इस भरतक्षेत्र के आर्य खंड में चतुर्थ काल में हमेशा २४ तीर्थंकरों का अवतार होता रहता है। कोई भी महापुरुष तीर्थंकर केपादमूल में रहकर दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण्सा भावनाओं को भाते हैं और उनके प्रसाद से तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके
स्वर्गों में देवपद को प्राप्त कर लेते हैं। उन तीर्थंकर होने वाले के मत्र्यलोक में गर्भावतार के छह माह पूर्व ही माता के आंगन में इंद्र की आज्ञा से कुबेर रत्नों की वर्षा करने लगता है।
श्री, ह्री धृति, लक्ष्मी, कीर्ति आदि निन्यानवे१ विद्युत्कुमारी और दिक्कुमारी देवियाँ भी छह माह पूर्व ही बड़े हर्ष से वहाँ आ जाती हैं। और जिनेंद्रदेव के होनहार माता—पिता को नमस्कार करके अपने आने का कारण निवेदन करती हैं। पुन: नाना प्रकार से माता कर सेवा में तत्पर हो जाती हैं। कोई माता के गुणों का गान करती हैं, कोई पैर दबाती हैं। कोई दिव्य भोजन की व्यवस्था करती हैं, कोई छत्र लगाती हैं, कोई चमर ढोरती हैं, कोई तलवार, चक्र और स्वर्णमयी बेंत हाथ में लेकर द्वारपाल का काम करती हैं।
छह महीने के अनंतर एक दिन रात्रि के पिछले भाग में माता को सोलह स्वप्न दिखाई देते हैं जो कि क्रम से
१. ऐरावत हाथी | २. बैल | ३. सिंह | ४. हाथियों द्वारा अभिषेक होती हुई लक्ष्मी |
५. दो मालायें | ६. चंद्रमा | ७. उगता हुआ सूर्य | ८. मीन युगल |
९. जल से भरे दो कलश | १०. कमल सहित सरोवर | ११. महासमुद्र | १२. सुवर्णमय सिंहासन |
१३. देव विमान | १४. नागेन्द्रभवन | १५. महारत्नराशि | १६. निर्धूम अग्नि |
इन स्वप्नों को देखकर माता निद्रा को दूर कर प्रात: क्रिया से निवृत होकर राजदरबार में राजा के पास पहुँचती हैं और यथायोग्य आसन पर बैठकर हाथ जोड़कर विनयपूर्वक अपने स्वप्नों को निवेदित करती हैं। उन्हें सुनकर महाराज प्रत्युत्तर में कहते हैं कि हे प्रिये! निश्चय ही आज तुम्हारे गर्भ में तीन लोक के नाथ तीर्थंकर ने अवतार ले लिया है।
लगातार छह मास से होने वाली रत्नों की वर्षा और देवियों के द्वारा की हुई शुश्रूषा से हम दोनों को जिनेंद्रदेव के जिस जन्म की सूचना मिली थी वह आज सफल हुई है। यह सुनकर कांति को धारण करती हुई माता अतीव प्रसन्नता को प्राप्त हो जाती हैं। क्रम—क्रम से गर्भ की वृद्धि होने पर भी माता की त्रिवलि की शोभा भंग नहीं होती है।
तीर्थंकर शिशु का गर्भ में निवास वैसा ही होता है कि जैसा जल में प्रतिबिंबित सूर्य का होता है। मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञानरूपी नेत्रों के द्वारा जगत को देखते हुये जिन बालक, दिक्कुमारियों के द्वारा शुद्ध किये हुये गर्भ में नौ मास तक सुख से स्थित रहते हैं। गर्भ में आने के नौ माह पूर्ण होने तक लगातार रत्नों की वर्षा होती रहती है।
अनंतर सर्वोच्च शुभ ग्रहों के शुभ नक्षत्र में पूर्व दिशा के सदृश जिनमाता जिन बालक रूपी सूर्य को जन्म देती हैं। उसी समय भवनवावसी देवों के यहाँ अपने आप शंखों का शब्द,
