[[श्रेणी:03.तृतीय_अधिकार]] ==
जिस कारण से तप, श्रुत औ व्रत, इनका धारक जो आत्मा है।
वह ध्यानमयी रथ की धुर का, धारक हो ध्यान धुरंधर है।।
अतएव ध्यान प्राप्ती हेतू, इन तीनों में नित रत होवो।
तप, श्रुत औ व्रत बिन ध्यान सिद्धि, नहिं होती अत: व्रतिक होवो।।५७।।
जिस हेतु से तप, श्रुत और व्रतों का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला हो जाता है उसी कारण ध्यान की प्राप्ति के लिए तप, शास्त्र और व्रत इन तीनों में सदा लीन हो जावो। यद्यपि ध्यान करने वाला पुरुष वैसा हो ? और ध्यान के लिए सामग्री क्या-क्या हो ? यह कई प्रकार से बता चुके हैं। पुनरपि यहाँ उपसंहार रूप से ध्याता पुरुष और ध्यान सामग्री को इस ५७वीं गाथा में बताया है- तपश्चर्या, ज्ञानाराधना और व्रतों से विभूषित तपोधन-महाव्रती मुनि ही ध्यान रूप रथ की धुरा को धारण करने में समर्थ हो सकते हैं यही कारण है कि ये मुनि ही ध्यान के स्वामी माने गये हैं। यदि गृहस्थ भी ध्यान मे सक्षम हो जावें तो पुन: गृहस्थाश्रम को त्याग कर मुनि बनने की आवश्यकता ही क्यों रहे ? हाँ, गृहस्थ तो ध्यान का अभ्यास करते हैं। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छह अभ्यंतर तप हैं। अभ्यंतर तपों की सिद्धि के लिए बाह्य तप साधन हैं और साधन अभ्यंतर तप में कहा गया है। ये बारह तप व्यवहार तप हैं और इनके सहयोग से शुद्ध आत्मा के स्वरूप में प्रतपन करना-स्थिर होना निश्चय तप है। इसी प्रकार मूलाचार, भगवती आराधना आदि द्रव्यश्रुत हैं, उन शास्त्रो के आधार से जो निज स्वसंवेदन ज्ञान होता है, वह भावश्रुत है। इसी तरह छह काय के जीवों की हिंसा का त्याग अहिंसा महाव्रत है और रागादि भावों को दूर कर आत्मा के ऊपर दया करके उसमें लीन होना भाव अहिंसा महाव्रत है, इत्यादि प्रकार सभी में समझ लेना चाहिए। यहाँ पर तप, श्रुत और व्रत को ही ध्यान के लिए परिकर सामग्री कहा है। अन्यत्र ग्रंथों में भी कहा है-
वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं, नैग्र्रन्थ्यं समचित्तता।
परीषहजयश्चेति, पंचैते ध्यानहेतव:१।।
वैराग्य, तत्वों का विशेष ज्ञान, निग्र्रंथ दिगम्बर मुनि अवस्था, समताभाव और परीषहों का जय ध्यान के लिए ये पाँच हेतु-साधन माने गये हैं। ये पाँचों इन तीन में गर्भित हैं।
प्रश्न – भगवन्! ध्यान तो मोक्षमार्ग रूप है। मोक्ष के इच्छुकजन व्रतों को पुण्य का ही कारण कहते हैं अत: व्रत तो छोड़ने योग्य हैं पुन: व्रतों को ध्यान का कारण कैसे कहा ?
उत्तर – व्रत ही छोड़ने योग्य हों, ऐसी बात नहीं है प्रत्युत हिंसा आदि रूप जो अव्रत हैं जो कि पाप बंध के लिए कारणभूत हैं वे भी तो छोड़ने योग्य हैं अत: पहले हिंसा आदि छोड़कर व्रतों में स्थिर होवो पुन: निर्विकल्प ध्यान में वे व्रत स्वयं छूट जायेंगे, उन्हें छोड़ना नहीं पड़ेगा। श्री पूज्यपाद स्वामी ने यही बात कही है-
अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठित:।
त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मन:१।।
पहले अव्रतों को छोड़कर व्रतों में स्थित होवे पुन: आत्मा के परमपद को प्राप्त करके उन्हें भी छोड़ देवे।
प्रश्न – भरत चक्रवर्ती ने व्रतों को नहीं पाला फिर भी केवली बन गये ?
उत्तर – ऐसी बात नहीं है, वे भी जैनेश्वरी दीक्षा लेकर विषय कषाय आदि के त्यागरूप व्रत परिणामों के बल से ही शुद्धोपयोग रूप, वीतराग सामायिक नामक निर्विकल्पसमाधि में स्थित होकर केवली हुए हैं।
प्रश्न – इस काल में ध्यान नहीं है क्योंकि उत्तम संहनन का अभाव है और दश पूर्व अथवा चौदह पूर्व रूप श्रुतज्ञान का भी अभाव है ?
