(शिष्य साधुवर्ग पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण में लघु सिद्ध श्रुत आचार्य भक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करें।)
नमोऽस्तु आचार्यवंदनायां प्रतिष्ठापनसिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं-
(९ जाप्य)
समकित दर्शनज्ञान वीर्य सूक्ष्मत्व तथा अवगाहन हैं।
अव्याबाध अगुरुलघु ये सिद्धों के आठ महागुण हैं।।१।।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध सुसंयमसिद्ध चरित सिद्धा।
ज्ञान सिद्ध दर्शन से सिद्ध नमूं सब सिद्धों को शिरसा।।२।।
नमोऽस्तु आचार्यवंदनायां प्रतिष्ठापनश्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं-
(९ जाप्य)
इक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस रु पाँच।
द्वादशांग श्रुत के पद इतने, वंदन करूं नमाकर माथ।।१।।
अर्हत् कथित अर्थमय सम्यक् गूंथा है गणधरगुरु ने।
उस श्रुतज्ञान जलधि को शिर से प्रणमूं भक्ति समन्वित मैं।।२।।
नमोऽस्तु आचार्यवंदनायां प्रतिष्ठापनाचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं-
(९ जाप्य)
श्रुतसमुद्रपारंगत स्वमत व परमतज्ञाता कुशलमती।
सच्चरित्रतप निधियुत गुणगुरु हे गुरु! तुमको करूं नती।।१।।
छत्तीस गुण से पूर्ण पाँच आचार क्रिया के धारी हो।
शिष्य अनुग्रहनिपुण धर्मआचार्य सदा वंदूं तुमको।।२।।
गुरुभक्ती संयम से तिरते भव्य भयंकर भव वारिधि।
अष्टकर्म छेदें वे फिर नहिं पाते जन्ममरण व्याधी।।३।।
व्रत अरु मंत्र होम में तत्पर ध्यान अग्नि में हवन करें।
तपोधनी षट् आवश्यकरत साधू उत्तम क्रिया धरें।।
शीलवस्त्रधर गुण आयुधयुत सूर्यचंद्र से तेज अधिक।
मोक्षद्वार उद्घाटन योद्धा साधु हों प्रसन्न मुझ प्रति।।४।।
ज्ञानदर्श के नायक गुरुवर नित मेरी रक्षा करिये।
चरितजलधिगंभीर मोक्षपथ उपदेशक पथ में धरिये।।५।।
(इसके बाद ‘जिनने कर्मकलिलधोया’ इत्यादि श्लोक से इष्ट देवता को नमस्कार करके ‘‘सभी प्राणियों में समता हो’’ इत्यादि पढ़कर आचार्यदेव सभी साधुवर्गों से सहित ‘‘सब सिद्ध’’ इत्यादि बड़ी सिद्धभक्ति अंचलिका सहित पढ़कर ‘‘चमकित मुकुट’’ इत्यादि चारित्रभक्ति वृहद् आलोचना सहित अर्हंत भगवान् के सामने पढ़ें। यह आचार्य और साधुओं की साधारण क्रिया है।)
जिनने कर्मकलिल धोया, श्रीवर्धमान को नित्य नमें।
जिनके ज्ञानमयी दर्पण में, लोकालोक सकल झलवेंâ।।१।।
सभी प्राणियों में समता हो, संयम हो शुभ भाव रहे।
आर्त रौद्र दुध्र्यान त्याग हो यही श्रेष्ठ सामायिक है।।२।।
सर्वातिचार–विशुद्ध्यर्थं पाक्षिकप्रतिक्रमणायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (णमो अरिहंताणं इत्यादि सामायिक दण्डक पढ़कर कायोत्सर्ग करके थोस्सामि स्तवन पढ़कर ‘‘सब सिद्ध कर्मप्रकृती’’ इत्यादि सिद्धभक्ति पढ़ें।)
(शंभु छन्द)
सब सिद्ध कर्म प्रकृती विनाश निज के स्वभाव को प्राप्त किये।
अनुपमगुण से आकृष्ट तुष्ट मैं वंदूं सिद्धी हेतु लिये।।
गुणगुण आच्छादक दोष नशें, सिद्धि स्वात्मा की उपलब्धी।
जैसे पत्थर सोना बनता, हों योग्य उपादान अरु युक्ती।।१।।
नहिं मुक्ति अभावरूप जिनगुण की हानि तपों से उचित न है।
आत्मा अनादि से बंधा स्वकृतफलभुक् तत्क्षय से मुक्ति लहे।
ज्ञाता दृष्टा यह स्वतनुमात्र संहार विसर्पण गुणयुत भी।
उत्पाद व व्यय धुव्रयुत जिनगुणयुत अन्य प्रकार नहीं सिद्धी।।२।।
जो अन्तर्बाह्य हेतु से प्रगटित निर्मल दर्शन ज्ञान कहा।
चारित संपत्ती प्रहरण से सब घाति चतुष्टय, हानि किया।।
फिर प्रगट अचिन्त्य सार अद्भुतगुण केवलज्ञान सुदर्शन सुख।
अरु प्रवर वीर्य सम्यक्त्व प्रभामंडल चमरादिक से राजित।।३।।
जानें देखें सह त्रिभुवन को जो सदा तृप्त हो सुख भोगें।
तमके विध्वंसक समवसरण में सब को तर्पित कर शोभेें।।
वे सभी प्रजा के ईश्वर पर की ज्योति तिरस्कृत कर क्षण में।
बस स्व में स्व से स्व को प्रगटित कर स्वयं स्वयंभू आप बने।।४।।
अवशेष अघाती बेड़ीवत् जो कर्म बली उनको घाता।
सूक्ष्मत्व अगुरुलघु आदि अनंत, स्वाभाविक क्षायिक गुण पाया।।
वे अन्य कर्म क्षय से निज की, शुद्धी से महिमाशाली हैं।
प्रभु ऊर्ध्वगमन से एक समय में लोक अग्र पर ठहरें हैं।।५।।
जो अन्याकार प्राप्ति हेतू नहिं हुआ विलक्षण किचिंत् कम।
वो पूर्व स्वयं संप्राप्त देह, प्रतिकृति है रुचिर अमूर्त अमम।।
सब क्षुधा तृषा ज्वर श्वास कास, जर मरण अनिष्ट योग रहिता।
आपत्ती आदि उग्र दुःखकर भगवत सुख कौन माप सकता।।६।।
सब सिद्ध स्वयं के उपादान से स्वयं अतिशयी बाधरहित।
वृद्धि व ह्रास से रहित विषय-विरहित, प्रतिशत्रू रहित अमित।।
सब अन्य द्रव्य से निरापेक्ष, निरुपम, त्रैकालिक अविनश्वर।
उत्कृष्ट अनंतसार सिद्धों के, हुआ परमसुख अति निर्भर।।७।।
नहिं भूख प्यास अतएव विविध रस-अन्न पान से नहिं मतलब।
नहिं अशुची ग्लानि निद्रादिक, माला शय्या से है क्या तब।।
नहिं रोग जनित पीड़ा है तब, उपशमन हेतु औषधि से क्या।
सब तिमिर नष्ट हो गया दिखे, सब जगत् पुनः दीपक से क्या।।८।।
जो विविध सुनय तप संयम दर्शन, ज्ञान चरित्र से सिद्ध हुए।
गुण संपद् से युत विश्वकीर्ति, व्यापी देवों के देव हुए।।
उत्कृष्ट जनों से संस्तुत जग में, भूत भावि सांप्रत सिद्धा।
मैं नमूं अनंतों को त्रैकालिक, उन स्वरूप की है इच्छा।।९।।
दोहा-
बत्तिस दोषों से रहित, परम शुद्ध शुभ खान।
करके कायोत्सर्ग जो, भक्ति सहित अमलान।।
नित प्रति वंदे भाव से, सिद्ध समूह महान् ।
वह पावे झट परम सुख, ज्ञान सहित शिव धाम।।९।।
अंचलिका हे भगवन् ! श्री सिद्धभक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसका। आलोचन करना चाहूँ जो, सम्यग्रत्नत्रय युक्ता।। अठ विधकर्मरहित प्रभु ऊध्र्व-लोक मस्तक पर संस्थित जो। तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयम सिद्ध चरितसिध जो।। भूत भविष्यत् वर्तमान, कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा। नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूं, वंदूं नमूं भक्ति युक्ता।। दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे। सुगति गमन हो समाधि मरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।
सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं आलोचनाचारित्रभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (णमो अरिहंताणं इत्यादि सामायिक दंडक पढ़कर, ९ जाप्य करके, थोस्सामिस्तवन पढ़कर चारित्र भक्ति पढ़ें।
चौबोल छन्द-
चमकित मुकुट मणी की प्रभ से, व्याप्त सु उन्नत है मस्तक।
वंâकण हारादिक से शोभित, त्रिभुवन के इंद्रादिक सब।।
जिससे उनको स्वपद कमल में, नमित किया नित मुनियों ने।
उन अर्चित पंचाचारों को, कथन हेतु अब नमूं उन्हें।।१।।
व्यंजन अर्थ उभय शुद्धी युत, काल विनय शुद्धी उपधा।
निज सूरि का निन्हव नहिं, बहुमान कहीं ये अष्ट विधा।।
श्रीमद् प्रभू जातिकुल इन्द्र, तीर्थंकर से कथित महान् ।
ज्ञानाचार त्रिधा मैं प्रणमूं, कर्म नाश हेतू सुखदान।।२।।
शंका कांक्षा मूढ़दृष्टि से, रहित सदा वात्सल्य सहित।
विचिकित्सा से दूर धर्म के, वृद्धिंगत में तत्पर नित।।
जिन शासन उद्दीपन हित, पथभ्रष्टों को करना स्थिर।
आदर से शिर नत वंदूं, अष्टांग दर्शनाचार प्रवर।।३।।
अनशन अवमोदर्य वृत्ति-परिसंख्या कायक्लेश सुतप।
इन्द्रिय हस्ती को मद कारक-विविध रसों का त्याग सुतप।।
नित एकांत शयन उपवेशन, ये छह बाह्य कहे हैं तप।
शिवगति प्राप्ति के उपाय, मैं इनकी संस्तुति करूं सतत।।४।।
क्रिया व्रतों में दोष लगे तब, प्रायश्चित स्वाध्याय महान।
बाल वृद्ध रोगी यति गुरु की, वैयावृत्ति नित्य शुचि ध्यान।।
कायोत्सर्ग विनय तप षट् विधि, अंतरंग ये कहे प्रधान।
अंतरंग रागादि दोष विध्वंसक इनको नमूं सुजान।।५।।
अर्हत मत के श्रद्धानी जो, सम्यग्ज्ञान चक्षु धारी।
तप में शक्ती नहीं छिपाते, करें प्रयत्न सदा भारी।।
उनकी चर्या छिद्र रहित, नौका सम भवदधि तरणी है।
ऐसा वीर्याचार नमूं मैं, गुणमय सज्जन अर्चित है।।६।।
मन वच काय निमित्तक उत्तम, तीन गुप्ति भव दुःख वारक।
ईर्या समिती आदि पंच हैं, पंच महाव्रत भी चारित।।
वृषभ वीर के सिवा त्रयोदश, चरित अन्य ने नहीं कहा।
परमेष्ठी जिनपती वीर को, सच्चरित्र को नमूं सदा।।७।।
पंचाचार भवोदधि तारक, तीर्थ महा मंगल उसको।
वंदूं चारित युत सब यतिपति, निग्र्रंथों को भी नति हो।।
आत्माधीन सुखोदय वाली, लक्ष्मी अविनाशी अनुपम।
केवलदर्शन ज्ञान प्रकाशी, उज्ज्वल उसके इच्छुक हम।।८।।
यदि आगम प्रतिकूल चरित को, मैंने किया कराया है।
उससे अर्जित पाप नाश हों, चारित तप की महिमा से।।
इस चारित तप से ये अद्भुत, सात ऋद्धि निधि भी होवें।
स्व की निंदा करते मेरे, सब दुष्कृत मिथ्या होवें।।९।।
भव दुःख से भयभीत सदोदय, सुख के इच्छुक जो प्राणी।
मुक्ति के हैं निकट सुमतियुत, पाप शांतयुत ओजस्वी।।
मोक्षमहल की सीढ़ी सम यह, चारित उत्तम अतुल विशाल।
वे इस पर चढ़ मोक्षमहल में, पहुँचे रहें अनन्तों काल।।१०।।
शंभु छंद
हे भगवन् ! मैं अष्टमी दिवस का चाहूं आलोचन करना।
आठ दिवस औ आठ रात्री के भीतर हुए दोष हरना।।
ज्ञानाचार दर्शनाचार व तप आचार तथा वीर्याचारा।
चारित्राचार पांच ये हैं आचार मोक्ष के आधारा।।
हे भगवन्! पाक्षिक प्रतिक्रमण का चाहूं आलोचन करना।
पन्द्रह दिन पन्द्रह रात्रि के भीतर हुए दोषों को हरना।।
ज्ञानाचार दर्शनाचार व तप आचार तथा वीर्याचारा।
चारित्राचार पांच ये हैं आचार मोक्ष के आधारा।।
हे भगवन्! चातुर्मासिक का आलोचन करूं चउ महीने में।
इन आठ पक्ष में इकसौ बीस दिवस इकसौ बीस निशि में।।
ज्ञानाचार दर्शनाचार व तप आचार तथा वीर्याचारा।।
चारित्राचार पांच ये हैं आचार मोक्ष के आधारा।।
हे भगवन्! वार्षिक का आलोचन करूं सु बारह महिने में।
चउबीस पक्ष में त्रय सौ छ्यासठ दिवस व इतनी रात्रि में।।
ज्ञानाचार दर्शनाचार व तप आचार तथा वीर्याचारा।
चारित्राचार पांच हैं ये आचार मोक्ष के आधारा।।
इनमें है ज्ञानाचार प्रथम, जो आठ भेद शुद्धीयुत है।
वह काल विनय उपधान३ तथा बहुमान४ अनिह्नव व्यंजन है।।
पुनि अर्थ उभय५ इन शुद्धि से स्तव६ स्तुति७ अर्थाख्याना८।।
अनुयोग९ और अनुयोगद्वार१० में किया यदी अक्षर हीना।।
या पद से कम या व्यंजन कम या अर्थहीन या ग्रंथ कमी।
यदि अकाल में स्वाध्याय किया या करवाया या अनुमति दी।।
या काल में नहिं स्वाध्याय किया या झटिति पढ़ा मिथ्या मिश्रण।
विपरीत अर्थकर पढ़ा अन्यथा कहा अन्यथा किया ग्रहण।।
छह आवश्यक में हानी की, इस ज्ञानाचार में दोष किया।
पणविध स्वाध्याय की सिद्धी हो, वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।१।।
दर्शनाचार आठविध है निःशंकित नि:कांक्षित गुण से।
अरु निर्विचिकित्सा अमूढ़दृक् उपगूहन स्थितिकरण गुण से।।
वात्सल्य प्रभावन इन अठ में शंका कांक्षा व जुगुप्सा की।
मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा की अरु परपाखंड प्रशंसा की।
अनायतन की सेवा की वात्सल प्रभावना नहीं किया।
इन दोषों से जो हानी की वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।२।।
छह अभ्यंतर छह बाहिर से बारहविध तप आचार कहा।
उनमें से अनशन अमोदर्य वृतपरिसंख्या रसत्याग कहा।।
तनुपरित्याग-तनुक्लेश५ विविक्त शयनासन तप बाह्य कहे।
प्रायश्चित विनय सुवैयावृत स्वाध्याय ध्यान६ व्युत्सर्ग कहे।।
इन बारह तप को नहीं किया परिषह से पीड़ित छोड़ दिया।
तप किरिया में जो हानी की, वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।३।।
है वीर्याचार पांचविध से वर, वीर्य पराक्रम से जानो।
आगमवर्णित२ तपपरीमाण, बल३ वीर्य४-सहज शक्ती मानो।।
परक्रम५-परिपाटी से मैंने, पण वीर्याचार में हानी की।
निज शक्ति छिपायी तपश्चरण, करने में तप में हानी की।
तप क्रिया न की परीषह आदि, से पीड़ित हो यदि छोड़ दिया।
इस वीर्याचार में दोष किया, वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।४।।
हे भगवन् ! इच्छा करता हूँ, चारित्राचार त्रयोदशविध।
वह पांच महाव्रत पांच समिति, अरु तीन गुप्तिमय जिनभाषित।।
इनमें हिंसा का त्याग महाव्रत, प्रथम कहा है जिनवर ने।
भूकायिक जीव असंख्यातासंख्यात व जलकायिक इतने६।।
अग्नीकायिक भि असंख्यातासंख्यात पवनकायिक इतने७।
जो वनस्पतिकायिक प्राणी, वे सभी अनंतानंत भणें।।
ये हरित बीज अंकुर स्वरूप, नानाविध छिन्न-भिन्न भी हों।
इन सबको प्राणों से मारा, संताप दिया पीड़ा दी हो।।
उपघात किया मनवचतन से, या अन्यों से करवाया हो।
या करते को अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१।।
दो इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात कुक्षि कृमि४ शंख कहे।
क्षुद्रक कौड़ी व अक्ष अरिष्टय५, गंडबाल लघु शंख कहे।।
जो सीप जोंक आदिक इनको, मारा या त्रास दिया भी हो।
पीड़ा दी या उपघात किया, या पर से भी करवाया हो।।
या करते को अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२।।
त्रय इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात वुंâथु६ देहिक बिच्छू।
जूं गोजों खटमल इंद्रगोप, चिउंटी आदिक बहुविध जंतू।।
इनको मारा संताप दिया, पीड़ा दी घात किया भी हो।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३।।
चउ इंद्रिय जीव असंख्यातासंख्यात उन्हों में डांस मशक।
बहु कीट पतंगे भ्रमर मधूमक्खी गोमक्खी आदि विविध।।
इनको मारा परिताप विराधन, या उपघात किया भी हो।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।४।।
पचेंद्रिय जीव असंख्यातासंख्यात इन्हों में अंडज हैं।
पोतज व जरायुज रसज पसीनज सम्मूर्छन उद्भेदिम हैं।।
उपपाद जन्मयुत भी चौरासी, लाख योनि वालों में जो।
इनको मारा संताप दिया पीड़ा दी घात किया जो हो।।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१।।
अब अन्य द्वितीय महाव्रत में विरती है झूठ बोलने से।
इसमें जो क्रोध मान माया या लोभ राग या द्वेषों से।।
या मोह हास्य या भय प्रदोष या प्रमाद प्रेम या गृद्धी६ से।
लज्जा गारव७ व अनादर से या अन्य किन्हीं भी कारण से।।
जो कुछ भी झूठ वचन बोले या पर से भी बुलवाया हो।
या अन्यों को अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२।।
अब अन्य तृतीय महाव्रत में बिन दी वस्तु से विरती है।
ग्राम नगर खेट८ कर्वट९ मटंब१०, मण्डल पत्तन११ या द्रोणमुखे१२।।
गोकुल आश्रम व सभा संवाहन१३ राजधानी१४ इन आदी में।
तृण लकड़ी विकृती१५ मणि आदी कुछ भी बिन दिये ग्रहा मैंने।।
