रस पाँच वर्ण भी पाँच गंध, द्वय आठ तथा स्पर्श कहे। निश्चयनय से नहिं जीव में ये, इसलिए अमूर्तिक इसे कहें।। व्यवहार नयाश्रित कर्मबंध, होने से मूर्तिक भी जानो। एकांत अमूर्तिक मत समझो, नय द्वय सापेक्ष सदा मानो।।७।।
पाँच रस, पाँच वर्ण, दो गंध और आठ स्पर्श, निश्चयनय से ये जीव में नहीं हैं चूँकि ये बीस गुण पुद्गल के हैं अत: जीव अमूर्तिक है तथा जीव के साथ कर्मबंध लग रहा है इसलिए व्यवहारनय से मूर्तिक है। सफेद, पीला, नीला, लाल और काला ये पाँच वर्ण हैं, तिक्त, कटु, कषायला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस हैं, सुगंध और दुर्गंध ये दो गंध हैं तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, मृदु, कर्कश, गुरु और लघु, स्पर्श के ये आठ भेद हैं, ये सब पुद्गल में पाये जाते हैं। शुद्ध निश्चयनय से सभी संसारी जीव शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी होने से शुद्ध हैं अत: शुद्ध निश्चयनय से सभी जीव अमूर्तिक ही हैं अर्थात् सभी संसारी जीव शक्तिरूप से अमूर्तिक हैं तथा सिद्ध जीव व्यक्तरूप से अमूर्तिक हैं। प्रश्न यह उठता है कि यदि जीव अमूर्तिक है तो उसे कर्मबंध वैसे होगा ? तब ग्रन्थकार कहते हैं कि यह जीव व्यवहारनय से मूर्तिक है इसीलिए इसके कर्मबंध होता है अथवा संसारी जीव के कर्मों का संबंध अनादिकाल से ही चला आ रहा है इसलिए संसारी जीव अमूर्तिक न होकर मूर्तिक ही है। यह कौन सा व्यवहारनय है ? यह अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। अनन्त ज्ञान आदि की उपलब्धि होना मोक्ष है, इस मोक्ष से विपरीत जो कर्मबंध है, वह अनादिकाल से इस जीव के साथ चला आ रहा है इसीलिए यह संसारी जीव मूर्तिक है, अत: जीव कथंचित् मूर्तिक है, कथंचित् अमूर्तिक है। कहा भी है-
कर्मबंध के प्रति जीव की एकता है और लक्षण की अपेक्षा उस कर्मबंध से भिन्नता है। इसलिए एकांत से जीव का अमूर्तिक भाव नहीं है अर्थात् कर्मबंध की अपेक्षा जीव मूर्तिक है और लक्षण से अमूर्तिक है क्योंकि जैसे जीव का लक्षण ज्ञान दर्शन है वैसे ही अमूर्तिक भाव भी जीव का लक्षण है। यहाँ टीकाकार कहते हैं- जिस अमूर्तिक आत्मा की प्राप्ति नहीं होने पर यह जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है, मूर्तिक पंचेन्द्रिय विषयों का त्याग करके उसी अमूर्तिक स्वभावी अपनी शुद्ध आत्मा का निरंतर ध्यान करना चाहिए। श्री अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में यह चर्चा उठाई है-‘जीव अमूर्तिक है अत: कर्मों से उसका अभिभव-तिरस्कार नहीं होना चाहिए ?’ आचार्य कहते हैं कि एकांत से जीव अमूर्तिक नहीं है चूँकि कर्म के साथ संबंध होने से जीव कथंचित् मूर्तिक है तभी तो कर्मों से उसकी स्वभाव हानि देखी जा रही है। जीव का स्वभाव सर्वज्ञानदर्शी है फिर भी ज्ञानावरण आदि कर्मों के निमित्त से जीव के ज्ञान-दर्शन गुणों पर आवरण आ रहा है इसीलिए जीव का ज्ञान दर्शन पूर्ण न होकर अल्प-अल्प दिख रहा है। जब रत्नत्रय संपत्ति से इन कर्मों का विनाश हो जाता है तब यह जीव अपने ज्ञान-दर्शन, अमूर्तिक आदि गुणों को पूर्णतया प्रगट कर लेता है। इस प्रकरण से सम्यग्दृष्टि का यह कर्तव्य हो जाता है कि तत्त्वदृष्टि से आत्मा को अमूर्तिक समझकर सतत उसके स्वभाव का चिंतवन करता रहे। आगे-आगे के गुणस्थानों में चारित्र के निमित्त से परिणामों की निर्मलता बढ़ जाने से यही अध्यात्म भावना धीरे-धीरे ध्यान का रूप ले लेती है। आगे प्रश्न होता है कि जीव निष्क्रिय है, अमूर्तिक है, टांकी से उकेरे हुए के समान ज्ञायक एक स्वभाव वाला है तब तो वह कर्मों का कर्ता भी नहीं हो सकता है ? इस पर आचार्य उत्तर देते हैं- ‘यह आत्मा व्यवहारनय से पुद्गल कर्मादि का कर्ता है, निश्चयनय से चेतन कर्मों का कर्ता है और शुद्धनय से शुद्धभावों का कर्ता है।’
