जय जय प्रभुवर, चौबिस जिनवर की, मंगल दीप प्रजाल के
मैं आज उतारूं आरतिया ।टेक.।।
समवसरण के बीच प्रभूजी, नासादृष्टि विराजें।
गणधर मुनि नरपति से शोभित, बारह सभा सुराजें।।प्रभू जी.।।
ओंकार धुनी, सुन करके मुनि, रत रहें स्वपर कल्याण में
मैं आज उतारूं आरतिया।।१।।
चार दिशा के मानस्तंभों, में जिनप्रतिमा सोहें।
चारों ही उपवन भूमी में, चैत्यवृक्ष मन मोहे।।प्रभू जी.।।
करके दर्शन, प्रभु का वंदन, सम्यक् का हुआ प्रसार है।
मैं आज उतारूं आरतिया ।।२।।
पंचम ध्वजा भूमि के अंदर, ऊँचे ध्वज लहराएं।
मालादिक चिन्हों से युत हो, जिनवर का यश गाएं।।प्रभू जी.।।
है कल्पवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष, जिनमें प्रतिमा सुखकार है,
मैं आज उतारूं आरतिया।।३।।
भवनभूमि के स्तूपों में, जिनवर बिम्ब विराजें।
द्वादशगण युत श्रीमंडप में, सम्यग्दृष्टी राजें।।प्रभू जी.।।
अगणित वैभव, युत बाह्य विभव से, शोभ रहे भगवान हैं,
मैं आज उतारूं आरतिया।।४।।
धर्मचक्रयुत गंधकुटी पर, अधर प्रभू रहते हैं।
ऐसे जिनवर की आरति से, भव आरत टरते हैं।।प्रभू जी.।।
जय कल्पतरू, चंदना प्रभू, तव महिमा अपरम्पार है।
मैं आज उतारूं आरतिया।।५।।