या पर से ग्रहण कराया हो अनुमति दी लेने वालों को।
जो दोष हुए हों इस व्रत में वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३।।
अब अन्य चतुर्थ महाव्रत में मैथुन सेवन से विरती है।
इसमें देवी के नारी के तिर्यंचि अचेतन पुतली के।।
(आर्यिकाओं को उपरोक्त पंक्ति की जगह निम्न पंक्ति बोलना चाहिए)
(इसमें देवों के मानव के तिर्यंच अचेतन चित्रों के।)
सुन्दर व असुन्दर रूपों में प्रिय अप्रिय शब्द व गंधों में।
चक्षूइंद्रिय के विषयों में कर्णेन्द्रिय के परिणामों में।।
घ्राणेंद्रिय के विषयों में रसनेंद्रिय की अभिलाषा में।।
स्पर्शेन्द्रिय के विषयों में या मन के अनियत विषयों में।
मन वच तन को वश में नहिं कर इंद्रिय को वश नहिं करके मैं।।
इन नवविध ब्रह्मचर्य की रक्षा नहिं की नहीं करायी हो।
नहिं रक्षक को अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।४।।
अब अन्य पांचवे महाव्रत में, परिग्रह रखने से विरती है।
वह परिग्रह अभ्यंतर व बाह्य, से द्विविध तथा अभ्यंतर में।।
वो ज्ञानावरणी दर्शनावरण वेदनीय मोहनी आयु कहे।
पुनि नाम गोत्र अरु अन्तराय ये अठविध अंतर परिग्रह हैं।।
बाहिर परिग्रह-उपकरण-शास्त्र पिच्छी व भांड३ फलक आसन।
कमंडलु४ संस्तर काठ व तृण वसती५ व देवकुल६ आदि ग्रहण।।
भोजनपानादिक भेदों से बहुविध परिग्रह के लेने में।
जो अठविध कर्मोें को मैंने, बांधा है अज्ञानादी से।
पर को भी बंध कराया हो या करते को अनुमति दी हो।।
जो परिग्रह त्याग में दोष किये, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।५।।
अब अन्य छठे अणुव्रत में भी रात्री भोजन से विरती है।
इसमें भोजन पानक व खाद्य अरु स्वाद्य चतुर्विध भोजन है।।
इसमें जो तीखा कटु कषायला खट्टा मीठा लवणमयी।
जो कुछ अयोग्य वस्तू खाने का चिंतन किया व प्रेरणा दी।।
अथवा अयोग्य आहार किया या स्वप्न में मैंने खाया हो।
या पर को खिलाया अनुमति दी वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।छ।।
पण समिति में ईर्यासमिति व भाषासमिति एषणासमिती है।
आदान-निक्षेपण समिति अरू मलमूत्रादिविसर्जन समिती है।।
इसमें ईर्यासमिती पूर्वोत्तर दक्षिण पश्चिम चउदिश में।
विदिशा में भी चलना चाहिए चउ हाथ देखकर आगे में।।
फिर भी प्रमाद से शीघ्र चला या इधर-उधर मुख कर करके।
जो प्राण भूत अरु जीव सत्त्व का घात किया नहिं लख करके।।
या पर से घात कराया हो या करते को अनुमति दी हो।
ईर्यासमिती में दोषों का वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।६।।
भाषासमिती में कर्वâश६ कडुवे मर्मभेदि७ निष्ठुर वच हैं।
परक्रोधजनक हड्डी में घुसते मध्यंकृश८ अतिमदकर९ है।।
विद्वेषकरी अनयंकर१० छेदंकर निमूलनाशी वच हैं।
प्राणी की वधकर ये दशविध की भाषा जिनमतभाषित हैं।।
ऐसी भाषा बोली मैंने या पर से भी बुलवायी हो।
बोलते अन्य को अनुमति दी वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।७।।
एषणसमिती में अधःकर्म११ है महादोष उसको करके।
पश्चात्१२ कर्म या पुराकर्म१३ उद्दिष्ट१४ निर्दिष्ट१५ क्रीत१६ युत से।।
स्वादिष्ट रसीले आसक्तिक इंगाल१७ व धूमदोष१८ करके।
अतिगृद्धी से ही अग्नीसम छह जीवकाय बाधा करके।।
नहिं योग्य१९ अन्नपान भिक्षा आहार लिया या लिवाया हो।
लेते को भी अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।८।।
आदान निक्षेपण समिती में चक्कल३ पाटा या ग्रंथों को।
या कमंडलु विकृती या मणि इत्यादिक बहु उपकरणों को।।
पिच्छी से शोधन नहिं करके धरते या उठाकर लेने से।
जो प्राण भूत अरु जीव सत्त्व का घात किया हो प्रमाद से।।
पर से उपघात कराया हो या करने की अनुमति दी हो।
इस समिती में जो दोष हुआ, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।९।।
उत्सर्ग समिति मल मूत्र थूक कफ विकृति विसर्जन करने में।
रात्री में या संध्या४ में नयन अगोचर अप्रासुक५ थल में।।
स्थान खुला गीली भू हरितघासयुत बीज सहित थल में।
इत्यादि अप्रासुक थल में जो मल आदि त्याग के करने में ।।
जो प्राण भूत अरु जीव सत्त्व का घात किया या कराया हो।
करते को भी अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१०।।
मनगुप्ति वचनगुप्ती व कायगुप्ती त्रयगुप्ती हैं इनमें।
जो आर्तध्यान अरु रौद्र ध्यान इह भव अरु परभव संज्ञा में।।
आहार व भय मैथुन परिग्रह, इन चारों ही संज्ञाओं से।
इत्यादि अशुभ संकल्पों से मन को न नियंत्रित रखने से।।
नहिं रखी सुरक्षित मनगुप्ती नहिं अन्यों से रखवायी हो।
नहिं रखते को अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।११।।
वचगुप्ती मे जो स्त्री कथा धन कथा व भोजन राजकथा।
अरु चोर वैर की कथा व परपाखंड कथा इत्यादि कथा।।
इनको कर मैं वचगुप्ती की रक्षा नहिं की न करायी हो।
नहिं करते को अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१२।।
जो कायगुप्ति में चित्रकर्म२ या पुस्तकर्म३ या काठकर्म४।
या लेप्यकर्म इत्यादि विविध स्त्रीरूपादिक बिन चेतन।।
इनमें नहिं कायगुप्ति रक्खी पर से रक्षा न करायी हो।
नहिं रक्षण करते को अनुमति दी दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१३।।
नव५ ब्रह्मचर्य गुप्ती चउ संज्ञा चार हि आस्रव६ कारण हैं।
दो आर्तरौद्र संक्लेश भाव त्रय अप्रशस्तसंक्लेश७ कहे।।
मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्या चरित्र चउ उपसर्गा।
चारित्र पाँच छह जीवकाय छह आवश्यक अरु भय सप्ता।।
अठशुद्धी नव ब्रह्मचर्यगुप्ति दश श्रमण धर्म दश धर्म ध्यान।
दश मुंडन बारह संयम बाइस परिषह भावना बीस पांच५।।
पच्चीस क्रिया अठरह हजार हैं शील व गुण चौरासि लाख।
अठबीस मूलगुण बहु उत्तरगुण इन सबमें कीना विघात।।
इन६ पन्द्रह दिनों में पाक्षिक में अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार अरू।
जो अनाचार आभोग अनाभोग उन सबका प्रतिक्रमण करूं।।
प्रतिक्रमण सुकरते हुए मेरा सम्यक्त्वमरण व समाधिमरण।
हो पंडितमरण व वीर्यमरण जिससे नहिं होवे पुनः मरण।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय होवे मम बोधिलाभ होवे।
हो सुगतिगमन व समाधिमरण मम जिनगुणसंपति होवे।।
(केवल आचार्य ‘‘णमो अरहंताणं’’ इत्यादि सामायिक दण्डक पढ़कर कायोत्सर्ग करके ‘थोस्सामिस्तवन’ पढ़कर लघु सिद्ध भक्ति अंचलिका सहित पढ़ें। पुनः पूर्वोक्त विधि करके लघु योगिभक्ति अंचलिका सहित पढ़कर ‘‘हे भगवन् ! इच्छा करता हूँ’’ इत्यादि चारित्रालोचना पढ़कर ‘व्रत समिति’ इत्यादि ‘छेदोपस्थापन मेरा हो’ इसे तीन बार पढ़कर अपने दोषों की भगवान के सामने आलोचना करें। दोषों के अनुसार प्रायश्चित लेकर ‘‘पंचमहाव्रत’’ आदि पाठ को तीन बार बोलें पुनः भगवान् के सामने गुरुभक्ति पढ़ें। अनन्तर आचार्य के समक्ष सभी शिष्यवर्ग पूर्वोक्त विधि से लघु सिद्ध- भक्ति, लघु योगिभक्ति व चारित्रालोचना पढ़कर गुरु के समक्ष ही अपने दोषों की आलोचना करें तब आचार्यदेव शिष्यों को योग्य प्रायश्चित प्रदान करें। इसके बाद सभी शिष्य वर्ग भी आचार्यभक्ति पढ़कर गुरु की वंदना करें। उसी का स्पष्टीकरण)। नमोऽस्तु सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (‘‘णमो अरहंताणं’’ इत्यादि सामायिक दण्डक पढ़कर ९ जाप्य करके थोस्सामिस्तवन पढ़कर लघु सिद्धभक्ति पढ़ें।)
समकित दर्शनज्ञान वीर्य सूक्ष्मत्व तथा अवगाहन हैं।
अव्याबाध अगुरुलघु ये सिद्धों के आठ महागुण हैं।।१।।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध सुसंयमसिद्ध चरित सिद्धा।
ज्ञान सिद्ध दर्शन से सिद्ध नमूं सब सिद्धों को शिरसा।।२।।
अंचलिका-
हे भगवन् ! श्री सिद्धभक्ति का कायोत्सर्ग किया उसका।
आलोचन करना चाहूँ जो सम्यग्रत्नत्रय युक्ता।।१।।
अठविधि कर्म रहित प्रभु ऊध्र्वलोक मस्तक पर संस्थित जो।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध सुसंयमसिद्ध चरित सिद्ध जो।।२।।
भूत भविष्यत वर्तमान कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूं, वंदूं नमूं भक्ति युक्ता।।३।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं मम जिनगुण संपति होवे।।४।।
नमोऽस्तु सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं आलोचनायोगिभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं-
(णमो अरहंताणं इत्यादि दण्डक पढ़कर ९ जाप्य करके थोस्सामिस्तवन पढ़कर लघु योगिभक्ति पढ़कर चारित्रालोचना पढ़ें।)
बिजली चमके अतिजल वर्षे, वर्षा में तरुतल बैठें।
शीतकाल रात्रि में निर्भय, काष्ठ सदृश निर्मम तिष्ठें।।
गर्मी में रविकिरण तप्त गिरि, शिखरों पर निज ध्यान धरें।
शिवपथ पथिक साधु पुंगव वे, मुझको धर्म प्रदान करें।।१।।
ग्रीष्मऋतु में पर्वत ऊपर, वर्षा में तरु के नीचे।
शीतकाल में बाहर सोते, उन मुनि को वंदूं रुचि से।।२।।
पर्वत वंâदर दुर्गों में जो, नग्न दिगम्बर तनु रहते।
पाणिपात्रपुट से आहारी, वे मुनि परमगती लभते।।३।।
अंचलिका-
हे भगवन् ! इस योगिभक्ति का, कायोत्सर्ग किया रूचि से।
उसकी आलोचन करने की, इच्छा करता हूं मुद से।।
ढाई द्वीप अरु दो समुद्र की, पन्द्रह कर्म भूमियों में।
आतापन तरुमूल योग, अभ्रावकाश से ध्यान धरें।।१।।
मौन करें वीरासन कुक्कुट, आसन एकपाश्र्व सोते।
बेला तेला पक्ष मास, उपवास आदि बहु तप तपते।।
ऐसे सर्व साधुगण की मैं, सदा काल अर्चना करूँ।
पूजूं वंदूं नमस्कार भी, करूं सतत वन्दना करूं।।२।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपति होवे।।३।।
शंभु छंद-
हे भगवन् ! इच्छा करता हूँ, चारित्राचार त्रयोदशविध।
ये पाँच महाव्रत पांच समिति, अरु तीन गुप्तिमय जिनभाषित।।
इनमें िंहसा का त्याग महाव्रत प्रथम कहा है जिनवर ने।
भूकायिक जीव असंख्यातासंख्यात व जलकायिक इतने१।।
अग्नीकायिक भि असंख्यातासंख्यात पवनकायिक इतने१।
जो वनस्पतिकायिक प्राणी, वे सभी अनन्तानन्त भणें।।
ये हरित बीज अंकुर स्वरूप, नानाविध छिन्न-भिन्न भी हो।
इन सबको प्राणों से मारा, संताप दिया पीड़ा दी हो।।
उपघात किया मनवचतन से, या अन्यों से करवाया हो।
या करते को अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१।।
दो इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात कुक्षि कृमि२ शंख कहे।
क्षुद्रक कौड़ी व अक्ष अरिष्टय३, गंडबाल लघु शंख कहे।।
जो सीप जोंक आदिक इनको, मारा या त्रास दिया भी हो।
पीड़ा दी या उपघात किया, या पर से भी करवाया हो।।
या करते को अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२।।
त्रय इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात वुंâथु४ देहिक बिच्छू।
जूं गोजों५ खटमल इन्द्रगोप, चिउंटी आदिक बहुविध जन्तु।।
इनको मारा संताप दिया, पीड़ा दी घात किया भी हो।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३।।
चउ इंद्रिय जीव अंसख्यातासंख्यात उन्हों में डांस मशक।
बहु कीट पतंगे भ्रमर मधूमक्खी गोमक्खी आदि विविध।।
इनको मारा परिताप विराधन, या उपघात किया भी हो।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।४।।
पंचेंन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात इन्हों में अण्डज हैं।
पोतज व जरायुज रसज पसीनज सम्मूर्छन उद्भेदिम हैं।।
उपपाद जन्मयुत भी चौरासी, लाख योनि वालों में जो।
इनको मारा संताप दिया पीड़ा दी घात किया हो जो।।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।५।।
व्रत समिति इंद्रियनिरोध छह आवश्यक आचेलक लोच।
भूमिशयन अस्नान अदंतधावन स्थितिभुक्ती भत्तैकं।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के प्रमाद से इनमें अतिचार।
इनसे दूर हुआ हूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ!।।१।।
(तीन बार पढ़ें) (आचार्यश्री से प्रायश्चित्त लेवें)
प्रायश्चित शुद्धि के लिए रस परित्याग आदि करें। पंचमहाव्रत पंचसमिति पंचेन्द्रियरोध लोच षडावश्यकक्रियादयोऽष्टाविंशतिमूलगुणाः उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्या गाकिचन्यब्रह्मचर्याणि दशलाक्षणिको धर्मः अष्टादशशीलसहस्राणि चतुरशीतिलक्षगुणाः त्रयोदशविधं चारित्रं द्वादशविधं तपश्चेति सकलं सम्पूर्णं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसाक्षिवंâ सम्यक्त्वपूर्वकं दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु।। (तीन बार बोलें) नमोऽस्तु निष्ठापनाचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (९ जाप्य)
श्रुतसमुद्र पारंगत स्वमत व परमतज्ञाता कुशलमती।
सच्चरित्रतप निधियुत गुणगुरु हे गुरु! तुमको करूं नती।।१।।
छत्तीस गुण से पूर्ण पांच आचार क्रिया के धारी हो।
शिष्य अनुग्रहनिपुण धर्मआचार्य सदा वंदूं तुमको।।२।।
गुरुभक्ति संयम से तिरते भव्य भयंकर भव वारिधि।
अष्टकर्म छेदें वे फिर निंह पाते जन्ममरण व्याधी।।३।।
व्रत अरु मंत्र होम में तत्पर ध्यान अग्नि में हवन करें।
तपोधनी षट् आवश्यकरत साधू उत्तम क्रिया धरें।।
शीलवस्त्रधर गुण आयुधयुत सूर्य चन्द्र से तेज अधिक।
मोक्ष द्वार उद्घाटन योद्धा साधु हो प्रसन्न मुझ प्रति।।४।।
ज्ञान दर्श के नायक गुरुवर नित मेरी रक्षा करिये।
चरितजलधिगंभीर मोक्षपथ उपदेशक पथ में धरिये।।५।।
(पुनः सभी साधुवर्ग आचार्यश्री के सामने पूर्वोक्त सिद्धभक्ति, योगिभक्ति चारित्रालोचना पढ़कर गुरु के पास दोषों की आलोचना कर प्रायश्चित ग्रहण करें। अनन्तर आचार्य भक्ति द्वारा गुरु की वंदना करें। बाद में आचार्य के साथ-साथ आगे का पाठ पढ़ें।) दोहा भगवन् ! मैं पाक्षिक सभी दोष विशोधन हेत । (भगवन् ! चउमासिक१ सभी दोष विशोधन हेत।।) (भगवन् ! मैं वार्षिक२ सभी दोष विशोधन हेत।) (भगवन् ! मैं यौगिक३ सभी दोष विशोधन हेत।।) चाहूं आलोचन करन श्रद्धाभक्ति समेत।।१।।
हैं पांच महाव्रत उनमें प्रथम, महाव्रत प्राणी वध विरती।
दूजा महाव्रत असत्यविरती, तीजा अदत्त से है विरती।।
चौथा महाव्रत मैथुन विरती, पंचम परिग्रह से विरती है।
छट्ठा अणुव्रत रात्रिभोजन, से विरती पुनि त्रय गुप्ती हैं।।२।।
पणज्ञान व दर्शन चारित में, बाईस परीषह सहने में।
पच्चीस भावना क्रिया पचीस व अठरह हजार शीलोें में।।
चौरासी लाख गुणों में बारह संयम बारह अंगों में।
तेरह चारित चौदह पूरब ग्यारह प्रतिमा दश मुंडों में।।३।।
दश श्रमण धर्म दश धर्म ध्यान नव ब्रह्मचर्य गुप्ती उनमें।
नव नो कषाय सोलह कषाय अठ कर्म अठ प्रवचन माता में।।
भय सप्त सप्त संसार जीव षट्काय व छह आवश्यक में।
