(गृहस्थाश्राम में रहते हुये ‘योगी’ के समाज की अहर्निश सेवा में संलग्न किंतु कमलपत्र की भाँति निर्लिप्त महामनीषी के, प्रतिष्ठा-कार्यों एवं कर्मकांडो की दुकानें चलाते तथाकथित प्रतिष्ठाचार्यों के बीच एक ऐसे तपस्वी प्रतिष्ठाविद् के, जिसकी गरिमापूर्ण उपस्थिति एवं सूक्ष्मज्ञान के संबल से प्रतिष्ठाकार्य भी प्रतिष्ठित हो गये हों- ऐसे ही और भी अनेकों गुणविभूषित संतुलित महान् विद्वदरत्न के दर्शन करना हो, तो आज एक ही नाम समाज में निर्विवाद है; और वे हैं संहितसूरि पं. नाथूलाल जी शास्त्री, इन्दौर (म०प्र०)। आज अस्सी वर्ष से अधिक की वृद्धावस्था में भी युवकों को भी आदर्श बन सके-ऐसी सजग, सक्रिया जीवनशैली, सात्त्विक संयमी दिनचर्या एवं अनवरत ज्ञानोपासना को परिलखित रखते हुए वे बीसवीं शताब्दी के जीते-जागते आश्चर्य एवं सचल-सवाक संस्था है; जो आत्महित एवं जनहित में समम समर्पित हैं। पंडितप्रवर नाथूलाल जी शास्त्री के अनन्य कृपापात्र समाजसेवी कर्मठ व्यक्तित्व पद्मश्री बाबूलाल जी पाटोदी के आदरणीय विद्वद्वर्य के प्रति उद्गार उन्हीं के शब्दों में ‘प्राकृतविद्या’ के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं।) जब कभी गुरूवर्य पं० नाथूलाल जी दीख पड़ते हैं, या उनके विविध संपर्कों का स्मरण हो आता है, तो मस्तक आपोंआप श्रद्धा से झूक जाता है। एक सूक्ति है कि ‘‘लक्ष्य तू कर्म-मुक्ति का रख; किन्तु जब तक उस केन्द्र-विन्दु तक तेरी पहुँच नहीं बन जाती, उस पथ के पथिक के रूप में एक आर्दश मनुष्य तो बन।’’ इसके परिपे्रक्ष्य में मैं नि:संकोच कह सकता हूँ कि ‘‘पण्डितजी उस पथ के सर्वोत्तम पथिक हैं।’’ विवेक उनके जीवन में सदैव और सर्वत्र परिलक्षित है। न वे खयाली है और न ही किसी कल्पना-लोक में विहार करते हैं; न वे विशुद्ध आत्मार्थी (यहाँ ‘विशुद्ध’ यानी ‘कोरा’) बनने का उपदेश देते हैं, और न ही वे इस विचार का प्रचार-प्रसार करते हैं कि ‘मात्र क्रियाकाण्डही सर्वस्व है, एसमें ऐड़ी-चोटी लगे रहना धर्म है’ वस्तुत: अतिवादों से उनका कोई सरोकार नहीं है। वे यथार्थवादी हैं और इसलीए श्रावक के ठह कत्तव्यों का प्रतिपल पालन करते हैं। मैने अनुभव किया है कि क्रोा, मान, माया, लोभ की अति उनसे कोसों दूर है। स्पष्टवादिता, धार्मिक संस्कारों के प्रति अविचलता, विनय, वात्सल्य, श्रुतभक्ति उनके जीवन के जर्रे-जर्रे में प्रतिच्छायित है। पण्डित जी ने कई प्रतिष्ठाएँ सम्पन्न करवायी हैं, किन्तु क्या कभी आपने सुना है कि उन्होंने प्रतिष्ठाचार्य हैं, जो प्रतिष्ठाकारक के हाथ की कठपुतली नहीं बनते; वरन् शास्त्रोक्तरीति से प्रतिष्ठाकार्य सम्पन्न करवाते हैं। इस कठोरता के कारण उन्हें कई बार संघर्ष करना पड़ा; किन्तु वे झेके नहीं, सदैव दृढ़, अभीत और अविचल बने रहे; और जब