सुनो बंधुओं आज तुम्हें मैं इक इतिहास सुनाती हूँ।
क्षमा क्रोध के द्वन्द की मैं रोमांचक कथा बताती हूँ।।
है नगरि अयोध्या अवधपुरी में शाश्वत जन्मभूमि मानी।
इतिहास पुराणों में इसकी गौरव गाथा वर्णित जानी।।१।।
पर वर्तमान में काल अभी हुण्डावसर्पिणी आया है ।
अघटित घटनाएँ हों इसमें, आचार्योें ने बतलाया है ।।
है काल प्रभाव जो वर्तमान में केवल पाँच प्रभू जन्में ।
उन्नीस शेष तीर्थंकर जिन हैं, अलग-अलग भू पर जन्में ।।२।।
उनमें तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जिनवर जाने।
वह जन्में नगरि बनारस में, उस भू को परम पूज्य मानें।।
पितु अश्वसेन वामा माता उस नगर के राजा-रानी थे ।
रत्नों से खचित महल उनका, जिनभक्त परम चहुँ नामी थे ।।३।।
यह वही बनारस नगरी थी, जहाँ पहले प्रभू सुपार्श्व हुए।
उस निकट चन्द्रपुरि नगरी में, श्री चन्द्रप्रभू जिनराज हुए।।
हैं सिंहपुरी अब सारनाथ, श्रेयांसनाथ प्रभु जन्में थे ।
उस वाराणसि के कण-कण में, इतिहास अनेकों पनपे थे ।।३।।
अब सुनो! इक दिवस वामा माँ, गहरी निद्रा में सोई थीं ।
सोलह सपने सुन्दर दीखे, आश्चर्यचकित उठ बैठी थीं ।।
उन ब्रह्ममुहूर्त के सपनों का फल निज स्वामी से जब पूछा।
पतिदेव कहें हे देवि सुनो! तव गर्भ में तीर्थंकर प्रकटा।।४।।
ऐसा सुन रोमांचित माता, पति को प्रणाम कर हर्षमुद्रा ।
वाराणसि में छाईं खुशियाँ, महलों में आनंद उत्सव था ।।
सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से, आ धनद रत्न बरसाता था ।
१५ महिनों तक वृष्टि हुई, धरती अम्बर हरषाता था ।।५।।
शुभ पौष वदी एकादशि की शुभ घड़ी धन्य धन हो आई।
जब प्रभुवर ने था जन्म लिया, स्वर्गों में भी खुशियाँ छाईं।।
सब इन्द्र सपरिकर उमड़ पड़े, प्रभु का जन्मोत्सव खूब किया।
मेरू की पांंडुशिला पर जा, तीर्थंकर शिशु का न्हवन किया।।६।।
स्वर्गों से लाए दिव्य वस्त्र से, शचि ने किया अलंकृत जब।
प्रभुवर की शोभा न्यारी थी, लिखने में नहिं लेखनि सक्षम।।
जन्मोत्सव कर प्रभु को सौंपा, सुर आज्ञा ले निज द्वार चले।
प्रभु झूल रहे हैं रत्न पालना, उनकी उपमा कौन धरे।।७।।
अब शैशव से बचपन आया, फिर तरूणाई ने घेर लिया।
पितु-मात ने सोचा हुआ युवा, परिणय का तुरत विचार किया।।
पर तभी एक अनहोनी सी, घटना उनके समक्ष आई।
इक दूत अयोध्या नगरी से, लाया कई भेंट सुनो भाई।।८।।
युवराज पार्श्व ने पूछा सुन रे दूत! कहाँ से आया है ।
ऐसी अनुुपम और दिव्य वस्तु, किस हेतु, कहाँ से लाया है ।।
सुन दूत अयोध्या नगरी का, ज्यों-ज्यों वर्णन करता जाता।
युवराज पार्श्व का मन विरक्त, त्यों-त्यों प्रतिपल होता जाता।।९।।
निज अवधिज्ञान से जान लिया, ऋषभेश्वर का स्मरण किया।
वैराग्य प्रकट ज्यों हुआ तभी, लौकान्तिक सुर आ नमन किया।।