पंचेन्द्रिय पांच महाव्रत पांच समिति अरु पांच चरित्रों में।।४।।
चउ संज्ञा चउ प्रत्यय व चार उपसर्ग मूलगुण अठबिस में।
उत्तर गुण में अठ शुद्धी में जो कुछ भी दोष हुए इनमें।।
जो अशुभराग से महिलादी (पुरुषादी) को अवलोका स्पर्शा हो।
मन वचन काय की दुष्ट क्रिया से प्रादोषिक किरिया की हो।।५।।
इनमें जो क्रोध मान माया से लोभ राग या द्वेष निमित।
या मोह हास्य या भय प्रदोष व प्रमाद प्रेम गृद्धी निमित्त।।
लज्जा से या गारव से जो व्रत आदि में आसादना किया।
उन दोषों की शुद्धी हेतू पाक्षिक में आलोचना किया।।६।।
त्रय दंड अशुभ त्रय लेश्यायें, त्रय गारव-ऋद्धि स्वाद रस के।
त्रय अप्रशस्त संक्लेशभाव, दो आर्त रौद्र संक्लेशों के।।
मिथ्या कुज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्या चारित मिथ्या भिप्राय।
असंयम कषाय योग माने इन तीनों के प्रायोग्य भाव।।७।।
अप्रायोग्य सेवन-नहिं करने योग्य कार्य को किया यदी।
प्रायोग्य-योग्य सम्यक्त्व आदि भावों की गर्हा किया यदी।।
इनसे जो कुछ भी पाक्षिक में अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार किया।
या अनाचार आभोग व अनाभोग करके बहु दोष किया।।८।।
हे भगवन् ! उसका प्रतिक्रमण करता हूँ ऐसे मेरा प्रभु।
सम्यक्त्वमरण रू समाधि व पंडितमरण वीर्ययुत मरण प्रभू।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे प्रभु बोधिलाभ होवे।
हो सुगतिगमन व समाधिमरण जिनगुण की संप्राप्ती होवे।।९।।
व्रत समिती इंद्रियनिरोध छह आवश्यक आचेलक लोच।
भूमिशयन अस्नान अदंतधावन स्थिति भुक्ती भक्तैक।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के प्रमाद से इनमें अतिचार।
इनसे दूर हुआ हूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ।।१।।
(तीन बार) पंचमहाव्रत-पंचसमिति-पंचेन्द्रियरोध-लोच षडावश्यकक्रियादयोऽ-ष्टाविंशतिमूलगुणाः उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्य-ब्रह्मचर्याणि दशलाक्षणिको धर्मः अष्टादशशीलसहस्राणि चतुरशीतिलक्षगुणाः त्रयोदशविधं चारित्रं, द्वादशविधं तपश्चेति सकलं सम्पूर्णं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुसाक्षिकं सम्यक्त्वपूर्वकं दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु। (तीन बार बोलें)
सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं १पाक्षिकप्रतिक्रमणायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं प्रतिक्रमणभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (ऐसा उच्चारण करके ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि सामायिक दंडक को पढ़कर कायोत्सर्ग करें। यहां तक यह क्रिया आचार्य और साधुओं की एक साथ होती है। पुनः सभी शिष्यवर्ग स्थिरचित्त से बैठे रहते हैं, केवल आचार्य ही थोस्सामि पढ़कर आगे के सारे दंडक सूत्रों को पढ़ते हैं। अन्य साधु-शिष्यगण सुनते रहते हैं।) णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।१।। चत्तारिमंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारिलोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमाकेवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारिसरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि। ढाई द्वीप अरु दो समुद्र गत पन्द्रह कर्म भूमियों में। जो अर्हत भगवंत आदिकर तीर्थंकर जिन जितने हैं।।१।। तथा जिनोत्तम केवलज्ञानी सिद्ध शुद्ध परि निर्वृतदेव। पूज्य अंतकृत, भवपारंगत धर्माचार्य धर्म देशक।।२।। धर्म के नायक धर्मश्रेष्ठ चतुरंग चक्रवर्ती श्रीमान्। श्री देवाधिदेव अरु दर्शन ज्ञान चरित गुण श्रेष्ठ महान।।३।। करूं वंदना मैं कृतिकर्म विधि से ढाई द्वीप के देव। सिद्ध चैत्य गुरुभक्ति पठन कर नमूं सदा बहुभक्ति समेत।।४।। भगवन् ! सामायिक करता हूँ सब सावद्य योग तज कर। यावज्जीवन वचन काय मन त्रिकरण से न करूं दुःखकर।।५।। नहीं कराऊं नहिं अनुमोदूं हे भगवन् ! अतिचारों को। त्याग करूं निंदूं गर्हूं अपने को मम आत्मा शुचि हो।।६।। जब तक भगवत् अर्हद्देव की करूं उपासना हे जिनदेव। तब तक पापकर्म दुष्चारित का मैं त्याग करूं स्वयमेव।।७।। (यहां से केवल आचार्य ही पढ़ें-)
स्तवन करूं जिनवर तीर्थंकर, केवलि अनंत जिन प्रभु का।
मनुज लोक से पूज्य कर्मरज, मल से रहित महात्मन् का।।१।।
लोकोद्योतक धर्म तीर्थंकर, श्री जिन का मैं नमन करूं।
जिनचउवीस अर्हंत तथा, केवलि गण का गुण गान करूं।।२।।
ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमतिनाथ का कर वंदन।
पद्मप्रभ जिन श्री सुपाश्र्व प्रभु चन्द्र प्रभु का करूं नमन।।३।।
सुविधि नामधर पुष्दंत शीतल श्रेयांस जिन सदा नमूं।
वासुपूज्य जिन विमल अनंत, धर्म प्रभु शांतिनाथ प्रणमूं।।४।।
जिनवर कुंथु अरह मल्लि प्रभु मुनिसुव्रत नमि को ध्याऊं।
अरिष्ट नेमी प्रभु श्री पारस, वर्धमान पद शिर नाऊं।।५।।
इस विध संस्तुत विधुत रजोमल, जरा मरण से रहित जिनेश।
चौबीसों तीर्थंकर जिनवर, मुझ पर हों प्रसन्न परमेश।।६।।
कीर्तित वंदित महित हुए ये, लोकोत्तम जिन सिद्ध महान् ।
मुझको दें आरोग्यज्ञान अरु, बोधि समाधि सदा गुणखान।।७।।
चन्द्र किरण से भी निर्मलतर, रवि से अधिक प्रभाभास्वर।
सागर सम गंभीर सिद्धगण मुझको सिद्धी दें सुखकर।।८।।
शंभु छंद-
मैं नमूं जिनों१ को जो अर्हन् अवधीजिन२ मुनि को नमूं नमूं।
परमावधिजिन को नमूँ तथा, सर्वावधि जिन को नमूं नमूं।।
मैं नमूं अनंतावधिजिन३ को, अरु कोष्ठबुद्धियुत साधु नमूं।
मैं नमूं बीजबुद्धीयुतमुनि, पादानुसारियुत साधु नमूं।।१।।
संभिन्नश्रोतृयुत साधु नमूं, मैं स्वयंबुद्ध मुनिराज नमूं।
प्रत्येक बुद्ध ऋषिराज नमूं, पुनि बोधित बुद्ध मुनीश नमूं।।
ऋजुमतिमनपर्यय साधु नमूं, मैं विपुलमतीयुत साधु नमूं।
मैं नमूं अभिन्न४ सुदशपूर्वी, चौदशपूर्वी मुनिराज नमूं।।२।।
अष्टांगमहानिमित्तकुशली, नमूं नमूं विक्रियाऋद्धि प्राप्त।
विद्याधरऋषि को नमूं नमूं मैं, संयत चारणऋद्धि४ प्राप्त।।
मैं प्रज्ञाश्रमणमुनीश नमूं, आकाशगामि मुनिराज नमूं।
आशीविषयुत ऋषिराज नमूं दृष्टीविषयुतमुनिराज नमूं।।३।।
मैं उग्रतपस्वी नमूं दीप्ततपि नमूं तप्ततपसाधु नमूं।
मैं नमूं महातपधारी को, अरु घोरतपोयुत साधु नमूं।।
मैं नमूं घोरगुणयुत साधु, मैं घोरपराक्रम साधु नमूं।
मैं नमूं घोरगुणब्रह्मचारि, आमौषधिप्राप्त मुनीश नमूंं।।४।।
क्ष्वेलौषधिप्राप्त मुनीश नमूं, जल्लौषधि प्राप्त मुनीश नमूूं।
विपु्रष औषधियुत साधु नमूं, सर्वौषधिप्राप्त मुनीश नमूं।
मैं नमूं मनोबलि मुनिवर को, मैं वचनबली ऋद्धीश नमूं।
मैं कायबली मुनिनाथ नमूं, मैं क्षीरस्रावी साधु नमूं।।५।।
मैं घृतस्रावी मुनिराज नमूं, मैं मधुरस्रावी साधु नमूं।
मैं अमृतस्रावी साधु नमूं, अक्षीणमहानस साधु नमूं।।
मैं वर्धमान ऋद्धीश नमूँ, मैं सिद्धायतन समस्त नमूं।
मैं भगवत् महति महावीर, श्री वर्धमान बुद्धर्षि नमूं।।६।।
जिनके निकट मैं धर्म पथ को प्राप्त किया हूँ।
उनके निकट ही विनयवृत्ति धार रहा हूँ।।
नित काय से वचन से और मन से उन्हीं को।
पंचांग नमस्कार करूं भक्तिभाव सो।।७।।
हे आयुष्मन्तों! वीर प्रभु की ध्वनि से मैंने सुना यहीं।
वे महाश्रमण भगवान महति, महावीर महाकाश्यपगोत्री।।
सर्वज्ञ सर्वलोकदर्शी, युगपत् सबको जानते हुए।
सब देव असुर मानवयुत इस तिहुंजग को भी देखते हुए।।
सबकी आगति गति च्यवन६ जन्म, अरु बंध मोक्ष ऋद्धी७ स्थिति८।
द्युति९ अनुभाग१० अरु तर्कशास्त्र, सब कला११ मनो अरु मानसीक१२।।
अनुभूत भूत१३ कृत१४ प्रतिसेवित१५, कृषि आदिकर्म१६ अकृतिमकर्म१७।
सम्पूर्ण लोक सब जीव सर्व भावों को भी युगपत् जानन् ।।
वे श्री विहार करते भगवन् जब समवसरण में राजे हैं।
मुनियों के लिए धर्म सम्यक् उसको उनने उपदेशा है।।
वह पांच महाव्रत रात्री भोजन विरति अणुव्रत छट्ठा है,
पच्चीस भावना आठ मातृकापद उत्तरपद संयुत है।।
वह यही कि जिसमें प्रथम, महाव्रत में प्राणीवध से विरती।
दूजे में असत्य से विरती, तीजे से अदत्त ग्रहण विरती।।
चौथे में मैथुन से विरती, पंचम महाव्रत परिग्रहविरती।
ये पांच महाव्रत छट्ठे, अणुव्रत में रात्रि भोजन विरती।।
अब प्रथम महाव्रत में भगवन्! सब जीव घात को तजता हूं।
जीवन भर मैं मन वचन काय, से पूर्ण अहिंसा धरता हूं।।
एकेन्द्री द्वीन्द्री त्रय इंद्रिय, चउइंद्रिय पंचेद्री जीवा।
पृथ्वी जल अग्नी वायु, वनस्पतिकायिक त्रसकायिक जीवा।।१।।
अंडज या पोत जरायुज और रसायिक३ संस्वेदज प्राणी।
संमूच्र्छन उद्भेदिम उपपादिम त्रस या स्थावर प्राणी।।
बादर व सूक्ष्म अरु प्राणभूत या जीव सत्त्व पर्याप्त सभी।
या अपर्याप्त भी चौरासी लख, योनि जन्म वाले सब भी।।२।।
जीवों का स्वयं न घात करे, नहिं पर से घात करावे भी।
प्राणातिपात करते अन्यों, को नहिं अनुमति भी देय कभी।।
भगवन्! इसके अतिचारों का, प्रतिक्रमण व निंदा करता हूं।
मैं अपनी गर्हा करता हूँ, पूरब के दोष को तजता हूँ।।३।।
हे भगवन्! मैंने जो भी रागद्वेष या मोह वशंगत हो।
जीवों का घात स्वयं कीना या अन्यों से करवाया हो।।
या जीवघात करते अन्यों को मैंने अनुमति भी दी हो।
उन सबको भी मैं तजता हूँ जो दोष किसी विध हूवे हों।।४।।
निग्रंथरूप यह पावन१० है प्रवचन में कहा अनुत्तर है।
केवलिप्रणीत व अिंहसालक्षणवाला सत्य अधिष्ठित है।।
है विनय मूल इसका व क्षमा बल अठरह हजार शील मंडित।
चौरासी लाख गुणोें भूषित नव ब्रह्मचर्य से नित रक्षित।।५।।
नियति-विषयव्यावृतिलक्षण व परिग्रह त्याग फलों वाला।
उपशम प्रधान यह क्षमामार्गदेशक मुक्तीपथ उजियाला११।।
यह सिद्धिमार्ग का चरमसीम इसमें जो मैंने दोष किए।
वह क्रोध मान माया व लोभ अज्ञान अदर्शन से हि हुए।।६।।
शक्ती से हीन असंयम से श्रद्धानरहित अप्रतिग्रहणा।
या बिना विचारे अबोध राग द्वेष मोह या हास्य मना।।
भय प्रदोष से व प्रमाद प्रेम विषयों की गृद्धी लज्जा से ।
गारव व अनादर से या अन्य किन्हीं भी कारण से मुझसे।।७।।
आलस से कर्मभार से कर्मों की गुरुता से कर्मों के।
दुश्चरित्र से कर्मों के उत्कटपने त्रिगारव गुरुता से।।
श्रुतज्ञान अल्पता से परमार्थ ज्ञान मुझको नहिं होने से।
दुश्चरित पूर्व में हुए उन्हीं सबकी गर्हा करता हूँ मैं।।८।।
होने वाले अत्याज्य भाव का प्रत्याख्यान मैं करता हूँ।
जिनका आलोचन नहीं किया उनका आलोचन करता हूं।।
अनिंदित और अगर्हित की मैं निंदा गर्हा करता हूँ।
जिनका प्रतिक्रमण नहीं कीया प्रतिक्रमण उन्हीं का करता हूँ।।९।।
मैं विराधना को तजता हूूं, आराधन स्थिर करता हूूँ।
अज्ञानत्रयी को तजता हूँ, संज्ञान पांच स्थिर करता हूँ।।
मिथ्यादर्शन को तजता हूँ, समकित को स्थिर करता हूँ।
मिथ्याचारित को तजता हूँ, सम्यक्चारित स्थिर करता हूूँ।।१०।।
कुतप-बालतप तजता हूूं, बारह तप में स्थिर होता हूूं।
अकरणीय को तजता हूूं, करणीय में स्थिर होता हूँ।।
प्राणातिपात को तजता हूं, अभयदान में स्थिर होता हूूँ।
मैं झूठ वचन को तजता हूँ, वच सत्य में स्थिर होता हूँ।।११।।
अदत्तग्रहण को तजता हूूँ दी गई योग्य में थिर होता हूँ।
अब्रह्मचर्य को तजता हूँ ब्रह्मचर्य में स्थिर होता हूँ।।
मैं सर्व परिग्रह तजता हूँ अपरिग्रह में स्थिर होता हूँ।
मन वचन काय कृत कारितादि से रात्रि भोजन तजता हूँ।।१२।।
सुसमयप्राप्त प्रासुक इकबार दिन भुक्ति में थिर होता हूँ।
आर्तरौद्र ध्यान को तजता हूँ, धर्मशुक्ल ध्यान स्थिर करता हूँ।।
कृष्ण नील कापोत तजता हूँ, पीत पद्म शुक्ल स्थिर करता हूँ।
मैं सब आरंभ छोड़ता हूँ, अनारम्भ मेें स्थिर होता हूँं।।१३।।
मैं सर्व असंयम तजता हूँ, संयम में सुस्थिर होता हूँ।
सग्रंथ अवस्था तजता हूँ, निग्र्रन्थ में स्थिर होता हूँ।।
सवस्त्र अवस्था तजता हूँ, निर्वस्त्र में स्थिर होता हूँ।
मैं अलोच को परिहरता हूँ, कचलोच में स्थिर होता हूँ।।१४।।
स्नान क्रिया को तजता हूँ, अस्नान में स्थिर होता हूँ।
अभूमि शयन को तजता हूँ, भूशयन में स्थिर होता हूँ।।
मैं दंतधावन को तजता हूँ, अदंतधावन स्वीकरता हूँ।
अस्थिति भोजन को तजता हूँ, इक भक्त स्थिति भुक्ति स्वीकरता हूँ।।१५।।
अपाणिपात्र को तजता हूँ, पाणिपात्र में स्थिर होता हूँ।
मैं क्रोध कषाय को तजता हूँ, मैं क्षमा में स्थिर होता हूँ।।
मैं मान कषाय को तजता हूँ, मार्दव में स्थिर होता हूूँ।
मैं माया को परिहरता हूँ, आर्जव में स्थिर होता हूँ।।१६।।
मैं लोभ भाव को तजता हूँ, संतोष में स्थिर होता हूँ।
मैं अतप-कुतप को तजता हूँ, द्वादशतप में स्थिर होता हूँ।।
मिथ्यात्व सभी छोड़ता हूँ, समकित की प्राप्ती करता हूँ।
सम्पूर्ण अशील छोड़ता हूँ, सुशील की प्राप्ती करता हूँ।।१७।।
मैं तीनों शल्य छोड़ता हूँ, नि:शल्य की प्राप्ति करता हूूँ।
मैं अविनयवृत्ति छोड़ता हूँ, विनयगुण स्वीकृत करता हूूँ।।
मैं अनाचार को तजता हूँ, आचार को स्वीकृत करता हूँ।
मैं सब उन्मार्ग छोड़ता हूँ जिनमार्ग को स्वीकृत करता हूँ।।१८।।
अक्षमा भाव को तजता हूँ, मैं क्षमा को स्वीकृत करता हूँ।
मैं त्रय अगुप्ति को तजता हूँ, त्रयगुप्ती स्वीकृत करता हूँ।।
मैं अमुक्ति को परिहरता हूँ, सुमुक्ति स्वीकृत करता हूँ।
मैं असमाधी को तजता हूँ, सुसमाधी स्वीकृत करता हूँ।।१९।।
मैं ममता को परिहरता हूँ, निर्ममता स्वीकृत करता हूँ।
जो नहिं१ भाये सो भाता हूँ, जो भाये२ उन्हें न भाता हूँ।।
निर्ग्रन्थ रूप यह प्रवचन कथित अनुत्तर केवलि संबंधी।
रत्नत्रयमय नैकायिक३ सम-एकत्वरूप सामायिक४ भी।।२०।।
संशुद्ध५ शल्ययुत जन का शल्यविघातक और सिद्धिपथ है।
यह श्रेणिमार्ग अरु क्षमामार्ग मुक्तीपथ तथा प्रमुक्ति पथ है।।
यह मोक्षमार्ग व प्रमोक्षमार्ग निर्यानपथ६ रु निर्वाण७ मार्ग।
यह सर्वदुःखपरिच्युतीमार्ग सुचरित्रपरिनिर्वाण मार्ग।।२१।।
इसमें स्थित जीव सिद्ध होते बुद्ध होते मुक्ती पाते।
परिनिर्वाण प्राप्त करते, सब दुःखों का भि अंत करते।।
मैं इसकी श्रद्धा करता हूँ, इसकी ही प्राप्ति करता हूँ।
इसमें ही मैं रुचि रखता हूँ, इसका ही स्पर्श करता हूँ।।२२।।
इससे बढ़कर नहिं अन्य कोई नहिं हुआ न है नहिं होगा ही।
सुज्ञान से दर्शन से चरित्र से सूत्र से शील व गुण से ही।।
तप से व नियम से व्रत से अरु, आचरण तथा आश्रय से भी।
आर्जव लाघव या अन्य किसी से वीर्य से भी उत्कृष्ट यही।।२३।।
मैं श्रमण-मुनी हूँ संयत हूँ, मैं उपरत हूँ उपशांत भि हूँ।
परिग्रह वंचन व मान माया अरु असत्य से अतिविरक्त हूँ।।
मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्याचरित्र से विरक्त हूँ।
जिन प्रणीत सम्यग्ज्ञान सुदर्शन चारित में रुचि रखता हूँ।।२४।।
जो मेरे से दैवसिक व रात्रिक पाक्षिक (चउमासिक) (वार्षिक) प्रतिक्रमणविधि में।
ईर्यापथ केशलोच अतीचार संस्तरादि अतिचारों में।।
पंथादिक अतिचार सर्वअतिचार तथा उत्तमारथ में।
विशुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करूं रुचि धारूँ सम्यक्चारित में।।२५।।
प्रथम महाव्रत में प्राणों के घात से विरती होना है।
यह महाव्रत उपस्थापनामंडल५-प्रशस्त सुव्रतारोपण है।।
महाअर्थ है महान् गुणमय महानुभाव६ – महात्म्य है।
महासुयश महापुरुष तीर्थंकर आदि जनों से अनुष्ठित है।।२६।।
अरिहंत साक्षि से सिद्धसाक्षि से, साधुसाक्षि से आत्मसाक्षि से।
परसाक्षी देवतासाक्षि से, विशुद्धिहेतु उत्तमार्थ में।।
यह महाव्रत मुझमें सुव्रत हो, दृढ़व्रत हो निस्तारक७ होवे।
पारक८ तारक९ आराधक१० भी, मुझमें अरु तुममें भी होवे।।२७।।
प्रथमं महाव्रतं सर्वेषां व्रतधारिणां सम्यक्त्वपूर्वकं दृढव्रतं११ सुव्रतं१२ समारूढं१३ ते मे भवतु।।३ बार।।
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।३ बार।।
हे भगवन् ! मैं अब अन्य द्वितीय महाव्रत में यावज्जीवन।
मन वचन काय से सर्व झूठ भाषण का मैं करता हूँ त्यजन।।
इसमें जो क्रोध मान माया या लोभ राग या द्वेषों से।
या मोह हास्य भय प्रदोष प्रमाद प्रेम पिपासा लज्जा से।।१।।
गारव व अनादर से या अन्य किन्हीं भी कारण होने से।
नहिं स्वयं झूठ बोलना था नहिं बुलवाना था अन्यों से।।
नहिं झूठ बोलते अन्यों को अनुमति भी देना था मुझको।
भगवन् ! इनके अतिचारों का प्रतिक्रमण करूँ निंदूं खुद को।।२।।
मैं अपनी गर्हा करूं तजूँ सब पूर्व उपार्जित दोषों को।
हे भगवन् ! मैंने जो भी राग द्वेष या मोह वशंगत हो।।
खुद झूठ वचन बोले अन्यों से झूठ वचन बुलवाये हों।
अरु झूठ बोलते अन्यों को जो मैंने अनुमति भी दी हो।।३।।
निर्ग्रन्थरूप यह पावन है प्रवचन में कहा अनुत्तर है।
केवलिप्रणीत व अिंहसा लक्षणवाला सत्यअधिष्ठित है।।
है विनय मूल इसका व क्षमा बल अठरह हजार शील मंडित।
चौरासी लाख गुणों भूषित नव ब्रह्मचर्य से नित रक्षित।।४।।
नियति-विषयव्यावृत्तिलक्षण व परिग्रहत्यागफलों वाला।
उपशम प्रधान यह क्षमामार्गदेशक मुक्तीपथ उजियाला।
यह सिद्धिमार्ग का चरमसीम इसमें जो मैंने दोष किये।
वह क्रोध मान माया वा लोभ अज्ञान अदर्शन से हि हुए।।५।।
शक्ती से हीन असंयम से श्रद्धानरहित अप्रतिग्रहणा।
या बिना विचारे अबोध रागद्वेष मोह या हास्य मना।।
भय प्रदोष से व प्रमाद प्रेम विषयों की गृद्धी लज्जा से।
गारव व अनादर से या अन्य किन्हीं भी कारण से मुझसे।।६।।
आलस से कर्मभार से कर्मों की गुरुता से कर्मों के।
दुश्चरित्र से कर्मों के उत्कटपने त्रिगारवगुरुता से।।
श्रुतज्ञान अल्पता से परमार्थज्ञान मुझको निंह होने से।
दुश्चरित पूर्व में हुए उन्हीं सबकी गर्हा करता हूँ मैं।।७।।
होने वाले अत्याज्य भाव का प्रत्याख्यान मैं करता हूँ।
जिनका आलोचन नहीं किया उनका आलोचन करता हूँ।।
अनिंदित की निन्दा करता अगर्हित की गर्हा करता हूँ।
जिनका प्रतिक्रमण नहीं कीया प्रतिक्रमण उन्हीं का करता हूँ।।८।।
मैं विराधना को तजता हूँ आराधन को स्थिर करता हूँ।
अज्ञानत्रयी को तजता हूँ संज्ञान पांच स्थिर करता हूँ।।
मिथ्यादर्शन को तजता हूँ सम्यग्दर्शन स्थिर करता हूँ।
मिथ्याचारित को तजता हूँ सम्यक्चारित स्थिर करता हूँ।।९।।
कुतप बालतप तजता हूँ बारहों सुतप स्थिर करता हूँ।
अकरणीय को तजता हूँ करणीय को स्थिर करता हूँ।।
प्राणातिपात को तजता हूँ, अभयदान को स्थिर करता हूँ।
मैं झूठ वचन को तजता हूँ सत्यवचन को स्थिर करता हूँ।।१०।।
अदत्तग्रहण को तजता हूँ दी गई योग्य में स्थिर होता हूँ।
अब्रह्मचर्य को तजता हूँ ब्रह्मचर्य में स्थिर होता हूँ।।
मैं सर्व परिग्रह तजता हूँ अपरिग्रह में स्थिर होता हूँ।
मन वचन काय कृत कारितादि से रात्री भोजन तजता हूँ।।११।।
सुसमयप्राप्त प्रासुक इकबार दिन भुक्ति में स्थिर होता हूँ।
आर्तरौद्र ध्यान को तजता हूँ, धर्मशुक्ल ध्यान स्थिर करता हूँ।।
कृष्ण नील कापोत छोड़ता हूँ, पीत पद्म शुक्ल स्थिर करता हूँ।
मैं सब आरंभ छोड़ता हूँ, अनारंभ में स्थिर होता हूँ।।१२।।
मैं सर्व असंयम तजता हूँ, संयम में सुस्थिर होता हूँ।
सग्रंथ अवस्था तजता हूँ निग्र्रन्थ में स्थिर होता हूँ।।
सवस्त्र अवस्था तजता हूँ निर्वस्त्र में स्थिर होता हूँ।
मैं अलोच को परिहरता हूँ लोच क्रिया में स्थिर होता हूँ।।१३।।
स्नान क्रिया को तजता हूँ अस्नान में स्थिर होता हूँ।
अभूमि शयन को तजता हूँ भूशयन में स्थिर होता हूँ।।
मैं दंतधावन को तजता हूं अदंतधावन स्थिर करता हूँ।
अस्थिति भोजन को तजता हूँ इक भक्त स्थिति भुक्ति स्वीकरता हूँ।।१४।।
अपाणिपात्र को तजता हूँ पाणिपात्र में स्थिर होता हूँ।
मैं क्रोध कषाय को तजता हूँ मैं क्षमा में स्थिर होता हूँ।।
मैं मान कषाय को तजता हूँ मार्दव में स्थिर होता हूँ।
मैं माया को परिहरता हूँ आर्जव में स्थिर होता हूँ।।१५।।
मैं लोभ भाव को तजता हूँ सन्तोष में स्थिर होता हूँ।
मैं अतप-कुतप को तजता हूँ द्वादशतप में स्थिर होता हूँ।।
मिथ्यात्व सभी छोड़ता हूँ समकित की प्राप्ति करता हूँ।
सम्पूर्ण अशील छोड़ता हूँ सुशील की प्राप्ती करता हूँ।।१६।।
मैं तीनों शल्य छोड़ता हूँ निःशल्य की प्राप्ती करता हूँ।
मैं अविनयवृत्ति छोड़ता हूँ विनयगुण की प्राप्ती करता हूँ।।
मैं अनाचार को तजता हूँ आचार को स्वीकृत करता हूँ।
मैं सब उन्मार्ग छोड़ता हूँ जिनमार्ग को स्वीकृत करता हूँ।।१७।।
अक्षमा भाव को तजता हूँ, मैं क्षमा को स्वीकृत करता हूँ।
मैं अगुप्ति को तजता हूँ, त्रयगुप्ती स्वीकृत करता हूँ।।
मैं अमुक्ति को छोड़ रहा, सुमुक्ति को स्वीकृत करता हूँ।
मैं असमाधी को तजता हूूँ, सुसमाधी स्वीकृत करता हूँ।।१८।।
मैं ममता को परिहरता हूँ, निर्ममता स्वीकृत करता हूँ।
जो नहिं भाये सो भाता हूँ, जो भाये उन्हें नहिं भाता हूँ।।
निर्ग्रन्थरूप यह प्रवचन कथित अनुत्तर केवलि संबंधी।
रत्नत्रयमय नैकायिक सम-एकत्वरूप सामायिक भी।।१९।।
संशुद्ध शल्ययुत का यह शल्यविघातक और सिद्धिपथ है।
यह श्रेणिमार्ग अरु क्षमामार्ग मुक्तीपथ तथा प्रमुक्ति पथ है।।
यह मोक्षमार्ग व प्रमोक्षमार्ग निर्यानपथ रु निर्वाण मार्ग।
यह सर्वदुःखपरिच्युतीमार्ग सुचरित्रपरिनिर्वाण मार्ग।।२०।।
इसमें स्थित जीव सिद्ध होते बुद्ध होते मुक्ती पाते।
परिनिर्वाण प्राप्त करते सब दुःखों का भि अंत करते।।
मैं इसकी श्रद्धा करता हूँ इसकी ही प्राप्ती करता हूँ।
इसमें ही मैं रुचि रखता हूँ इसका ही स्पर्श करता हूँ।।२१।।
इससे बढ़कर नहिं अन्य कोई, नहिं हुआ न है नहीं होगा ही।
सुज्ञान से दर्शन से चरित्र से सूत्र से शील व गुण से ही।।
तप से नियम से व्रत से अरु आचरण तथा आश्रय से भी।
आर्जव लाघव या अन्य किसी से वीर्य से भी उत्कृष्ट यही।।२२।।
मैं श्रमण-मुनी हूँ संयत हूँ मैं उपरत हूँ उपशांत भि हूँं।
परिग्रह वंचन व मान माया अरु असत्य से अतिविरक्त हूँ।।
मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्याचरित्र से उपरत हूँ।
जिन प्रणीत सम्यग्ज्ञान सुदर्शन चारित में रुचि रखता हूँ।।२३।।
जो मेरे से दैवसिक व रात्रिक पाक्षिक (चउमासिक) (वार्षिक) प्रतिक्रमणविधि में।
ईर्यापथ केंशलोच अतीचार संस्तरादि अतिचारों में।।
पंथादिक अतिचार सर्वअतिचार तथा उत्तमारथ में।।
विशुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करूं रुचि धारूं सम्यक्चारित में।।२४।।
इस द्वितीय महाव्रत में असत्य भाषण से विरती होना है।
यह महाव्रत उपस्थापनामंडल प्रशस्त सुव्रतारोपण है।।
महाअर्थ है महानगुणमय महानुभाव-महात्म्य है।
महासुयश महापुरुष तीर्थंकर आदि जनों से अनुष्ठित है।।२५।।
अरिहंतसाक्षि से सिद्धसाक्षि से, साधुसाक्षि से आत्मसाक्षि से।
परसाक्षी देवतासाक्षि से, विशुद्धिहेतू उत्तमार्थ में।।
यह महाव्रत मुझमें सुव्रत हो, दृढ़व्रत हो निस्तारक होवे।
पारक तारक आराधक भी, मुझमे अरु तुममें भी होवे।।२६।।
द्वितीय महाव्रतं सर्वेषां व्रतधारिणां सम्यक्त्वपूर्वकं दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु।
(३ बार) णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।३ बार।।
हे भगवन्भ! अब मैं तृतिय महाव्रत, में त्रयविध मन वच तन से।
सर्व अदत्तग्रहण का जीवनभर मैं त्याग करूँ रूचि से।।
जो देश गाँव या नगर खेट या कर्वट मंडब मंडल में।
पत्तन व द्रोणमुख गोकुल आश्रम सभा तथा संवाहन में।।१।।
रजधानी खेत खलीहानों जल थल पथ उत्पथ रण्यों में।
या वन मेें तृण या काष्ठ विकृति मणि आदी वस्तू लेने में।।
जो खोई चोरी से लाई गिरी, नहिं गिरी रखी दुःख से रक्खी।
जो अल्प बहुत अणु थूल सचेतन अचित्त या घर में रक्खी।।२।।
या बाहर रखी तथा दांतों के शोभनमात्र तनिक भी हो।
ऐसी बिन दी वस्तू कुछ भी नहिं लेना चाहिए था मुझको।।
नहिं अदत्त वस्तू अन्यों से भी ग्रहण कराना चाहिए था।
नहिं अदत्त वस्तू लेने वालों को भी अनुमति देना था।।३।।
भगवन् ! इनके अतिचारों का प्रतिक्रमण करूँ निज को निंदूँ।
अपनी गर्हा करता भगवन्! पूरबकृत दोषों को त्यागूँ।।
हो राग द्वेष मोह वश में, जो भी मैंने बिन दिया लिया।
बिन दिया लिवाया पर से या लेते को भी अनुमती दिया।।४।।
निर्ग्रन्थरूप यह पावन है प्रवचन में कहा अनुत्तर है।
केवलिप्रणीत व अहिंसालक्षणवाला सत्य अधिष्ठित है।।
है विनय मूल इसका व क्षमा बल अठरह हजार शील मंडित।
चौरासी लाख गुणों भूषित नव ब्रह्मचर्य से नित रक्षित।।५।।
नियति-विषयव्यावृत्तिलक्षण व परिग्रह त्याग फलों वाला।
उपशम प्रधान यह क्षमामार्गदेशक मुक्तीपथ उजियाला।।
यह सिद्धिमार्ग का चरमसीम इसमें जो मैंने दोष किये।
वह क्रोध मान माया व लोभ अज्ञान अदर्शन से हि हुए।।६।।
शक्ती से हीन असंयम से श्रद्धानरहित अप्रतिग्रहणा।
या बिना विचारे अबोध राग द्वेष मोह या हास्य मना।।
भय प्रदोष से व प्रमाद प्रेम विषयों की गृद्धी लज्जा से।
गारव व अनादर से या अन्य किन्हीं भी कारण से मुझसे।।७।।
आलस से कर्मभार से कर्मों की गुरुता से कर्मों के।
दुश्चरित्र से कर्मों के उत्कटपने त्रिगारव गुरुता से।।
श्रुतज्ञान अल्पता से परमार्थ ज्ञान मुझको नहिं होने से।
दुश्चरित पूर्व में हुए उन्हीं सबकी गर्हा करता हूँं मैं।।८।।
होने वाले अत्याज्य भाव का प्रत्याख्यान मैं करता हूँ।
जिनका आलोचन नहीं किया उनका आलोचन करता हूँ।।
अनिंदित की निंदा करता अगर्हित की गर्हा करता हूँ।
जिनका प्रतिक्रमण नहीं कीया प्रतिक्रमण उन्हीं का करता हूँ।।९।।
मैं विराधना को तजता हूँ, आराधन स्थिर करता हूँ।
अज्ञानत्रयी को तजता हूँ, संज्ञान पांच स्थिर करता हूँ।।
मिथ्यादर्शन को तजता हूँ, सम्यग्दर्शन स्थिर करता हूँ।
मिथ्याचारित को तजता हूँ, सम्यक्चारित स्थिर करता हूँ।।१०।।
कुतप-बालतप तजता हूँ, बारह तप में स्थिर होता हूँ।
अकरणीय को तजता हूँ, करणीय में स्थिर होता हूँ।।
प्राणातिपात को तजता हूँ, अभयदान में स्थिर होता हूँ।
मैं झूठ वचन को तजता हूँ, वच सत्य में स्थिर होता हूँ।।११।।
अदत्तग्रहण को तजता हूूँ, दी गई योग्य में थिर होता हूँ।
अब्रह्मचर्य को तजता हूँ, ब्रह्मचर्य में स्थिर होता हूँ।।
मैं सर्व परिग्रह तजता हूँ, अपरिग्रह में स्थिर होता हूँ।
मन वचन काय कृत कारितादि से रात्रि भोजन तजता हूँ।।१२।।
सुसमयप्राप्त प्रासुक इकबार दिन भुक्ति में थिर होता हूँ।
आर्तरौद्र ध्यान को तजता हूँ, धर्मशुक्ल ध्यान स्थिर करता हूँ।।
कृष्ण नील कापोत तजता हूँ, पीत पद्म शुक्ल स्थिर करता हूँ।
मैं सब आरंभ छोड़ता हूँ, अनारम्भ में स्थिर होता हूँ।।१३।।
मैं सर्व असंयम तजता हूँ, संयम में सुस्थिर होता हूँ।
सग्रंथ अवस्था तजता हूँ, निग्र्रंथ में स्थिर होता हूँ।।
सवस्त्र अवस्था तजता हूँ, निर्वस्त्र में स्थिर होता हूँ।
मैं अलोच को परिहरता हूँ, कचलोच में स्थिर होता हूँ।।१४।।
स्नान क्रिया को तजता हूँ, अस्नान में स्थिर होता हूँ।
अभूमि शयन को तजता हूँ, भूशयन में स्थिर होता हूँ।।
मैं दंतधावन को तजता हूँ, अदंतधावन स्वीकरता हूँ।
अस्थिति भोजन को तजता हूँ, इक भक्त स्थिति भुक्ति स्वीकरता हूँ।।१५।।
अपाणिपात्र को तजता हूूँ, पाणिपात्र में स्थिर होता हूँ।
मैं क्रोध कषाय को तजता हूँ, मैं क्षमा में स्थिर होता हूूँ।।
मैं मान कषाय को तजता हूँ, मार्दव में स्थिर होता हूँ।
मैं माया को परिहरता हूँ, आर्जव में स्थिर होता हूँ।।१६।।
मैं लोभ भाव को तजता हूँ, संतोष में स्थिर होता हूँ।
मैं अतप-कुतप को तजता हूँ, द्वादशतप में स्थिर होता हूँ।।
मिथ्यात्व सभी छोड़ता हूँ, समकित की प्राप्ती करता हूँ।
सम्पूर्ण अशील छोड़ता हूँ, सुशील की प्राप्ती करता हूँ।।१७।।
मैं तीनों शल्य छोड़ता हूँ, निःशल्य की प्राप्ती करता हूँ।
मैं अविनयवृत्ति छोड़ता हूँ, विनयगुण स्वीकृत करता हूँ।।
मैं अनाचार को तजता हूँ, आचार को स्वीकृत करता हूँ।
मैं सब उन्मार्ग छोड़ता हूँ, जिनमार्ग को स्वीकृत करता हूँ।।१८।।
अक्षमा भाव को तजता हूँ, मैं क्षमा को स्वीकृत करता हूँ।
मैं त्रय अगुप्ति को तजता हूँ, त्रयगुप्ती स्वीकृत करता हूँ।।
मैं अमुक्ति को परिहरता हूँ, सुमुक्ति स्वीकृत करता हूँ।
मैं असमाधी को तजता हूँ, सुसमाधी स्वीकृत करता हूँ।।१९।।
मैं ममता को परिहरता हूँ, निर्ममता स्वीकृत करता हूँ।
जो नहिं भाये सो भाता हूँ, जो भाये उन्हें न भाता हूूँ।।
निर्ग्रन्थ रूप यह प्रवचन कथित अनुत्तर केवलि संंबंधी।
रत्नत्रयमय नैकायिक सम-एकत्वरूप सामायिक भी।।२०।।
संशुद्ध शल्ययुत जन का शल्यविघातक और सिद्धिपथ है।
यह श्रेणिमार्ग अरु क्षमामार्ग मुक्तीपथ तथा प्रमुक्ति पथ है।।
यह मोक्षमार्ग व प्रमोक्षमार्ग निर्यानपथ रु निर्वाण मार्ग।
यह सर्वदुःखपरिच्युतीमार्ग सुचरित्रपरिनिर्वाण मार्ग।।२१।।
इसमें स्थित जीव सिद्ध होते बुद्ध होते मुक्ती पाते।
परिनिर्वाण प्राप्त करते, सब दुःखों का भि अंत करते।।
मैं इसकी श्रद्धा करता हूँ, इसकी ही प्राप्ति करता हूँ।
इसमें ही मैं रुचि रखता हूँ, इसका ही स्पर्श करता हूँ।।२२।।
इससे बढ़कर नहिं अन्य कोई नहिं हुआ न है नहिं होगा ही।
सुज्ञान से दर्शन से चरित्र से सूत्र से शील व गुण से ही।।
तप से व नियम से व्रत से अरु, आचरण तथा आश्रय से भी।
