श्री पूज्यपाद स्वामी जो कि सर्वार्थसिद्धि ग्रंथ के कर्ता महान् आचार्य हैं उनका बनाया हुआ ‘‘महाभिषेक” प्रसिद्ध है। यह ‘‘इन्द्रध्वज विधान” में छपाया जा चुका है। सन् १९८७ में मैंने इस ‘‘महाभिषेक’ का हिन्दी पद्यानुवाद भी कर दिया है जो कि सभी के लिए सरल बन गया है। श्री पूज्यपाद स्वामी ने अभिषेकपाठ में प्रारंभ में दो श्लोक दिये हैं जिनमें नित्यपूजा के प्रारंभ में करने योग्य विधि का संकेत दिया है पुन: अंत में पैंतीस से चालीस श्लोकों में से अंत के चार श्लोकों में अभिषेक के बाद में करने योग्य पूजा, मंत्रजाप, यक्ष, यक्षी आदि के अघ्र्य का संकेत दिया है। इसे ही देखिए-
पूजा अभिषेक के प्रारम्भ में स्नान करके शुद्ध हुआ मैं अर्हन्त देव को नमस्कार करके पवित्र जलस्नान से, मंत्र स्नान से और व्रत स्नान से शुद्ध होकर आचमन कर, अघ्र्य देकर, धुले हुए सफेद धोती और दुपट्टा को धारण कर, वंदना विधि के अनुसार तीन प्रदक्षिणा देकर जिनालय को नमस्कार करता हूँ तथा द्वारोद्घाटनकर और मुख वस्त्र हटाकर विधिपूर्वक ईर्यापथशुद्धि करके, सद्धभक्ति करके, सकलीकरण करके, जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए भूमिशुद्धि, पूजा-द्रव्य की शुद्धि, पूजा-पात्रों की शुद्धि और आत्मशुद्धि करके भक्तिपूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि से अब जिनेन्द्रदेव का महामह अर्थात् अभिषेक-पूजा प्रारम्भ करता हूँ। पुन: विधिवत् अभिषेक करने का विधान है। पुन: अंत के श्लोक ये हैं-
अर्थ- इस प्रकार जिनेन्द्रदेव की पूजाविधि को पूर्ण करके पूर्वोक्त मंत्र-यंत्रों से विधिपूर्वक आराधनापीठ यंत्र की पूजा करें पुन: चंदन आदि के द्वारा आठ दल का कमल बनाकर कर्णिका में श्री जिनेन्द्रदेव को स्थापित कर पूर्व दिशा में सिद्धों को, शेष तीन दिशा में आचार्य, उपाध्याय और साधु को विराजमान करके पुन: विदिशा के दलों में क्रम से जिनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा और जिनमंदिर को लिखकर बाहर में चूर्ण से और धुले हुये उज्ज्वल चावल आदि से पंचवर्णी मण्डल बना लेवें। इस कमल के बाहर पंचदश तिथिदेवता को, नवग्रहों को, बत्तीस इन्द्रो को, चौबीस यक्षों को, चौबीस यक्षिणी को तथा द्वारपालों को और लोकपालों को विधिवत् मंत्रपूर्वक मैं आह्वानन विधि से बुलाता हूँ । इस तरह पंचोपचारों से मंत्रपूर्वक जिन भगवान की पूजन कर पूर्ववत् मूल मंत्रों द्वारा अनेक प्रकार के पुष्पों से, निर्मल मणियों की माला से या अंगुली से एक सौ आठ जाप्य करके अरहंत देव की आराधना करें। पुन: चैत्यभक्ति आदि शब्द से पंचगुरूभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा स्तवन करके शांतिमंत्र और गणधरवलय मंत्रों को पाँच बार पढ़कर पुण्याहवाचन करना, इसके बाद जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों से पूजित श्रीशेषा-आसिका को मस्तक पर चढ़ाकर जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणा देकर, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके और अमरगण अर्थात पूजा के लिए बुलाये गये देवो का विसर्जन करके जो व्यक्ति ‘‘पूज्यपाद”-जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता है वह ‘‘देवनन्दी” से पूजित श्री विद्वान् मत्र्यलोक और देवलोक में शीघ्र ही सुख को प्राप्त करता है।। ३६ से ४०।। यह अभिषेकपाठ सर्वार्थसिद्धि के कर्ता श्री पूज्यपाद स्वामीकृत ही है। यह अभिषेक पाठ संग्रह की प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है। यथा-‘‘शिलालेख”१ नं. ४० (६४) में निम्नलिखित दो पद्य दिये गये हैं-
