एक तुलनात्मक विश्लेषणजैन शास्त्रों में मंत्र विद्या विद्यानुप्रवाद एवं प्राणवाय पूर्वों का महत्वपूर्ण अंग रही है। इसका ७२ कलाओं में भी उल्लेख है। इस विद्या के बल पर ही भूतकाल में अनेक आचार्यों ने जैन तंत्र को सुरक्षित, संरक्षित एवं संबर्धित किया है। फलत: यह एक प्राचीन विद्या है जो महावीर के युग से पूर्व भी लोकप्रिय रही होगी। शास्त्रों में इसका विवरण ११ दृष्टिकोणों और ९ अनुयोगद्वारों से किया गया है । इसका लक्ष्य आत्म कल्याण और इहलौकिक कल्याण— दोनों हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रारंभ में यह विद्या गोपनीय रही होगी, इसमें गुरु का अपूर्व महत्व था। ऐतिहासिक दृष्टि से इस विद्या के उत्थान—पतन के युग आये। पर ७ वीं सदी के बाद शक्तिवाद और तंत्र विद्या के विकास के साथ इसको पुनर्जीवन मिला और अब तो यह विद्या वैज्ञानिक युग में योग ध्यान के एक अंग के रूप में प्रतिष्ठत हो रही है और व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक कल्याण की वाहक बनती जा रही है। मंत्र शब्द के अनेक अर्थ हैं । मूलत: यह मन की प्रवृत्तियों को नियंत्रित करता है, उन्हें बहुदिशी के बदले एकदिशी बनाता है। यह भौतिक और आध्यात्मिक—दोनों उद्देश्यों की पूर्ति में मनोकामना एवं आत्मानुभूति के लिए अन्त:शक्ति जागरण में सहायक होता है। मंत्रों का स्वरूप विशिष्ट अक्षर रचना, विन्यास एवं विशिष्ट ध्वनि समूह के रूप में होता है जिसके बारम्बार उच्चार से ऊर्जा का उद्भव और विकास होता है जो हमारे जीवन को सुख और शक्तिमय बनाती है। वस्तुत: मंत्रों की साधकता के अनेक आयाम होते हैं।
(१) ये हमारे अशुभ एवं ऋणात्मक कर्मों का नाश कर उन्हें सकारात्मक या आध्यात्मिक रूप प्रदान करते हैं।
(२) ये हमारे भौतिक एवं आध्यात्मिक पथ को प्रशस्त करते हैं
(३) ये हमारे व्यक्तित्व को विकसित करते हैं और हमारे चारों ओर के आभा मण्डल या लेश्या रूपों को प्रशस्तता देते हैं।
(४) ये हमारे लिये चिकित्सक का काम कर हमें स्वस्थ बनाते हैं।
कुछ प्रमुख मंत्र भारतीय धर्म परम्परा में मंत्र—जप एक पुण्यकारी अनुष्ठान माना जाता है। यद्यपि इनका विकास मुख्यत: आध्यात्मिक और पारलौकिक उद्देश्य से हुआ होगा, पर इनसे आनुषंगिक फल के रूप में इहलौकिक उद्देश्य और भौतिक सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। फलत: प्रमुख उद्देश्य के अनुरूप मंत्र भी अनेक प्रकार के होते हैं। कुछ मंत्र आध्यात्मिक होते हैं, कुछ भौतिक कामना परक होते हैं और कुछ तांत्रिक (विष दूर करना आदि) होते हैं। अनेक वर्णों के विशिष्ट सामथ्र्य से भी ये तथ्य प्रकट होते हैं। उदाहरणार्थ, ‘म’ में सिद्धि और संतान का सामथ्र्य होता है, ‘व’ एवं ‘ब’ में रोगादि अनिष्ट निवारण की क्षमता होती है और ‘न’ और ‘द’ आत्म शक्ति जागृत करते हैं। इन विशिष्ट उद्देश्य वाले मंत्रों की तुलना में , कुछ मंत्र ऐसे होते हैं जो सभी प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। इन्हें हम मूल मंत्र भी कह सकते हैं। हम इसी कोटि के केवल चार मंत्रों की यहां चर्चा करेंगे।
जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार, यह सभी मंत्रों का मूल है। यह पंच परमेठियों के प्रथम अक्षरों के संयोग से बना है, अत: पूज्य पुरुषों और उनके गुणों का स्मरण कराता है । यह दर्शन, ज्ञान, चारित्र के त्रिरत्नों का भी प्रतीक है। इसमें तीन अक्षर हैं अ, उ और म् । ये क्रमश: निर्माण, विकास एवं संरक्षण तथा विनाश की प्रक्रियाओं के प्रतीक हैं। यह मंत्र दिव्य ऊर्जा का प्रतीक है। इसे अन्य परंपराओं में भी माना गया है। ‘आमेन’ इसका पश्चिमी रूप है। यह (१) तीन लोक, (२) सत् — ाqचत् — आनंद की त्रयी, (३) सत्व— रज— तम् की त्रिगुणी , (४) वेदत्रयी, (५) देवत्रयी एवं त्रि—ब्रह्मवाद (सर्वव्यापक) आदि का प्रतीक है। यह अनंत और शून्य (वृत) का भी प्रतीक है। इसके विशिष्ट वर्णों का उच्चारण सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करता है और साध्य सिद्धि में उपयोगी होता है।
णमोकार मंत्र— जैन धर्मावलम्बियों में यह मंत्र महामंत्र कहलाता है और इसके जप के प्रभावों से न केवल अनेक पौराणिक कथायें जुड़ी हैं अपितु वर्तमान में भी इसके अनेक कथानक जुड़ते रहते हैं। यह मंत्र अर्थत: अनादि है पर शब्दत: प्रथम—द्वतीय सदी में उद्घाटित हुआ है। यह खारबेल युगीन द्विपदी से पंचपदी में विकसित हुआ है। इसके विषय में अनेक पुस्तके लिखी गई हैं। ३५ अक्षरों वाला यह मंत्र निम्न है : णमो अरिहंताणं आई बो टू एनलाइटेन्ड्स णमो सिद्धाणं आई बो टू साल्वेटेड्स णमो आयरियाणं आई बो टू मिनिस्टर्स णमो उवज्झायणं आई बो टू प्रीसेप्टर्स णमो लोए सव्व साहूणं आई बो टू सेन्ट्स आव आल दी वल्र्ड धवला टीका के अनुसार इसका निम्न अर्थ है : मैं लोक के सभी बोधि प्राप्त पूज्य पुरुषों को नमस्कार करता हूँ । मैं लोक के सभी सिद्धि प्राप्त सर्वज्ञों को नमस्कार करता हूँ । मैं लोक के सभी धर्मोंचार्यों को नमस्कार करता हूँ । मैं लोक के सभी उपाध्यायों (पाठकों) को नमस्कार करता हूँ । मैं लोक के सभी साधुओं (अध्यात्म मार्ग के पथिकों) को नमस्कार करता हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में पांच की संख्या का बड़ा महत्व था। इसीलिए पंचभूत, पंचरंग, पंच— आचार, पांच अणुव्रत/महाव्रत, पांच समिति और पांच आकृतियां स्वीकृत किये गये। इनमें से कुछ को णमोकार मंत्र के विविध पदों से सह सम्बन्धित किया गया है।
