जैन शासन में गृहस्थ-धर्म का निरूपण किया गया है, उसी प्रकार वह ‘मोहिनी’ देवी सदा धर्माचरण में लगी रहती थी। इस मोहिनी देवी से एक भाग्यवान् उत्तम कन्या का जन्म हुआ। इस कन्या का नाम ‘मैना’ रखा गया और इसकी सभी कुटुम्बीजनों में प्रशंसा होती थी।
इस उत्तम कन्या का जन्म शरदपूर्णिमा को हुआ था। शारदीय चन्द्र की चाँदनी की तरह धीरे-धीरे उसकी कान्ति बढ़ती रही। बचपन से ही इसमें प्रशस्त वैराग्य भाव दिखाई पड़ने लगे तथा आत्म-कल्याण की इच्छा जागृत होने लगी थी।–
शार्दूलविक्रीडित छंद
गार्हस्थ्ये न रुचिस्तया प्रकटिता, संसार-वैराग्यत:, आजन्म श्रयितुं मनोभिलषितं सद्ब्रह्मचर्यव्रतम्।
(बड़ी होने पर) संसार से विरक्ति प्रकट करते हुए इसने (विवाहादि) गृहस्थी के झंझटों में अपनी अरुचि प्रकट की। इसके मन में तो आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने की अभिलाषा थी। आचार्यों में अग्रणी व श्रेष्ठ पूज्य श्री देशभूषण जी महाराज ने व्रत धारण की इच्छुक इस मैना के संकल्प की दृढ़ता की अच्छी तरह परीक्षा की और इसके बाद आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत की आज्ञा दी।
बसन्ततिलका छंद
आचार्यरत्नचरणेषु च मासषट्कम्, अस्या व्यतीतमनवद्यतयाऽऽदृताया:।
तुष्टस्तदा गुरुजन:, कृपया च तेषाम्, सा क्षुल्लिका-शुभपदे विधिदीक्षिताऽभूत्।।६।।
यह ‘मैना’ आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के चरणों में ६ मास तक रही। इस दौरान इसके जीवन-आचरण में कहीं भी दोष दिखाई नहीं पड़ा। इसने लोगों का आदर-भाव भी अर्जित किया। गुरुवर्य जब पूरी तरह संतुष्ट हो चुके, तब उन्होंने कृपा कर ‘मैना’ को ‘क्षुल्लिका’ की दीक्षा प्रदान की।
कुटुम्ब-परिवार के लोग बार-बार समझाते रहे, आग्रह करते रहे, किन्तु वीर बाला ‘मैना’ का मनोबल हमेशा दृढ़ रहा और उसका मन कभी विचलित नहीं हुआ। इसलिए आचार्य गुरुवर्य ने इसका ‘वीरमती’ नाम रखा जो इनके स्वभाव के कारण सार्थक ही था।
समय बीतता गया। इनके भावों को देखते हुए आचार्यश्री ने क्षुल्लिका वीरमती जी को अपनी अनुज्ञा दे दी कि वह आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के शरण में जाकर आर्यिका की दीक्षा लें। तदनुसार पूज्य क्षुल्लिका वीरमती जी ने आचार्यश्री वीरसागर जी के चरणों की शरण में पहुँचकर अपने मन की इच्छा प्रकट की।
हे आचार्यश्री! आप मुझ पर अपनी शुभ अनुकम्पा करें ताकि मेरी अभिलाषा की पूर्ति हो सके। मैं संसार-ताप से शान्ति चाहती हूँ, इसलिए आर्यिकोचित महाव्रत के पालन की अनुज्ञा प्रदान करें।
उपजाति छंद
श्रुत्वा तदाचार्यवरेण तस्यै, स्वाज्ञा प्रदत्ता विनयान्वितायै। तथा च शास्त्रोक्तविधे: सतोषम्, प्रदत्तमस्यै पदमार्यिकाया:।।१०।।
इस विनीत क्षुल्लिका जी की प्रार्थना सुनकर आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज ने अपनी आज्ञा दे दी और बड़ी प्रसन्नता से शास्त्रोक्त विधि से दीक्षा देकर इन्हें ‘आर्यिका’ का पद प्रदान किया।
‘ज्ञानमती’ नाम से प्रसिद्ध आर्यिका जी तब से आज तक वर्तमान सभी आर्यिकाओं में ज्ञान व संयमादि चारित्र के क्षेत्र में सदा आगे ही आगे बढ़ती रही हैं। इसके साथ-साथ विद्वानों के समाज में भी अत्यधिक आदर प्राप्त करती रही हैं।
