ण दोण्णि उवोगा। जुगवं जम्हा केवलि णाहे जुगवं तुदे दो वि। पर पं. मुख्तार, द्रव्यसंग्रह (३-६-प्रशंसनीय) आदि शास्त्र ने इसे नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव की कृति मानी है। डॉ. दरबारीलाल कोठिया ने द्रव्यसंग्रह की प्रस्तावना में यह सिद्ध किया है कि इसकी रचयिता केशोरायपाटन (कोटा) निवासी और भोजदेव कालीन (११वीं शती) सिद्धान्तदेव नेमिचन्द्र हैं। च. नेमिचन्द्र नहीं। उन्हें नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव या नेमिचन्द्र मुनि कहा जाता था। वृहद् द्रव्यसंग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव ने उनका परिचय भी दिया है। कोठिया जी ने चार नेमिचन्द्र का उल्लेख किया है प्रथम नेमिचन्द्र सी। च. द्वितीय वसुनन्दि सिद्धान्तदेव, तृतीय नेमिचन्द्र गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका संस्कृत टीका की रचयिता तथा चतुर्थ नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रह की रचयिता। द्रव्यसंग्रहकार के रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव परवर्ती काल वि. थे। सं. ११२५ के आसपास होना चाहिए। लघुद्रव्य संग्रह (५ गा.) और वृहद् द्रव्यसंग्रह (५ गा.) ये दो ग्रन्थ प्राप्त के हैं। वृहद् द्रव्यसंग्रह पंचास्तिकाय की शैली पर लिखी गई है। इसके बावजूद भी यह प्रश्न यथावत है कि द्रव्यसंग्रह के रचयिता सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र हैं या सिद्धान्तदेव नेमिचन्द्र हैं। इसीलिए उनके इस संग्रह में द्रव्यसंग्रह को भी समाहित किया गया है क्योंकि त्रिलोकसार टीका के अनुवाद में माधवचंद्र ने अपने गुरु का नाम नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव लिखा है और अन्तिम गाथा की टीका में स्वकीय गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रीणां या ग्रन्थकर्तृणां नेमिचन्द्र सिद्धान्त देवानाम् सतत सिद्धान्तचक्र और सिद्धान्तदेव पद का उल्लेख किया है। है। प्रयोग एक ही व्यक्तित्व के लिए किया गया है। द्रव्यसंग्रह भी आगमिक ग्रंथों के द्रव्य विषयक तत्त्व का संग्रह है। यह ग्रंथ सामान्य पाठ के लिए अत्यंत उपयोगी है। पंडित प्रवर आशाधर ने अपने अनगारधर्मामृत टीका में और वसुनन्दि सिद्धान्तदेव ने उपासकाध्यायन में नेमिचन्द्र का उल्लेख बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से किया है। इसमें छह द्रव्य, सप्त तत्व, नौ पदार्थ, पंच परमेष्ठी, ध्यान आदि के लक्षणों को व्यवहार और निश्चित की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। ये लक्षण आनंददायक, सुबोध और प्रामाणिक हैं।
त्रिलोकसार
त्रिलोकसार करणानुयोग का ग्रंथ है जिसमें लोक—अलोक का विभाग, उत्सर्पिणी आदि रूप में कालभेद, चतुर्गति, गुणस्थान मार्गणा, जीवसमास आदि का वर्णन है। इसमें कुल १०१८ गाथाएँ हैं जो ६ अधिकारों में विभक्त हैं—
१) लोकसामान्याधिकार,
२) भवनधिकारी,
३) व्यन्तरलोकाधिकार,
४) ज्योतिर्लोकाधिकार,
५) वैमानिक लोकाधिकार और
६) नरकतिर्यक्लोकाधिकार।
इसका आधार ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति और तत्वार्थराज रावतिका के तृतीय तथा चतुर्थ अध्याय हैं। जैन परम्परा में करणानुयोग के अन्य ग्रंथ हैं—षड्खण्डागम, तिलोयपण्णत्ति, जम्बूद्वीपपण्णत्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्ड, वृहत् क्षेत्रसमास, वृहत् संग्रहणी आदि। १. लोकसामान्य व नरक अधिकार में लोक, अलोक आदि की परिभाषा देते हुए मान के लोक और लोकोत्पत्ति के भेद से छह भेद बताये गए हैं—मान, उन्मान, अवमान, गणनामान, प्रतिमान और तत्प्रतिमान। गणना के तीन भेद हैं—संख्यात, असंख्यात और अनन्त। अनेकात के तीन भेद हैं—परीतानन्त, युक्तासंख्यात, तथा अनेकतासंख्यात। इसी प्रकार अनन्त के भी तीन भेद हैं—परितानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त। संख्यात का कोई भेद नहीं। इस प्रकार गणना के कुल २० भेद होते हैं—१ ± ३ ± ७ ± ३ · २०।