सारणी— १: णमोकार मंत्र के पदों के अन्य पंचकों से सह—सम्बन्ध क्र. पद रंग भूत प्राण आकृति प्रभाव १. णमो अरिहंताणं सपेद जल समान अद्र्धचन्द्र विनाशक २. णमो सिद्धाणं लाल अग्नि उदान त्रिकोण संरक्षक ३. णमो आयरियाणं पीला पृथ्वी व्यान वर्ग विनाशक ४. णमो उवज्झायाणं नीला वायु प्राण षट्कोण निर्मायक ५. णमो लोएसव्वसाहूणं धूम्र/काला आकाश अपान वृत्त विनाशक कि इसमें नकारात्मक गुणों के प्रतीक तीन पद हैं। इसका अर्थ यह है इस प्रकार इस मंत्र में ऋणात्मक गुणों को नष्ट कर सकारात्मक गुणों के विकास का गुण हैं। यह स्पष्ट है कि इन गुणों के नाश में बहुत अधिक उर्जा लगती है। नकारात्मक गुणों में राग, द्वेष, मोह, तनाव, व्याधियाँ, पाप आदि माने जाते हैं। सकारात्मक गुण इनके विपरीत और प्रशस्त होते हैं। इस मंत्र की विशेषता यह है कि यह व्यक्ति या दिव्य शक्ति आधारित नहीं है, यह पुरुषार्थवादी मंत्र है। यह गुण विशेषित मंत्र है। फलत: यह सार्वदेशिक एवं त्रैकालिक मंत्र है। यह वैज्ञानिक युग के भी अनुरूप है। इस मंत्र का अंग्रेजी अनुवाद भी यहाँ दिया गया है। इसके आधार पर अंग्रेजी के णमोकार मंत्र की साधकता भी विश्लेषित की गई है।
गायत्री मंत्र—जैन धर्म के णमोकार मंत्र के समान हिन्दूओं में गायत्री मंत्र का प्रचलन है। इस मंत्र को माता मंत्र कहा जाता है। यह भक्तिवादी मंत्र है जिसमें परमात्मा से सदबुद्धि देने एवं सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने की प्रार्थना की गई है। मुख्यत: पुनरावृत्ति छोड़कर २४ अक्षरों वाले इस मंत्र में २९ वर्ण हैं जिनके आधार पर इसकी साधकता विश्लेषित की गई है। यह मंत्र निम्न हैं :
ओम् भूर्भुव: स्व: तत् सवितुर्व रेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात् ।
इसका अर्थ निम्न है : मैं उस परमात्मा (शिव) को अंतरंग में धारण करता हूँ जो भू—लोक, भुवन लोक एवं स्वर्ग लोक में व्याप्त है, जो सूर्य के समान तेजस्वी एवं श्रेष्ठ है और जो देवता स्वरूप है। वह मेरी बुद्धि को सन्मार्ग में लगाये। गायत्री परिवार ने युग निर्माण योजना के माध्यम से इस मंत्र को अत्यन्त लोकप्रियता प्रदान की है। इसको जपने वालों की संख्या ३ करोड़ तक बताई जाती है । इस परिवार का मुख्य कार्यालय शांति कुंज, हरिद्वार में है जहां मंत्र—जप के प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है । नई पीढ़ी के लिये यह बहुत बड़ा आकर्षण है। एक जैन आचार्य श्री कल्याणसागर जी ने णमोकार मंत्र से सम्बन्धित एक आन्दोलन एवं रतलाम के एक सज्जन ने उसके प्रचार का काम चालू किया था, पर उसकी सफलता के आंकड़े प्रकाशित नहीं हुए हैं। मंत्र जप की प्रक्रिया को वैज्ञानिकत: प्रभावी बनाने के लिये इन्होंने किसी प्रयोगशाला की स्थापना की भी बात नहीं की है। यह गायत्री मंत्र दिव्य शक्ति के अस्तित्व पर आधारित है जो मनोवैज्ञानिकत: सामान्य जन को प्रभावित करता है । इसके विपर्यास में, णमोकार मंत्र अधिक वैज्ञानिक होने पर भी लोकप्रियता के क्षेत्र में अधिक आगे नहीं बढ़ पाया है।
