प्रस्तुत आलेख का मूल प्रतिपाद्य विषय आचार्य उमास्वामी द्वारा निरूपति सूत्रों में पौद्गलिक स्कंध और उनके निर्माण की प्रक्रिया को आधुनिक रसायन विज्ञान के आलोक में समझना है।
इस आलेख में तत्वार्थसूत्र के निम्नांकित सूत्रों का आधुनिक विज्ञान पर आधारित विश्लेषण किया गया है—
गुणसाम्ये सदृशानाम्।
न जघन्य गुणानाम्।
परस्परोपग्रहो जीवानाम्।
उपर्युक्त सूत्रों का विश्लेषण निम्नांकित बिन्दुओं पर आधारित है—
१. विज्ञानमान्य परमाणु जैन दर्शनकारों की दृष्टि में स्कंध रूप है क्योंकि यह तीन प्रकार के मौलिक कण इलेक्ट्रॉन, पोट्रॉन एवं न्यूट्रॉन के अलावा अनेक प्रकार के सूक्ष्म कणों का समुच्चय होता है।
२. जैन दर्शन मान्य अणु तथा परमाणु समानार्थक हैं, क्योंकि यह पुद्गल की लघुतम इकाई है।
३. आचार्य उमास्वामी द्वारा निरूपित पौद्गालिक स्कंधों के निर्माण की प्रक्रिया में स्निग्ध एवं रूक्ष गुणों का उल्लेख किया गया है। मेरे मतानुसार स्निग्ध का तात्पर्य चिकना तथा रुक्ष का तात्पर्य रूखा से न होकर उस अदृश्य शक्ति से है, जिसकी बंध निर्माण में (स्कंधोत्पत्ति) प्रमुख भूमिका होती है।
४. आधुनिक विज्ञान में इन अदृश्य शक्तियों को धनात्मक आदेशों (पोजीटिव चार्जेज) एवं ऋणात्मक आवेशों (निगेटिव चार्जेज) के नाम से जाना जाता है। तथा इन्हें धन विद्युत एवं ऋण विद्युत भी कहा जाता है।
विज्ञान एक अपूर्ण धर्म है, जबकि धर्म परिपूर्ण विज्ञान है। विज्ञान का दूसरा अर्थ होता है, पूर्ण ज्ञान इसमें सत्य को खोजने वाला व्यक्ति शनै:—शनै: एक—एक सीढ़ी पार करके सत्य को खोजने का प्रयास करता है। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जाता है कि आज का वैज्ञानिक सत्य के निकटतम पहुँचने का प्रयास करता हुआ चलता है, और किसी भी स्टेज पर पहुँचकर वह यह दावा नहीं करता कि उसे विषय के सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो गई है। वास्तव में यदि देखा जाये तो विज्ञान के सिद्धांत कोई अंतिम नहीं हैं, वे समय—समय पर बदलते रहते हैं, उनमें स्थायित्व नहीं होता। एक वैज्ञानिक अपनी खोजों द्वारा जिस सत्य पर पहुँचता है, उसे वह सबके सामने प्रकट कर देता है। जिससे कहीं कोई त्रुटि रह गई हो तो उसे सुधारा जा सके। पुन: दूसरा वैज्ञानिक उस खोज को और अनुसंधान कर आगे बढ़ाता है, और इस तरह विज्ञान के क्षेत्र में सत्य क्या है ? इस बात की निरन्तर कोशिश होती रहती है। यदि सत्य को पाने में पुराने सिद्धांत बाधक बनते हैं, तो उनके स्थान अन्य नये सिद्धांतों की प्रतिष्ठा की जाती है। इसलिये किसी एक सिद्धान्त पर अड़े रहना विज्ञान का काम नहीं है।
वैज्ञानिक किसी धर्म ग्रंथ से या धर्म शास्त्र से भी जुड़ा हुआ नहीं होता, उसकी खोज से यदि किसी धर्म ग्रंथ में र्विणत किसी सिद्धान्त का व्याघात हो तो वह उसकी कतई परवाह नहीं करता लेकिन एक धर्मानुरागी की र्धािमक आस्था सच्चे देव, सच्चे शास्त्र एवं सच्चे गुरुओं की प्ररूपणाओं पर आधारित होती है। र्धािमक आस्था रखने वाला व्यक्ति यह मानकर चलता है, कि भले ही आज का मनुष्य उन मान्यताओं को अपनी सीमित बुद्धि, तर्क और ज्ञान के अन्य साधनों के बल पर प्रमाणित नहीं कर