यो देवनंदिप्रथमाभिधानो, बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धि:।
श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभि-र्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम्।।१०।।
माख्यातीह स पूज्यपादमुनिप:, पूज्यो मुनीनां गणै:२।।११।।
पहले पद्य में पूज्यपाद स्वामी के तीन नाम प्रख्यात होने का हेतु बताया है अर्थात् जिनका ‘‘देवनंदि” यह प्रथम नाम था, बुद्धि और महानता से जो जिनेन्द्रबुद्धि कहलाए, पुन: देवताओं के द्वारा उनके पाद युगल की पूजा की गयी थी इसलिए वे ‘‘श्री पूज्यपाद” नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। पुन: दूसरे पद्य में उनके बनाये गये ग्रंथों के नाम हैं। अर्थात् जिनका ‘‘जैनेन्द्र व्याकरण” अतुल शब्दों का कथन करता है, जिनकी ‘‘सर्वार्थसिद्धि” सिद्धांत में निपुणता को सूचित करती है एवं जिनका बनाया हुआ ‘‘जैनाभिषेक” छंद ग्रन्थ और ‘समाधिशतक’ उनके श्रेष्ठ कवित्व को कहते हैं ऐसे वे श्री पूज्यपाद मुनिनाथ, मुनियों के समूह से पूज्य हैं। यह शिलालेख शक संवत् १०८५, विक्रम संवत् १२२० में उत्कीर्ण किया गया है। इस अभिषेकपाठ में ‘‘ॐ ह्रीं अत्रस्थ क्षेत्रपालाय स्वाहा। क्षेत्रपालबलिदानम्। इस मंत्र से क्षेत्रपाल को अघ्र्य दिलाया है। आगे दश दिक्पालों का अघ्र्य है। यथा-
ॐ ह्रीं क्रो प्रशस्तवर्णसर्वलक्षणसंपूर्णस्वायुधवाहनवधू-चिन्हसपरिवारा इंद्राग्नियमनैर्ऋतवरुणवायुकुबेरेशानधरणेंद्रसोमनाम-दशलोकपाला! आगच्छत आगच्छत संवौषट्, स्वस्थाने तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ: अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् इदमघ्र्यं पाद्यं गृण्हीध्वं गृण्हीध्वं ॐ भूर्भुव: स्व: स्वाहा स्वधा। इसी ‘‘महाभिषेक” में पंचामृत अभिषेक है उसमें एक मंत्र देखिये, दूध के अभिषेक का- ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वं वं मं मं हं हं सं सं तं तं पं पं झं झं झ्वीं क्ष्वीं हं सस्त्रैलोक्यस्वामिन: क्षीराभिषेकं करोमि नमोऽर्हते स्वाहा।यह अभिषेकपाठ श्री पूज्यपाद स्वामी विरचित ही है और ये पूज्यपाद स्वामी मूलसंघ के महान आचार्य हैं। यह बात सर्वजनविदित है और जब इन आचार्यदेव को महान माना जाएगा तब पुन: इनके द्वारा रचित पंचामृत अभिषेक भी किसे प्रमाणिक नहीं होगा ? सन् १९३६, वीर निर्वाण संवत् २४६२ में पं. पन्नालाल जी सोनी (ब्यावर वाले), राज. ने एक ‘‘अभिषेकपाठ संग्रह’’ प्रकाशित किया था। उसमें सर्वप्रथम श्री पूज्यपाद स्वामी का ही अभिषेकपाठ संगृहीत है। इसके बाद १५ अभिषेक पाठ और दिये गये हैं। ये सभी पंचामृत अभिषेकपाठ हैं। इन सबमें क्षेत्रपाल, दिक्पाल और शासनदेव-देवियों के आह्वानन व अघ्र्य दिये गये हैं। ये सभी अभिषेक पाठ मूलसंघाम्नाय के आचार्यों एवं विद्वानों के द्वारा ही रचे गये हैं।
इनकी तालिका निम्न प्रकार है-अभिषेक पाठ कर्ता के नाम,
महाभिषेक – श्री पूज्यपाद स्वामी ,
बृहत्स्नपन – श्री गुणभद्र भदन्त ,
जिनाभिषे – श्री सोमदेवसूरि ,
लघुस्नपन संस्कृत टीका सहित – अभयनंदिसूरि ,
जैनाभिषेक संस्कृत टीका सहित – गजांकुश कवि ,
नित्यमहोद्योत – पंडित आशाधर सूरि , अभिषेकक्रम – (अज्ञात) ,
जन्माभिषेक विधि – पंडित अप्यपार्य ,
नित्यमह – पं. नेमिचंद्र ,
जिनस्नपन – इन्द्रनंदी योगीन्द्र ,
रत्नत्रयादि अभिषेक – आचार्य सकलकीर्ति ,
सिद्धचक्राभिषेक – भट्टारक शुभचंद्र ,
कलिवुंडयंत्राभिषेक – (अज्ञात) ,
जिनश्रुतगुरू सिद्धरत्नत्रयस्नपन विधि – पंडित आशाधरसूरि ,
भाषापंचामृताभिषेक – (अज्ञात) ,