त्रिशरण— मंत्र— जैनों और हिन्दूओं के समान बौद्ध धर्म के अनुयायियों का भी एक मंत्र है जिसे त्रिशरण—मंत्र कहते हैं : बुद्धं शरणं गच्छामि मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ। धम्मं शरणं गच्छामि मैं बुद्ध के उपदेशिक धर्म की शरण लेता हूँ । संघं शरणं गच्छामि मैं बुद्ध संघ की शरण लेता हूँ । यह भी व्यक्ति—विशेषित भक्तिवादी मंत्र है । बौद्धों की विशिष्ट विपश्यना ध्यान पद्धति भी है जिसमें इस मंत्र का पारायण होता है। बुद्ध को सामान्यत: यथार्थवादी एवं व्यवहारवादी माना जाता है और उसने भी पुरुषार्थ को महत्व दिया है। फिर भी, यह व्यक्ति आधारित है और मनोवैज्ञानिकत: प्रभावी है। यहाँ बुद्ध को दिव्य शक्ति सम्पन्न मान लिया गया है। इसीलिये बुद्ध धर्म भी संसार के अनेक भागों में फैला है और अनुयायियों की दृष्टि से यह विश्व में तीसरा धर्म माना जाता है जबकि हिन्दू धर्म अब चौथे स्थान पर चला गया है । इस मंत्र में २४ वर्ण हैं जिनके आधार पर इसकी साधकता विश्लेषित की गई है।
मंत्रों की प्रभावकता की व्याख्या मंत्र विशिष्ट ध्वनियों एवं वर्णों के समूह हैं। इनके उच्चारण से ध्वनि शक्ति उत्पन्न होती है । बारम्बार उच्चारण से इस शक्ति में तीव्रता आती है। यह तीव्रता ही अनेक प्रभाव उत्पन्न करती है। इसलिये मंत्रों को ध्वनि शक्ति की लीला—स्थली ही कहना चाहिए। यह ध्वनि शरीर तंत्र के अनेक अवयवों, स्वर तंत्र एवं मन के कार्यकारी होने पर कंठ, तालु आदि में होने वाले विशिष्ट कम्पनों के माध्यम से उत्पन्न होकर अभिव्यक्त होती है। अतएव ध्वनि को कम्पन ऊर्जा भी कहते हैं । जैन शास्त्रों के अनुसार ध्वनि ऊर्जामय सूक्ष्म पौद्गलिक कण हैं जो अपने उच्चारण के समय तीव्रगामी मन और प्राण से संयोग कर उनकी ही गति प्राप्त कर और भी शक्ति सम्पन्न हो जाते हैं एवं शरीर विद्युत उत्पन्न करते हैं। यह धनात्मक होती है और तंत्र में विद्यमान ऋणात्मक तत्वों को नष्ट कर प्रशस्तता प्रदान करती है।
मंत्र ध्वनि—ध्वनि ऊर्जा—(प्राण,मन)—शरीर विद्युत—नकारात्मकता नाश— प्रशस्तताइनकी उच्चारण शक्ति से आकाश में भी, वीची—तरंग न्याय से, कंपन उत्पन्न होते हैं जहां इनका विस्तार एवं सूक्ष्मकरण होता है । इन ऊर्जीकृत कंपनों का पुंज अपने उद्भव केन्द्र पर लौटने तक पर्याप्त शक्तिशाली हो जाता है और यही शक्ति मंत्र—साधक की शक्ति कहलाती है। हमारे शरीर तंत्र में इस शक्ति के अवशोषण, संग्रहण एवं संचारण की क्षमता होती है। यह शरीर तंत्र की विद्युत ऊर्जा को प्रचलित करती है। यह शक्ति मनुष्य में भूकम्प—सा ला देती है। इस शक्ति के अनेक रूप संभव है। योगीजन अपनी दृष्टि, मंत्रोच्चारण, स्पर्श तथा विचारों के माध्यम से इस शक्ति को दूसरों के हिताहित—सम्पादन में संचालित करते हैं। ऊर्जा के कंपनों के अनेक रूप होते हैं— (१) विद्युत (२) प्रकाश और रंग (३) प्राण (४) नाड़ी (५) ध्वनि आदि। इनका सामान्य गुण कंपन होता है। कुछ कंपन स्वैच्छिक होते हैं