पा रहा हो किन्तु चूंकि आप्त पुरुषों की वाणी आत्मा के प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित है, अत: उसमें कुछ भी असत्य नहीं हो सकता। विज्ञान की ज्यों ज्यों उन्नति होती जायेगी, जैन आप्त पुरुषों की स्थापनायें प्रमाणित होती जायेगी। आप्त पुरुषों की मान्यताओं को समझने के संबंध में एक प्रमुख बाधा भाषा की सीमित शक्ति से संबंधित भी है। केवलज्ञान प्राप्त सकल परमात्मा ने जिस परम सत्य का उद्घाटन किया एवं अपने शिष्यों के समक्ष रखा उसे भाषाबद्ध करने वाले शिष्यों ने अपने सीमित ज्ञान से उसे समझा एवं सीमित शक्ति वाली भाषा में ही लिपिबद्ध करने वाले शिष्यों ने अपने सीमित ज्ञान से उसे समझा एवं सीमित शक्ति वाली भाषा में ही लिपिबद्ध किया अत: उसे केवल अनेकांतवाद के आलोक में ही देखा एवं परखा जा सकता है एवं स्याद्वाद शैली में विनम्रता के साथ निरूपित किया जा सकता है, इस प्रकार यहाँ धर्म में एक श्रद्धालु व्यक्ति अपने धर्म ग्रंथों पर दृढ़ श्रद्धानी होता है, वहां एक वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा खोजे गये सत्य को अपने विश्वास का केन्द्र बिन्दु बनाता है।
वह धर्म ग्रंथों को उतना ही मानता है, जहाँ तक वे अनुभव निरीक्षण और तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हैं। आज के युग में विज्ञान की यह छाप जनमानस के हृदय पटल पर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है। जैन दर्शन के अनुसार संसार या लोक की संरचना जिन छह द्रव्यों से मिलकर हुई है, उन्हें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल नाम से अभिहित किया जाता है। मैं इस आलेख में पुद्गल द्रव्य से संबंधित कतिपय उन बिन्दुओं पर प्रकाश डालना चाहूंगा, जो आचार्य उमास्वामी ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ तत्वार्थ सूत्र में निरूपित किये हैं, किन्तु शताब्दियों के वैज्ञानिक विकास के बावजूद वे स्थापनायें उपेक्षित सी रही या यों कहे कि पूर्व के वैज्ञानिक उन्हें नहीं समझ सके, परन्तु आधुनिक वैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध किया है, कि आचार्य उमास्वामी ने पौद्गालिक स्कंध, पौद्गालिक परमाणु तथा उन विद्युतीय एवं अन्य भौतिक एवं रासायनिक गुणों के संबंध में जो स्थापनायें दी हैं, वे पूर्णत: सत्य हैं। जैनाचार्यों के अनुसार पुद्गल को निम्न सूत्र द्वारा परिभाषित किया गया है।
भेद संघाताभ्यां च पूर्ययन्ते गलन्ते चेति पूरणगलनात्मिकां
क्रियामन्तर्भाव्यं पुद्गल शब्दोअन्वर्य: पुद्गलानाद्वा।
अर्थात् भेद और संघात से पूरण और गलन को प्राप्त हों वे पुद्गल हैं— वैज्ञानिक विश्लेषण :- संलग्न अथवा पूरण : ४११H ——–२ ४ He + २१ ०ा + २६ M ev विखण्डन अथवा गलन : ९२ २३५U + ० १n ——– ५६ १४१ँ Ba + ३६ ९२ Kr + ३ ० १n + २०० M ev इस प्रकार जैनाचार्यों द्वारा पुद्गल की परिभाषा पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है, क्योंकि वैज्ञानिक, द्रव्य में होने वाली उपर्युक्त पूरन गलन की क्रियाओं का होना सिद्ध कर चुके हैं। पौद्गालिक स्कंध एवं उसके परमाणुओं का जैसा सांगोपांग विवेचन जैनाचार्य उमास्वामी ने लगभग दो हजार वर्ष पूर्व किया है, उनकी समानता आधुनिक विज्ञान की सबसे नूतन खोजों के निष्कर्षों में देखकर आश्चर्य होता है। आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित सूत्रों की आधुनिक विज्ञान के आलोक में व्याख्या करने के पूर्व इन सूत्रों में प्रयुक्त स्निग्ध एवं रुक्ष गुण पर पुन: एक बार विचार करना होगा। