जहाँ अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव है वहाँ त्रैरूप्य मानने से कोई लाभ नहीं, जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ भी त्रैरूप्य माना व्यर्थ है । यथा-‘पर्वत अग्निवाला है, धूमवाला होने से’ यहाँ धूम की अग्नि के साथ अन्यथानुपपत्ति है, अत: अन्य त्रैरूप्य की कोई आवश्यकता नहीं ।
अर्थ:-अत: अन्यथानुपपत्ति अथवा अविनाभाव के सिद्धान्त के आधार पर यही सिद्ध होता है कि सोपाय होते हुए भी अर्हन्त भगवान् ही सर्वज्ञ हैं । अन्यथानुपत्ति ही इसका (साधक) अनुमान है ।
ज्योति:शास्त्रादिदेशित्वस्यान्यथानुपपत्तित:।
तदर्थसाक्षात्कार्य स्तीत्यनुमा युक्तिरिष्यते।।
-(स्याद्वादसिद्धि, आचार्य वादीभसिंहसूरि, ७-२)
अर्थ:-ज्योतिशास्त्रादि के उपदेश अन्यथानुपपन्न होने के कारण (वह भगवान् अर्हन्त) सभी पदार्थों का साक्षात्कार करने वाला (सर्वज्ञ) है । यही अनुमान प्रमाण से सिद्ध होता है
ततोऽन्यथानुपपन्नत्वं तच्छास्त्राणां न युज्यते।
अन्यथाऽप्युपपन्नत्वादिति चेदिदमप्यसत्।।
-(स्याद्धादसिद्धि, आचार्य वादीभसिंहसूरि,१०-२)
अर्थ:- अन्यथा उपपन्न (वेदादि से संभव) होने के कारण ज्योतिषादि शास्त्रों का अन्यथानुपपन्नत्व मानना उचित नहीं है, यदि ऐसा है तो यह भी सत्य नहीं है ।
अन्यथानुपपन्नत्वात्पक्षे सम्बन्ध-निश्चय:।
साध्याविनिश्चये कस्मात्तत्त्वस्यापि विनिश्चय:।।
-(स्याद्वादसिद्धि, आचार्य वादीभसिंहसूरि, ४-६४)
अर्थ:- अन्यथानुपपन्नत्व के कारण ही पक्ष में सम्बन्ध का विनिश्चय होता है । साध्य के विनिश्चय न होने से तत्त्व का विनिश्चय कैसे हो सकता है?
युगपत्क्रमतो वस्तु वास्तव्यानेकधर्मकम्।
सन्तानाव्यवहारादेरन्यथानुपत्तित: ।।
-(स्याद्वादसिद्धि, आचार्य वादीभसिंहसूरि, ३-१)
अर्थ:- सन्तानवाद के व्यवहार आदि की अन्यथानुपपत्ति या अविनाभाव के आधार पर तथा युगपत् (एक साथ) और क्रम के कारण वस्तु अनेक धर्मात्मक है ।
अर्थ:- व्याप्ति के द्वारा ही उसके स्वीकार करने की प्रमुखता से उसका ज्ञाता ही सर्वज्ञ है, क्योंकि अन्यथानुपपन्नत्व के कारण ही गमक (हेतु) अन्यथा नहीं होता।
तत्कर्ताऽऽत्माऽस्ति सौख्यादेरन्यथानुपपत्तित:।
इत्यर्थापत्तित: सिद्धयेत्स आत्मा परलोक-भाक्।।
-(स्याद्वादसिद्धि, आचार्य वादीभसिंहसूरि, १-१०)
अर्थ:-सौख्यादि के अन्यथानुपपन्न होने के कारण उन सबका कत्र्ता आत्मा है । यह अर्थापत्ति से सिद्ध है कि यह आत्मा (भूत संघात से भिन्न ) परलोकी है ।
दूध पीने की चेष्टा ( पूर्व जन्म के संस्कार )
तदहर्जस्तनेहातो, रक्षोदृष्टे: भवस्मृते:।
भूतानन्वयनात् सिद्ध:, प्रकृतिज्ञ: सनातन:।
-(प्रमेयरत्नमाला, ४-८)
भावार्थ – तत्काल जन्मे हुए बालक की दूध पीने की चेष्टा (पुरुषार्थ) से भूत आदि के सद्भाव से, परलोक के स्मरण से और स्मरण से और भौतिक रूपादि गुणों का चैतन्य से अन्वय न होने से एक अनादि आत्म तत्त्व पृथक द्रव्य सिद्ध होता है। जो आत्मा सब का ज्ञाता है वह अपना ज्ञाता नही हो सकता है?