महाभिषेक या बृहत्स्नपन पंजिका – इन्द्रवामदेव इन अभिषेक पाठों में श्री गुणभद्र भदंत, श्री अभयनंदिसूरि, श्री इंद्रनंदि आचार्य आदि महान आचार्य मूल संघ के महान आचार्य माने गये हैं। इन्हें कोई भी पाप-भीरू विद्वान दुराग्रही नहीं कह सकता है। तब भला इनके द्वारा बनाए हुए ये पंचामृत अभिषेकपाठ अप्रमाणीक कैसे कहे जा सकते हैं? इन अभिषेक पाठों में पुष्पवृष्टि करने के, चंदन विलेपन आदि के प्रमाण विद्यमान हैं।
सबसे बड़ा प्रमाण ‘‘कसायपाहुड़’’ की टीका जयधवला में आता है। देखिए- चउवीस वि तित्थयरा सावज्जा; छज्जीवविराहणहेउसावयधम्मोवएस-कारित्तादो। तं जहा, दाणं पूजा सीलमुववासो चेदि चउव्विहो सावयधम्मो। एसो चउव्विहो वि छज्जीवविराहओ; पयण-पायणग्गिसंधुक्कण-जालण-सूदि-सूदाणादिवावारेहि जीवविराहणाए विणा दाणाणुववत्तीदो। तरुवरछिंदण-छिंदावणिट्टपादण-पादावण-तद्दहण-दहावणादिवावारेण छज्जीवविराहणहेउणा विणा जिणभवणकरणकरावणण्णहाणुववत्तीदो। ण्हवणोवलेवण-संमज्जण-छुहावण-पु (पु) ल्लारोवण-धूवदहणादिवावारेहि जीववहाविणाभावीहि विणा पूजकरणाणुववत्तीदो च। कथं सीलरक्खणं सावज्जं ? ण; सदारपीडाए विणा सीलपरिवालणाणुववत्तीदो।कधमुववासो सावज्जो ? ण; सपोट्टत्थपाणिपीडाए विणा उववासाणुववत्तीदो। थावरजीवे मोत्तूण तसजीवे चेव मा मारेहु त्ति सावियाणमुवदेसदाणदो वा ण जिणा णिरवज्जा। अणसणोमोदरियउत्तिपरिसंखाण-रसपरिच्चाय-विवित्तसयणासण-रुक्खमूलादावणब्भावासुक्कुदासण-पलियंकद्धू-पलियंक-ठाण-गोण-वीरासण-विणय-वेज्जावच्च-सज्झायझाणादिकिलेसेसु जीवे पयिसारिय खलियारणादो वा ण जिणा णिरवज्जा तम्हा ते ण वंदणिज्जा त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे। तं जहा, जयवि एवमुवदिसंति तित्थयरा तो वि ण तेसिं कम्मबंधो अत्थि, तत्थ मिच्छत्तासंजमकसायपच्चयाभावेण वेयणीयवज्जा-सेसकम्माणं बंधाभावादो। वेयणीयस्स वि ण ट्ठिदिअणुभागबंधा अत्थि, तत्थ कसायपच्चयाभावादो। जोगो अत्थि त्ति ण तत्थ पयडिपदेसबंधाणमत्थित्तं वोत्तुं सक्किजदे ? ट्ठिदिबंधेण विणा उदयसरूवेण आगच्छमाणाणं पदेसाणमुवयारेण बंधववएसुवदेसादो। ण च जिणेसु देस-सयलधम्मोवदेसेण अज्जियकम्मसंचओ वि अत्थि, उदयसरूवकम्मागमादो असंखेज्जगुणाए सेढीए पुव्वसंचियकम्मणिज्जरं पडिसमयं करेंतेसु कम्मसंचयाणुववत्तीदो। ण च तित्थयरमण-वयण-कायवुत्तीओ इच्छापुव्वियायो जेण तेसिं बंधो होज्ज, किन्तु दिणयर-कप्परुक्खाणं पउत्तिओ व्व वयिससियाओ।१
आगे शंका-समाधान द्वारा चतुर्विंशतिस्तव का स्वरूप बतलाते हैं-
शंका –छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत श्रावकधर्म का उपदेश करने वाले होने से चौबीसों ही तीर्थंकर सावद्य अर्थात् सदोष हैं। आगे इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हैं-दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। यह चारों ही प्रकार का श्रावकधर्म छह काय के जीवों की विराधना का कारण है, क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरे से पकवाना, अग्नि का सुलगाना, अग्नि का जलाना, अग्नि का खूतना और खुतवाना आदि व्यापारों से होने वाली जीवविराधना के बिना दान नहीं बन सकता है। उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, ईट का गिराना और गिरवाना तथा उनको पकाना और पकवाना आदि छह काय के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है तथा अभिषेक करना, अवलेप करना, संमार्जन करना, चन्दन लगाना, पूâल चढ़ाना और धूप का जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है।
प्रतिशंका- शील का रक्षण करना सावद्य कैसे है ?
