जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा में जिन अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के प्रभाव से जैन धर्म पुष्पित, पल्लवित व प्रसारित हुआ, उनका महानिर्वाण (मोक्ष) वर्तमान बिहार राज्य के पावापुरी (पावापुर) नामक स्थान पर हुआ। महास्वामी महावीर के महा निर्वाण का समय आ लगा है, ऐसा इन्द्रजीत को आभास हुआ तो उन्होंने समवसरण की रचना की। महावीर स्वामी ने पावा नगरी के एक टीलेनुमा स्थान पर स्थित तालाब के मध्य अपनी देह त्यागी। इन्द्रादि देवों ने उनका अग्नि संस्कार किया। महावीर निर्वाण दिवस के दिन अमावस्या की रात्रि को दीपोत्सव मनाया गया। इसी दिन महावीर स्वामी के प्रमुख गणधर गौतम स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
जिस स्थान पर तीर्थंकर महावीर स्वामी का निर्वाण हुआ था, वहाँ अब एक विशाल सरोवर बना हुआ है। इस तालाब के संबंध में जनमानस में एक विचित्र किंवदन्ती प्रचलित है। कहा जाता है कि तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के समय यहाँ पर भारी जनसमूह एकत्रित हुआ था, प्रत्येक व्यक्ति ने इस पवित्र भूमि की एक—एक चुटकी मिट्टी उठाकर अपने भाल पर श्रद्धापूर्वक लगाई थी, तभी से यहाँ एक तालाब बन गया है। आम लोगों में इसे सरोवर कहा जाता था। यह भी कहा जाता है कि यह सरोवर पहले चौरासी बीघे भूमि में फैला हुआ था, लेकिन समय के साथ—साथ यह भरता चला गया। आजकल यह दो फर्लांग लम्बा और इतना ही चौड़ा है अर्थात् इसकी लम्बाई व चौड़ाई ६०० फीट है।
यह स्थान सरोवर के मध्य श्वेत संगमरमर से र्नििमत एक जैन मन्दिर है, जिसे जल मन्दिर कहते हैं। जल मन्दिर में जाने के लिये सड़क के किनारे लाल पाषाण से बना हुआ एक बडा प्रवेश द्वारा मिलता है। इस द्वार से मन्दिर तक लाल पाषाण का ही ६०० फीट लम्बा पुल बना हुआ है। जहाँ पुल समाप्त होता है, वहाँ संगमरमर का द्वार बना हुआ है। जिस टापू पर मन्दिर बना हुआ है, उसका क्षेत्र फल १०४ वर्ग गज है। कुछ लोगों का कहना है कि इस मन्दिर का निर्माण महावीर स्वामी के अग्रज राजा नंदिवर्धन ने करवाया था और वेदी की नींव सोने की र्इंटों से भरी गई थी। किन्तु दिगम्बर परम्परा इस मान्यता से सहमत नहीं है। उसके अनुसार महावीर का कोई भाई ही नहीं था अत: इसकी कोई संभावना ही नहीं। प्रारम्भ में यह मन्दिर संगमरमर का नहीं था, संगमरमर बाद में लगाया गया। मूल मन्दिर र्इंटों का बना हुआ है। जब मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ था, उस समय बड़ी—बड़ी र्इंटे मिली थीं जो लगभग मौर्यकालीन प्रतीत होती थीं। अत: यह मन्दिर निश्चित रूप से मौर्यकालीन रहा होगा। मन्दिर में केवल गर्भ गृह है और बाहर की ओर चारों तरफ से एक बरामदा है। मन्दिर में तीन दीवार—वेदियाँ बनी हुई हैं। मध्य की वेदी में तीर्थंकर महावीर के चरण हैं। इस प्रकार बायीं ओर की वेदी में तीर्थंकर महावीर के मुख्य गणधर गौतम स्वामी तथा दायीं ओर की वेदी में सुधर्मा स्वामी के चरण स्थापित हैं। मन्दिर में मूर्ति नहीं है। मन्दिर शिखरबद्ध है। मन्दिर के बाहर चबूतरे के चारों कोनों पर मन्दरियाँ (गुमटियाँ) बनी हुई हैं। पूर्व की गुमटी में दादाजी के चरण, दूसरी गुमटी में ६ सतियों के, तीसरे गुमटी में ११ गणधरों के और चौथी गुमटी में दिव्यविजयजी (सं. १७५३, ईस्वी सन् १६९६) के चरण विराजमान हैं। ये सभी निर्माण परिवर्ती हैं।
जल मन्दिर के सामने सड़क के दूसरी ओर एक प्राचीन मन्दिर है। समवसरण मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध इस मन्दिर में तीर्थंकर महावीर के चरण स्थापित हैं। इन चरणों के सम्बन्ध में कहा जाता है कि जहाँ श्वेताम्बरों ने अपना नया समवसरण मन्दिर बनाया है, वहीं एक प्राचीन स्तूप और एक कुआ भी है। पहले से चरण वहाँ पर विराजमान थे। ग्वाले अपने पशु चराने वहाँ आते थे। एक दिन किसी ग्वाले ने चरण उठाकर कुए में फैक दिये लेकिन उसने देखा कि ये पाषाण चरण पानी में डूबने के बजाय तैर रहे हैं, अब तो यह उन लोगों के लिये नित्य का खेल हो गया, वे रोज इन्हें निकालते और कौतूहलवश पुन: उन्हें कुए के पानी में फैकते। जब जैन समाज को इसका पता चला तो इन चरणों को उन्होंने इस मन्दिर में तीर्थंकर के समवसरण की जगह स्थापित कर दिया। इसमें सन्देह नहीं है कि ये चरण अत्यन्त प्राचीन हैं और सम्भवत: उस स्थान पर स्थापित किये गये थे जहाँ तीर्थंकर महावीर का अन्तिम समवसरण लगा था।
जल मन्दिर के निकट ही पावापुरी सिद्धक्षेत्र दिगम्बर जैन कार्यालय है। यहाँ पर एक ही भवन में सात दिगम्बर जैन मन्दिरों का समूह है। इनमें बड़ा मन्दिर सेठ मोतीचन्द्र खेमचन्द्र, शोलापुर वालों की ओर से र्नििमत हुआ थे और उसकी प्रतिष्ठा वि.सं. १९५० (ईस्वी सन् १८९३) में हुई थी। इसमें तीर्थंकर महावीर की तीन फुट ऊँची प्रतिमा स्थापित है। इस मन्दिर के अतिरिक्त शेष ६ मन्दिरों में से दो मन्दिरों का निर्माण सेठ मोतीचन्द्र खेमचन्द्रजी, शोलापुर ने तथा चार में से प्रथम का निर्माण श्रीमती जगपत धर्मपत्नी लाला हरप्रसादजी और द्वितीय बा. हरप्रसादजी, तृतीय लाला जम्बूप्रसाद प्रद्मुम्न कुमारजी, सहारनुपर तथा चतुर्थ श्रीमती अनूपमाला देवी मातेश्वरी बा. निर्मलकुमार चन्द्रशेखर कुमारजी, आरा वालों ने कराया था। मुख्य वेदी में पाषाण की दो तथा धातु की आठ जैन प्रतिमाएँ हैं।