मेरु सुदर्शन गिरि को मस्तक नत होकर के प्रणमन कर।
उस पर स्थित सोलह जिनगृह सब गृह में प्रतिमा मनहर।।
उन सब जिनगृह जिनप्रतिमा को त्रय शुद्धी से वंदूं मैं।
भक्तिभाव से नितप्रति प्रणमूँ शिवसुख सिद्धी हेतू मैं।।१।।
विदिशाओं में गजदंताचल चार कहे हैं सुन्दरतम् ।
उनमें त्रिभुवनपति जिनवर के मंदिर शोभेंं अति उत्तम।।
उन मंदिर में आप्तप्रभू की प्रतिमाएं शाश्वत शोभें।
नमोऽस्तु उन सबको नित मेरा स्वात्मजन्य सुख मम होवे।।२।।
षट्कुल पर्वत पर चैत्यालय रत्नमयी शोभें शाश्वत।
उन गृह में प्रतिमाएं इक सौ आठ प्रमाण सभी में नित।।
अकृत्रिम जिनबिम्ब मनोहर उनको मुद से नमूं सदा।
शिव सुख विभव प्राप्ति के हेतू षट् जिनमंदिर नमूं मुदा।।३।।
पूर्व और पश्चित विदेह के शुभ वक्षारगिरी षोडश।
उन पर षोडश जिनमंदिर हैं अकृत्रिम रत्नों के शुभ।।
उनमें राजित जिनवर प्रतिमा को वंदूं त्रयकाल मुदा।
भव भय अग्नि शांत करने को शिर नत हो मैं नमूं सदा।।४।।
पूर्वापर बत्तिस विदेह में बत्तिस रजताचल पर्वत।
उन पर बत्तिस जिन चैत्यालय अकृत्रिम शोभें संतत।।
उनमें राजित जिनवर प्रतिमा भक्ति भाव से वंदूं मैं।
भव संताप नाश मम होवे त्रिकरणशुचि से अर्चूं मैं।।५।।
भरतक्षेत्र अरु ऐरावत में दो विजयारध पर्वत हैं।
उन पर जिनमंदिर दो राजें भावभक्ति से वंदूं मैं।।
उन मंदिर में जिनवर प्रतिमा वंदन करूं सदा शुचि से।
मन प्रसन्नता हेतु नमूँ मैं भव दुख नाश करूं झट से।।६।।
जम्बू शाल्मलि दो वृक्षों पर दो जिन चैत्यालय शाश्वत।
उनमें जिनवर की प्रतिमाएं रत्नमयी शोभें नितप्रति।
भवदुःख अंतक जिनवर के प्रतिबिम्ब उन्हें मैं नमूँ सदा।
भवदुःख शांति हेतु भक्ती से सतत संस्तवन करूं मुदा।।७।।
मेरु सुदर्शन के षोडश जिनगृह गजदंत गिरी के चार।
कुलगिरि के षट् कहै विदेह क्षेत्र के षोडशगिरि वक्षार।।८।।
रजताचल के चौंतिस जिनगृह जंबू शाल्मलि के दो जान।
ये सब अठहत्तर चैत्यालय उनको नमूं सदा सुखदान।।९।।
मुनिगण वंदित पाद सरोरुह सुरपति नाग नरेन्द्र नुतं।
त्रिभुवन जिनगृह शाश्वत जितने मनः विशुद्धि हेतु प्रणमन।।१०।।
मंगल द्रव्य विविध तोरण घट धूप कुंभ मंगल शोभें।
मणिमाला से अनुपम जिनगृह मनः शुद्धिकृत प्रणमूं मैं।।११।।
भरतक्षेत्र में वृषभ आदि चौबिस तीर्थंकर का वंदन।
ऐरावत में भी चौबिस ही उनको मेरा नित्य नमन।।१२।।
विदेहक्षेत्र में सीमंधर युगमंधर बाहु सुबाहू जिन।
वर्तमान केवलि श्रुतकेवलि ऋषिगण आदिक उन्हें नमन।।१३।।
जंबूद्वीप में जितने भी तीर्थंकर गणधर औ यतिगण।
सिद्ध हुए होते औ होंगे उनको उन क्षेत्रों को नमन।।१४।।
पंचकल्याणक भूमि तथा अतिशययुत क्षेत्र सभी प्रणमूं।
कृत्रिम-अकृत्रिम जिनप्रतिमा जिनगृह को भी नित्य नमूं।।१५।।
धातकि पुष्करार्ध द्वीपों में इष्वाकार गिरी ऊपर।
मनुजोत्तर नग पर जिनगृह हैं नंदीश्वर वर द्वीप रुचिर।।
रुचकगिरी कुंडल पर्वत पर जितने जिनमंदिर राजें।।१६।।
उन मंदिर के जिनबिंबों को वंदूं पाप तिमिर भाजें।।
त्रिभुवन में जो भवनवासि व्यंतर ज्योतिषगृह स्वर्गों में।
श्री जिनवरगृह शोभित होते उनमें प्रतिमा अगणित हैं।।
ये सब त्रिभुवन पूज्य जिनालय साधुगणों से वंदित हैं।
वंदूं सबको सदा मुझे वे जिनगुण संपत्ती देवें।।१७।।
नमोऽस्तु जिनप्रतिमा को मेरा सकल ताप विच्छेद करो।
नमोऽस्तु जिनप्रतिमा को मेरा सकल दोष से शुद्ध करो।।
नमोऽस्तु जिनप्रतिमा को मेरा सकल सौख्य संसिद्धि करो।
हे जिनदेव! पवित्र करो मम भव से रक्षा झटिति करो।।१८।।
नमोऽस्तु अकृत्रिम जिनमंदिर तीन लोक संपद्भर्ता।
नमोऽस्तु परमात्मन्! परमेष्ठिन्! सकललोकचूड़ामणिनाथ।।
नमोऽस्तु जिनप्रतिमा को मेरा सकल दोष विच्छेद करो।
राग मोह युत मम अज्ञानवान् मन झटिति पवित्र करो।।१९।।
जंबूद्वीप जिनालय संस्तुति, भक्ति से मैं करूं मुदा।
अर्हत् ‘‘ज्ञानमती’’ श्री मुझको होवे झटिति कर्म भिदा।।२०।।
भगवन! जंबूद्वीप भक्ति का कायोत्सर्ग किया उसके।
आलोचन करने की इच्छा करना चाहूँ मैं रुचि से।।
जंबूद्वीप प्रथम यह इसमें मंदिरगिरि गजदंताचल।
रूपाचल वक्षार कुलाचल जंबू तरु शाल्मलि तरुवर।।१।।
इनमें शाश्वत जिनगृह, विदेह बत्तिस दो भरतैरावत।
चौंतीस कर्मभूमि के आर्यखंड में जिनगृह नर सुर कृत।।
तीर्थंकर केवलि गणधर श्रुतकेवली विविध ऋद्धि के ईश।
ऋ़षि मुनि यति अनगार तथा सीमंधर आदि चार तीर्थेश।।२।।
कर्मभूमि में पंचकल्याणक क्षेत्र व अतिशय क्षेत्र बहुत।
इन सबको मैं अर्चूं पूजूं वंदन करूं नमूं नित प्रति।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय होवे बोधि लाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं मम जिनगुणसंपति होवे।।३।।