शंकाकार- नहीं, क्योंकि अपनी स्त्री को पीड़ा दिये बिना शील का परिपालन नहीं हो सकता है, इसलिए शील की रक्षा भी सावद्य है।
प्रतिशंका- उपवास सावद्य कैसे है ?
शंकाकार- नहीं, क्योंकि अपने पेट में स्थित प्राणियों को पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है, इसलिए उपवास भी सावद्य है। अथवा, ‘स्थावर जीवों को छोड़कर केवल त्रसजीवों को ही मत मारो’ श्रावकों को इस प्रकार का उपदेश देने से जिनदेव निरवद्य नहीं हो सकते हैं। अथवा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, वृक्ष के मूल में, सूर्य के आताप में और खुले हुए स्थान में निवास करना, उत्कुटासन, पल्यंकासन, अर्धपल्यंकासन, खड्गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यानादि क्लेशों में जीवों को डालकर उन्हें ठगने के कारण भी जिन निरवद्य नहीं है और इसलिए वे वन्दनीय नहीं है।
समाधान-यहाँ पर उपर्युक्त शंका का परिहार करते हैं। वह इस प्रकार है-यद्यपि तीर्थंकर पूर्वोक्त प्रकार का उपदेश देते हैं, तो भी उनके कर्मबंध नहीं होता हे, क्योंकि जिनदेव के तेरहवें गुणस्थान में कर्मबंध के कारणभूत मिथ्यात्व, असंयम और कषाय का अभाव हो जाने से वेदनीय कर्म को छोड़कर शेष समस्त कर्मों का बंध नहीं होता है। वेदनीय कर्म का बंध होता हुआ भी उसमें स्थितिबंध और अनुभागबंध नहीं होता है, क्योंकि वहाँ पर स्थितिबंध और अनुभागबंध के कारणभूत कषाय का अभाव है। तेरहवें गुणस्थान में योग है, इसलिए वहाँ पर प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध के अस्तित्व का भी कथन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि स्थितिबंध के बिना उदयरूप से आने वाले निषेकों में उपचार से बंध के व्यवहार का कथन किया गया है। जिनदेव देशव्रती श्रावकों के और सकलव्रती मुनियो के धर्म का उपदेश करते हैं, इसलिए उनके अर्जित कर्मों का संचय बना रहता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि उनके जिन नवीन कर्मों का बंध होता है, जो कि उदयरूप ही हैं, उनसे भी असंख्यातगुणी श्रेणीरूप से वे प्रतिसमय पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा करते हैं, इसलिए उनके कर्मों का संचय नहीं बन सकता है और तीर्थंकर के मन, वचन तथा काय की प्रवृत्तियाँ इच्छापूर्वक नहीं होती है, जिससे उनके नवीन कर्मों का बंध होवे। जिस प्रकार सूर्य और कल्पवृक्षों की प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक होती हैं, उसी प्रकार उनके भी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक अर्थात् बिना इच्छा के समझना चाहिए।
तित्थयरस्स विहारो लोअसुहो णेव तत्थ पुण्णफलो।
वयणं च दाणपूजारंभयरं तं ण लेवेइ।।५४।।
‘‘तीर्थंकर का विहार संसार के लिए सुखकर है परन्तु उससे तीर्थंकरों को पुण्यरूप फल प्राप्त होता है, ऐसा नहीं है तथा दान और पूजा आदि आरंभ के करने वाले वचन, उन्हें कर्मबंध से लिप्त नहीं करते हैं। अर्थात् वे दान पूजा आदि आरंभों का जो उपदेश देते हैं, उससे भी उन्हें कर्मबंध नहीं होता है।
पावागमदाराइं अणाइरूवट्ठियार जीवम्मि।
तत्थ सुहासवदारं उग्घादेंते कउ सदोसो।।५७।।
जीव में पापास्रव के द्वार अनादिकाल से स्थित हैं। उनके रहते हुए जो जीव शुभास्रव के द्वार का उद्घाटन करता है, अर्थात् शुभास्रव के कारणभूत कामों को करता है, वह सदोष कैसे हो सकता है?