और कुछ उत्पन्न किये जाते हैं (वचन,यंत्रवादन आदि)। कुछ सहज ही होते रहते हैं। इन कंपनों के विषय में भारतीय विद्याओं के ‘नादयोग’ तंत्र में ‘आहत और अनाहत’’ के रूप में विवरण मिलता है। इसके अनुसार १० प्रकार (मेघ, घंटा, भ्रमरी, तंत्री आदि) की ध्वनियां होती हैं। ये ध्वनि कंपन अपनी विशिष्ट तरंग—दैघ्र्य एवं आवृत्तियों से पहचाने जाते हैं। ये कपंन हमारे कान के माध्यम से मस्तिष्क तंत्र में जाते हैं, वहां से सारे शरीर में फैलकर सारे वातावरण में विसरित होते रहते हैं। ये कंपन हमारी मानसिक एवं विद्युत ऊर्जा को भी प्रभावित करते हैं — मंत्र के माध्यम से हम उसे संवर्धित एवं एकदिशी बनाते रहते हैं । इन कंपनों की ऊर्जा हमारी प्रसुप्त या कर्म—आवृत ऊर्जा को उत्तेजित करती है और उसे अभिव्यक्त करने में सहायक होती है । कंपन ऊर्जा का प्रहार जितना ही तीव्र होगा, हमारी आंतरिक ऊर्जा की अभिव्यक्ति भी उतनी ही उन्नतिमुखी होगी। प्रत्येक वर्ण की ध्वनि विशिष्ट होती है, अत: उसके कंपन भी विशिष्ट होते हैं। ये कंपन ही वर्ण की ऊर्जा को निरूपित करते हैं क्योंकि कंपन ऊर्जा के समानुपाती होते हैं। यहीं नहीं, मंत्र शास्त्रियों ने वर्णों — स्वर (१६) व्यंजन (३३) और अद्र्धस्वरों—को मातृकाक्षर (अ—क्ष) एवं बीजाक्षर (क—ह) के रूप में विभाजित किया है। प्रत्येक मंत्र में इन दोनों के अतिरिक्त पल्लव (लिंग, नम:, स्वाहा आदि) शब्दों का भी समावेश होता है। इस प्रकार प्रत्येक मंत्र इन तीनों प्रकार के घटकों का विशिष्ट समुच्चय होता है। प्रत्येक वर्ण की विशिष्ट, अपरिमित तथा दिव्य शक्ति होती है। यह प्रशस्त, अप्रशस्त एवं उदासीन—किसी भी कोटि की हो सकती है । इन वर्ण ध्वनियों की शक्ति ही मंत्र में काम आती है । इस शक्ति का पूर्ण साक्षात्कार ही मंत्र साधना का लक्ष्य होता है । यह ध्वनि शक्ति शरीर, मन, विश्व, ग्रह, तथा अग्नि से अन्योन्य—सम्बन्धित है। यह शक्ति हमारे सात चक्रों (मूलाधार से सहस्रार तक) और चैतन्य के विविध स्तरों (चेतन, अवचेतन और अचेतन) को प्रभावित करती है। मंत्र सम्बन्धी वर्णों के शक्ति—उद्घाटन के ज्ञान की प्रक्रिया ‘‘मातृका विज्ञान’’ कहलाती है। मातृका शब्द वस्तुत: ‘मात्रा’ (उच्चारण के समय का परिणाम) शब्द का व्युत्पन्न है। यह पाया गया है कि यदि स्वर के उच्चारण में ‘अ’ समय की मात्रा लगती है, तो व्यंजन के उच्चारण में प्राय: ‘अ/२’ समय की मात्रा लगती है (स्वरों से आधी)। इनके उच्चारण के समय घटाये—बढ़ाये जा सकते हैं–ह्रस्व ध्वनि, दीर्घ ध्वनि, विस्तारित ध्वनि आदि।
उच्चारण — समयों से कंपनों की प्रकृति में अंतर पड़ता है। इसी कारण अनेक धर्मशास्त्र शब्द शक्ति को आदि शक्ति ही कहते हैं।