१. हरिवंश पुराण……... व्यंतरों के लोक में भेरी का शब्द, ज्योतिषी देवों के यहां सिंहनाद और कल्पवासी देवों के यहाँ घंटाओं का जोरदार शब्द होने लगता है। तीनों लोकों में स्थित सभी इन्द्रों के मुकुट झुक जाते हैं, उनके आसन कंपित हो उठते हैं और उनके कल्पवृक्षों से पुष्प वृष्टि होने लगती है। अवधिज्ञान से जानकार इंद्रमहाराज भगवान् की दिशा में सात पैंड चलकर उन्हें परोक्ष में नमस्कार करके उनके जन्मकल्याणक को मनाने हेतु सभी देवों को चलने की सूचना कर देते हैं।
उधर माता की सेवा में तत्पर हुई देवियाँ शीघ्र ही करने योग्य जातकर्म में लग जाती हैं। विजया, वैजयंती, जयंती, अपराजिता, नंदा, नंदोत्तरा, नंदी और नंदिवर्धना ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ हाथों में झारी लेकर खड़ी हो जाती हैं। सुस्थिता, प्रणिधान्या, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीमती, कीर्तिमती, वसुंधरा और चित्रा ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ हाथों में दर्पण लेकर खड़ी होती हैं।
इला, सुरा, पृथिवी, पद्मावती, कांचना, सीता, नवमिका और भद्रिका ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ माता के ऊपर सपेâद छत्र धारण करती हैं। श्री, ह्री, धृति, वारुणी, पुण्डरीकिणी, अलंबुसा, अलंबुजास्यश्री और मिश्रकेशी ये दिक्कुमारी देवियाँ चामर ढोरती हैं। चित्रा, कनकचित्रा, सूत्रामणि और त्रिशिरा ये चार विद्युत्कुमारीदेवियाँ सर्वत्र प्रकाश फैलाती हैं।
विजया, वैजयंती, जयंती और अपराजिता ये चार विद्युत्कुमारियों की प्रधान देवियाँ तथा रुचका, रुचकोज्ज्वला, रुचकाभा और रुचकप्रभा ये चार दिक्कुमारियों की प्रधान देवियाँ ये आठों ही देवियाँ जिनेंद्रदेव का जातकर्म करती हैं। सेनापति के द्वारा सौधर्म इंद्र का आदेश सुनाया जाने पर स्वर्ग के समस्त देव अपनी—अपनी सेना और परिवार सहित सौधर्म इंद्र के निकट आ जाते हैं।
समस्त भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देव अपने—अपने स्थानों से बाहर आ जाते हैं। सोलह स्वर्ग तक के इंद्र अपने—अपने परिकर सहित चल पड़ते हैं। उस समय हाथी, घोड़ा, रथ, पदाति, बैल, गंर्धव और नर्तकी इन सात प्रकार की सेनाओं से आकाश मंडल व्याप्त हो जाता है। सौधर्म इंद्र अपने ऐरावत हाथी पर चढ़कर चल पड़ता है। असंख्य देवों का समूह निमिष मात्र में तीर्थंकर देव की जन्म नगरी में आ जाता है।
उस नगर की तीन प्रदक्षिणा देकर इंद्र भीतर प्रवेश करता है और जिनेंद्रशिशु को लाने के लिये इंद्राणी को आज्ञा देता है। इंद्राणी माता के प्रसूति गृह में प्रवेश कर माया से माता को सुखनिद्रा में निमग्न कर उनके पास मायामयी दूसरा बालक सुलाकर जिनबालक को प्रणाम कर पुन: उन्हें दोनों हाथों से उठा लेती हैं। उस समय अतीव हर्ष से रोमांचित हुई उस देवी को इतना आनंद होता है कि तत्क्षण ही संचित हुआ पुण्य उसे मात्र एक भवावतारी बना देता है। इंद्राणी बालक को गोद में लेकर बाहर आकर इंद्र को सौंप देती हैं।
इंद्र उस क्षण हजार नेत्र बनाकर जिनदेव के रूप को देखते हुये भी तृप्त नहीं होता है। पुन: प्रभु को गोद में लेकर ऐरावत हाथी पर बैठ जाता है और महावैभव के साथ अर्ध निमिष मात्र में सुदर्शन मेरु पर पहुँच जाता है। पहले मेरुपर्वत की तीन प्रदक्षिणा देता है पुन: उसके पांडुकवन में पांडुकशिला पर स्थित सिंहासन पर जिनबालक को विराजमान करके आप स्वयं अभिषेक करने के योग्य वेषधारण कर लेता है।
