(गणिनी ज्ञानमती विरचित)
दोहा
अनंत दर्शन ज्ञान औ, सुख औ वीर्य अनंत।
अनंत गुण के तुम धनी, नमूँ नमूँ भगवंत।।१।।
(चाल-हे दीनबंधु…….)
जैवंत तीर्थंकर अनंत सर्वकाल के।
जैवंत धर्मवंत न हों वश्य काल के।।
जै पाँच भरत पाँच ऐरावत में हो रहे।
जै भूत वर्तमान औ भविष्य के कहे।।१।।
इस जम्बूद्वीप में हैं भरत और ऐरावत।
इन दो ही क्षेत्र में सदा हो काल परावृत।।
जो पूर्व धातकी औ अपर धातकी कहे।
इन दोनों में भी भरत ऐरावत सदा कहे।।२।।
वर पुष्करार्ध पूर्वअपर में भी दोय दो।
हैं क्षेत्र भरत और ऐरावत प्रसिद्ध जो।।
इस ढाई द्वीप में प्रधान क्षेत्र दश कहे।
षट्काल परावर्तनों से चक्रवत रहें।।३।।
इनके चतुर्थकाल में तीर्थेश जन्मते।
जो भूत वर्तमान भावि काल धरंते।।
इस विध से तीस बार हों चौबीस जिनेश्वर।
ये सात सौ हैं बीस कहे धर्म के ईश्वर।।४।।
इनकी त्रिकाल बारबार वंदना करूँ।
मैं भक्तिभाव से सदैव प्रार्थना करूँ।।
संपूर्ण कर्मपर्वतों की खंडना करूँ।
निज ‘ज्ञानमती’ पाय फैर जन्म ना धरूँ।।५।।