क्रोध के बहु निमित्त मिलते, हो न मन में कलुषता।
नित अशुभ कर्मोदय निमित्त लख, पियें समरसमय सुधा।।
उत्तम क्षमा यह धर्म जग में, वैर निज पर का हरे।
यह पूर्ण शांती सौख्यदाता, वंदते मन खुश करे।।१।।
मृदुभाव मार्दव मान हरता, विनय गुण चित्त में भरे।
हो उच्चगोत्री मनुष चक्री, सुरपति के पद धरे।।
कुल जाति बल रूपादिमद से, मिलत है नीची गती।
अतएव मार्दव गुण बड़ा है, वंदते दे शिवगती।।२।।
मन वचन तन की कुटिलता से, योनि तिर्यक् की मिले।
मन वचन तन की सरलता से, ऋजु शिवगति भी मिले।।
विश्वासघात समान नहीं है, पाप जग में अन्य कुछ।
अतएव आर्जव धर्म उत्तम, मैं नमूं मैं भक्ति युत।।३।।
सच हैं प्रशस्त सुवचन निंदा, पाप कलहादिक रहित।
हो जाय विपदा धर्म पर, ऐसा न सच बोले क्वचित्।।
जिनकथित मेरू आदि हैं, अपमृत्यु भी हो लोक में।
यह सत्य वच सर्वोच्च जग में, मैं नमूं दे धोक मैं।।४।।
यह लोभ पाप महान् जग में, सर्व पापों का जनक।
धन स्वास्थ्य इंद्रिय आदि का भी, लोभ है दुखकर प्रगट।।
गंगा—यमुना स्नान से नहीं, आत्म शुद्धी हो कभी।
तज लोभ उत्तम शौच से हो, स्वात्मशुचि वंदूं अभी।।५।।
त्रस और स्थावर सभी, षट्काय जीवों पर दया।
पंचेन्द्रियों औ चपल मन को, शास्त्रविधि से वश किया।।
संयम सकल या देश संयम, देवगति ही देयगा।
जो भव्य धारेंगे इसे, उन जन्म दु:ख हर लेयगा।।६।।
तप बाह्य आभ्यंतर उभय, बारह प्रकार प्रसिद्ध हैं।
जो करें उपवासादि उनको, ऋद्धि सिद्धि प्रगट हैं।।
स्वाध्याय प्रायश्चित विनय, व्युत्सर्ग वैयावृत्य तप।
औ ध्यान आत्म विशुद्धि करते, इन बिना नहीं मुक्तिपद।।७।।
शुचि रत्नत्रय का दान उत्तम, त्याग आगम में कहा।
आहार औषधि अभय ज्ञान, सुदान चउविध भी कहा।।
इन दान में खर्चा गया, धन कूप जलसम बढ़ेगा।
फल भी अनंते गुणा देकर, मोक्ष में ले धरेगा।।८।।
कुछ भी न मेरा यह कचन, धर्म सब सुख देयगा।
मुनिवर अकिंचन धर्म पाले, निजगुण अनंते ले सदा।।
जो भी अणुव्रत धारते, क्रम से ममत्व घटाइये।
त्रैलोक्य संपति के धनी बन, स्वात्मरस सुख पाइये।।९।।
सब नारियों को मातृवत, गिन ब्रह्मचारी जो बनें।
महिलायें भी ब्रह्मचारिणी, बन पूज्य होती जगत में।।
निज ब्रह्म में रति ब्रह्मचर्य, सुरेन्द्रगण भी नमत हैं।
इकदेश व्रत ब्रह्मचर्य से यहां, अनल भी जल बनत हैं।।१०।।
वैराग्य त्याग दो काष्ठ खंड से, निर्मित सुघड़ न सैनी है।
दशधर्मों की दश पैड़ी से युत, मोक्षमहल की सीढ़ी हैं।।
मुमुक्ष मुनिगण इससे चढ़कर, मुक्तिरमा ढिंग जाते हैं।
दशधर्मों को मैं नित वंदूं, ये निज राज्य दिलाते हैं।।११।।
दशलक्षणमय धर्म ये, स्वात्मसौख्य फल हेतु।
पूर्ण ज्ञानमति हेतु मैं, प्रणमूं भक्ति समेत।।१२।।