मंत्र की शक्ति का निर्धारण विशिष्ट वर्ण—समूहों से निर्मित मंत्रों की ऊर्जा का गुणात्मक विवरण शास्त्रों में पाया जाता है। इस ऊर्जा के अनेक भौतिक और आध्यात्मिक लाभ भी वहां बताये गये हैं । इस ऊर्जा को परिमाणात्मक रूप देना किंचित् दुरूह कार्य है। फिर भी, यह तो माना ही जा सकता है कि मौन या वाचिक मंत्रोच्चारण के समय, ध्यान के समान, हमारे मस्तिष्क की तरंगों की प्रकृति में अंतर पड़ता है। वे बीटा—रूप से एल्फा रूप में परिणत होने लगती हैं जो मानसिक स्थिरता की प्रतीक हैं। मस्तिष्क के तरंग रूप में परिवर्तन के साथ उसके चारों ओर विद्यमान आभा मण्डल के रंग में भी परिवर्तन होता है जो काले से सपेâद की ओर बढ़ता हुआ प्रशस्त मनोवृत्ति की ओर सूचना देता है। इन दोनों ही परिवर्तनों का ज्ञान प्रयोगगम्य है और ध्यान की प्रयोगशालाओं में अनुभव किया जा सकता है । वैज्ञानिक युग के पूर्व के शास्त्रों में इन परिवर्तनों का (स्थिरता, भाव शुद्धि एवं शांति के प्रभावों के रूप में) परोक्षत: ही उल्लेख माना जा सकता है। शास्त्रीय युग में मंत्रों के प्रभावों के प्रति विश्वास एवं आकर्षक उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक था कि उनकी समग्र शक्ति या प्रभाविता को उनमें विद्यमान वर्णों की समग्र शक्ति के रूप में माना जावे। फलत: प्रत्येक मंत्र की शक्ति का निर्धारण उसमें विद्यमान वर्णों की शक्ति के आधार पर किया गया है। अनुभव के आधार पर प्रत्येक वर्ण की विशिष्ट शक्ति या सामथ्र्य को निर्धारित किया गया है। यह संकलित शक्ति ही मंत्र की साधक—क्षमता एवं उद्देश्य—पूरण क्षमता को व्यक्त करती है। फलत: मंत्र के प्रत्येक वर्ण की शक्ति का योग·मंत्र की साधक क्षमता इस लेख में वर्णों की शक्ति के आधार पर मंत्रों की साधक क्षमता को विश्लेषित करने का प्रयत्न किया गया है। गोविन्दशास्त्री, नेमिचन्द्र शास्त्री और सुशील मुनि ने विभिन्न वर्णों के सामथ्र्य का परम्परा से प्राप्त संकलन दिया है। उसके आधार पर सारणी—२,३ व ४ तैयार की गई है। इनका तुलनात्मक विश्लेषण सारणी—६ में दिया गया है। इन सारणियों में जैनों के णमोंकार मंत्र, हिन्दूओं के गायत्री मंत्र और बौद्धों के त्रिशरण मंत्र तथा ओम् मंत्र को आधार बनाया गया है। साथ ही , यह विश्लेषण सभी मंत्रों में ३५ अक्षर मानकर किया गया है जिससे सार्थक तुलना हो सके। इस तुलना से एक रोचक और उत्साहवर्धक यह तथ्य प्रकट होता है कि यदि पूर्वोक्त मंत्रों में ३५ अक्षर मान लिये जावें , तो सभी की साधक क्षमता लगभग समान होती है। हां, ओम् नामक प्रणव बीज मंत्र इसका अपवाद होगा, पर उनकी क्षमता, उसकी जप संख्या बढ़ाकर सहज ही बढ़ाई जा सकती है।