इसलिए वे निरवद्य नहीं है, सो उसका ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि चार घातिकर्मों के अभाव से प्राप्त हुई नौ केवललब्धियों से वे सुशोभित हैं इसलिए उनका पाप के साथ संबंध नहीं बन सकता है। इत्यादिक रूप से चौबीसों तीर्थंकर विषयक दुर्नयों का निराकरण करके नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव के भेद से भिन्न चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन के विधान का और उसके फल का कथन चतुर्विंशतिस्तव करता है।प्राकृत भावसंग्रह में श्री देवसेन सूरि ने कहा है-
अंगे णासं किच्चा, इंदो हं कप्पिऊण णियकाए।
वंककण-सेहर-मुद्दी, कुणओ जण्णोपवीयं च।।४३६।।
पीढं मेरुं कप्पिय, तस्सोवरि ठाविऊण जिणपडिमा।
पच्चक्खं अरहंतं, चित्ते भावेउ भावेण।।४३७।।
कलसचउक्वंक ठाविय, चउसु वि कोणेसु णीरपरिपुण्णं।
घयदुद्धदहियभरियं, णवसयदलछण्णमुहकमलं।।४३८।।।
आवाहिऊण देवे, सुरवइ-सिहि-काल-णेरिए-वरुणे।
पवणे जखे ससूली, सपियसवाहणे ससत्थे य।।४३९।।
दाऊण पुज्जदव्वं, बलिचरुयं तह य जण्णभायं च।
सव्वेसिं भंत्तेहि य , बीयक्खरणामजुत्तेहिं।।४४०।।
उच्चारिऊण मंते, अहिसेयं कुणउ देवदेवस्स।
णीर-घय-खीर-दहियं, खिवउ अणुक्कमेण जिणसीसे।।४४१।।
णहवणं काऊण पुणो, अमलं गंधोवयं च वंदित्ता।
सवलहणं च जिणिंदे, कुणऊ कस्सीरमलएंहीं १।।४४२।।
ये देवसेन सूरि दर्शनसार के कर्ता देवसेन सूरि से जुदे हैं। दर्शनसार के कर्ता देवसेन सूरि ने दर्शनसार वि.सं. ९९० में बनाया है। उसमें श्वेताम्बर संघ द्राविड़संघ, यापनीयसंघ, काष्ठासंघ आदि का उल्लेख है परन्तु प्राकृतभावसंग्रह में श्वेताम्बर संघ को छोड़कर औरों का उल्लेख नहीं है। यदि प्राकृत भावसंग्रह और दर्शनसार के कर्ता एक ही होते तो श्वेताम्बर संघ की तरह इन संघों का भी वे उल्लेख करते। इससे मालूम पड़ता है कि प्राकृतभाव संग्रह के कर्ता देवसेन सूरि और हैं तथा दर्शनसार के कर्ता देवसेन सूरि और। संभवत: प्राकृतभावसंग्रह और नयचक्र के कर्ता देवसेन सूरि एक हैं। नयचक्र का उल्लेख स्वामी विद्यानंदि श्लोकवार्तिक में करते हैं। विद्यानंदि स्वामी का समय करीब विक्रम की आठवीं शताब्दी का प्रारंभ सुनिश्चित होता है। इससे मालूम पड़ता है कि भावसंग्रह के कर्ता सातवीं शताब्दी से भी पहले हो गये हैं और उस समय हुए हैं जिस समय कि श्वेताम्बर संघ को छोड़कर काष्ठासंघ आदि की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी।
-इनने वीर नि. संवत् १२०३ (वि.सं. ७३३, शक सं. ५९८) में इस पुराण को बनाया था। आचार्य रविषेण काष्ठासंघ के अनुयायी थे, ऐसी किंवदन्ती प्रचलित है परन्तु यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि काष्ठासंघ की वि.सं. ७५३ में कुमारसेन द्वारा उत्पत्ति हुई है ऐसा दर्शनसार में स्पष्ट उल्लेख है। अत: यह कैसे संभव माना जाए कि रविषेणाचार्य काष्ठासंघी थे। मूलसंघ और श्वेताम्बर संघ के आचार्यों ने इन की खूब ही प्रशंसा की है। इतना ही नहीं, इनके पद्मपुराण का आधार लेकर बड़े-बड़े ग्रन्थो की रचना की है।
