जय ऋषभदेव जय अजितनाथ, संभवजिन अभिनंदन जिनवर । जय सुमतिनाथ जय पद्मप्रभ, जिनसुपार्श्व चन्द्रप्रभ जिनवर ।। जय पुष्पदंत शीतल श्रेयांस, जय वासुपूज्य जिन तीर्थंकर । जय विमलनाथ जिनवर अनंत, जय धर्मनाथ जय शांतीश्वर ।।१।। जय कुंथुनाथ अरनाथ मल्लि, जिन मुनिसुव्रत तीर्थेश्वर की। जय नमिजिन नेमिनाथ पारस, जय महावीर परमेश्वर की।। ये चौबीसों तीर्थंकर ही, भव्यों के शिवपथ नेता हैं। ये कर्म अचल के भेत्ता हैं, त्रिभुवन के ज्ञाता दृष्टा हैं।।२।। मलरहित१ पसीना रहित२, क्षीर३ सम रुधिर रूप४ अतिशय सुन्दर। उत्तम संहनन५ श्रेष्ठ आकृति६, शक्ती अनंत७ सुरभित८ तनुधर।। इक सहस आठ लक्षणधारी९, प्रियहित वचनामृत१० मन हरते।। दश अतिशय जन्मसमय से ही, तीर्थंकर के अद्भुत प्रगटें।।३।। चउ सौ कोशों तक हो सुभिक्ष१, आकाश गमन२ नहिं प्राणी३ वध। नहिं भोजन४ नहिं उपसर्ग५ तुम्हें, सब विद्या के ईश्वर६ चउमुख७।। नहिं छाया८ नहिं टिमकार नेत्र९, नखकेश१० नहीं बढ़ते प्रभु के±। घाती के क्षय से दश अतिशय, केवलज्ञानी जिन के प्रगटे।।४।। वर अर्ध मागधी भाषा१ हो, आपस में मैत्रीभाव२ धरें। सब ऋतु के फल अरु फूल खिले३, भू४ रत्नमयी सौंदर्य धरे।। सुरभित५ अनुकूल हवा चलती, सब जन परमानंदित६ होते। वायूकुमार सौगंध्य वायु से, भू७ को धूलिरहित करते।।५।। गंधोदक वर्षा मेघदेव८, करते हरियाले९ खेत खिलें। प्रभु के विहार में स्वर्ण कमल१०, सौगंधित जिनपद तले खिलें।। ऋतु शरद सदृश आकाशविमल११, अति स्वच्छ दिशायें१२ शोभ रहीं। सुरपति आज्ञा से देव परस्पर, आह्वानन कर रहें सही।।६।। यक्षेन्द्रों के मस्तक ऊपर, वरधर्म चक्र१३ अतिशय चमके। तीर्थंकर प्रभु के आगे आगे, हजार आरों१४ से चमके।। तरुवर अशोक१ सिंहासन२ छत्रत्रय३ भामंडल४ सुरदुंदुभि””५।” चौंसठ चामर६ सुर पुष्पवृष्टि७, दिव्यध्वनि८ फैले योजन तक।।७।। देवोपनीत चौदह अतिशय, अठ प्रातिहार्य महिमाशाली। दर्शन व ज्ञान सुख वीर्य चार, आनन्त्य चतुष्टय गुणशाली।। ये छ्यालिस गुण अर्हंतों के, घाती के क्षय से होते हैं। सिद्धों के आठ कर्म क्षय से, उत्कृष्ट आठ गुण होते हैं।।८।। जो क्षुधा तृषा भय क्रोध जरा, चिंता विषाद मद विस्मय हैं। रति अरति राग निद्रा मृत्यू, जनि मोह रोग व पसीना१ हैं।। ये दोष अठारह माने हैं, इनसे नहिं बचा कोई जग में। जो इनको जीते वे जिनेन्द्र, सौ इन्द्रों से नत त्रिभुवन में।।९।। चन्द्रप्रभु पुष्पदंत शशि सम, छवि पार्श्व सुपार्श्व हरित तनु हैं। श्री वासुपूज्य औ पद्मप्रभु, तनु लाल कमल सम सुंदर हैं।। नेमी मुनिसुव्रत नीलमणी, जिन सोलह कांचन तनु सुंदर। ये वर्णसहित भी वर्णरहित, चिन्मूर्ति अमूर्तिक परमेश्वर।।१०।। प्रभु आदिनाथ ने प्रथम पारणा, इक्षूरस आहार लिया। तेईस सभी तीर्थंकर ने, क्षीरान्न प्रथम आहार लिया।। महावीर प्रभू के सब आहारों, में रत्नों की वृष्टि हुई२। तेइस जिन के पहले आहार में, रत्नवृष्टि अतिशायि हुई।।११।। श्री वासुपूज्य मल्ली नेमी, श्री पार्श्वनाथ महावीर कहे। ये पाँचों बाल ब्रह्मचारी, मेरे मन में नित बसे रहें।। श्री वृषभदेव, जिन वासुपूज्य, नेमी प्रभु पर्यंकासन से। बाकी सब जिनवर कायोत्सर्ग, आसन से छूटे कर्मों से।।१२।। श्री वृषभदेव अष्टापद से, श्री वासुपूज्य चंपापुरि से। श्री नेमि ऊर्जयंतगिरि से, महावीर प्रभू पावापुरि से।। सम्मेदशिखर से बीस प्रभू, तीर्थंकर मुक्ति पधारे हैं। इन धाम को नित प्रति वंदू मैं, ये पावन करने वाले हैं।।१३।। शांती कुंथु अर तीर्थंकर, कुरुवंशतिलक त्रिभुवनमणि हैं। मुनिसुव्रत नेमी यदुवंशी, श्रीपार्श्व उग्रकुल के मणि हैं।। श्री वीरप्रभू नाथवंशी, औ शेष जिनेश्वर भुवि भास्कर। इक्ष्वाकुवंश चूड़ामणि हैं, हमको होवें अविचल सुखकर।।१४।। जब तृतियकाल में तीन वर्ष, पंद्रह दिन अरु अठमास बचे। माघवदी चौदश वृषभेश्वर, कर्मनाश शिवधाम बसे।। जब चौथे युग में तीन वर्ष, पंद्रह दिन अरु अठ माह बचे। तब वीरप्रभू कार्तिक मावस में, कर्मनाश शिवधाम बसे।।१५।। तीर्थंकर ज्ञान ज्योति भास्कर, भविजन मन कमल विकासी हैं। अज्ञान अंधेरा दूर करें, सब लोकालोक प्रकाशी हैं।। इन तीर्थंकर की दिव्यध्वनी, मंगलकरणी भवदधि तरणी। चिन्मय चिंतामणि चेतन को, परमानंदामृत निर्झरणी।।१६।। जिन भक्ती गंगा महानदी, सब कर्म मलों को धो देती। मुनिगण का मन पवित्र करके, तत्क्षण शिवसुख भी दे देती।। भक्तों के लिए कामधेनू, सब इच्छित फल को फलती है। मेरे भी ‘ज्ञानमती’ सुख को, पूरण में समरथ बनती है।।१७।। दोहा- तीर्थंकर चौबीस ये, गुणरत्नाकर सिद्ध। नमूँ अनंतों बार मैं, मिले रत्नत्रय निद्ध।।१८।।