अंग्रजी में अनूदित मंत्र की साधकता का विश्लेषण आजकल विभिन्न धर्मों के विश्वीयकरण की चर्चा जोरों पर है। इसके लिए संस्कृत—प्राकृत भाषा के मंत्रों का अन्य भाषान्तरण आवश्यक है। इस हेतु अंग्रेजी सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त भाषा है। अनेक सूत्रों से णमोंकार मंत्र का अंग्रेजी अनुवाद हुआ है, पर वह मंत्र में प्रयुक्त पारिभाषित शब्दों के समरूप शब्दों की विविधता के कारण अंग्रेजी—मंत्र नहीं माना जा सकता। लेखक का विचार है कि जब मूल मंत्र एक है, तो उसका भाषान्तरण भी एक शब्दावली में होना चाहिए। लेखक ने अंग्रेजी की सरल शब्दावली का उपयोग कर इस प्रश्न का उत्तर देन का प्रयत्न किया है कि अंग्रेजी में मंत्र की साधक क्षमता कैसी होगी ? सारणी—५ से पता चलता है कि अंग्रेजी में अनूदित मंत्र का सामथ्र्य संस्कृत—प्राकृत मंत्रों की तुलना में प्राय: ६०ज्ञ् ही आता है। इसका कारण संभवत: यह है कि अंग्रेजी में ट (टी), ओ आदि वर्णों के कारण तथा णकार के समान प्रशस्त वर्णों के अभाव के कारण उसमें व्यक्त मंत्रों की वर्णित साधक क्षमता में कमी होती है। इस अनुवाद में कुछ शब्दों को बदलकर (जैसे ‘आई बो’ के बदले ‘बोइंग्स’) साधक क्षमता में कुछ सुधार संभव है, पर इच्छित सामथ्र्य कठिन ही प्रतीत होता है। फलत: यह कमी मंत्र—जप की संख्या को बढ़ाकर ही पूरी की जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस मंत्र के समान ही अन्य मंत्रों के अंग्रेजी अनुवाद की साधक क्षमता भी इसी प्रकार की होगी।
सारणी—२ : णमोकार मंत्र की साधकता का विवरण ण शांति, शक्ति ण शांति, शक्ति ण शांति, शक्ति ण शांति, शक्ति ण शांति, शक्ति म सिद्धि संतान म सिद्धि संतान म सिद्धि संतान म सिद्धि संतान म सिद्धि संतान ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त ओ अनुदात्त अ सर्वशक्ति स सर्वसाधक आ धन, आशा उ अद्भुतशक्ति ल लक्ष्मी, कल्याण र शक्ति, वृद्धि इ मृदुकारी साधक य शांति, सिद्धि व विपत्ति निवारक ओ अनुदात्त इ मृदुकारी साधक द् आत्मशक्ति र शक्ति, वृद्धि ज् रोगनाश, सिद्धि ए निश्चल ह मंगल साधक ध सहयोगी इ मृदुकारी साधक झ शक्ति संचार स सर्वसाधक न् आत्मशक्ति आ धन, आशा य शांति, सिद्धि य शांति, सिद्धि व विपत्ति निवारक त सर्वसिद्धि ण शांति, शक्ति आ धन, आशा आ धन, आशा व विपत्ति निवारक आ धन, आशा म् सिद्धि संतान ण शांति,शक्ति ण शांति, शक्ति स सर्वसाधक ण शांति, सिद्धि म् सिद्धि संतान म् सिद्धि संतान आ धन, आशा म् सिद्धि संतान ह मंगल साधक ऊ विघटन ण शांति,शक्ति म् सिद्धि संतान
सारणी—३ : गायत्री मंत्र की साधकता का विवरण ओ अनुदात्त ह मंगल साधक ए निश्चल स् सर्वसाधक न आत्म सिद्धि म् सिद्धि संतान त सर्वसिद्धि ण शांति, सिद्धि य शांति, सिद्धि ह मंगल साधक भ सात्विक विरोधी त् सर्व सिद्धि य शांति, सिद्धि ध मंगल साधक प् सहयोगी ऊ विघटन स् सर्वसाधक म् सिद्धि, संतान ई अल्प शक्ति र शक्ति वृद्धि र् शक्ति, वृद्धि व विपत्ति निवारक भ सात्विक विरोधी म सिद्धि, संतान च खण्ड शक्ति भ सात्विक विरोधी इ मृदुकारी साधक र शक्ति वृद्धि ह मंगल साधक ओ अनुदात्त उ अद्भुत शक्ति त सर्व सिद्धि ग साधक इ मृदुकारी साधक द आत्मशक्ति