उत्तर – शुक्लध्यान नहीं है किन्तु धर्मध्यान है। श्री कुन्दकुन्ददेव ने कहा है- ‘‘भरतक्षेत्र में इस पंचमकाल में ज्ञानी मुनियों को आत्मा के स्वभाव में स्थित होने पर धर्मध्यान होता है किन्तु जो ऐसा नहीं मानते, वे अज्ञानी हैं।२’’ श्री नागसेन आचार्य ने तो स्पष्ट कहा है-
अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमा:।
धर्मध्यानं पुन: प्राहु: श्रेणीभ्यां प्राग्विवर्तिनाम्३।।
आज इस काल में जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यान का निषेध करते हैं किन्तु उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी से पहले गुणस्थानों में रहने वाले मुनियों के धर्मध्यान कहते हैं। दश पूर्व या चौदह पूर्वज्ञानी श्रुतकेवलियों के ही ध्यान होता है, यह कथन भी उत्सर्ग है। अपवाद व्याख्यान से पाँच समिति, तीन गुप्ति के प्रतिपादक सारभूत श्रुत से भी ध्यान होता है बल्कि केवलज्ञान भी हो जाता है। कहा भी है-
‘‘तुसमासं घोसंतो सिवभूदी केवली जादो।’’
तुष-माष को रटते हुए शिवभूति मुनि केवली हो गये हैं।
प्रश्न – यद्यपि शिवभूति मुनि को द्रव्यश्रुत प्रवचन मातृका मात्र था किन्तु उन्हें भावश्रुत पूर्ण था ?
उत्तर – नहीं, उनके पाँच समिति और तीन गुप्ति इन आठ प्रवचनमातृका रूप तो भावश्रुत था और द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं था अन्यथा वे ‘‘मा तूसह मा रूसह’’ इस एक पद को क्यों नहीं जान सके। यह व्याख्यान मैंने कल्पित नहीं किया है किन्तु चारित्रसार आदि ग्रंथों में भी यह वर्णन है। देखिए-‘‘अंतर्मुहूर्त में जो केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, वे १२वें गुणस्थान में रहने वाले ‘‘निग्र्रंथ’’ ऋषि कहलाते हैं। उनके उत्कृष्ट से ११ अंग, १४ पूर्व पर्यंत ज्ञान होता है और जघन्यरूप से पाँच समिति, तीन गुप्ति मात्र ही श्रुतज्ञान होता है४।
प्रश्न – इस काल में मोक्ष नहीं है पुन: ध्यान की क्या आवश्यकता ?
उत्तर – आज भी परम्परा से मोक्ष है। देखो, ध्यानी मुनि निज शुद्धात्मा की भावना के बल से संसार की स्थिति को अल्प करके स्वर्ग में जाते हैं और वहाँ से मनुष्य भव में आकर भेदाभेद रत्नत्रय के बल से मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। जो भरत चक्रवर्ती, रामचंद्र, पांडव आदि मोक्ष गये हैं वे सब पूर्व भवों में संसार स्थिति को घटाकर ही आये थे तभी इस भव से मोक्ष गये हैं क्योंकि एक ही भव से सभी को मोक्ष हो जावे यह बहुत कठिन है, कोई विरले जीव ही ऐसे हुए हैं। निष्कर्ष यह निकला कि अल्प श्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है किन्तु उसके साथ वैराग्यपूर्वक चारित्र और तपश्चरण अवश्य चाहिए। अब ग्रंथकार अपना अभिमान दूर करते हुए कहते हैं-
श्री नेमिचंद्र मुनि अल्पसूत्र, ज्ञाता जो मैंने कहा सही।
यह ग्रंथ द्रव्य संग्रह नामा, जो सार्थक नामा रचा सही।।
जो रागद्वेष दोषादि रहित, श्रुत में परिपूर्ण मुनीश्वर हैं।
वे इसका संशोधन कर लें, जो मुझसे श्रेष्ठ ज्ञानधर हैं।।५८।।
मुनि अल्पज्ञानी नेमिचंद्र मुनिराज ने जो यह ‘द्रव्य संग्रह’ नाम का ग्रंथ रचा है, दोष समूह से रहित और श्रुत में परिपूर्ण ऐसे मुनियों के नाथ-महामुनि इसका संशोधन करें। यहाँ पर सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री नेमिचंद्राचार्य ने अपनी लघुता प्रगट करते हुए ही ऐसा कहा है कि मैं अल्पज्ञानी हूँ, मेरे से भी विशेष जो कोई श्रुत के पारंगत विशेष विद्वान्, वीतरागी पक्षपात रहित महामुनि होवें, वे इसका संशोधन कर सकते हैं। आज उनके बराबर ज्ञान के धारी मुनि ही नहीं हैं पुन: उनसे विशेष ज्ञानी मुनि कौन हो सकते हैं जो कि उनकी कृति के संशोधन का अधिकार रखें अर्थात् कोई भी नहीं हो सकते हैं। फिर भी यदि कोई साहस करना चाहे तो उसका यह दु:साहस या अनधिकारी चेष्टा ही समझनी चाहिए। यह द्रव्यसंग्रह नामक ग्रंथ सार्थक नाम वाला है। इसमें छह द्रव्यों का ही मुख्य रूप से वर्णन है। फिर भी पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थों का भी वर्णन किया गया है। अनन्तर तृतीय अधिकार में व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग का वर्णन है। यह ग्रंथ यद्यपि लघुकाय-अतीव छोटा है, फिर भी इसमें ‘गागर में सागर’ की उक्ति के अनुसार महान प्रमेय भरा हुआ है। इसकी खास विशेषता यह है कि इसमें एक-एक गाथा में ही व्यवहार और निश्चय नयों के द्वारा जीव के स्वरूप को कहा है, पुन: मोक्षमार्ग में भी नयों का अच्छा खुलासा है। यह ग्रंथ मुझे अतीव प्रिय है। आठ दश दिन के शिक्षण शिविरों में आबाल-गोपाल इसे अच्छी तरह पढ़ लेवें और मनन कर लेवें, इसी उद्देश्य से मैंने इसका पद्यानुवाद किया था, जो वक्ता-श्रोताओं को तथा पढ़ाने और पढ़ने वालों को अति रुचिकर हुआ है।