चल पड़े प्रभू पालकि पर चढ़, सुन मात-पिता घबराए थे ।
पर नहीं रोक पाए किंचित्, प्रभु ने ज्यों कदम बढ़ाए थे ।।१०।।
कर सिद्ध प्रभू को नमन लिया, दीक्षा प्रभुवर मुनि श्रेष्ठ बने।
मनपर्यय ज्ञान प्रकट होने से, ऋद्धि सिद्धि से पूर्ण हुए।।
इक समय सघन वन में जाकर, प्रभुवर थे ध्यानारूढ़ हुए।
पापी कमठासुर आ पहुँचा, नीचे देखा तो पार्श्व खड़े।।११।।
रुकते विमान को देख उसे, दश भव का वैर याद आया।
बस उसी समय उस पापी के, मन में कुत्सित विचार आया।।
देखो! यह दश भव का वैरी, मरुभूती मेरा भाई था ।
राजा से दण्डित करवाया, अरु घोर किया अपमानित था ।।१२।।
इसकी रानी को चाहा था बस यही जरा सी गलती थी।
इस दुष्ट ने जो-जो पीड़ा दी, उसका बदला लेता हूँ अभी।।
संवर नामक उस ज्योतिष ने, उपसर्ग तुरंत प्रारंभ किया।
पत्थर फैके, मूसल धारा, आंधी से जग आक्रान्त किया।।१३।।
कैसा उपसर्ग भयानक था, पत्थर को पिघलाने वाला।
पर क्षमासहिष्णू पारस को, नहिं डिगा सका वह मतवाला।।
चढ़ क्षपक श्रेणि पर प्रभुवर ने, घाती कर्मों का नाश किया।
अरु उस पापी ने कर्मबंध कर, दुर्गति का था द्वार लिया।।१४।।
देखा धरणेन्द्र व पद्मावति, आकर के फण का छत्र किया।
देवी ने बनाया सिंहासन, प्रभुवर को उस पर बिठा लिया।।
ध्यानस्थ प्रभू को राग नहीं, नहिं द्वेष किसी पर आया था ।
केवलि जिनवर का समवसरण, इन्द्रों ने आन रचाया था ।।१५।।
यह वही नाग और नागिन थे जिनकी रोमांचक घटना है ।
प्रभुवर के शैशव की उस घटना से भी परिचित होना है ।।
इक बार पार्श्वप्रभु सखा संग क्रीड़ा हेतू वन ओर चले।
उस वन में नाना महीपाल पंचाग्नी तप तप रहे अरे।।१६।।
नाना को लख जब नहीं झुके, तब क्रोध भयानक आया था ।
सोचा दो दिन के छोरे ने, अपमान मेरा कर डाला था ।।
क्रोधित महिपाल उठा फरसा, जलता लक्कड़ चीरने लगा।
प्रभु पार्श्व कहें हे तात सुनो! इसमें हैं नागयुगल रहता।।१७।।
भीषण क्रोधाग्नी में जलकर, ज्यों ही लकड़ी को था चीरा।
निकले थे नागयुगल उसमें, हो रही असह्य उनको पीड़ा।।
उस जली हुई लकड़ी में दोनों, बेचारे अधजले हुए।
उनकी पीड़ा को देख प्रभो!, लगे थे णमोकार मंत्र कहने।।१८।।
सम्बोधन प्रभु का पाकर के, शुभ गती उन्हें बंध गई अरे।
धरणेन्द्र और पद्मावति बन, उपकारी को वह नमन करें।।
उन नागयुगल ने ही आकर, उपकार का बदला चुका दिया।
नाना महिपाल कषाय-भाववश मरा और ज्योतिष्क हुआ।।१९।।
यह वही कमठ का जीव जो नाना, महीपाल के रूप में था ।
मिथ्यात्व भाव से मरने से, वह ही मिथ्यात्वी देव हुआ।।
जब मरूभूति थे पार्श्व प्रभू, यह कमठ रूप में भाई था ।
था दुराचार में लिप्त और अन्यायी, अत्याचारी था ।।२०।।
भाई के मोह में मरूभूति जब लेने इसके पास गया।
क्रोधित हो पटकी शिला तभी, वह मरकर हाथी बन जन्मा।।