अध्यात्म, भूगोल, नीति-सदाचार, धर्म, न्यायशास्त्र आदि अनेकों विषयों पर इन्होंने ग्रंथो की रचना की है। आर्ष परम्परा की संरक्षिका के रूप में संसार में ये प्रसिद्ध हो गई हैं।
जैन शास्त्रों में ‘जम्बूद्वीप’ का स्वरूप जिस प्रकार बताया गया है, उसी प्रकार जम्बूद्वीप का निर्दोष मॉडल हस्तिनापुर में बनकर तैयार हो-इसके लिए इनका ध्यान लगा रहा है। इसी कार्य की महत्ता को फैलाने हेतु ‘जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति’ का विचरण (प्रवर्तन) पूरे भारतवर्ष में हुआ, इन सब कार्यों से धार्मिकों के समाज में प्रसन्नता की लहर दौड़ रही है।
शार्दूलविक्रीडित छंद
विज्ञानं सकलानुयोगनिहितं यस्मिन् समाख्यायते, सत्यान्वेषणकर्मणि प्रयतते दृष्ट्या च मध्यस्थया।
इनकी प्रेरणा से ‘सम्यग्ज्ञान’ नामक एक हिन्दी मासिक पत्र भी प्रकाशित हो रहा है, जिसमें चारों अनुयोगों में निहित ज्ञान की सामग्री रहा करती है, साथ ही तटस्थ दृष्टि से सत्य के उद्घाटन का यत्न रहा करता है। यह पत्र सारे भारतवर्ष में लोकप्रिय एवं प्रसिद्ध हो चुका है।
उपजाति छंद
सत्संयमज्ञानविशुद्धिरस्या:, लोके प्रसिद्धाऽभवदार्यिकाया:। स्वमातृ-संस्कार-शुभप्रभाव:, तत्रास्ति मूलं, न हि संशयोऽत्र।।१५।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी के संयम व वैदुष्य की संसार में प्रसिद्धि जो हुई हे, उसके पीछे, निश्चय ही, अपनी माताजी पूज्य आर्यिका रत्नमती माताजी) के संस्कारों की छाप पड़ना एक कारण है, इसमें कोई संदेह नहीं।
श्री मोहिनी देवी ने जब देखा कि मेरी पुत्री ‘मैना’ वैराग्य में बढ़ते-बढ़ते ‘आर्यिका’ पद तक पहुँच गई है, तो उसने भी (पारिवारिक सीमा के कारण) द्वितीय प्रतिमा का व्रत स्वीकार किया।
इधर, श्रीमती मोहिनी देवी की दूसरी पुत्री ‘मनोवती’ भी वैराग्य मार्ग में अग्रसर होती रही। (एक दिन तो) आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर सभी को आश्चर्य चकित कर दिया।
और, वह यथाशक्ति संयम मार्ग की चर्या में क्रम से बढ़ते-बढ़ते (एक दिन) ‘आर्यिका’ भी बन गर्इं और सम्यग्दृष्टि श्रावक-श्राविकाओं के लिए नमस्करणीय हो गर्इं।
इधर, श्रीमान् सेठ छोटेलाल जी अपनी गुणवती धर्मपत्नी ‘मोहिनी’ देवी के साथ श्रावकोचित धर्म में संलग्न रहे। अपनी दोनों पुत्रियों-जो अब प्रसिद्ध ‘आर्यिका’ बन चुकी थीं-के प्रति श्रद्धा रखते रहें। यथासमय, इन दोनों (दम्पति) ने लोकाचार के साथ पुत्रों व पुत्रियों का विवाह भी किया।
तस्य पत्नी शुभगुणवती मोहिनी दु:खभारम्, धीरा चित्तेऽसहत सकलं भावनाभि: शुभाभि:।।२०।।
उक्त आर्यिका व ब्रह्मचारिणी रूपी सभी नारी रत्नों के आकर (समुद्र) सेठ श्री छोटेलाल जी का स्वर्गवास (२५ दिसम्बर १९६९ को) हो गया। इनकी गुणवती धर्मपत्नी मोहिनी देवी ने शुभ भावनाओं-अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करते हुए धैर्यपूर्वक समस्त दु:ख को सहन किया।
अपनी मृत्यु से पूर्व श्रीमान् सेठ छोटेलाल जी ने धर्मपत्नी मोहिनी को अपने पास बुलाकर कहा था-‘‘मैं संतानों के मोह में रहा, इसलिए जनकल्याणकारी धर्माचरण को करने से तुम्हें रोकता रहा। अब तुम स्वतंत्र होकर धर्मध्यान करती रहना।’’ पतिदेव की इसी आज्ञा को शिरोधार्य कर श्रीमती मोहिनी हमेशा धर्मध्यानादि के आचरण में लगी रहीं।