क्षीरोदधि से भर—भरकर लाये गये एक हजार आठ कलशों का दृश्य अतीव मनोरम दिखता है। सबसे प्रथम सौधर्म इंद्र प्रभु का अभिषेक करते हैं पुन: हजारों देव मिलकर अभिषेक करते हैं और ‘‘इंद्राणी आदि देवियाँ भी सुगंधित जल से भरे कलशों द्वारा भगवान् का अभिषेक करती हैं।’’ पुन: भगवान् के शरीर को पोंछकर नाना प्रकार के सुंदर वस्त्रों को और आभूषणों को पहनाकर अलंकृत करती हैं। अनंतर इंद्र जिनबालक का नाम रखकर वापस लाकर माता—पिता को सौंपकर वहाँ पर तांडव नृत्य आदि करते हुये महान् उत्सव मनाते हैं ।
पश्चात् जिनबालक की सेवा करने के लिये देवों को उनके पास छोड़कर और भगवान् के हाथ के अंगूठे में अमृत आशेपित कर इंद्रादि देव अपने—ट्ठपने स्थानों पर चले जाते हैं भगवान् उस अंगूठे को चूसकर वृद्धि को प्राप्त होते हैं वे माता के स्तन का पान नहीं करते हैं।
भगवान् के बड़े होने पर उनके लिये भोजन और वस्त्र आदि सामग्री देव लोग स्वर्ग से ही लाते हैं। युवावस्था में कोई—कोई तो ब्याह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं और कोई बाल ब्रह्मचारी ही रहते हैं। उनके राज्य पट्ट के समय भी इंद्रादि देव गण आकर उनका राज्याभिषेक करते हैं । प्रभु के राज्य शासन में प्रजा परम सुख और सौभाग्य का अनुभव करती है।
जातिस्मरण, मेघविलय आदि किन्हीं कारणों से जब तीर्थंकर देव को संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य उत्पन्न होता है। तब उसी क्षण लौकांतिक देव आ जाते हैं और भगवान् को नमस्कार कर उनके वैराग्य की प्रशंसा करते हुये सातिशय पुण्य संचय करके वापस चले जाते हैं।
पुन: सौधर्म इंद्र आदि देवगण आकर प्रभु का महाभिषेक करके उन्हें पालकी में विराजमान करते हैं। पहले राजागण पुन: विद्याधर उस पालकी को ले चलते हैं उसके बाद इंद्रादि देव अपने कंधों पर रखकर आकाशमार्ग से दीक्षावन में पहुँच जाते हैं।
वहाँ पर पहले से ही इंद्राणी चौक पूर कर रखती हैं। उस पर विराजमान होकर भगवान् सर्व आभूषणों का त्याग करके पंचमुष्ठि केशलोंच कर डालते हैं। इंद्र उन केशों को रत्नपिटारे में रखकर ले जाकर उन्हें क्षीर सागर में विसर्जित कर देता है। भगवान् उस समय बेला, तेला आदि उपवास का नियम लेकर ध्यान में लीन हो जाते है।
अंतर्मुहूत में उन्हें मन: पर्ययज्ञान प्रगट हो जाता है। जब ध्यान समाप्त होता है तब वे पारणा के लिये ग्राम, नगर में प्रवेश करते हैं । कोई महाभाग्यशाली राजा उन्हें पड़गाहन कर निर्दोष और प्रासुक आहार प्रदान करके देवों द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि को प्राप्त करता है । वह दातार नियम से मोक्षगामी होता है। अनंतर भगवान् मौनपूर्वक तपश्चरण करते हुये अपना छद्मस्थ काल व्यतीत करते हैं।
कदचित् किसी वन में निश्चल ध्यान से आरूढ़ हुये भगवान् क्षपक श्रेणी पर आरोहण करके घातिया कर्मों का नाश कर देते हैं और केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। उसी क्षण सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर यहाँ आकर समवसरण की रचना कर देता है। उस समवसरण में भगवान् के चार अंगुल अधर विराजमान रहते हैं ।