आर्जव लाघव या अन्य किसी से वीर्य से भी उत्कृष्ट यही।।२३।।
मैं श्रमण-मुनी हूूं संयत हूँ, मैं उपरत हूँ उपशांत भि हूँ।
परिग्रह वंचन व मान माया अरु असत्य से अरिविरक्त हूँ।।
मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्याचरित्र से विरक्त हूँ।
जिन प्रणीत सम्यग्ज्ञान सुदर्शन चारित में रुचि रखता हूँ।।२४।।
जो मेरे से दैवसिक व रात्रिक पाक्षिक (चउमासिक) (वार्षिक) प्रतिक्रमण विधि में।
ईर्यापथ केंशलोच अतिचार संस्तरादि अतिचारों में।।
पंथादिक अतीचार सर्वअतिचार तथा उत्तमारथ में।
विशुद्धी हेतु प्रतिक्रमण करूं रुचि धारूं सम्यक् चारित में।।२५।।
इस तृतीय महाव्रत मेें अदत्त लेने से विरती होना है।
यह महाव्रत उपस्थापनामण्डल-प्रशस्त सुव्रतारोपण है।।
यह महाअर्थ है महानगुणमय महानुभाव-महात्म्य है।
महासुयश महापुरुष तीर्थंकर आदि जनों से अनुष्ठित है।।२६।।
अरिहंतसाक्षि से सिद्धसाक्षि से, साधुसाक्षि से आत्मसाक्षि से।
परसाक्षी देवतासाक्षि से, विशुद्धि हेतू उत्तमारथ में।।
यह महाव्रत मुझमें सुव्रत हो, दृढव्रत हो निस्तारक होवे।
पारक तारक आराधक भी, मुझमें अरु तुममें भी होवे।।२७।।
तृतीयं महाव्रतं सर्वेषां व्रतधारिणां सम्यक्त्वपूर्वकं दृढ़व्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु।।
(३ बार) णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं।।३ बार।।
हे भगवन् ! अब मैं चौथे महाव्रत में मन वच तन त्रयविध से।
संपूर्ण अब्रह्मचर्य को मैं जीवन भर छोड़ रहा रुचि से।।
इसमें देवियों मनुष्यिनियों तिर्यंचि अचेतन महिला में।
काठ निर्मित या चित्र बने या वस्त्र लेप्य मिट्टी से बने।।१।।
(आर्यिकाओं को यह पंक्ति ऐसी पढ़नी चाहिए)- (इसमें देवों व मनुष्यों में तिर्यंच अचेतन पुरुषों में।)
जो लयनकर्म५ या पत्थर में उत्कीर्ण भित्ति पर खुदे हुए।
जो भेदक्रिया से बने भंड से पीतल आदि से बने हुए।।
जो हस्तिदंत से बने सभी इन चउविध स्त्री रूपादी में।
कर से संघट्टन पाद संघट्टन पुद्गल के संमर्दन से।।२।।
जो मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों में, सुन्दर व असुन्दर रूपों में।
अच्छी व बुरी गंंध में अरु रुचिकर व अरुचिकर छह रस में।।
सुखकर दुःखकर स्पर्शों में इन पंचेन्द्रिय के विषयों में।
कर्णेंद्रिय चक्षू घ्राण रसन स्पर्शनेंद्रिय के विषयों में।।३।।
मन के विषयों में अनियंत्रित नहिं गुप्ती को मैंने पाला।
नहिं स्वयं अब्रह्म सेवना था पर से न अब्रह्म कराना था।।
नहिं अब्रह्म सेवन करने वालों को भी अनुमति देना था।
भगवन् ! इनके अतिचारों का प्रतिक्रमण करूं अपनी निंदा।।४।।
गर्हा करता हूँ हे भगवन्! पूरबकृत दोष त्याग करता।
मैं रागद्वेष मोहवश हो जो भी अब्रह्म सेवित कीया।।
पर से अब्रह्म करवाया या करते को भी अनुमती दिया।
इन दोषों की शुद्धी हेतु करता हूँ मैं प्रतिक्रमण यहां।।५।।
निर्ग्रन्थरूप यह पावन है प्रवचन में कहा अनुत्तर है।
केवलिप्रणीत व अहिंसालक्षणवाला सत्य अधिष्ठित है।।
है विनय मूल इसका व क्षमा बल अठरह हजार शीलमंडित।
चौरासी लाख गुणों भूषित नव ब्रह्मचर्य से नित रक्षित।।६।।
नियति-विषयव्यावृतिलक्षण व परिग्रह त्याग फलों वाला।
उपशम प्रधान यह क्षमामार्गदेशक मुक्तीपथ उजियाला।।
यह सिद्धिमार्ग का चरमसीम इसमें जो मैंने दोष किये।
वह क्रोध मान माया व लोभ अज्ञान अदर्शन से हि हुए।।७।।
शक्ती से हीन असंयम से श्रद्धानरहित अप्रतिग्रहणा।
या बिना विचारे अबोध राग द्वेष मोह या हास्य मना।।
भय प्रदोष से व प्रमाद प्रेम विषयों की गृद्धी लज्जा से।
गारव व अनादर से या अन्य किन्हीं भी कारण से मुझसे।।८।।
आलस से कर्मभार से कर्मों की गुरुता से कर्मों के।
दुश्चरित्र से कर्मों के उत्कटपने त्रिगारव गुरुता से।।
श्रुतज्ञान अल्पता से परमार्थ ज्ञान मुझको नहिं होने से।
दुश्चरित पूर्व में हुए उन्हीं सबकी गर्हा करता हूं मैं।।९।।
होने वाले अत्याज्य भाव का प्रत्याख्यान मैं करता हूँ।
जिनका आलोचन नहीं किया उनका आलोचन करता हूँ।।
अनिंदित और अगर्हित की मैं निंदा गर्हा करता हूँ।
जिनका प्रतिक्रमण नहीं कीया प्रतिक्रमण उन्हीं का करता हूँ।।१०।।
मैं विराधना को तजता हूँ आराधन स्थिर करता हूँ।
अज्ञानत्रयी को तजता हूँ संज्ञान पांच स्थिर करता हूँ।।
मिथ्यादर्शन को तजता हूँ समकित को स्थिर करता हूँ।
मिथ्याचारित को तजता हूँ सम्यक्चारित स्थिर करता हूँ।।११।।
कुतप-बालतप तजता हूँ बारह तप में स्थिर होता हूँ।
अकरणीय को तजता हूँ करणीय में स्थिर होता हूँ।।
प्राणातिपात को तजता हूँ, अभयदान में स्थिर होता हूँ।
मैं झूठ वचन को तजता हूँ वच सत्य में स्थिर होता हूँ।।१२।।
अदत्तग्रहण को तजता हूँ दी गई योग्य में स्थिर होता हूँ।
अब्रह्मचर्य को तजता हूँ ब्रह्मचर्य में स्थिर होता हूँ।।
मैं सर्व परिग्रह तजता हूँ अपरिग्रह में स्थिर होता हूँ।
मन वचन काय कृत कारितादि से रात्री भोजन तजता हूँ।।१३।।
सुसमयप्राप्त प्रासुक इक बार दिन भुक्ति में स्थिर होता हूँ।
आर्तरौद्र ध्यान को तजता हूँ, धर्मशुक्ल ध्यान स्थिर करता हूँ।।
कृष्ण नील कापोत छोड़ता हूँ पीत पद्म शुक्ल स्थिर करता हूँ।
मैं सब आरंभ छोड़ता हूँ, अनारंभ में स्थिर होता हूँ।।१४।।
मैं सर्व असंयम तजता हूँ, संयम में सुस्थिर होता हूँ।
सग्रंथ अवस्था तजता हूँ, निग्र्रन्थ में स्थिर होता हूँ।।
सवस्त्र अवस्था तजता हूँ, निर्वस्त्र में स्थिर होता हूँ।
मैं अलोच को परिहरता हूँ लोच क्रिया में स्थिर होता हूँ।।१५।।
स्नान क्रिया को तजता हूँ अस्नान में स्थिर होता हूूँ।
अभूमि शयन को तजता हूँ भूशयन में स्थिर होता हूँ।।
मैं दंतधावन को तजता हूँ अदंतधावन स्थिर करता हूँ।
अस्थिति भोजन को तजता हूँ इक भक्त स्थिति भुक्ति स्वीकरता हूँ।।१६।।
अपाणिपात्र को तजता हूँ पाणिपात्र में स्थिर होता हूँ।
मैं क्रोध कषाय को तजता हूँ मैं क्षमा में स्थिर होता हूँ।।
मैं मान कषाय को तजता हूँ मार्दव में स्थिर होता हूँ।
मैं माया को परिहरता हूँ आर्जव में स्थिर होता हूँ।।१७।।
मैं लोभ भाव को तजता हूँ सन्तोष में स्थिर होता हूँ।
मैं अतप-कुतप को तजता हूँ द्वादशतप में स्थिर होता हूँ।।
मिथ्यात्व सभी छोड़ता हूँ समकित की प्राप्ती करता हूूँ।
सम्पूर्ण अशील छोड़ता हूँ सुशील की प्राप्ती करता हूँ।।१८।।
मैं तीनों शल्य छोड़ता हूँ निःशल्य की प्राप्ती करता हूँ।
मैं अविनयवृत्ति छोड़ता हूँ विनयगुण की प्राप्ती करता हूँ।।
मैं अनाचार को तजता हूँ आचार को स्वीकृत करता हूँ।
मैं सब उन्मार्ग छोड़ता हूँ जिनमार्ग को स्वीकृत करता हूँ।।१९।।
अक्षमा भाव को तजता हूँ, मैं क्षमा को स्वीकृत करता हूँ।
मैं त्रय अगुप्ति को तजता हूँ, त्रयगुप्ती स्वीकृत करता हूँ।।
मैं अमुक्ति को छोड़ रहा, सुमुक्ति को स्वीकृत करता हूँं।
मैं असमाधी को तजता हूँ, सुसमाधी स्वीकृत करता हूँ।।२०।।
मैं ममता को परिहरता हूँ, निर्ममता स्वीकृत करता हूँ।
जो नहिं भाये सो भाता हूँ, जो भाये उन्हें नहिं भाता हूँ।।
निर्ग्रन्थरूप यह प्रवचन कथित अनुत्तर केवलि संंबंधी।
रत्नत्रयमय नैकायिक सम-एकत्वरूप सामायिक भी।।२१।।
संशुद्ध शल्ययुत का यह शल्यविघातक और सिद्धिपथ है।
यह श्रेणिमार्ग अरु क्षमामार्ग मुक्तीपथ तथा प्रमुक्ति पथ है।।
यह मोक्षमार्ग व प्रमोक्षमार्ग निर्यानपथ रु निर्वाण मार्ग।
यह सर्वदुःखपरिच्युतीमार्ग सुचरित्रपरिनिर्वाण मार्ग।।२२।।
इसमें स्थित जीव सिद्ध होते बुद्ध होते मुक्ती पाते।
परिनिर्वाण प्राप्त करते सब दुःखों का भि अंत करते।।
मैं इसकी श्रद्धा करता हूँ इसकी ही प्राप्ती करता हूँ।
इसमें ही मैं रुचि रखता हूँ इसका ही स्पर्श करता हूँ।।२३।।
इससे बढ़कर नहिं अन्य कोई नहिं हुआ न है नहिं होगा ही।
सुज्ञान से दर्शन से चरित्र से सूत्र से शील व गुण से ही।
तप से व नियम से व्रत से अरु आचरण तथा आश्रय से भी।
आर्जव लाघव या अन्य किसी से वीर्य से भी उत्कृष्ट यही।।२४।।
मैं श्रमण-मुनी हूँ संयत हूँ मैं उपरत हूँ उपशांत भि हूँ।
परिग्रह वंचन व मान माया अरु असत्य से अतिविरक्त हूँ।
मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्याचरित्र से उपरत हूँ।
जिन प्रणीत सम्यग्ज्ञान सुदर्शन चारित में रुचि रखता हूँ।।२५।।
जो मेरे से दैवसिक व रात्रिक पाक्षिक (चउमासिक) (वार्षिक) प्रतिक्रमणविधि में।
ईर्यापथ केशलोच अतीचार संस्तरादि अतिचारों में।
पंथादिक अतिचार सर्वअतिचार तथा उत्तमारथ में।
विशुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करूं रुचि धारूं सम्यक्चारित में।।२६।।
चौथे महाव्रत मेें अब्रह्म सेवन से विरती होना है।
यह महाव्रत उपस्थापनामंडल प्रशस्त सुव्रतारोपण है।।
यह महाअर्थ है महानगुणमय महानुभाव-महात्म्य है।
महासुयश महापुरुष तीर्थंकर आदि जनों से अनुष्ठित है।।२७।।
अरिहंतसाक्षि से सिद्धसाक्षि से, साधुसाक्षि से आत्मसाक्षि से।
परसाक्षी देवतासाक्षि से, विशुद्धिहेतू उत्तमार्थ में।।
यह महाव्रत मुझमें सुव्रत हो, दृढ़व्रत हो निस्तारक होवे।
पारक तारक आराधक भी, मुझमें अरु तुममें भी होवे।।२८।।
चतुर्थं महाव्रतं सर्वेषां व्रतधारिणां सम्यक्त्वपूर्वकं दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु। (३ बार)
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।३ बार।।
हे भगवन्! अब मैं पंचम महाव्रत में त्रयविध मन वच तन से।
सम्पूर्ण द्विविध परिग्रह जीवन भर त्याग रहा हूँ मैं रुचि से।।
वह परिग्रह अन्तर बाहिर से द्वयविध उसमें अभ्यंतर जो।
मिथ्यात्व त्रिवेद हास्य आदिक छह चउ कषाय मिल चौदह वो।।१।।
बाहिर परिग्रह में चाँदी सोना धन व धान्य खेत खल४ में।
घर वास्तु प्रवास्तु कोश कुठार तथा पुर अन्तःपुर सब में।।
बल वाहन बैलगाड़ी यानं, जंपान व डोली गद्दिय५ हैं।
रथ स्यंदन पालकि दासि दास गौ महिष गवेलक बहुविध हैं।।२।।
मणि मोती शंख सीप मूंगा, मणिभाजन कंचनभाजन भी।
चाँदी के बर्तन कांस्य पात्र, लोहे तांबे के बर्तन भी।।
अण्डज६ कार्पास ऊन बल्कल चर्मज जो वस्त्र अल्प बहु हों।
अणु या बड़े सचित्त अचित्त यहां के७ हों या बाहर के हों।।३।।
मेढ़े के बाल के अग्रभाग भी, परिग्रह मुनि अयोग्य होता।
वह स्वयं न लेना चाहिए था नहिं पर से ग्रहण कराना था।।
नहिं मुनि अयोग्य परिग्रह लेते, को अनुमति देनी थी मुझको।
भगवन्! उसके अतिचारों का प्रतिक्रमण करूँ निंदूं खुद को।।४।।
अपनी गर्हा करता भगवन्! तजता हूँ पूरब दोषों को।
मैं रागद्वेष मोह वश हो परिग्रह अयोग्य लिया भी जो।।
पर से मुनिपद अयोग्य परिग्रह जो भी मैं ग्रहण कराया हूँ।
परिग्रह लेते को अनुमति दी प्रतिक्रमण इसी का करता हूँ।।५।।
निर्ग्रन्थरूप यह पावन है प्रवचन में कहा अनुत्तर है।
केवलिप्रणीत व अहिंसा लक्षणवाला सत्यअधिष्ठित है।।
है विनय मूल इसका व क्षमा बल अठरह हजार शील मंडित।
चौरासी लाख गुणों भूषित नव ब्रह्मचर्य से नित रक्षित।।६।।
नियति-विषयव्यावृतिलक्षण व परिग्रहत्यागफलों वाला।
उपशम प्रधान यह क्षमामार्गदेशक मुक्तीपथ उजियाला।
यह सिद्धिमार्ग का चरमसीम इसमें जो मैंने दोष किये।
वह क्रोध मान माया व लोभ अज्ञान अदर्शन से हि हुए।।७।।
शक्ती से हीन असंयम से श्रद्धानरहित अप्रतिग्रहणा।
या बिना विचारे अबोध राग द्वेष मोह या हास्य मना।।
भय प्रदोष से व प्रमाद प्रेम विषयों की गृद्धी लज्जा से।
गारव व अनादर से या अन्य किन्हीं भी कारण से मुझसे।।८।।
आलस से कर्मभार से कर्मों की गुरुता से कर्मों के।
दुश्चरित्र से कर्मों के उत्कटपने त्रिगारवगुरुता से।।
श्रुतज्ञान अल्पता से परमार्थज्ञान मुझको नहिं होने से।
दुश्चरित पूर्व में हुए उन्हीं सबकी गर्हा करता हूँ मैं।।९।।
होने वाले अत्याज्य भाव का प्रत्याख्यान मैं करता हूँ।
जिनका आलोचन नहीं किया उनका आलोचन करता हूँ।।
अनिंदित की निन्दा करता अगर्हित की गर्हा करता हूँ।
जिनका प्रतिक्रमण नहीं कीया प्रतिक्रमण उन्हीं का करता हूँ।।१०।।
मैं विराधना को तजता हूँ आराधन स्थिर करता हूँ।
अज्ञानत्रयी को तजता हूँ संज्ञानपांच स्थिर करता हूँ।।
मिथ्यादर्शन को तजता हूँ सम्यग्दर्शन थिर करता हूँ।
मिथ्याचारित को तजता हूँ सम्यक्चारित स्थिर करता हूँ।।११।।
कुतप-बालतप तजता हूँ बारह तप को स्थिर करता हूँ।
अकरणीय को तजता हूँ करणीय को स्थिर करता हूँ।।
प्राणातिपात को तजता हूँ, अभयदान को स्थिर करता हूँ।
मैं झूठ वचन को तजता हूँ, सत्यवचन को स्थिर करता हूँ।।१२।।
अदत्तग्रहण को तजता हूँ दी गई योग्य में स्थिर होता हूँ।
अब्रह्मचर्य को तजता हूँ ब्रह्मचर्य में स्थिर होता हूँ।।
मैं सर्व परिग्रह तजता अपरिग्रह में स्थिर होता हूँ।
मन वचन काय कृत कारितादि से रात्रि भोजन तजता हूँ।।१३।।
सुसमयप्राप्त प्रासुक इकबार दिन भुक्ति में स्थिर होता हूँ।
मैं आर्तरौद्र ध्यान तजता हूँ धर्मशुक्ल ध्यान थिर करता हूँ।।
कृष्ण नील कापोत छोड़ता हूँ, पीत पद्म शुक्ल स्थिर करता हूँ।
मैं सब आरंभ छोड़ता हूँ, अनारंभ में स्थिर होता हूँ।।१४।।
मैं सर्व असंयम तजता हूँ, संयम में सुस्थिर होता हूँ।
सग्रन्थ अवस्था तजता हूँ, निर्ग्रन्थ में स्थिर होता हूँ।।
सवस्त्र अवस्था तजता हूँ निर्वस्त्र में स्थिर होता हूँ।
मैं अलोच को परिहरता हूँ लोच क्रिया में स्थिर होता हूँ।।१५।।
स्नान क्रिया को तजता हूँ अस्नान में स्थिर होता हूँ।
अभूमि शयन को तजता हूँ भूशयन में स्थिर होता हूँ।।
मैं दंतधावन को तजता हूँ अदंतधावन स्थिर करता हूँ।
अस्थिति भोजन को तजता हूँ, इक भक्त स्थिति भुक्ति स्वीकरता हूँ।।१६।।
अपाणिपात्र को तजता हूँ पाणिपात्र में स्थिर होता हूँ।
मैं क्रोध कषाय को तजता हूँ मैं क्षमा में स्थिर होता हूँ।।
मैं मान कषाय को तजता हूँ मार्दव में स्थिर होता हूँ।
मैं माया को परिहरता हूँ आर्जव में स्थिर होता हूँ।।१७।।
मैं लोभ भाव को तजता हूँ संतोष में स्थिर होता हूँ।
मैं अतप-कुतप को तजता हूँ द्वादशतप में स्थिर होता हूँ।।
मिथ्यात्व सभी छोड़ता हूँ समकित की प्राप्ती करता हूँ।
सम्पूर्ण अशील छोड़ता हूँ सुशील की प्राप्ती करता हूँ।।१८।।
मैं तीनों शल्य छोड़ता हूं निःशल्य की प्राप्ती करता हूँ।
मैं अविनयवृत्ति छोड़ता हूँ विनयगुण की प्राप्ती करता हूँ।।
मैं अनाचार को तजता हूँ आचार को स्वीकृत करता हूँ।
मैं सब उन्मार्ग छोड़ता हूँ जिनमार्ग को स्वीकृत करता हूँ।।१९।।
अक्षमा भाव को तजता हूँ, मैं क्षमा को स्वीकृत करता हूँ।
मैं त्रय अगुप्ति को तजता हूँ, त्रयगुप्ती स्वीकृत करता हूँ।।