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश२ में स्पष्ट रूप में लिखा हुआ है कि सभी परमाणु स्पर्श, रस, गंध व वर्ण वाले होते हैं (स्पर्श गुण की आठ पर्यायें होती हैं, स्निग्ध, रुक्ष, शीत, उष्ण, मृदु, कठोर, हल्का एवं भारी) परमाणु में हल्की, भारी या कठोर, नरम रूप पर्याय नहीं पाई जाती हैं, क्योंकि यह संयोगी द्रव्य में ही होनी संभव है। परमाणु जो पुद्गल की लघुतम इकाई है, जब उसमें उपर्युक्त पर्यायों का होना संभव नहीं है, तो फिर इन्हीं पर्यायों से मिलता जुलता चिकना तथा खुरदुरा पर्यायों का होना कैसे संभव है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित सूत्रों में प्रयुक्त स्निग्ध एवं रुक्ष गुण का अर्थ चिकना तथा रूखा (खुरदुरा) से नहीं है, जैसा कि आज की लोक व्यवहारिक भाषा में इसका अर्थ लिया जाता है, बल्कि स्निग्ध एवं रुक्ष से आशय घनात्मक एवं ऋणात्मक विद्युत गुण सम्पन्नता से है। हमारे इस निष्कर्ष की पुष्टि आचार्य पूज्यपाद स्वामी द्वारा सर्वार्थ सिद्धि टीका में र्विणत इस कथन द्वारा भी होती है।
आचार्य पूज्यपाद स्वामी के अनुसार
स्निग्ध रुक्ष गुण निमित्तो विद्युत
अर्थात् गरजे बादलों में स्निग्ध और रुक्ष गुणों के निमित्त से विद्युत उत्पन्न होती है। आधुनिक भौतिक विज्ञान यह सत्यापित कर चुका है कि गरजते मेघों के आपस में घर्षण से मेघ घनात्मक एवं ऋणात्मक आवेश धारण कर लेते हैं। तथा जब विपरीत आवेशित मेघ एक दूसरे के अत्यधिक निकट आ जाते हैं, तब उनमें स्पार्क होने लगता है, जो चमक के रूप में दिखलाई पड़ता है। इस प्रकार आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने धनात्मक (पोजिटिव) तथा ऋणात्मक (निगेटिव) विद्युतीय गुण व्यक्त करने के लिये स्निग्ध तथा रुक्ष शब्दों का उपयोग किया है, न कि चिकना और रूखापन (खुरदुरा) के लोक प्रचलित अर्थ में। जैन दर्शनकारों ने जैसे स्निग्घत्व और रुक्षत्व को बंधन निर्माण का कारण माना है, वैसे ही वैज्ञानिकों ने पदार्थ के धन विद्युत (पोजिटिव) एवं शृण विद्युत (निगेटिव) इन दो स्वभावों को परस्पर संयोग या बोण्ड निर्माण का कारण माना है। जिस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार जहाँ स्निग्धत्व और रुक्षत्व पदार्थ मात्र में मिलता है, वहीं आधुनिक विज्ञान के अनुसार पोजीटिव तथा निगेटिव, पदार्थ मात्र में मिलता है। वस्तुत: जैन दर्शनकारों एवं आधुनिक वैज्ञानिकों की बात में कोई फर्क नहीं है, मात्र शब्द भेद है। आचार्य उमास्वामी ने परमाणु को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है।
नाणों
अर्थात् अणु (परमाणु) एक प्रदेशी है, अथवा पुद्गल द्रव्य की वह लघुतम इकाई है, जिसका आगे और खण्ड न किया जा सके। जैनाचार्य परमाणु को परिमण्डलाकार मानते हैं।
अणव: परिमण्डला