आचार्य वसुनन्दी का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है। इनने मूलाचार की आचारवृत्ति में आचार्य अमितगति – कृत श्रावकाचार के कुछ पद्य उद्धरण में दिये हैं। आचार्य अमितगति १०७० के बाद तक जीवित थे। इनने एक मूलाराधना या भगवती – आराधना नाम का ग्रन्थ भी संस्कृत में लिखा है। उसमें उनने इस आराधना की पुष्टि में ‘‘वसुनन्दियोगिमहिता” ऐसा एक पद दिया है, इससे मालूम पड़ता है कि वसुनन्दी और अमितगति दोनों समसामयिक हैं और वह समय विक्रम की ग्यारहवीं सदी है। नागकुमार चरित्र पंचमी कथा में मल्लिषेण आचार्य ने कहा-
आचार्य मल्लिषेण उभयभाषा के चक्रवर्ती थे, पद्मावती और सरस्वती इन पर प्रसन्न थीं।
त्रिषष्टिलक्षण –महापुराण, स्वोपज्ञ टीका युक्त पद्मावतीकल्प, सरस्वतीकल्प आदि अनेक ग्रंथ इनके बनाए हुये हैं। इनमें त्रिषष्टिलक्षण महापुराण को शक संवत ९६९ वि.सं. ११०४ में इनने बनाया था और शक संवत् १०५० वि.स. ११८५ में इनका स्वर्गवास हुआ था। इससे मालूम पड़ता है कि ये कम से कम शतायु थे। जिनसंहिता में भगवद् एकसंधि ने कहा-
ततस्तुर्यरवैव्र्योम-सरत्युद्दामगीतिभि:। अप्युद्धरेन्मुदा पूर्ण-कुम्भं स्नपयितुं प्रभुम्।।१।।। ४०) में की है।
ये जिनसेन आदिपुराण के कर्ता भगवज्जिनसेन से जुदे हैं।
आचार्य वसुनन्दी का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है। इनने मूलाचार की आचारवृत्ति में आचार्य अमितगति-कृत श्रावकाचार के कुछ पद्य उद्धरण में दिये हैं। आचार्य अमितगति १०७० के बाद तक जीवित थे। इनने एक मूलाराधना या भगवती-आराधना नाम का ग्रन्थ भी संस्कृत में लिखा है। उसमें उनने इस आराधना की पुष्टि में ‘‘वसुनन्दियोगिमहिता” ऐसा एक पद दिया है, इससे मालूम पड़ता है कि वसुनन्दी और अमितगति दोनों समसामयिक हैं और वह समय विक्रम की ग्यारहवीं सदी है। नागकुमार चरित्र पंचमी कथा में मल्लिषेण आचार्य ने कहा-
आचार्य मल्लिषेण उभयभाषा के चक्रवर्ती थे, पद्मावती और सरस्वती इन पर प्रसन्न थीं। त्रिषष्टिलक्षण-महापुराण, स्वोपज्ञ टीका युक्त पद्मावतीकल्प, सरस्वतीकल्प आदि अनेक ग्रंथ इनके बनाए हुये हैं। इनमें त्रिषष्टिलक्षण महापुराण को शक संवत ९६९ वि.सं. ११०४ में इनने बनाया था और शक संवत् १०५० वि.स. ११८५ में इनका स्वर्गवास हुआ था। इससे मालूम पड़ता है कि ये कम से कम शतायु थे। जिनसंहिता में भगवद् एकसंधि ने कहा-
पण्डित वामदेव का समय लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध है। १५३९ की लिखी हुई पंजिका की एक प्रति है और १४८८ की लिखी हुयी प्रा. भावसंग्रह की प्रति में इनके बनाए हुए भावसंग्रह के श्लोक प्रक्षिप्त हैं। इससे मालूम पड़ता है कि वि.सं. १५३९ और १४८८ के पूर्ववर्ती लगभग पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध के ये विद्वान हैं। मूलसंघ में एक विनयचन्द्र नाम के आचार्य हो गये हैं, उनके शिष्य त्रिलोककीर्ति और त्रिलोककीर्ति के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र हुए हैं। इन्हीं त्रिलोककीर्ति और लक्ष्मीचन्द्र के पंडित वामदेव शिष्य थे। इनका कुल नैगम कुल था। इनके बनाए हुए त्रिलोकदीपक, संस्कृत भावसंग्रह, महाभिषेक पंजिका आदि ग्रन्थ हैं।