उस समय कोई राजा—महाराजा दीक्षा लेकर भगवान् के गणधर हो जाते हैं । तब भगवान् की दिव्यध्वनि खिरती है। जो कि सात सौ अठारह भाषाओं में होती है अथवा समवसरण की बारह सभा में बैठे हुये असंख्य प्राणी उसे अपनी—अपनी भाषा में समझ लेते हैं । इस समवसरण में चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ होते हैं जिनके दर्शन से मिथ्यादृष्टि लोगों का मान गलित हो जाता है।
१. मुनि | २. कल्पवासिनी देवियाँ | ३. आर्यिकायें | ४. ज्योतिषी देवों की देवियाँ |
५. व्यंतर देवों की देवियाँ | ६. भवनवासी देवों की देवियाँ | ७. भवनवासी देव | ८. व्यंतर देव |
९. ज्योतिषी देव | १०. कल्पवासी देव | ११. मनुष्य | १२. तिर्यंच |
ये पृथक्—पृथक् अपने—अपने स्थान में बैठकर भगवान् का दिव्य उपदेश श्रवण करते हैं। भगवान् का जहाँ—जहाँ श्री विहार होता है वहाँ —वहाँ दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि रोग, शोक आदि संकटों का अभाव हो जाता है। बल्कि ५० वर्ष तक उस भूमि में कोई उपद्रव आदि नहीं होते हैं। पापी, विरुद्ध कार्य करने वाले, पाखंडी, नपुंसक, विकलांग और विकलेंद्रिय जीव उस समवसरण में प्रवेश नहीं कर पाते हैं वे बाहर ही बाहर प्रदक्षिणा देते हैं।
समवसरण भूमितल से बीस हजार हाथ प्रमाण ऊँचा रहता है अत: इसमें २० हजार पैड़ियाँ रहती हैं। वृद्ध, बालक आदि कोई भी नर—नारी भक्ति से अंतर्मुहूर्त मात्र में संपूर्ण सीढ़ियों को पार कर जाते हैं। यह सब भगवान् के केवलज्ञान का ही माहात्म्य है।
अधिक से अधिक एक और कम से कम दो दिन की जब आयु शेष रह जाती है तब भगवान् निश्चल ध्यान में आरूढ़ होकर योगों का निरोध कर लेते हैं। उस समय समवसरण विघटित हो जाता है।
भगवान् अंत में शेष अघाति कर्मों का भी विनाश कर एक समय मात्र में ऊध्र्व लोक के अग्रभाग पर पहुँच जाते हैं वहाँ पर अक्षय, अनंत, अविनाशी, शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेते हैं। उसी समय मुनियों का श्रेष्ठ संघ, देवों का समूह और चक्रवर्ती आदि प्रमुख राजाओं का समूह ये सब तीव्रभक्ति वश गंध, पुष्प, धूप, अक्षत और देदीप्यमान दीपक आदि के द्वारा जगदगुरु देवाधिदेव के शरीर की पूजा कर नमस्कार करते हैं।
और अग्निकुमार देव के मुकुटानल से उसका संस्कार करके उस पवित्र भस्म को अपने—अपने ललाट आदि उत्तम स्थानों में लगाकर अपने को पवित्र करके कृतकृत्य होते हुये अपने—अपने स्थान पर चले जाते हैं। जहाँ पर तीर्थंकर महापुरुष जन्म लेते हैं, दीक्षा ग्रहण करते हैं, केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं और निर्वाण को प्राप्त करते हैं ये कल्याणक स्थान कहलाते हैं।
ये पवित्र स्थान मनुष्यों ही क्या देव और इंद्रो के द्वारा तथा महामुनियों के द्वारा भी पूज्यता को प्राप्त हुये महातीर्थ कहलाते हैं। आज तीर्थंकरों का अवतार न होने से हमें प्रत्यक्ष में उनके कल्याणकों को देखने का अवसर नहीं मिलता है फिर भी जब जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा विधि की जाती है उस समय उन तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों का दृश्य दिखाया जाता है।
जो इस पंचकल्याणक प्रतिष्ठा को करते हैं, कराते अनुमोदना देते हैं और देखते हैं तथा सुनते हैं वे सभी महान् पुण्य के भागी होते हैं इसमें कोई संदेह नहीं हैं।