योगीश्वर उत्तमक्षमा सुगुणमय, त्रिभुवन के इक बांधव हैं।
वे क्रोध कषाय नाशकर अपने, शांतभाव में तन्मय हैं।।
निज आत्मा से उत्पन्न परम, पीयूष पियें संतृप्त रहें।
उन योगी को वर क्षमाधर्म को, हृदय कमल में धारूँ मैं।।१।।
मृदु का जो भाव वही मार्दव, यह उत्तम धर्म जगत में है।
जो आठों मद को नष्ट करे, उन साधू में ही शोभे है।।
जो दर्शन ज्ञान चरित तप चार विनय से जग को वश्य करें।
उन योगी को वर मार्दव को, नित हृदय कमल में धारूं मैं।।२।।
जो माया दूर हटा मन वच, तन योग सरल कर लेते हैं।
वे ही एकाग्रध्यान धरते, समता अमृत रस पीते हैं।।
उन साधू को सीधे ऋजुगति से, निश्चित मुक्ती मिलती है।
उन योगी को उत्तम आर्जव को, हृदय कमल में धारूं मैं।।३।।
जो लोभ दूर कर शौचधर्म को, मनपकंज में धरते हैं।
वे पावन ब्रह्मचर्य द्वारा सब पाप कर्ममल धोते हैं।।
अंतर बाहिर शुचिता धर कर वे जग में पूजित होते हैं।
उन योगी को वर शौच को शुचि-हित हृदय कमल में धरते हैं।।४।।
जो सम्यक् सत्य प्रशस्त वचन, वे जग में सारभूत माने।
वे सर्व सुखों की खान सकल-गुण रत्नों की राशी माने।।
मुनिराज दिव्यध्वनि हेतु सुउत्तम, सत्यधर्म को पाले हैं।
उन मुनि को उत्तम सत्यधर्म को, हृदय कमल में धरते हैं।।५।।
जो बहु प्रयत्न से पंचेन्द्रिय, अरु मन का निग्रह करते हैं।
छह काय जीव की रक्षा करने, में दयार्द्र मन रखते हैं।।
स्वाधीन सौख्य को पा करके, वे निज आत्मा में बसते हैं।
उन मुनि को उत्तम संयम को, हम हृदय कमल में धरते हैं।।६।।
जो मुनिवर बारह तप द्वारा, निज काय तपाते ही रहते।
वे तन को कृश करते फिर भी, आत्मा को हृष्ट पुष्ट करते।।
वे मोक्ष हेतु सब कर्मों को निर्जीर्ण स्वयं कर देते हैं।
उन मुनि को उत्तम तप को भी हम हृदय कमल में धरते हैं।।७।।
मुनिवर ही भव्यजनों को प्रासुक, रत्नत्रय का दान करें।
वो ही है उत्तम त्याग कहा, ऋषियों ने परमागम में खरे।
आहार व औषधि शास्त्र अभय इनको भी देना शिवहेतू।
उन मुनि को त्यागधर्म को चित में, धारूं ये भवदधिसेतू।।८।।
त्रिभुवन की संपति भी देता यह उत्तम आकिंचन्य धरम।
नहिं मेरा किंचित् तन में भी निर्ममता ये ही आकिंचन।।
ऐसे मुुनि पर्वत शिखर गुफा में शुद्धात्मा को ध्याते हैं।
उन मुनि को आकिंचन को भी हम हृदय कमल में भाते हैं।।९।।
जो ब्रह्मस्वरूप निजात्मा में चर्या करते सुस्थिर होकर।
सद्गुणसंपत की प्राप्ति हेतु मुनिसंघ में रहते श्रुत तत्पर।।
त्रैलोक्य पूज्य भी उत्तम ब्रह्मचर्य इसको नित नमते हैं।
उन मुनि को ब्रह्मचर्य वृष को भी हृदय कमल में धरते हैं।।१०।।
ये सिद्धि महल की सीढ़ी हैं भव्यों के हेतू दशलक्षण।
ये धर्म हमारा चित्त पवित्र करे वर पावन दशलक्षण।।
हे धर्म कल्पतरु! त्रयशुद्धी युत भक्ती से वंदूं तुमको।
‘‘सज्ज्ञानमती’’ के साथ स्वर्ग अरु मोक्ष सुफल देओ मुझको।।११।।
हे भगवन् ! इच्छा करता हूँ दशलक्षण उत्तम धर्मों की।
भक्ती का कायोत्सर्ग किया उसको आलोचन करने की।।
निश्चय व्यवहार द्विविध वृष शिवपथ में चढ़ने की सीढ़ी हैं।
ये उत्तम क्षमा व मार्दव आर्जव शौच सत्य संयम तप हैं।।१।।
वर त्याग अकिंचन ब्रह्मचर्य-नामा ये दशविध धर्म कहे।
मैं नित्यकाल अर्चूं पूजूं वंदूं भक्ती से नमूं इन्हें।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय होवे मम बोधिलाभ होवे।
हो सुगतिगमन व समाधिमरण मुझको जिनगुण संपति होवे।।२।।