दूरदर्शन के डिस्कवरी चैनल पर १३.०८.२००६ को डिस्कवरी ऑफ यूनीवर्स में भी यह प्रसारित किया गया है, कि पदार्थ के लघुतम अविभाज्य कण गोलाकार छल्लों के रूप में होते हैं, इस तरह हम पाते हैं कि जैनाचार्यों के द्वारा र्विणत परमाणु का स्वरूप एवं आधुनिक वैज्ञानिकों की परमाणु संबंधी अवधारणा एक ही है। आचार्य उमास्वामी ने पुद्गल स्कंधों के स्वरूप और उनकी निर्माण प्रक्रिया के संबंध में जो स्थापनायें दी हैं, उन्हें समझने के लिए यह आवश्यक है, कि हम आधुनिक विज्ञान संबंधी परमाणु अवधारणा एवं जैनाचार्यों की परमाणु अवधारणा के अंतर को ध्यान में रखें। कारण यह है कि विज्ञान जिस लघुकण को इकाई मानकर रासायनिक बंध (केमीकल बोण्ड) की प्रक्रिया को समझता है, वह जैनाचार्यों की दृष्टि से द्रव्य की लघुतम इकाई न होकर अनेक परमाणुओं का समुच्चय है।
१. परमाणु प्रकृति से उदासीन होता है, क्योंकि प्रत्येक परमाणु में धनात्मक कणों (स्निग्ध) तथा ऋणात्मक कणों (रुक्ष) की संख्या समान होती है। अर्थात् प्रत्येक परमाणु में इलेक्ट्रॉन्स (ऋणावेशित कणों) एवं प्रोटॉन्स (धनावेशितकण) की संख्या समान होती है।
२. यदि कोई परमाणु इलेक्ट्रॉन्स का त्याग करता है, तब उसमें त्यागे ये इलेक्ट्रॉन्स की संख्या के तुल्य धन आवेश आ जाता है, अर्थात् वह स्निग्ध गुण रूप हो जाता है। श्० – त- श्+ + त- उदासीन परमाणु स्निग्ध गुण रूप (पोजिटिव)
३. यदि कोई परमाणु इलेक्ट्रॉन्स ग्रहण करता है, तब उसमें ग्रहण किये गये इलेक्ट्रॉन्स की संख्या के तुल्य ऋण आवेश आ जाता है, अर्थात् वह रुक्ष गुण ग्रहण कर लेता है। श्० + त- श्- उदासीन परमाणु रुक्ष गुण रूप (निगेटिव)
४. एक समय में परमाणु उपर्युक्त दोनों पर्यायों में से कोई एक को ही प्रकटाने में सक्षम होता है।
५. रासायनिक बंध के निर्माण में सिर्फ इलेक्ट्रॉन्स ही भाग लेते हैं। प्रोटॉन्स तथा न्यूट्रॉन्स नहीं।
६. परमाणु में चार प्रकार के उपकोश (एल्ं एपत्त्) होते हैं, परन्तु आवश्यक नहीं कि सभी परमाणुओं में चारों एक साथ उपस्थित हों।
७. इन चारों उपकोशों की इलेक्ट्रॉन्स धारण करने की अधिकतम क्षमता क्रमश: २, ६, १० तथा १४ इलेक्ट्रॉन्स की होती है।
८. उपकोशों के आगे और भाग होते हैं, इन्हें कक्षक (आरविटल) कहा जाता है, इनमें से प्रत्येक में सिर्पâ विपरीत चक्रण वाले दो ही इलेक्ट्रॉन्स समाहित हो सकते हैं, दो से अधिक नहीं। आचार्य उमास्वामी द्वारा निरूपित पौद्गलिक स्कंध एवं उनके निर्माण की प्रक्रिया का समझने के लिये आधुनिक रसायन विज्ञान में प्रयुक्त कतिपय पारिभाषित शब्दों के अर्थ स्पष्ट करना आवश्यक है।
किसी उदासीन गैसीय एकल परमाणु के बाह्यतमकोश से बाह्यतम इलेक्ट्रॉन को पृथक करने में लगी ऊर्जा आयनन विभव कहलाती है। इस गुण के कारण उदासीन परमाणु स्निग्ध (धनात्मक) गुण रूप होने की प्रवृत्ति दर्शाता है। श्० – त- श्+ + त- उदासीन स्निग्ध
किसी उदासीन गैसीय एकल परमाणु के बाह्यतम कोश में एक और अतिरिक्त इलेक्ट्रॉन की प्रविष्टि पर उत्र्सिजत ऊर्जा इलेक्ट्रॉन बंधुता कहलाती है। इसी गुण के कारण परमाणु रूक्ष (ऋणात्मक) गुण रूप होने की प्रवृत्ति प्रर्दिशत करता है। श्० – त- श्- उदासीन रूक्ष