हाथी को सांप बन मारा था, मुनि को अजगर बन निगल गया।
ऐसे करते-करते उसने, दस भव तक उनको कष्ट दिया।।२१।।
पर क्षमा के सागर मरुभूति ने, सदा उन्हें था क्षमा किया।
इस क्षमा के बल पर ही उनने, तीर्थंकर प्रकृति बंध किया।।
जब स्वर्ग के सुख भोगे इनने, वह पापी नरकों में घूमा।
फिर भी नहिं क्रोध कभी छोड़ा, हरदम पापों में रहा रमा।।२२।।
अब जब प्रभु पार्श्व बने वह उनका, नाना बनकर जन्मा था ।
पर मिथ्यात्वी था, तापसि था, अतएव वह संवर देव बना।।
अब शायद काललब्धि आई, जो सुमति उसे आ उपजी थी।
उपसर्ग भयानक करने पर भी, प्रभु की क्षमा ही लक्ष्मी थी।।२३।।
प्रभु समवसरण में चतुरंगुल थे, अधर दिव्यध्वनी वहाँ खिरी।
बारहों सभा में बैठ सभी, जीवों ने निज भाषा में सुनी।।
वह संवर भी आकर प्रभु के, चरणों में कैसे पड़ा हुआ।
प्रभु क्षमा करो, प्रभु क्षमा करो, बस एक यही विनती करता।।२४।।
भव-भव से जिनने क्षमा किया, वह आज भला क्यों नहिं करते।
जब पश्चाताप की अग्नि जली, संवर शुभ गति का बंध करे।।
जिस स्थल पर उपसर्ग हुआ, धरणेन्द्र व पद्मावति आये।
फण का जो छत्र बनाया था, वह तीर्थ ‘अहिच्छत्र’ कहलाए।।२५।।
हैं आज भी देवी पद्मावति, धरणेन्द्र सदा राजित वहाँ पर।
जो भक्त सदा मन से ध्याते, आते हैं प्रभु के द्वारे पर।।
प्रभु रक्षक देव सदा भक्तों की, मनवाञ्छा पूरी करते।
देवी पद्मावति की भक्ती, कितनों की ही पीड़ा हर ले।।२६।।
उन केवलज्ञानी प्रभु जी ने फिर मुक्ति कहाँ से पाई है ।
यह भी इतिहास का पन्ना है, उसकी भी कथा सुनाई है ।।
उन केवलज्ञानी जिनवर का, शुभ समवसरण चहुँ ओर रचा।
कितने ही भव्य सुनें वाणी, कितनों का मार्ग प्रशस्त हुआ।।२७।।
शाश्वत तीरथ सम्मेदशिखर, निर्वाणथली मानी जाती।
हुए सिद्ध अनन्तानन्त जहाँ, सुर नर वंदित वह कहलाती। ।
पर कालदोषवश बीस तीर्थंकर, उस स्थल से मोक्ष गए।
अरु चार तीर्थंकर अलग-अलग, स्थानों से हैं मुक्त हुए।।२८।।
प्रभु पार्श्वनाथ ने भी उस स्थल, से शिवरमणी वरण किया।
लोकाग्र शिखर पर राजे जा, है शाश्वत सुख सर्वदा जहाँ।।
सम्मेदशिखर में स्वर्णभद्र है, कूट जहाँ से प्रभुवर ने।
मुक्तिश्री का साम्राज्य लिया, श्रावण सुदि सप्तमि शुभ तिथि में ।।२९।।
वह तीरथ ‘पार्श्वनाथ हिल’ नाम से, सारे जग में ख्यात हुआ।
है विश्ववंद्य वह तीर्थराज, जिसका कण-कण है पूज्य महा।।
उन ही प्रभुवर श्री पार्श्वनाथ का, तृतिय सहस्राब्दी उत्सव।
भारत के कोन-कोने में, इस वर्ष के अन्तर्गत उत्सव।।३०।।
श्री गणिनीप्रमुख ज्ञानमती, माताजी की सम्प्रेरणा मिली।
जिनधर्म की शाश्वत सत्ता की, कीर्ती भूमण्डल पर फैली।।
उन पार्श्वप्रभू को ‘इन्दु’ नमें, अरु नमे ज्ञानमती माताश्री।
भारत माता की गोदी इस, माता से कभी न हो सूनी।।३१।।