ध्यायति मनसा शुचिना, स्तौति च जिह्वागतै: स्तोत्रै:।।१७।।१
श्रीपालचरित्र में सकलकीर्ति आचार्य ने कहा-कृत्वा पंचामृतैर्नित्य-मभिषेकं जिनेशिनाम्। ये भव्या: पूजयन्त्युच्चै-स्ते पूज्यन्ते सुरादिभि:।।२१-आचार्य सकलकीर्ति आचार्य पद्मनंदी के पट्ट पर हुए हैं। इन्होंने अनेक ग्रन्थ बनाए हैं जो जैन समाज में बड़ी ही भक्ति के साथ पढ़े जाते हैं। इतना ही नहीं, ये बहुत ही प्रामाणिक भी माने जाते हैं। वि.सं. १४९० और १४९२ की इनके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियाँ भी पाई जाती हैं। सुनते हैं, इनका स्वर्गवास १४९९ में गुजरात के महसाना नगर में हुआ था। कहते हैं, वहाँ इनकी समाधि भी बनी हुई है।
पद्मपुराणभाषा में पं. दौलतराम जी ने लिखा है-जो नीर कर जिनेन्द्र का अभिषेक करै सो देवों कर मनुष्यों कर सेवनीक चक्रवर्ती होय, जिसका राज्याभिषेक देव विद्याधर करैं और जो दुग्धकर अरहंत का अभिषेक करै सो क्षीरसागर के जल समान उज्वल विमान के विषैं परम कांति धारक देव होय फिर मनुष्य होय मोक्ष पावै और जो दधिकर सर्वज्ञ वीतराग का अभिषेक करै सो दधिसमान उज्ज्वल यश को पाय कर भवोदधि को तरै और जो घृत कर जिननाथ का अभिषेक करै सो स्वर्ग विमानविषैं महाबलवान् देव होय परंपराय अनन्तवीर्य को धरै और जो ईष रस कर जिननाथ का अभिषेक करै सो अमृत का आहारी सुरेश्वर होय। नरेश्वर पद पाय मुनीश्वर होय अविनश्वर पद पावै। अभिषेक के प्रभाव कर अनेक भव्यजीव देवों कर इंद्रों कर अभिषेक पावते भये तिनकी कथा पुराणों में प्रसिद्ध है।(३) १-पद्मपुराण की भाषा पं. दौलतराम जी ने वि.सं. १८२३ में बनाई है। पद्मपुराण के मूलश्लोकों का यह अनुवाद है। यह भाषा जैन समाज में अत्यधिक आदरणीय मानी जाती है। पं. दौलतराम जी जयपुर की तेरहपंथ शैली में एक समादृत विद्वान थे। वसुनंदि – श्रावकाचार भाषा में बाबा दुलीचन्द जी१ ने कहा है- भगवान का गर्भावतार अर जन्माभिषेक, तपकल्याण, ज्ञानकल्याण, निर्वाणकल्याण जिस दिन विषैं हुवा तिह दिन विषै कलशाभिषेक अर प्रभावना करणी। इक्षुरस, घृत, दही, दूध, सुगंध जल का पवित्र नाना प्रकार का कलशां करि अभिषेक करणा। बहुरि रात्रि विषैं जागरण संगीत नाटकादिक जो संगीत नृत्य तथा गानादिक करणा। अर नंदीश्वर के आठ दिन विषैं तथा और भी उचित परव्या विषैं जो करै भगवान की महिमा सो काल पूजा जाणनी, या कालपूजा कही।
(२)संक्षिप्त अर्थ – तदनंतर चारों कोनों में जल से भरे हुए चार कलश स्थापन करने चाहिए तथा मध्य में पूर्ण कलश स्थापन करना चाहिए। इनके अतिरिक्त घी, दूध, दही इनसे भरे हुए कलश भी स्थापन करने चाहिए। इन सब कलशों के मुख पर नवीन सौ दल वाले कमल रखने चाहिए।
(३)तदनंतर देवाधिदेव भगवान अरहंत देव का अभिषेक करना चाहिए। वह अभिषेक अनुक्रम से जल, घी, दूध, दही आदि पदार्थों से मंत्रों का उच्चारण करते हुये भगवान के मस्तक पर से करना चाहिए।
ण्हवणं काऊण पुणो अमलं गंधोवयं च वंदित्ता।
सवलहणं च जिणिंदे कुणऊ कस्सीरमलएहिं।।
स्नपनं कारयित्वा पुन: अमलं गन्धोदवंक च वन्दित्वा।