श्रीमती मोहिनी देवी, घर में रहते हुए भी धीरे-धीरे अपने प्रशस्त भावों को बढ़ाती रही और उन्होंने क्रम-क्रम से तीसरी व पाँचवीं प्रतिमा के व्रत भी ग्रहण किये। ठीक भी है, जिस तरफ आत्मा की रुचि हो, वह कार्य, कठिन हो, तब भी सरल हो जाता है।
उपजाति छंद
तत्कामिनीतिप्रथिताङ्गजाऽपि, विवाहिताऽभूद् स्वजनप्रयासै:। माता च तस्या: खलु मोहिनीयम्, रोढुं समैच्छत् पदमार्यिकाया:।।२३।।
पारिवारिक जनों के प्रयास से उनकी सुपुत्री ’कामिनी’ का विवाह भी सम्पन्न हुआ। इसके बाद तो श्रीमती मोहिनी देवी के मन में आर्यिका बनने की धुन जागृत हुई।
टोंक में जब परम प्रसिद्ध समादरणीय पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज विद्यमान थे, उनसे वे पहले ही श्रेष्ठजन सेवित सातवीं प्रतिमा ‘ब्रह्मचर्य’ का व्रत भी ले चुकी थीं।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती माताजी धन्य हैं, जिन्होंने संसारपक्षीय अपनी माता को समय-समय पर सद्बोध देते हुए, उनके अभीष्ट की प्राप्ति में नि:स्वार्थ सहायता करती रहीं।
श्रीमती मोहिनी देवी ने ‘आर्यिका’ बनने की शुभ इच्छा आचार्य श्री के समक्ष व्यक्त की। जब वह समाचार इनके परिवारस्थ पुत्रादिकों को ज्ञात हुआ तो वे बड़े दु:खी हुए।
परिवारवालों को चिन्ता थी कि माताश्री का स्वास्थ्य खराब चलता है और यह हैं कि घरबार छोड़कर आर्यिका बन रही हैं यह सब सोचकर वे मन में बड़े चिन्तित हुए। उन्होंने मीठे वचनों से समझाया भी कि आर्यिका न बनें।
श्रीमती मोहिनी देवी का सारा परिवार आचार्यवर के पास भी गया और उनके समक्ष सारी स्थिति स्पष्ट की। परिवार की असहमति देखते हुए उस समय आचार्यश्री के उत्साह में कमी भी आई।
किन्तु इधर श्रीमती मोहिनी देवी ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया। नाम की वे मोहिनी जरूर थीं, पर उनका संसार से मोह हट चुका था। आर्यिका बनने की अपनी प्रतिज्ञा में वे दृढ़ ही बनी रहीं।
आचार्यश्री को उनकी दृढ़ता आदि को देखते हुए अन्त में उन्हें आर्यिका बनने की आज्ञा देकर अपना अनुग्रह प्रकट करना ही पड़ा। यह सच है कि जिसके मनोबल में दृढ़ता होती है, उसे अपने कार्य में सिद्धि मिलती ही है।
आज वे पूज्य रत्नमती माताजी, आर्यिका ज्ञानमती जी के संघ में विराजमान हैं, रत्नत्रय की आराधना में वे तत्पर रहती हैं तथा संघस्थ अन्य (व्रतियों आदि) जनों के लिए कल्पवृक्ष की छाया की तरह आश्रयणीय व सेवनीय हैं।
संसारपक्षीय-तदीयकन्या, या २माधुरीतिप्रियनाम धत्ते। भ्राता तदीयोऽपि रवीन्द्र३नामा, तौ ब्रह्मचर्यव्रतमाश्रयेते।।३५।।
इन्हीं पूज्य रत्नमती माताजी के संसार पक्ष की एक अन्य कन्या जिसका प्यारा नाम ‘माधुरी’ है तथा उक्त माधुरी जी के भाई जिनका नाम श्री रवीन्द्र कुमार जी है, ये दोनों आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर उक्त संघ में विराजमान हैं।
पूज्य आर्यिका श्री १०५ रत्नमती माताजी, जिनके द्वारा प्रसूत (पुत्रादि) अनेक उज्ज्वल रत्नों से यह पृथ्वी अलंकृत हो रही है, अपने ‘रत्नमती’ नाम को सार्थक कर रही हैं। निर्दोष कीर्ति वाली इन आर्यिका श्री जी को मेरा नमन! मेरा नमन!
डॉ. दामोदर शास्त्री ने पूज्य श्री आर्यिका रत्नमती जी की प्रशंसा में इस पदावली की रचना की है। जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों में मेरी भक्ति एवं सम्यक्त्व की वृद्धि होती रहे, यही मंगलभावना है।