व्यवहार नयाश्रित जीव कहा, पुद्गल कर्मादिक का कर्ता। होता अशुद्ध निश्चयनय से, रागादिक भावों का कर्ता।। है कहा शुद्ध निश्चयनय से, निज शुद्धभाव का ही कर्ता। जब नय के भेद मिटा देता, तब होता भव दुख का हर्ता।।८।।
यह जीव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है तथा औदारिक, वैक्रियिक, आहारक ये तीन शरीर और छह पर्याप्ति इनके योग्य पुद्गल पिंडरूप नोकर्मों का कर्ता है। उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से बाह्य पदार्थ जो घट-पट आदि हैं उनका कर्ता है। अशुद्ध निश्चयनय से रागद्वेष, मोह आदि भाव कर्मों का कर्ता है। विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से छद्मस्थ अवस्था में भावनारूप से अनंतज्ञान, सुख आदि शुद्ध भावों का कर्ता है तथा मुक्त अवस्था में शुद्धनय से अनंतज्ञानादि शुद्ध भावों का कर्ता है। यहाँ शुद्ध-अशुद्ध भावों का जो परिणमन है, उसी परिणमन का नाम कर्तृत्व है। हाथ आदि के व्यापारों का कर्तृत्व विवक्षित नहीं है। यहाँ तात्पर्य यही समझना कि प्रत्येक आत्मा संसार अवस्था में ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मों का कर्ता है अशुद्ध निश्चयनय से राग द्वेष आदि भावकर्मों का कर्ता है और शुद्ध निश्चयनय से संसारी आत्मा ही अपने शुद्ध भावों का कर्ता है क्योंकि शुद्धनय से आत्मा सदा शुद्ध ही है कर्मों का संबंध उसके है ही नहीं। उसी प्रकार से यह जीव कर्मों के फल का भोक्ता भी है-
आत्मा व्यवहारनयाश्रय से, पुद्गल कर्मों के फल नाना। सुख-दु:खों को भोगा करता, निज सुख को विंचित् नहिं जाना।। निश्चयनय से निज आत्मा के, चेतन भावों का भोक्ता है। निज शुद्ध ज्ञान दर्शन सहजिक, उनका ही तो अनुभोक्ता है।।९।।
यह आत्मा व्यवहारनय से पौद्गलिक कर्मों के फल ऐसे सुख और दु:खों को भोगता है तथा निश्चयनय से अपनी आत्मा के शुद्ध ज्ञान दर्शन स्वरूप चैतन्य भावों का ही भोक्ता है। यह आत्मा उपचरित असद्भूत व्यवहारनय से इष्ट और अनिष्ट जो पंचेन्द्रियों के विषय सुख या दु:ख हैं उनका भोक्ता है-उनका अनुभव करने वाला है। उसी प्रकार से अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से अभ्यंतर में सुख-दु:ख को उत्पन्न करने वाले ऐसे द्रव्यकर्मरूप साता-असाता के उदय का भोक्ता है और अशुद्ध निश्चयनय से हर्ष-विषाद रूप जो परिणाम हैं उन रूप ही सुख-दु:खों का भोक्ता है। शुद्ध निश्चयनय से सहजानंद परमात्मस्वरूप के सुखामृत का ही भोक्ता है। यह आत्मा जिस स्वाभाविक सुखामृत का अनुभव करने से इन्द्रिय सुख का अनुभव करता हुआ संसार में घूम रहा है वह अतीन्द्रिय सुख ही प्राप्त करने योग्य है। वह अतीन्द्रिय सुख परमात्म अवस्था में ही प्रगट होता है अत: आत्मा से उत्पन्न सहज सुख की उपलब्धि के लिए सतत ही निश्चयनय का अवलंबन लेकर अपनी आत्मा का ध्यान करना चाहिए। इस अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति तभी हो सकती है जब कि यह जीव पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर उनका त्याग कर देता है। मात्र संयम की साधना के लिए इस पौद्गलिक शरीर का आगम की आज्ञा के अनुरूप संरक्षण करता है। युक्त आहार-विहार के द्वारा इसको आहार आदि उपलब्ध कराते हुए तपश्चरण में आनंद का अनुभव करता है। हमेशा यही सोचता रहता है कि अनादिकाल से लेकर आज तक हमने कौन से पदार्थ का भक्षण नहीं किया है ? कौन से शब्द ऐसे हैं जिनको नहीं सुना है और कौन से सुन्दर-असुन्दर स्पर्श ऐसे हैं जिनका हमने स्पर्श नहीं किया है ?-
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गला:। उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा।।
मैंने बार-बार सभी पुद्गलों को भोगा है और छोड़ा है अत: वे सभी पुद्गल आज मेरे लिए उच्छिष्ट के समान हैं अत: उनमें मुझ ज्ञानी को आज कुछ भी इच्छा नहीं है। इस प्रकार की वैराग्य भावना से तन्मय होकर जब इन्द्रिय सुखों का त्याग कर दिया जाता है तभी अतीन्द्रिय सुख के लिए पुरुषार्थ जाग्रत होता है।