उद्वर्तनं च जिनेन्द्रे कुर्यात् काश्मीरमलयै:।।४४२।।१
अर्थ- इस प्रकार अभिषेक कर निर्मल गंधोदक की वंदना करनी चाहिए फिर काश्मीरी केसर तथा चंदन आदि से भगवान का उद्वर्तन करना चाहिए। अभिषेक के अनंतर चन्दन, केसर आदि द्रव्यों की सर्वौषधि बनाकर उससे प्रतिमा का उबटन करना चाहिए। फिर कोण कलशों से तथा पूर्ण कलश से अभिषेक करना चाहिए। यह विधि अत्यंत संक्षेप से कही है। इसकी पूर्ण विधि अभिषेक पाठ से जान लेनी चाहिए।
य संखेवं कहियं जो पूयइ गंधदीवधूवेहिं।
कुसुमेहि जवइ णिच्चं सो हणइ पुराणयं पावं।।
इति संक्षेपेण कथितं य: पूजयति गन्धदीपधूपै:।
कुसुमै: जपति नित्यं स हन्ति पुराणवंक पापं।।४४७।।२
अर्थ- इस प्रकार संक्षेप से सिद्धचक्र का विधान कहा। जो पुरुष गंध, दीप, धूप और फूलों से इस यंत्र की पूजा करता है तथा नित्य इसका जप करता है वह पुरुष अपने संचित किये हुये समस्त पापों का नाश कर देता है।
घृतक्षीरादिभि: पूर्णा: कलशा: कमलानना:।
मुक्तादामादिसत्ठाक रत्नरश्मिविराजिता:।।१४।।
जिनबिम्बाभिषेकार्थ-माहूता भक्तिभासुरा:।
दृश्यंते भोगिगेहेषु शतशोऽथ सहस्रश:।।१५।।३
अर्थ-जो घी, दूध आदि से भरे हुए थे, जिनके मुख पर कमल ढके हुए थे, जिनके कण्ठ में मोतियों की मालाएँ लटक रही थी, जो रत्नों की किरणों से सुशोभित थे, जो नाना प्रकार के बेल-बूटों से देदीप्यमान थे तथा जो जिन-प्रतिमाओं के अभिषेक के लिए इकट्ठे किये गये थे, ऐसे सैकड़ों हजारों कलश गृहस्थों के घरों में दिखाई देते थे।
भावार्थ – लंका में स्थित शांतिनाथ चैत्यालय में भक्तिमान लंका के लोग घृत, दुग्ध, दधि आदि से भरे हुए कलश जिनके कि कंठ भाग मोतियों की माला से सुशोभित हो रहे हैं, जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के लिए लाये।
भावार्थ- उस मंदिर में जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के लिए लाये गये जल, दही, दूध, घृत से पूर्ण कलश महान शोभा को प्राप्त हुए, जिनके मुखाग्र भाग कमल पुष्पों से आच्छादित थे। तथा
भावार्थ – पाषाण घटित भी जिनबिम्ब का पंचामृत से अभिषेक तथा आठ प्रकार के पूजन द्रव्यों से पूजन करना चाहिए।द्राक्षाखर्जूरचोचेक्षु प्राचीनामलकोद्भवै:। राजादनाम्रपूगोत्थै स्नापयामि जिनं रसै:।।३
भावार्थ-मैं इक्षु आदि रसों से भगवान का अभिषेक करता हूँ।
तद्विलेपनगंधांबुपुष्पाणि सा ददौ मुदा।
श्रीपालायांगरक्षेभ्य: पाणिभ्यां रुग्विहानये।।४
अर्थात् उस मैना सुंदरी से कुष्ट रोग से पीड़ित अपने पति श्रीपाल राजा तथा उनके सात सौ वीरों को उनके रोग के निवारणार्थ चंदन, अभिषेक का जल तथा पुष्प दिये।
प्राकृत निर्वाणभक्ति में श्री कुन्दकुन्ददेव ने लिखा है-
गोम्मटदेवं वंदमि, पंचसयं धणुहदेहउच्चं तं, देवा
कुणंति वुट्ठी, केसरकुसुमाण तस्स उवरिम्मि।।२७।।५
अर्थात् जिस गोम्मटेश की प्रतिमा के ऊपर देव लोग केशर और पुष्प की वर्षा किया करते हैं, उनको मैं नमस्कार करता हूँ। इस तरह बड़े-बड़े विद्वान आचार्यों के बनाये हुए ग्रंथों में केशर और पुष्प का वर्णन मिलता है। जो यथार्थ एवं आर्षमार्गानुसार है।