यह अनुभव किया कि प्रतिष्ठाकारक समाज में केवल अपनी नाम-बढ़ावरी के लिए प्रतिष्ठाऐं करवाते हैं, तब उन्होंने प्रतिष्ठाएँ करवाना ही बन्द कर दिया। गौर करने पर हम पायेंगे कि पण्डितजी पुराने और नये विचारों के बीच एक सुदृढ़-शाक्तिशाली सेतुबन्ध हैं; इसीलिए उनके पास युवा, बाल, वृद्ध सभी श्रद्धापूर्वक जाते हैं और अपनी समस्याओं का संतुलित समाधान प्राप्त कर संतुष्ट हो लौटते हैं। बात यह है कि पण्डितजी केवल शास्त्रज्ञ नहीं है, अपितु समाज के अन्धविश्वासों और फिजूल की रूढ़ियों के निरसन में अगुआई करते रहे हैं। समाज में जन्म से मरण तक अनेक अन्धी परम्पराएँ हैं, किन्तु पण्डितजी उनके कट्टर विरोधी हैं। युवावर्ग इसीलिए उनके साथ है कि वे जैनधर्म की वैज्ञानिकताओं में आस्था रखते हैं, उनका प्रतिपादन करते हैं, और एक तर्कसंगत तथ्य के लिए जान की बाजी लगाकर भी जूझना पसंद करते हैं। वे सरल, सौम्य, निश्छल, सबके सुख-दु:ख के साथी, कुशल सामाजिक कार्यकत्र्ता और विवेक-सम्पन्न विद्वान् है। हमने स्वयं देखा है कि वे पूज्य आचार्य श्री विद्यानन्दजी मुनिराज की चातुर्मास-सभाओं में प्रवचन-पूर्व के मंगलाचरण करते थे और किसी विचार के प्रति लोगों की चक्षु उन्मीलित करते थे। मंगलाचरण के रूप में पण्डितजी का औपचारिकता से बहुत ऊपर एक सुबोध, प्रेरक, सुन्दर, लघुप्रवचन ही होता था। आचार्यश्री ने स्वयं उनके गहन-ज्ञान की प्रशंसा की है। जब श्रद्धेय पण्डितजी के सम्मान की चर्चा चली और उनके कानों तक यह खबर पहुँची तब उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘‘मैं इन्दौर छोड़कर चला जाऊँगा। मुझे ऐसे आयोजनों में रुचि नहीं है।’’ इस पर मैंने तथा मेरे मित्रों ने पण्डितजी से निवेदन किया कि ‘‘हम पण्डित नाथूलाल जी शास्त्री का न तो सम्मान ही कर रहे हैं और न ही करना चाहते हैं। वस्तुत: हम तो एक विद्वतपरम्परा का आदर-अभिनन्दन करना चाहते हैं; क्योंकि इतिहास साक्षी है कि पण्डितजी ने सदियों संघर्ष किया है और हमारी श्रुत-संपदा को सुरक्षित रखा है, तथा हमें उसके रसास्वादन का सुवर्ण अवसर प्रदान किया है। हम उसके कृतज्ञ और चिरऋणी है, इसलिए हम उस गौरवशाली पण्डित-परम्परा का सम्मान करने जा रहे हैं, जिससे अधपेट रहकर भी जिनवाणी की रक्षा की और उसे सुरक्षित अक्षुण्ण हमें सौंपा।’’ वर्तमान में पूज्य पण्डित गोपालदास जी बरैया, पूज्यपाद वर्णीजी-महाराज के पदचिन्हों पर हमारे विद्वान् चलें और हमारी अक्षय-अखूट ज्ञान-संपदा की रक्षा करें, सम्मान का मुख्य लक्ष्य यही है। हमें विश्वास है, पूज्य पण्डितजी जहाँ एक ओर अतीत की स्वस्थ परम्पराओं को बचायेंगे (उन्हें व्यर्थ ही नष्ट नहीं होने देंगे); वहीं दूसरी ओर नये संदर्भों में कतिपय नयी स्वस्थ एवं रचनात्मक परम्पराओं का प्रवर्तन भी करेंगे।