इसी अधिकार में चौदह धाराओं का भी वर्णन मिलता है—
१. सर्वधारा,
२. समधारा,
३. विषमधारा,
४.. कृतिधारा,
५. अकृत्रिधा
६. घनधारा,
७. अघनधारा
८. वर्गमातृका या वर्गमातृका
९. अकृतिमातृका या अवर्गमातृका
१० घनमातृका
. अघनमातृका
12. … द्विरूपघनधारा और
४. द्विरूपघनाघनधारा।
उपमा प्रमाण के ८ भेद हैं—पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरंगुल, घनांगुल, जगच्छ्रेणी, जगत्प्रतर और लोक। अधोलोक और ऊध्र्वलोक के सागर भी नरकों के पाताल का वर्णन हुआ है। इन पर्वतों को निकालने के लिए सामान्य, ऊध्र्वयत, तिर्यगायत, यवमुरज, यवमध्य, मन्दर, दूष्य और गिरिकटक इन आठ प्रसंगों का चित्रण किया गया है।
२. भवनाधिकार में भवनवासी देवों और इंद्रों तथा उनकी भवन संख्या का वर्णन है। ये देव मनुष्य पर्याय में तपश्चरणकर पूज्य संचय करते हैं, देवयु का बंध करते हैं और सम्यकत्व से च्युत भवनवासी देव धन्य मनोहर इष्ट भोग भोगते हैं। परिषद, अनीक आदि देवों का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।
३. व्यन्तरलोकाधिकार व्यन्तर देव आठ प्रकार के होते हैं—किन्नर, इनकुसुर, महाराज, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच। उनके परिवार, प्रसाद, नगर विमान आदि का भी वर्णन मिलता है।
४. ज्योतिर्लोकाधिकार चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक तोर ये ज्योतिषी देवों के पांच भेद हैं। इनसे सम्बद्ध द्वीपों और समुद्रों की चर्चा की गई है। उनके व्यास और उनके रहने वाले प्रशंसकों की अवगाहना आदि का भी वर्णन है। चन्द्र और सूर्य की अवस्थिति, देवियाँ, संख्या, आयु आदि का वर्णन है।
५. वैमानिक लोकाधिकार में सोलह स्वर्गों, उनके युग्मों और इन्द्रों की विस्तृत चर्चा है। उनका नगर, मुकुट चिन्ह, वन, चैत्यवृक्ष, प्रवीचार, आयु, कुल आदि का वर्णन है। ६. नरक—आधाई द्वीप तथा नंदीश्वर में तिर्यग्लोकाधिकार, कुंडलगिरि और रुचकगिरि, मेरु, कुलाचल, सरोवर, नदी, ऊन, भोगभूमि—कर्मभूमि का विभाग। त्रिलोकसार के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र ही हैं। उन्होंने अपनी प्रथम गाथा में ”बलगोबिन्द सिंहामणि किरणकलावरुणचरणः किरणं” को जोड़ते हुए कहा है कि तीर्थंकर नेमिचन्द्र को बलदेव और कृष्ण दोनों नमस्कार करते हैं वहीं टीकाकार माधवचंद्र की दृष्टि से भी यह प्रतीत होता है कि आचार्य नेमिचन्द्र को बल अर्थात् चामुण्डराय और गोविंद अर्थात् राकंमल्लदेव, दोनों प्रणाम करते थे। इसी प्रकार केबद्घ को आचार्य ने त्रिलोकसार की अंतिम गाथा में भी कहा है कि त्रिलोकसार तक की रचनाएँ हैं— इति नेमिचंदमुनिणा अप्सुदेनभयानंदिवच्छेता। रयो तिलोयासारो खमंतु तं बहुसुदैरिया।।गा। १०१ त्रिलोकसार पर आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य माधव चन्द्र ने वृत्तान्त लिखा है। परन्तु आचार्य नेमिचन्द्र ने कुछ गाथाएँ लिखी हैं, जिनमें ‘महावचण्डुद्ध्रिया’ मूल माधव चन्द्र द्वारा रचित गाथाओं का भी संकलन किया गया है। वे परकर्म, तिलोयपन्नति तथा लोकविभाग आदि ग्रंथों से भी गाथाएँ आकृत की हैं। इस प्रकार आचार्य नेमिचन्द्र सी. च. ने दिगम्बर जैन प्राकृत आगमों के आधार पर अपने ग्रंथों की रचना की है। यह ग्रन्थ भले ही संग्रह ग्रन्थ जैसे स्वरूप में हो, पर उसकी मूलता भी उनमें प्रतिबिम्ब होती है। इस दृष्टि से उन्हें मूल ग्रंथों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।