मैं अमुक्ति को छोड़ रहा सुमुक्ति को स्वीकृत करता हूँ।
मैं असमाधी को तजता हूँ, सुसमाधी स्वीकृत करता हूँ।।२०।।
मैं ममता को परिहरता हूँ, निर्ममता स्वीकृत करता हूँ।
जो नहिं भाये सो भाता हूँ जो भाये उन्हें न भाता हूँ।।
निर्ग्रन्थरूप यह प्रवचन कथित अनुत्तर केवलि संबंधी।
रत्नत्रयमय नैकायिक सम-एकत्वरूप सामायिक भी।।२१।।
संशुद्ध शल्ययुत जन का शल्यविघातक और सिद्धिपथ है।
यह श्रेणिमार्ग अरु क्षमामार्ग मुक्तीपथ तथा प्रमुक्ति पथ है।।
यह मोक्षमार्ग व प्रमोक्षमार्ग निर्यानपथ रु निर्वाण मार्ग।
यह सर्वदुःखपरिच्युतीमार्ग सुचरित्रपरिनिर्वाण मार्ग।।२२।।
इसमें स्थित जीव सिद्ध होते बुद्ध होते मुक्ती पाते।
परिनिर्वाण प्राप्त करते सब दुःखों का भि अंत करते।।
मैं इसकी श्रद्धा करता हूँ इसकी ही प्राप्ती करता हूँ।
इसमें ही मैं रुचि रखता हूँ इसका ही स्पर्श करता हूँ।।२३।।
इससे बढ़कर निंह अन्य कोई नहिं हुआ न है नहिं होगा ही।
सुज्ञान से दर्शन से चरित्र से सूत्र से शील व गुण से ही।
तप से व नियम से व्रत से अरु आचरण तथा आश्रय से भी।
आर्जव लाघव या अन्य किसी से वीर्य से भी उत्कृष्ट यही।।२४।।
मैं श्रमण-मुनी हूँ संयत हूँ मैं उपरत हूँ उपशांत भि हूँ।
परिग्रह वंचन व मान माया अरु असत्य से अतिविरक्त हूँ।।
मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्याचरित्र से विरक्त हूँ।
जिन प्रणीत सम्यग्ज्ञान सुदर्शन चारित में रुचि रखता हूँ।।२५।।
जो मेरे से दैवसिक व रात्रिक पाक्षिक (चउमासिक) (वार्षिक) प्रतिक्रमणविधि में।
ईर्यापथ केशलोच अतीचार संस्तरादि अतिचारों में।।
पंथादिक अतिचार सर्वअतिचार तथा उत्तमारथ में।
विशुद्धि हेतु प्रतिक्रमण करूं रुचि धारूँ सम्यक्चारित में।।२६।।
पंचम महाव्रत में परिग्रह लेने से विरती होना है।
यह महाव्रत उपस्थापनामंडल-प्रशस्त सुव्रतारोपण है।।
यह महाअर्थ है महान्गुणमय महानुभाव-महात्म्य है।
महासुयश महापुरुष तीर्थंकर आदि जनों से अनुष्ठित है।।२७।।
अरिहंत साक्षि से सिद्धसाक्षि से, साधुसाक्षि से आत्मसाक्षि से।
परसाक्षी देवतासाक्षि से, विशुद्धिहेतु उत्तमारथ में।।
यह महाव्रत मुझमें सुव्रत हो, दृढ़व्रत हो निस्तारक होवे।
पारक तारक आराधक भी, मुझमें अरु तुममें भी होवे।।२७।।
पंचमं महाव्रतं सर्वेषां व्रतधारिणां सम्यक्त्वपूर्वक दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु।।३बार।।
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।३ बार।।
हे भगवन्! अब मैं छठे अणुव्रत में त्रयविध मन वच तन से।
रात्रीभोजन को जीवनभर मैं स्वयं त्यागता हूँ रुचि से।।
इसमें जो भोजन पान खाद्य अरु स्वाद्य कटुक या कषायले।
खट्ठे मीठे नमकीन बिना नमकीन सचित्त अचित्त भले।।१।।
ये चउविध के आहार मुझे नहिं स्वयं रात्रि में खाना था।
नहिं पर से भोजन करवाना नहिं मुझको अनुमति देना था।।
हे भगवन् ! इनके अतिचारों का प्रतिक्रमण मैं करता हूँ।
अपनी निंदा गर्हा करता पूर्वकृत दोष छोड़ता हूँ।।२।।
हे भगवन् ! मुझसे जो भी राग द्वेष या मोह वशंगत हो।
चउविध आहार निशा में स्वयं किया पर से करवाया हो।।
या रात्री भोजन करते को मैंने अनुमति भी दीया हो।
मैं प्रतिक्रमण करता हूँ अरु तजता हूँ इन सब दोषों को।।३।।
निग्र्रंथरूप यह पावन है प्रवचन में कहा अनुत्तर है।
केवलिप्रणीत व अिंहसालक्षणवाला सत्य अधिष्ठित है।।
है विनय मूल इसका व क्षमा बल अठरह हजार शील मंडित।
चौरासी लाख गुणों भूषित नव ब्रह्मचर्य से नित रक्षित।।४।।
नियति-विषयव्यावृत्तिलक्षण व परिग्रह त्याग फलों वाला।
उपशम प्रधान यह क्षमामार्गदेशक मुक्तीपथ उजियाला।।
यह सिद्धिमार्ग का चरमसीम इसमें जो मैंने दोष किये।
वह क्रोध मान माया व लोभ अज्ञान अदर्शन से हि हुए।।५।।
शक्ती से हीन असंयम से श्रद्धानरहित अप्रतिग्रहणा।
या बिना विचारे अबोध राग द्वेष मोह या हास्य मना।।
भय प्रदोष से व प्रमाद प्रेम विषयों की गृद्धी लज्जा से।
गारव व अनादर से या अन्य किन्हीं भी कारण से मुझसे।।६।।
आलस से कर्मभार से कर्मों की गुरुता से कर्मों के।
दुश्चरित्र से कर्मों के उत्कटपने त्रिगारव गुरुता से।।
श्रुतज्ञान अल्पता से परमार्थ ज्ञान मुझको नहिं होने से।
दुश्चरित पूर्व में हुए उन्हीं सबकी गर्हा करता हूँ मैं।।७।।
होने वाले अत्याज्य भाव का प्रत्याख्यान मैं करता हूँ।
जिनका आलोचन नहीं किया उनका आलोचन करता हूँ।।
अनिंदित की निंदा करता अगर्हित की गर्हा करता हूँ।
जिनका प्रतिक्रमण नहीं कीया प्रतिक्रमण उन्हीं का करता हूँ।।८।।
मैं विराधना को तजता हूँ, आराधन स्थिर करता हूँ।
अज्ञानत्रयी को तजता हूँ, संज्ञान पाँच स्थिर करता हूँ।।
मिथ्यादर्शन को तजता हूँ, सम्यग्दर्शन स्थिर करता हूँ।
मिथ्याचारित को तजता हूँ, सम्यक्चारित स्थिर करता हूँ।।९।।
मैं कुतप-बालतप तजता हूँ, बारह तप में स्थिर होता हूँ।
मैं अकरणीय को तजता हूँ, करणीय में स्थिर होता हूँ।।
प्राणातिपात को तजता हूँ, अभयदान में स्थिर होता हूँ।
मैं झूठ वचन को तजता हूँ, वच सत्य में स्थिर होता हूँ।।१०।।
अदत्तग्रहण को तजता हूँ दी गई योग्य में थिर होता हूूँ।
अब्रह्मचर्य को तजता हूँ ब्रह्मचर्य में स्थिर होता हूूँ।।
मैं सर्व परिग्रह तजता हूँ अपरिग्रह में स्थिर होता हूूँ।
मन वचन काय कृत कारितादि से रात्री भोजन तजता हूूँ।।११।।
सुसमयप्राप्त प्रासुक इकबार दिन भुक्ति में थिर होता हूँ।
आर्तरौद्र ध्यान को तजता हूँ, धर्मशुक्ल ध्यान स्थिर करता हूँ।।
कृष्ण नील कापोत तजता हूँ, पीत पद्म शुक्ल स्थिर करता हूँ।
मैं सब आरंभ छोड़ता हूँ, अनारंभ में स्थिर होता हूँ।।१२।।
मैं सर्व असंयम तजता हूँ, संयम में सुस्थिर होता हूँ।
सग्रंथ अवस्था तजता हूँ, निर्ग्रन्थ में स्थिर होता हूँ।।
सवस्त्र अवस्था तजता हूँ, निर्वस्त्र में स्थिर होता हूँ।
मैं अलोच को परिहरता हूँ, कचलोच में स्थिर होता हूँ।।१३।।
स्नान क्रिया को तजता हूँ, अस्नान में स्थिर होता हूँ।
अभूमि शयन को तजता हूँ, भूशयन में स्थिर होता हूँ।।
मैं दंतधावन को तजता हूँ, अदंतधावन स्वीकरता हूँ।
अस्थिति भोजन को तजता हूँ, इक भक्त स्थिति भुक्ति स्वीकरता हूँ।।१४।।
अपाणिपात्र को तजता हूँ, पाणिपात्र में स्थिर होता हूँ।
मैं क्रोध कषाय को तजता हूँ, मैं क्षमा में स्थिर होता हूँ।।
मैं मान कषाय को तजता हूँ, मार्दव में स्थिर होता हूँ।
मैं माया को परिहरता हूँ, आर्जव में स्थिर होता हूँ।।१५।।
मैं लोभ भाव को तजता हूँ, संतोष में स्थिर होता हूँ।
मैं अतप-कुतप को तजता हूँ, द्वादशतप में स्थिर होता हूँ।।
मिथ्यात्व सभी छोड़ता हूँ, समकित की प्राप्ती करता हूँ।
सम्पूर्ण अशील छोड़ता हूँ, सुशील की प्राप्ती करता हूँ।।१६।।
मैं तीनों शल्य छोड़ता हूँ, निःशल्य की प्राप्ती करता हूँ।
मैं अविनयवृत्ति छोड़ता हूँ, विनयगुण स्वीकृत करता हूँ।।
मैं अनाचार को तजता हूँ, आचार को स्वीकृत करता हूँ।
मैं सब उन्मार्ग छोड़ता हूँ, जिनमार्ग को स्वीकृत करता हूँ।।१७।।
अक्षमा भाव को तजता हूँ, मैं क्षमा को स्वीकृत करता हूँ।
मैं त्रय अगुप्ति को तजता हूँ, त्रयगुप्ती स्वीकृत करता हूँ।।
मैं अमुक्ति को परिहरता हूँ, सुमुक्ति स्वीकृत करता हूँ।
मैं असमाधी को तजता हूँ, सुसमाधी स्वीकृत करता हूँ।।१८।।
मैं ममता को परिहरता हूँ, निर्ममता स्वीकृत करता हूँ।
जो नहिं भाये सो भाता हूँ, जो भाये उन्हें न भाता हूँ।
निग्र्रंन्थ रूप यह प्रवचन कथित अनुत्तर केवलि संबंधी।
रत्नत्रयमय नैकायिक सम-एकत्वरूप सामायिक भी।।१९।।
संशुद्ध शल्ययुत जन का शल्यविघातक और सिद्धिपथ है।
यह श्रेणिमार्ग अरु क्षमामार्ग मुक्तीपथ तथा प्रमुक्ति पथ है।।
यह मोक्षमार्ग व प्रमोक्षमार्ग निर्यानपथ रु निर्वाण मार्ग।
यह सर्वदुःखपरिच्युतीमार्ग सुचरित्रपरिनिर्वाण मार्ग।।२०।।
इसमें स्थित जीव सिद्ध होते बुद्ध होते मुक्ती पाते।
परिनिर्वाण प्राप्त करते, सब दुःखों का भि अंत करते।।
मैं इसकी श्रद्धा करता हूँ, इसकी ही प्राप्ती करता हूँ।
इसमें ही मैं रुचि रखता हूँ, इसका ही स्पर्श करता हूँ।।२१।।
इससे बढ़कर नहिं अन्य कोई नहिं हुआ न है नहिं होगा ही।
सुज्ञान से दर्शन से चरित्र से सूत्र से शील व गुण से ही।।
तप से व नियम से व्रत से अरु, आचरण तथा आश्रय से भी।
आर्जव लाघव या अन्य किसी से वीर्य से भी उत्कृष्ट यही।।२२।।
मैं श्रमण-मुनी हूँ संयत हूँ, मैं उपरत हूँ उपशांत भि हूँ।
परिग्रह वंचन व मान माया अरु असत्य से अतिविरक्त हूँ।।
मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्याचरित्र से विरक्त हूँ।
जिन प्रणीत सम्यग्ज्ञान सुदर्शन चारित में रुचि रखता हूँ।।२३।।
जो मेरे से दैवसिक व रात्रिक पाक्षिक (चउमासिक) (वार्षिक) प्रतिक्रमण विधि में।
ईर्यापथ केशलोंच अतीचार संस्तरादि अतिचारों में।।
पंथादिक अतीचार सर्वअतिचार तथा उत्तमारथ में।
विशुद्धी हेतु प्रतिक्रमण करूं रुचि धारूं सम्यक् चारित में।।२४।।
इस छट्ठे अणुव्रत में रात्री भोजन से विरती होना है।
यह अणुव्रत उपस्थापनामण्डल-प्रशस्त सुव्रतारोपण है।।
यह महाअर्थ है महानगुणमय महानुभाव-महात्म्य है।
महासुयश महापुरुष तीर्थंकर आदि जनों से अनुष्ठित है।।२५।।
अरिहंतसाक्षि से सिद्धसाक्षि से, साधुसाक्षि से आत्मसाक्षि से।
परसाक्षी देवतासाक्षि से, विशुद्धि हेतु उत्तमारथ में।।
यह अणुव्रत मुझमें सुव्रत हो, दृढ़व्रत हो निस्तारक होवे।
पारक तारक आराधक भी, मुझमें अरु तुममें भी होवे।।२६।।
षष्ठं अणुव्रतं सर्वेषां व्रतधारिणां सम्यक्त्वपूर्वकं दृढव्रतं सुव्रतं समारूढं ते मे भवतु। (३ बार)
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।३ बार।।
पच्चीस भावना है जिसमें ऐसी चूलिका कहूँगा मैं। मानी हैं पाँच पाँच ये भी जो हैं एक एक महाव्रत में।।१।।
मनगुप्ति वचनगुप्ति ईर्यासमिती व कायसंयत रखना। एषणसमिती ये पाँच भावना प्रथम महाव्रत की धरना।।२।।
क्रुध लोभ और भय हास्य त्याग अनुवीचीभाषा कुशल कही। आगम अनुकूलवचन दूजे व्रत की ये पाँच भावना ही।।३।।
अदेहनं-यह तन ही धन है यह देह अशुचि आदी भावन। अवग्रह-गतपरिग्रह अशन पान में संतुष्टी व्रत की तृतियन।।४।।
स्त्री की कथा व संसर्ग अरु हास्य व क्रीडा अवलोकन। इन सबको राग से निंह करना चौथे व्रत में स्थिरीrकरण।।५।।
सचित्त अचित्त द्रव्य अरु बाह्य अभ्यंतर द्रव्य व परिग्रह से। विरती ये पांच भावनाएं, पाँचवें महाव्रत की ही हैं।।६।।
उत्तमव्रत है वो ही जो धैर्य सहित अरु क्षमायुक्त होता। जो ध्यान योग मेें स्थित परिषह सहने में अभिमुख रहता।।७।।
सब सारों में जो सार अहो गौतम! वह सार सर्व उत्तम। जो ‘‘ध्यान’’ नाम से कहा वही है सार सर्वकेवलि भणितं।।८।।
ये पांच महाव्रत रात्रीभोजनविरति छठे अणुव्रतयुत हैं। भावनासहित मातृकापदों युत उत्तरपदयुत-गुणयुत हैं।।
इस सम्यक् धर्म का अनुपालन करके भगवान श्रमण मुनिवर। निग्र्रंथलिंग से सिद्ध बुद्ध होते व मुक्त होते सुखकर।।
परिनिर्वृत होते सर्वदुखों का अंत करें त्रिभुवन जानें। यह श्रमणधर्म ही शिवप्रद है इसको आगे इस विध मानें।।
प्राणीवध झूठ चौर्य मैथुन परिग्रह पापों को तज करके। इन व्रत का सम्यक् पालन कर संयत निर्वाणमार्ग लभते।।
जिनशासन में जो कोई भी हैं शल्य निंद्य माने जाते। उन सबको तज निःशल्य हुए मुनिराज सदा विहरण करते।।
उत्पन्न हुई या अनुत्पन्न माया को तत्क्षण नष्ट करो। आलोचन प्रतिक्रमण निंदन गर्हण से व्रत की शुद्धि करो।।
जिस क्षण मायादिक पैदा हों उस क्षण ही उन्हें दूर करना। ये भावप्रतिक्रमणं अरू शेष द्रव्यप्रतिक्रमण पाठ पढ़ना।।
सम्पूर्ण जिनेन्द्रों ने ये ही प्रतिक्रमणविधी है बतलाई। संयम तप में सुस्थित निग्र्रंथ महर्षी मुनि के लिए कही।।
अक्षर पद अर्थ हीन मात्रा से हीन पढ़ा इसमें जो भी। हे ज्ञानदेवते! क्षमा करो मुझको देवो समाधि बोधी।।
अरिहंतों को कर नमस्कार सिद्धों को नमस्कार करके। आचार्य उपाध्याय को व लोक में सर्वसाधु को भी नमते।।
हे भगवन्! सूत्र के मूलपदों उत्तरपद के आसादन से। जो दोष हुए उनका प्रतिक्रमण करूं मैं सो वह इस विध से।।
जो नमस्कारपद अर्हत् पद अरु सिद्धपदाचार्यपद में। उपाध्यायपद साधूपद मंगलपद लोकोत्तम पद में।।
शरणंपद सामायिकपद चौबिस तीर्थंकर पद वंदनपद में। प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान रु कायोत्सर्ग असहि निसहि पद में।।
अंगों में पूर्वों में व प्रकीर्णक प्राभृत प्राभृतप्राभृत में। कृतकर्मों६ भूतकर्म७ में आसादन से दोष विशोधूं मैं।।
ज्ञान में जो आसादन की दर्शन चरित्र तप वीरज में। आसादन कर जो दोष किये उन सबका शोधन करता मैं।।
इनमें अक्षर से हीन व पद से हीन व स्वर से हीन पढ़ा। व्यंजन से हीन व अर्थहीन या ग्रंथहीन जु अशुद्ध पढ़ा।।
स्तव स्तुति अर्थाख्यानों के अनुयोगों के पढ़ने में। अनुयोगद्वार में हीन आदि दोषों का प्रतिक्रमण करता मैं।।
अर्हंतदेव भगवंत तीर्थंकर आदीकर त्रैलोक्यनाथ। त्रिभुवनज्ञानी त्रिभुवनदर्शी ने प्रतिपादे हैं जो पदार्थ।।
उनकी मैं श्रद्धा करता हूँ उनकी ही प्राप्ती करता हूँ। उनमें ही मैं रुचि रखता हूँ उनका ही स्पर्श करता हूँ।।
इनकी श्रद्धा करते हुए अरु इनकी प्राप्ती करते हुए जो। इनमें रुचि रखते हुए तथा इनका स्पर्श करते हुए जो।।
मैंने दैवसिक व रात्रिक पाक्षिक आदिक में जो दोष किये। अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार अनाचार आभोग अनाभोग किये।।
जो अकाल में स्वाध्याय किया अरु काल में स्वाध्याय नहीं किया। सहसा किया बिना विवेक किया मिथ्या के साथ मिलाय दिया।।
अन्यथा पढ़ा अन्यथा कहा अन्यथा ग्रहण कीया भी जो। आवश्यक में परिहानी की सब दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।
अब एकम दूज तीज चौथी पंचमि छठ सप्तमि अष्टमि में। नवमी दशमी ग्यारस बारस तेरस चौदश पूनम तिथि में।।
पन्द्रह दिन में पन्द्रह रात्री में दोष किये जो पाक्षिक में। (चउमास३ के आठ पक्ष में एक सौ बीस दिवस अरु रात्री में)।।
(इक४ वर्ष में चौबिस पक्ष में त्रयशत छ्याछठ दिन अरु रात्री में)।
(या५ पांच वर्ष के परे व अन्दर ‘‘युगप्रतिक्रमण’’ के करने में)।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करके सब दोष विशोधन करता मैं।।
दो आर्त रौद्र संक्लेश भाव, त्रय अप्रशस्त१ संक्लेशभाव। त्रय दण्ड तीन लेश्या त्रयगुप्ती त्रय गारव त्रयशल्य भाव।।
