पूर्णज्ञान लक्ष्मी महा, मुक्ति सहेली सिद्ध।
नमूं नमूं नित भक्ति से, पाऊँ सौख्य समृद्ध।।१।।
जय जय अनंत गुण समूह सौख्य करंता।
जय जय श्री अरिहंत घातिकर्म के हंता।।
जय जय अनंतदर्श ज्ञानवीर्य सुख भरे।
जय जय समवसरण विभूति सर्व निधि धरें।।२।।
केवलरमा को सेवतीं संपूर्ण ऋद्धियाँ।
उस आगे आगे दौड़ती हैं सर्व सिद्धियाँ।।
सब भूत भविष्यत् व वर्तमान को लखें।
पर्याय सभी गुण सभी तत्काल इव दिखें।।३।।
दर्पण समान स्वच्छज्ञान में जगत दिखे।
त्रैलोक्य अरु अलोक प्रतिबिम्ब सम दिपे।।
संपूर्ण प्रदेशों से दर्शज्ञान प्रगटता।
व्यवधान रहित ज्ञान अतीन्द्रिय विलसता।।४।।
पंचेन्द्रियाँ औ मन भी सहायक नहीं वहाँ।
कैवल्यज्ञान इसी से असहाय है यहाँ।।
प्रतिपक्ष रहित एक अकेला स्वतंत्र है।
इससे ही आतमा का राज्य एकतंत्र है।।५।।
इसके अनंत चमत्कार आर्ष में कहे।
शाश्वत अनंत सौख्य का भंडार यह रहे।।
कैवल्य के गुणों को कोई गा नहीं सके।
मां शारदा गणधर गुरू भी हारकर थके।।६।।
फिर भी हुआ वाचाल मैं गुणगान कर रहा।
पीयूष एक कण भी मिले सौख्य कर अहा।।
हे नाथ! बात एक मेरी राख लीजिये।
‘कैवल्य ज्ञानमती’ रवि प्रभात कीजिये।।७।।
केवलज्ञान महान में, लोकालोक समस्त।
इक नक्षत्र समान है, नमूँ नमूँ सुखमस्तु।।८।।