चउ संज्ञा चार कषाय चार उपसर्ग व पांच महाव्रत हैं।। पंचेंद्रिय पांच समितियां पांच सुचारित छह आवश्यक हैं।।
भय सात सप्तविध संसारा२ मद आठ आठ शुद्धी मानी। अठ कर्म आठ प्रवचन माता नव ब्रह्मचर्य गुप्ती मानी।।
नव नोकषाय दशविध मुंडन दश श्रमण धर्म दश धर्मध्यान। बारह संयम बारह तप बारह अंग व तेरह क्रिया जान।।
चौदह पूरब पन्द्रह प्रमाद सोलह कषाय पच्चीस क्रिया। पच्चीस भावना बाइस परिषह अठरह हजार शीलचर्या।।
चौरासी लाख सु उत्तरगुण सब मूलगुणों उत्तरगुण में। अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार अनाचार आभोग अनाभोग कीने।।
हे भगवन्! इनके अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ मैं। प्रतिक्रमण करते हुए मुझसे जो कृत कारित अरु अनुमोदन से।।
अतिचार हुए भगवन्! उनका प्रतिक्रमण अभी मैं करता हूँ। आत्मा की निंदा गर्हा करता, सब दोषों को तजता हूँ।।
जब तक अर्हंत् भगवंत नमन कर पर्युंपासना करता हूँ। तब तक मैं पाप कर्म अरु, दुश्चारित को भी परिहरता हूँ।।
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।
हे आयुष्मन्तों! पहले ही यहां मैंने सुना वीर प्रभु से। उन महाश्रमण भगवान् महतिमहावीर महाकाश्यप जिनसे।।
सर्वज्ञज्ञानयुत सर्वलोकदर्शी उनने उपदेश दिया। श्रावक व श्राविका क्षुल्लक अरु क्षुल्लिका इन्हों के लिए कहा।।
ये पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत, चउ शिक्षाव्रत बारह विध। हैं सम्यक् श्रावक धर्म इन्हीं, में जो ये अणुव्रत पांच कथित।।
पहला अणुव्रत स्थूलतया, प्राणीवध से विरती होना। दूजा अणुव्रत स्थूलतया, असत्यवच से विरती होना।।
तीजा अणुव्रत स्थूलतया, बिन दी वस्तू को नहिं लेना। चौथा अणुव्रत स्थूलतया परदारा से विरती होना।।
निजपत्नी में संतुष्टी या सब स्त्रीमात्र से रति तजना। पंचम अणुव्रत स्थूलतया इच्छाकृत परीमाण धरना।।
त्रय गुणव्रत में पहला गुणव्रत, दिश विदिशा का प्रमाण करना। दूजा गुणव्रत नाना अनर्थ दण्डों से नित विरती धरना।।
तीजा गुणव्रत भोगोपभोग, वस्तू की संख्या कर लेना। ये तीन गुणव्रत कहे, पुनः चारों शिक्षाव्रत को सुनना।।
पहला शिक्षाव्रत सामायिक दूजा प्रोषध उपवास कहा। तीजा है अतिथि संविभाग चौथा सल्लेखनमरण कहा।।
शिक्षाव्रत चार कहे पुनरपि, अभ्रावकाश तृतीयव्रत है। जघन्य श्रावक से उत्तम तक, ये बारह व्र्रत तरतममय हैंं।।
इसमें अभिमत जीव रु अजीव उपलब्ध पुण्य अरु पाप कहे। आस्रव संवर निर्जर व बंध अरु मोक्ष कुशल नव तत्त्व रहें।।
इनमें धर्मानुराग से रत प्रेमानुराग में रागी हो। अस्थीमज्जा के सदृश धर्म के, अनुराग में रागी हो३।।
ममतापूर्वक गृहीत वस्तु में, गृहीत वस्तु अरु कृतवस्तू में। अपने पालन किये पदार्थ में, अपने सेवित सुपदारथ में।।
निग्र्रंथों के भी प्रवचन में, उत्तम अरु हितकर पदार्थ में। सेवन की प्रवृत्ती रूप क्रिया में दोष हुए सो मिथ्या हों।।
निःशंकित निःकांक्षित अरु निर्विचिकित्सा अमूढ़दृष्टी हैं। उपगूहन स्थितीकरण वात्सल प्रभावना अठ अंग कहे।।
ये सभी पांच अणुव्रत त्रयगुणव्रत चउ शिक्षाव्रत माने हैं। बारहविध गृहस्थधर्मों का अनुपालन श्रावक करते हैं।।
दर्शनव्रत सामायिक प्रोषध सचित्तत्याग निशिभुक्ति त्यजी। ब्रह्मचर्य व आरंभ परिग्रह अनुमति उद्दिष्ट त्याग ये देशव्रती।।
मधु मांस मद्य जुआ वेश्यादिक व्यसनविवर्जनशील गृही। पंचाणुव्रतयुत शिक्षाव्रत आदिक सातों से जो पूर्ण वही।।
जो श्रावक और श्राविका या क्षुल्लक व क्षुल्लिका इन व्रत को। धारण कर अठरहस्थान व भावन व्यंतर में नहिं जाते वो।
ज्योतिषियों में सौधर्म ईशान देवियों में नहिं जाते हैं। उपरिम वैमानिक देवों में वे महाऋद्धिधर होते हैं।।
वह यह सौधर्मैशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्म दिव में। ब्रह्मोत्तर लांतव कापिष्ठ रु शुक्र अरु महाशुक्र दिव में।।
पुनि शतार सहस्रार आनत प्राणत आरण अच्युत दिव में। इन सोलह स्वर्गों मे ही ये सदृष्टि सचेलक उपजत हैं।।
वे कटक व बाजूबन्द मुकुट से युत आडंबर शस्त्र धरें। भासुरवर बोधि धरें बहु ऋद्धी सहित महद्र्धिक देव बनें।।
उत्कृष्टपने से दो त्रय भव व जघन्य से सात आठ भव लें। फिर मानव से देवपद ले सुदेवपद से सुमनुष्य भव लें।।
फिर सद्गृहस्थ२ निर्गं्रथ मुनी हो सिद्ध-बुद्ध हो जाते हैं। मुक्ती पाते कृतकृत्य बने सब दुःखों का क्षय करते हैं।।
जब तक अर्हत भगवंत नमन कर पर्युंपासना करता हूँ। तब तक सब पापकर्म अरु दुश्चारित को मैं परिहरता हूँ।।
(यहां तक आचार्यश्री ने पाठ पढ़ा है। अनन्तर सभी साधु ‘थोस्सामिस्तवन’ पढ़ें।
पुनः आचार्य सहित सभी साधुवर्ग ‘व्रत समिति’ इत्यादि पढ़कर वीरभक्ति पढ़ें।)
व्रत समिति इंद्रियनिरोध छह आवश्यक आचेलक लोच। भूमिशयन अस्नान अदंतधावन स्थितिभुक्ती भत्तैकं।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के प्रमाद से इनमें अतिचार। इनसे दूर हुआ हूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ!।।१।।
सर्वातिचार विशुद्ध्यर्थं पाक्षिकप्रतिक्रमणक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं निष्ठितकरण-वीरभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (णमो अरहंताणं इत्यादि सामायिक दण्डक पढ़कर पाक्षिक प्रतिक्रमण में तीन सौ (३००) श्वासोच्छ्वास में जाप्य करके३ थोस्सामिस्तवन पढ़कर चन्द्रप्रभ स्तुति पढ़कर अंचलिका सहित वीरभक्ति पढ़ें।)
शेरछन्द-
हे चन्द्रप्रभो! चन्द्रकिरण सम सफेद हो। मानो द्वितीय चन्द्र ही भूपर उदित अहो।।
इन्द्रादि वंद्य ऋषिपती जिनराज आप हो। अन्तःकषायबंधविजित मैं तुम्हें वंदों।।१।।
जैसे रवी किरण अंधेर नष्ट करे हैं। तब देह कांति वैसे सुप्रकाश धरे हैं।।
यह कांति बाह्य के समस्त तिमिर को नाशे। अरु ध्यानदीप अतिशय मन ध्वांत विनाशे।।२।।
निजपक्ष के श्रेष्ठत्व मद से चूर प्रवादी। तुम वचन सिंहनाद से निर्मद हुए सभी।।
जैसे कि मद से आद्र्रगंडस्थल हुए जिनके! गजराज वे भी सिंहगर्जना से भागते।।३।।
जो कर्मजीत अद्भुत कर्म तेज धारते। आनन्त्यज्ञान शाश्वत विश्वनेत्र धारते।।
सम्पूर्णदुःख नाशन शासन को धरे हैं। त्रिभुवन में परमपद में वो स्थिति करे हैं।।४।।
सब दोषरूप मेघ के कलंक से रहित। अविरोध दिव्यध्वनि किरण से सदा प्रगट।।
सब भव्य कुमुद को प्रपुâल्ल करे चन्द्रमा। भगवान वे पावन पवित्र करें मुझ मना।।५।।
(चौबोल छंद)
जो विधिवत् सब लोक चराचर, द्रव्यों को उनके गुण को। भूत भविष्यत् वर्तमान, पर्यायों को भी नित सबको।।
युगपत् समय-समय प्रति जानें, अतः हुए सर्वज्ञ प्रथित। उन सर्वज्ञ जिनेश्वर महति, वीर प्रभू को नमूँ सतत।।१।।
वीर सभी सुर असुर इन्द्र से, पूज्य वीर को बुध सेवें। निज कर्मों को हता वीर ने, नमः वीर प्रभु को मुद से।।
अतुल प्रवर्ता तीर्थ वीर से, घोर वीर प्रभु का तप है। वीर में श्री द्युति कांति कीर्ति, धृति हैं हे वीर! भद्र तुममें।।२।।
जो नित वीर प्रभू के चरणों, में प्रणमन करते रुचि से। संयम योग समाधीयुत हो, ध्यान लीन होते मुद से।।
इस जग में वे शोेक रहित, हो जाते हैं निश्चित भगवन्। यह संसार दुर्ग विषमाटवि, इसको पार करें तत्क्षण।।३।।
व्रत समुदाय मूल है जिसका, संयममय स्कन्ध महान् । यम अरु नियम नीर से सिंचित बढ़ी सुशाखाशील प्रधान।।
समिति कली से भरित गुप्तिमय, कोपल से सुन्दर तरु है। गुण कुसुमों से सुरभित सत्तप, चित्रमयी पत्तों युत है।।४।।
शिवसुख फलदायी यह तरुवर, दयामयी छाया से युत। शुभजन पथिक जनों के खेद, दूर करने में समरथ नित।।
दुरित सूर्य के हुए ताप का, अन्त करे यह श्रेष्ठ महान् । वर चारित्र वृक्ष कल्पद्रुम, करे हमारे भव ही हान।।५।।
सभी जिनेश्वर ने भवदुःखहर, चारित को पाला रुचि से। सब शिष्यों को भी उपदेशा, विधिवत् सम्यक् चारित ये।।
पाँच भेद युत सम्यक् चारित, को प्रणमूँ मैं भक्ती से। पंचम यथाख्यात चारित की, प्राप्ति हेतु वंदूँ मुद से।।६।।
धर्म सर्वसुख खानि हितंकर, बुधजन करें धर्म संचय। शिवसुखप्राप्त धर्म से होता, उसी धर्म के लिए नमन।।
धर्म से अन्य मित्र नहिं जग में, दयाधर्म का मूल कहा। मन को धरूँ धर्म में नित, हे धर्म! करो मेरी रक्षा।।७।।
धर्म महा मंगलमय है यह, कहा वीर प्रभु ने जग में। प्रमुख अहिंसा संयम तपमय, धर्म सदा उत्तम सब में।
जिसके मन में सदा धर्म है, सुरगण भी उसको प्रणमें। मैं भी नमूँ धर्म को संतत, धर्म बसो मेरे मन में।।८।।
अंचलिका-
हे भगवन! श्री वीर भक्ति का, कायोत्सर्ग किया जो मैं। प्रतिक्रमण के अतिचारों की, आलोचन करता हूँ मैं।।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित तप, वीर्य पाँच आचारों में। संयम नियम शील यम में औ, मूलगुणों उत्तर गुण में।।
जितने भी अतिचार हुए औ, पापयोग भी जो मुझसे। उन सबसे मैं विरक्त होकर, आलोचन करता रुचि से।।
असंख्य लोकसम अध्यवसाय, स्थान योग अप्रशस्त कहे। संज्ञा इन्द्रिय कषाय गारव, किरियाओं में जो कि हुए।।
मन वच तन के अशुभयोग से, चिते कृष्ण नील कापोत। लेश्या विकथा उत्पथ ग्लानी, हास्य रती अरती भय शोक।।
वेद विजृंभित आर्तरौद्र, संक्लेश भाव से किये गये। अनिभृत कर पग मन वच तन से, इन्द्रिय विषयों में अति से।।
स्वर व्यंजन पद परिसंघात के, उच्चारण में हानी से। अन्य रूप प्रवृती से मिथ्या, मेलित आमेलित विधि से।।
किया अन्यथा दिया अन्यथा, लिया तथा आवश्यक में। हानी कृत कारित अनुमति से, सब दुष्कृत मिथ्या होवें।
व्रत समिती इंद्रियनिरोध छह, आवश्यक आचेलक लोच। भूमिशयन अस्नान अदंत-धावन स्थितिभुक्ती भक्तैक।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के, प्रमाद से इनमें अतिचार । इनसे दूर हुआ हूूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ।।१।।
सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं पाक्षिकप्रतिक्रमणक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं शांतिचतुर्विंशतितीर्थंकरभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (णमो अरिहंताणं इत्यादि दण्डक पढ़कर २७ उच्छ्वास में कायोत्सर्ग करके थोस्सामि स्तवन पढ़कर शांतिनाथ स्तुति पढ़ें। पुनःचौबीस तीर्थंकर भक्ति पढ़ें।)
शेरछंद
जो चक्रवर्ती राजा चिरकाल तक रहे। अरि से प्रजा की रक्षा करके सुखी किये।।
पश्चात् स्वयं ही वे दयामूर्ति मुनि हुए। वे शांतिनाथ स्वपर पाप शांत कर दिये।।१।।
जो शत्रु को भयंकर निज चक्ररत्न से। सम्राट बने सर्वनृपतिचक्र जीत के।।
जीता पुनः दुर्जेयमोहचक्र हो मुनी। ध्यानी समाधिचक्र से महोदयो तुम्हीं।।२।।
जो राजसिंहचक्रवर्ति भोग प्राप्तकर। राजागणों में राजश्री से शोभते सुखकर।
पुनि आत्म के आधीन समवसर्ण सभा में। आर्हन्त्यलक्ष्मी सहित राज रहें सभी में।।३।।
राजा बने जब आप राजवृंद नत हुए। मुनिपद में दयाकिरण धर्मचक्रधर हुए।।
अर्हंतपद में देववृंद हाथ जोड़ते। यमचक्र को नाशा पुनः ध्यानैक चक्र से।।४।।
निजदोष शांत करके पूर्ण शांति प्राप्ति की। शरणागतों के शांति विधाता हो आप ही।।
भगवान शरण में कुशल हे शांतिजिनेश्वर। भवक्लेश भय की शांतिहेतु हो मुझे जिनवर।।५।।
चौबोलछन्द-
वृषभदेव से वीर प्रभू तक, चौबिस तीर्थंकर वंदूँ। गणयुत सब गणधर देवों को, सिद्धों को शिर से प्रणमूँ।।१।।
जो इस जग में सहस आठ, लक्षण धर ज्ञेयसिंधु के पार। जो सम्यक् भवजाल हेतु, नाशक रवि शशि प्रभ अधिक अपार।।
जो मुनि इन्द्र देवियों शत से, गीत नमित अर्चित कीर्तित। उन वृषभादि वीर तक प्रभु को, भक्ती से मैं नमूँ सतत।।२।।
देव पूज्य वृषभेश अजित, जिनवर त्रैलोक्य प्रदीप महान्। संभव जिन सर्वज्ञ मुनीगण, पुंगव अभिनन्दन भगवान।।
कर्म शत्रुहन सुमति नाथवर, कमल सदृश सुरभित पद्मेश। श्री सुपाश्र्व क्षमदमयुत शशिवत्, पूर्णचन्द्र जिन नमूँ हमेश।।३।।
भव भय नाशक पुष्पदंतजिन, प्रथित सु शीतल त्रिभुवन ईश। शील कोश श्रेयांस सुपूजित, वासुपूज्य गणधर के ईश।।
इन्द्रिय अश्व दमनकृत ऋषिपति, विमल अनंत मुनीश नमूँ। सद्धर्मध्वज धर्म शरणपटु, शमदमगृह शांतीश नमूूँ।।४।।
सिद्धगृहस्थित कुंथु अरहप्रभु, श्रमणपती साम्राज्य त्यजित। प्रथितगोत्र मल्लिप्रभ खेचर-नुत सुखराशि सु मुनिसुव्रत।।
सुरपति अर्चित नमिजिन हरिकुल, तिलक नेमि भव अंत किया। फणिपति वंद्य पाश्र्व भक्तीवश, वद्र्धमान तव शरण लिया।।५।।
अंचलिका
हे भगवन्! चौबिस तीर्थंकर, भक्ती का कायोत्सर्ग कर। आलोचन करने की इच्छा, करना चाहूँ मैं रुचिधर।।
अष्टमहा प्रातिहार्य सहित जो, पंचमहाकल्याणक युत। चौंतिस अतिशय विशेष युत, बत्तिस देवेन्द्र मुकुट चर्चित।।
हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित। लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीर प्रभू तक महापुरुष।।
मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ती से। नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ महामुद से।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे। सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।१।।
व्रत समिती इन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक आचेलक लोच। भूमिशयन अस्नान अदंत-धावन स्थितिभुक्ती भत्तैâक।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के, प्रमाद से इनमें अतिचार। इनसे दूर हुआ हूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ।।
सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं चारित्रालोचनाचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं-
(यहाँ भी ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि दण्डक पढ़कर कायोत्सर्ग करके थोस्सामिस्तवन करके आचार्यभक्ति पढ़कर चारित्र आलोचना पढ़ें।)
सद्ध गुणों की स्तुति में तत्पर, क्रोध अग्नि का नाश किया।
गुप्ती से परिपूर्ण मुक्तियुत, सत्य वचन से भरित हिया।।१।।
मुनि महिमा से जिन शासन के, दीपक भासुरमूर्ति स्वभाव।
सिद्धि चाहते कर्मरजों के, कारण घातन में पटुभाव।।२।।
गुणमणि विरचित तनु षट् द्रव्यों, की श्रद्धा के नित आधार।
दर्शनशुद्ध प्रमादीचर्या, रहित संघ सन्तुष्टीकार।।३।।
उग्र तपस्वी मोहरहित शुभ, शुद्ध हृदय शोभन व्यवहार।
प्रासुक जगह निवास पापहत, आश कुपथ विध्वंसि विचार।।४।।
दशमुंडनयुत दोषसहित, आहारी मुनिगण से अति दूर।
सकल परीषहजयी क्रिया में, तत्पर नित प्रमाद से दूर।।५।।
व्रत में अचलित कायोत्सर्गयुत, कष्ट दुष्ट लेश्या से हीन।
विधिवत् गृहत्यागी निर्मल तनु, इन्द्रियविजयी निद्राहीन।।६।।
उत्कुटिकासन धरें विवेकी, अतुल अखण्डित स्वाध्यायी।
राग लोभ शठ मद मात्सर्यों, रहित पूर्ण शुभ परिणामी।।७।।
धर्मशुक्ल से भावित शुचिमन, आर्तरौद्र द्वय पक्ष रहित।
कुगतिविनाशी पुण्यऋद्धि के, उदय सहित गारवविरहित।।८।।
आतापन तरुमूल योग, अभ्रावकाश में राग सहित।
बहुजन हितकर चरित अभय, निष्पाप महान् प्रभाव सहित।।९।।
इन सब गुण से युक्त तुम्हें, स्थिर योगी आचार्य प्रधान।
बहुत भक्तियुत विधिवत् मुकुलित, करपुटकमल धरूँ शिरधाम।।१०।।
नमूँ तुम्हें कर्मोदय संभव, जन्म जरा मृतिबन्ध रहित।
होवे इति शिव अचल अनघ, अक्षय निर्बाध मुक्तिसुख नित।।११।।
शंभु छंद
हे भगवन् ! इच्छा करता हूँ, चारित्राचार त्रयोदशविध। वह पाँच महाव्रत पाँच समिति, अरु तीन गुप्तिमय जिनभाषित।।
इनमें हिंसा का त्याग महाव्रत, प्रथम कहा है जिनवर ने। भूकायिक जीव असंख्यातासंख्यात व जलकायिक इतने१।।
अग्नीकायिक भि असंख्यातासंख्यात पवनकायिक इतने२। जो वनस्पतिकायिक प्राणी, वे सभी अनन्तानन्त भणें।।
ये हरित बीज अंकुर स्वरूप, नानाविध छिन्न-भिन्न भी हों। इन सबको प्राणों से मारा, संताप दिया पीड़ा दी हो।।
उपघात किया मन वच तन से, या अन्यों से करवाया हो। या करते को अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१।।
दो इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात कुक्षि कृमि३ शंख कहे। क्षुल्लक४ कौड़ी व अक्ष अरिष्टय५, गंडबाल लघु शंख कहे।
जो सीप जोंक आदिक इनको, मारा या त्रास दिया भी हो। पीड़ा दी या उपघात किया, या पर से भी करवाया हो।।
या करते को अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२।।
त्रय इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात कुंथु१ देहिक बिच्छू। जूं गोजों खटमल इन्द्रगोप, चिउंटी आदिक बहुविध जन्तू।।
इनको मारा संताप दिया, पीड़ा दी घात किया भी हो। करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३।।
चउ इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात उन्हों में डांस मशक। बहु कीट पतंगे भ्रमर मधूमक्खी गोमक्खी आदि विविध।।
इनको मारा परिताप विराधन, या उपघात किया भी हो। करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।४।।
पंचेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात इन्हों में अण्डज हैं। पोतज व जरायुज रसज पसीनज, सम्मूर्छन उद्भेदिम हैं।।
उपपाद जन्मयुत भी चौरासी, लाख योनि वालों में जो। इनको मारा संताप दिया, पीड़ा दी घात किया हो जो।।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।५।। वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।
अंचलिका (चौबोल छंद)
हे भगवन् ! आचार्य भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से। उसके आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।१।।
सम्यग्ज्ञान दरश चारितयुत, पंचाचार सहित आचार्य। आचारांग आदि श्रुतज्ञानी, उपाध्याय उपदेशकवर्य।।२।।
रत्नत्रय गुण पालन में रत, सर्व साधु का मैं हर्षित। अर्चन पूजन वंदन करता, नमस्कार करता हूँ नित।।३।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे। सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपद् होवे।।४।।
व्रत समिती इन्द्रियनिरोध छह, आवश्यक आचेलक लोच। भूमिशयन अस्नान अदंतधावन स्थितिभुक्ती भत्तैक।।
जिनवर कथित मूलगुणमुनि के, प्रमाद से इनमें अतिचार। इनसे दूर हुआ हूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ।।१।।
बृहदालोचनासहित मध्यमाचार्य भक्ति सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं बृहदालोचनाचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (णमो अरिहंताणं इत्यादि दण्डक पढ़कर ९ जाप्य करके थोस्सामिस्तवन पढ़कर ‘जो देश जाति’ इत्यादि भक्ति पढ़कर ‘‘हे भगवन्! पाक्षिकप्रतिक्रमण’’ इत्यादि बृहदालोचना को आचार्य और साधुवर्ग मिलकर पढ़ें।)
जो देश जाति कुल शुद्ध मनो-वच काय शुद्धि से संयुत हों।
उन पादसरोरुह सदा हमें, इस जग में सब मंगलप्रद हों।।१।।
जो स्वपर समय ज्ञाता आगम, हेतू से सब कुछ भी जानें।
जिनवचन कथन में पूर्ण कुशल, जन के अनुसार विनय ठानें।।२।।
बालक गुरु वृद्ध शैक्ष रोगी, स्थविर तथा उपवास सहित।
उनके पालक दुःशील अन्य मुनि, के भी सत्पथ दर्शक यति।।३।।
व्रत समिति गुप्तियुत स्वयं पुनः, पर को शिवपथ में प्रवृत्त करें।
अध्यापक गुण के निलय साधुगुण, से भी युत आचार्य खरे।।४।।
पृथ्वीसम उत्तम क्षमा स्वच्छ, जल सम प्रसन्न भावों युत हैं।
कर्मेंधन दहने में अग्नी, निःसंग वायु सम सूरी हैं।।५।।
आकाश सदृश मुनि लेपरहित, सागर सम क्षोभरहित मुनिवर।
इन गुण के आलय के पदयुग, मैं शुद्धमना प्रणमूँ रुचिधर।।६।।
भव वन में जो भी भव्यजीव, भ्रमते हैं वे निर्वाण मार्ग।
तुम पद प्रसाद से प्राप्त किया, हे गुरुवर मैं तुम नमूँ पाद।।७।।
जो कृष्ण नील कापोत रहित, शुभ लेश्या से परिणत विशुद्ध।
पुन आर्तरौद्र दुध्र्यान मुक्त, औ धर्म शुक्ल दो ध्यान युक्त।।८।।
जो अवग्रह ईहा अवाय औ, धारण गुण संपति से संयुत।
सूत्रार्थ भावना भाते नित, ऐसे सूरी को वंदूँ नित।।९।।
हे गुरुवर! तुम गुणगण संस्तुति में, किया न गण का ज्ञान मुझे।
केवल मुझ भक्तीवश की नित, तुम देवो बोधी लाभ मुझे।।१०।।
शंभु छंद-
हे भगवन्! मैं पाक्षिक दोषों का, चाहूँ आलोचन करना। पन्द्रह दिन पन्द्रह रात्री के, भीतर हुए दोषों को हरना।।
ज्ञानाचार दर्शनाचार व तप-आचार तथा वीर्याचारा। चारित्राचार पाँच ये हैं, आचार मोक्ष के आधारा।।
हे भगवन्! चातुर्मासिक का, आलोचन करूँ चउ महिने में। इन आठ पक्ष मेें इक सौ बीस, दिवस इक सौ बीस निश मेंं।।
ज्ञानाचार दर्शनाचार व तप आचार तथा वीर्याचारा। चारित्राचार पाँच हैं ये, आचार मोक्ष के आधारा।।
हे भगवन्! वार्षिक का आलोचन करूँ सुबारह महिने में। चउबीस पक्ष में त्रय सौ छ्यासठ, दिवस व इतनी रात्री में।।
ज्ञानाचार दर्शनाचार व तप-आचार तथा वीर्याचारा। चारित्राचार पाँच ये हैं, आचार मोक्ष के आधारा।।
इनमें है ज्ञानाचार प्रथम, जो आठ भेद शुद्धीयुत है। वह काल विनय उपधान तथा, बहुमान अनिह्नव व्यंजन है।।
पुनि अर्थ उभय इन शुद्धी से, स्तव स्तुति अर्थाख्याना। अनुयोग और अनुयोगद्वार में, किया यदी अक्षर हीना।।
या पद से कम या व्यंजन कम, या अर्थहीन या ग्रन्थ कमी। यदि अकाल में स्वाध्याय किया, या करवाया या अनुमति दी।।
या काल में नहिं स्वाध्याय किया, या झटिति पढ़ा मिथ्या मिश्रण। विपरीत अर्थकर पढ़ा अन्यथा, कहा अन्यथा किया ग्रहण।।
छह आवश्यक में हानी की, इस ज्ञानाचार में दोष किये। पणविध स्वाध्याय की सिद्धि हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।१।।
दर्शनाचार आठविध है, निःशंकित निःकांक्षित गुण से। अरु निर्विचिकित्सा अमूढ़दृक्, उपगूहन स्थितिकरण गुण से।।
वात्सल्य प्रभावन इन अठ में, जो शंका कांक्ष जुगुप्सा की। मिथ्यादृष्टी की प्रशंसा की, अरु परपाखंड प्रशंसा की।।
अनायतन की सेवा की, वात्सल प्रभावना नहीं किया। इन दोषों में जो हानी की, वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।२।।
छह अभ्यंतर छह बाहिर से, बारहविध तप आचार कहा। उनमें से अनशन अमोदर्य, वृतपरिसंख्या रसत्याग कहा।।
तनुपरित्याग-तनुक्लेश१ विविक्त, शयनासन तप बाह्य कहे। प्रायश्चित विनय सुवैयावृत, स्वाध्याय ध्यान२ व्युत्सर्ग कहे।।
इन बारह तप को नहीं किया, परिषह से पीड़ित छोड़ दिया। तप किरिया में जो हानी की, वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।३।।
है वीर्याचार पांचविध में, वर वीर्य पराक्रम से जानो। आगमवर्णित३ तप परीमाण, बल४ वीर्य५-सहज शक्ती मानो।।
परक्रम१-परिपाटी से मैंने, पण वीर्याचार में हानी की। निज शक्ति छिपायी तपश्चरण, करने में तप में हानी की।।
तप क्रिया न की परिषह आदिक से, पीड़ित हो यदि छोड़ दिया। इस वीर्याचार में दोष किया, वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।४।।
हे भगवन्! इच्छा करता हूँ, चारित्राचार त्रयोदशविध। वह पाँच महाव्रत पाँच समिति, अरु तीन गुप्तिमय जिनभाषित।।
इनमें हिंसा का त्याग महाव्रत, प्रथम कहा है जिनवर ने।। भूकायिक जीव असंख्यातासंख्यात व जलकायिक इतने२।
अग्नीकायिक भि असंख्यातासंख्यात पवनकायिक इतने३। जो वनस्पतिकायिक प्राणी, वे सभी अनंतानंत भणें।।
ये हरित बीज अंकुर स्वरूप, नानाविध छिन्न-भिन्न भी हों। इन सबको प्राणों से मारा, संताप दिया पीड़ा दी हो।।
उपघात किया मन वच तन से, या अन्यों से करवाया हो। या करते को अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।
दो इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात कुक्षिकृमि ४ शंख कहे। क्षुद्रक कौड़ी व अक्ष अरिष्टय५, गंडबाल लघु शंख कहे।।
जो सीप जोंक आदिक इनको, मारा या त्रास दिया भी हो। पीड़ा दी या उपघात किया, या पर से भी करवाया हो।।
या करते को अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो। त्रय इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात कुंथु१ देहिक बिच्छू।
जूंं गोजों खटमल इन्द्रगोप, चिउंटी आदिक बहुविध जंतू।। इनको मारा संताप दिया, पीड़ा दी घात किया भी हो।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।। चउ इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात उन्हों में डांस मशक।
बहु कीट पतंगे भ्रमर मधू-मक्खी गोमक्खी आदि विविध।। इनको मारा परिताप विराधन, या उपघात किया भी हो।
करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।। पंचेन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात इन्हों में अण्डज हैं।
पोतज व जरायुज रसज पसीनज, सम्मूर्छन उद्भेदिम हैं।। उपपाद जन्मयुत भी चौरासी, लाख योनि वालों में जो।
इनको मारा संताप दिया, पीड़ा दी घात किया हो जो।। करवाया या अनुमति दी हो, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।५।।
व्रत समिति इन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक आचेलक लोच। भूमिशयन अस्नान अदंत-धावन स्थितिभुक्ती भत्तैकं।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के, प्रमाद से इनमें अतिचार। उनसे दूर हुआ हूँ मेरा, छेदोस्थापन हो नाथ!।।१।।
लघु आलोचनासहित लघु आचार्य भक्ति सर्वातिचार विशुद्ध्यर्थं २क्षुल्लकालोचनाचार्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (णमो अरिहंताणं इत्यादि दंडक पढ़कर ९ जाप्य करके थोस्सामि स्तवन करके ‘‘प्राज्ञ:’’ इत्यादि लघु आचार्य भक्ति पढ़ें।)
प्राज्ञ सकलशास्त्रवित् सब जग, स्थिति को स्पुट देखें। आश रहित प्रतिभायुत प्रशमवान उत्तर तत्क्षण देते।।
प्रश्नसहिष्णु समरथ पर के, मनहर परनिंदा से दूर। मित स्पष्ट वचन से धर्म-कथा कहते सूरी गुणपूर।।१।।
अविकल श्रुतधर चरितशुद्धधर, परप्रतिबोधन में तत्पर। मोक्षमार्ग के वर्तन में नित, अतिशय यत्न करें मुनिवर।।
ज्ञानी में नुति गतउत्सुकता, लोकसमयवित् निःस्पृह मृदु। जिनमें ये गुण सत्पुरुषों के, वे ही गुरु मानें शिवप्रद।।२।।
श्रुतसमुद्र पारंगत स्वमत व परमत ज्ञाता कुशलमती। सच्चरित्र तपनिधियुत गुणगुरु, हे गुरु! तुमको करूँ नती।।३।।
छत्तिस गुण से पूर्ण पाँच, आचार क्रिया के धारी हो। शिष्य अनुग्रह निपुण धर्म-आचार्य सदा वंदूँ तुमको।।४।।
गुरुभक्ती संयम से तिरते, भव्य भयंकर भववारिधि। अष्टकर्म छेदें वे फिर नहिं, पाते जन्म मरण व्याधी।।५।।
व्रत अरु मंत्र होम में तत्पर, ध्यान अग्नि में हवन करें। तपोधनी षट्आवश्यकरत, साधू उत्तम क्रिया धरें।।
शीलवस्त्रधर गुणआयुधयुत, सूर्य-चंद्र से तेज अधिक। मोक्षद्वार उद्घाटन योद्धा, साधू हों प्रसन्न मुझ प्रति।।६।।
ज्ञानदर्श के नायक गुरुवर, नित मेरी रक्षा करिये। चरित्रजलधि गम्भीर मोक्षपथ, उपदेशक पथ में धरिये।।७।।
अंचलिका-
हे भगवन्! आचार्य भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से। उसके आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।१।।
सम्यग्ज्ञान दरश चारित युत, पंचाचार सहित आचार्य। आचारांग आदि श्रुत ज्ञानी, उपाध्याय उपदेशक वर्य।।२।।
रत्नत्रय गुण पालन में रत, सर्वसाधु का मैं हर्षित। अर्चन पूजन वंदन करता, नमस्कार करता हूँ नित।।३।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे। सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपत् होवे।।४।।
व्रत समिति इंद्रियनिरोध, छह आवश्यक आचेलक लोच। भूमिशयन अस्नान अदंत-धावन स्थितिभुक्ती भत्तैकं।।
जिनवर कथित मूलगुण मुनि के, प्रमाद से इनमें अतिचार। इनसे दूर हुआ हूँ मेरा, छेदोपस्थापन हो नाथ!।।१।।
सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं सिद्ध-चारित्र-प्रतिक्रमणनिष्ठितकरणवीर-शांतिचतुर्विंशति-तीर्थंकर-चारित्रालोचनाचार्य-बृहदालोचनाचार्य-क्षुल्लकालोचनाचार्य भक्तीः कृत्वा तद्धीनाधिकत्वादिदोष-विशुद्ध्यर्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं- (ऐसा उच्चारण करके ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि सामायिक दण्डक पढ़कर ९ जाप्य करके थोस्सामिस्तवन करके ‘‘शास्त्रों का’’ इत्यादि लघु समाधिभक्ति इत्यादि इष्टप्रार्थना को आचार्य और साधु मिलकर करें।)
प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः।
शास्त्रों का अभ्यास जिनेश्वर, नमन सदा सज्जन संगति।
सच्चरित्र के गुण गाऊँ, अरु दोष कथन में मौन सतत।।
सबसे प्रियहित वचन कहूँ, निज आत्मतत्त्व को नित भाऊँ।
यावत् मुक्ति मिले तावत्, भव-भव में इन सबको पाऊँ।।१।।
तव चरणांबुज मुझ मन में, मुझ मन तव लीन चरण युग में।
तावत् रहे जिनेश्वर यावत्, मोक्ष प्राप्ति नहिं हो जग में।।२।।
अक्षर पद से हीन अर्थ, मात्रा से हीन कहा जो मैं।
हे श्रुत मातः! क्षमा करो सब, मम दुःखों का क्षय होवे।।३।।
(बैठकर अंचलिका पढ़ें) अंचलिका (दोहा)
भगवन्! समाधिभक्ति अरु, कर के कायोत्सर्ग। चाहूँ आलोचन करन, दोष विशोधन हेत।।१।।
रत्नत्रय स्वरूप परमात्मा, उसका ध्यान समाधी है। नितप्रति उस समाधि को अर्चूं, पूजूँ वंदूँ नमूँ उसे।।२।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे। सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपत होवे।।३।।
(अनंतर सभी साधुवर्ग लघु सिद्ध, श्रुत, आचार्य भक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करें।) (पाक्षिक प्रतिक्रमण पूर्ण हुआ)