बुन्देलखण्ड अपने सांस्कृतिक गौरव के लिए सदैव कीर्तिमान रहा है। बुन्देलखण्ड शिल्प, कला, संस्कृति, शिक्षा साहस शौर्य एवं अध्यात्म का धनी, प्राकृतिक सौन्दर्यता और खनिज पदार्थों का केन्द्र रहा है। यहाँ के जन्मास में सदैव सदाचरण की गंगा प्रवाहित होती रहती है। कला और संस्कृति के अद्वितीय गढ़ यहां की गौरवशाली गरिमा के प्रतीक बने हुए हैं। यहाँ का कंकर कंकर शंकर की पावन भावना से धन्य है। जहाँ विश्व में भारत अपनी आध्यात्मिक गरिमा और संस्कृतिसभ्यता में सदैव अग्रणी है, वहीं बुन्देलखण्ड भारत के लिए अपनी आध्यात्मिक गरिमा और संस्कृति में इतिहास की महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करने में अग्रणी है। अध्यात्म की प्रधानता हमारे देश की रूढ़िवादी निधि रह रही है तथा भारतीय संस्कृति में अध्यात्म की मंगल ज्योति सदैव प्रकाशमान रह रही है। भारत का दर्शन साहित्य, भाषा, चित्र, वास्तुकलाएँ और सामाजिक परम्पराएँ सभी में अध्यात्म की आत्मा प्रवाहित होती है। धार्मिक भावनाओं को शाश्वत बनाये रखने के लिए राजाओं और मंदिरों का निर्माण किया गया। उस युग की सामाजिक और धार्मिक परम्परा की रचनाएँ और उनमें चित्रित कलाएँ हैं।
हमें इतिहास की साक्षी और संस्कृति का स्वरूप-चित्र वास्तुकला के प्रतिमानों से उपलब्ध हुआ है। भारत के प्राचीन धर्मायतन, तीर्थस्थल, मंदिर और स्थापत्य कला की कलाकृतियाँ आज इस तथ्य के साक्षी हैं कि जैन धर्म प्राचीनकाल से भारत में व्यापक रूप से सर्वत्र प्रचलित रहा है। बुन्देलखण्ड जिसका भूभाग वर्तमान में मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश की जड़ों में सर्वत्र किया गया है, सदैव से जैन संस्कृति का जीता जागता प्राणवान गढ़ रहा है। बुन्देलखण्ड भारत की प्राचीन संस्कृति और वास्तुकला को आज भी आप अपने संजोए भारतीय संस्कृति और अध्यात्म को प्रणवान बनाए हुए हैं। शिल्प की दृष्टि से बुन्देलखण्ड की जैन कलाएं अपना विशिष्ट महत्व रखती हैं। यहाँ की कलाओं और स्थापत्य में युग का सामाजिक और सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक जीवन सदैव इतिहास की शाश्वत आवश्यकताओं के लिए विकसित हो रहा है।
कला, साहित्य, लिपि, वेशभूषा, भाषा, शिक्षा आदि की पर्याप्त जानकारी के लिए बुन्देलखण्ड का अपना महत्व रहा है। यदि हमें भारतीय संस्कृति की यथार्थ ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध कराना है तो बुन्देलखण्ड की वास्तुकला की मूर्तियों का अध्ययन करना होगा। बुन्देलखण्ड में रथपतियों, शिल्पियों, कलाकारों एवं कलाप्रेमियों ने अध्यात्म की प्रमुख कृतियाँ निर्मित कीं, उनकी उत्कृष्ट कलाओं की अपेक्षा फलस्वरूप विशेष रही है। अत: कलागत विलक्षणता इने—गिने स्थान में ही देखने को मिलता है। आदिम युगीन एवं प्रागऐतिहासिक काल की संस्कृति का जीता जागता चित्रण यदि भारत में आज भी जीवित है—तो वह बुन्देलखण्ड में ही है।
उस युग की चित्राकृतियाँ एवं कलाएँ आज भी गुफाओं में विद्यामान हैं। यहाँ के मठ मन्दिर, मूर्ति मठ और गुफाएँ तथा वीजक शिलाएँ आदि इस बात के साक्षी हैं कि भारतीय परम्परा में जनजीवन, सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक परंपराएँ कहाँ कब और कितनी पल्लवित और फलीभूत हुई। बुन्देलखण्ड की जैन संस्कृति और उससे संबंधित आध्यात्मिक, सामाजिक, नैतिक एवं प्राकृतिक वैभव के परिप्रेक्ष्य में विपुल ऐतिहासिक अतीत का अध्ययन किया जा सकता है। काल विभाजन के क्रम में जैन संस्कृति और कला का निरन्तर विकास हुआ। बुन्देलखण्ड की जैन वास्तुकला का अध्ययन करने से कोई ठोस प्रयास नहीं हुआ है अन्यथा बुन्देलखण्ड से आज भी प्राचीन इतिहास के साथ-साथ जैन संस्कृति और वास्तुकला पर अद्वितीय जानकारी प्राप्त होती है। यहाँ की कलाओं में जैन संस्कृति की अविचलित धारा प्रवाहित होती रहती है। वास्तुकला का तो यह महत्वपूर्ण गढ़ रहा है। भारत में मूर्ति की गरिमा बुन्देलखण्ड में देखने को मिलती है।
मूर्ति के सर्वोत्कृष्ट गढ़ और मूर्ति निर्माण के केन्द्र स्थल बुन्देलखण्ड में ही विद्यामान हैं। यहाँ कीकुल एक सी नहीं है। भिन्न—भिन्न स्थान पर भिन्न—भिन्न प्रकार की उत्तमताओं के उत्कृष्ट नमूने हैं। इस क्षेत्र में अनेक प्रकार के आसन उपलब्ध हैं, जिनमें स्वतंत्र तथा विशाल शिलापट्टियों पर विशाल प्रतिमाएँ शामिल हैं। कुछ तस्वीरें आध्यात्मिक दृष्टि से और कुछ लौकिक दृष्टि से निर्मित हुई हैं। लौकिक दृष्टि से बनी हुई दुर्लभ कलाओं के नमूने हैं। उनमें सामाजिक रहन—सहन आचार—विचार तथा प्रवृत्तियाँ एवं भावनाओं का तलस्पर्शी परिज्ञान प्राप्त होता है। यह अनुभव होता है कि बुन्देलखण्ड में बाहरी कलाकारों ने भी मूर्ति निर्माण का कार्य किया है और अपनी विशिष्ट कलाओं का परिचय दिया है। हम वास्तुकला की इन मूर्तियों को मुख्यत: निम्नांकितरूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं, जो कला संस्कृति अध्यात्म एवं सामाजिक व्यवस्था के अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
(अ) तीर्थंकर की प्रतिमाएँ
बुन्देलखण्ड के प्राचीन तीर्थ मंदिरों में चौबीस तीर्थंकरों में सबसे प्रिय हैं: आदिनाथ , अभिनन्दननाथ, चन्द्रप्रभ , शीतलनाथ , अनन्तनाथ , धर्मनाथ , शांतिनाथ , कुंथुनाथ , अरहनाथ , नमिनाथ , नमिनाथ पार्श्वनाथ और महावीर तीर्थंकरों की मूर्तियां व्यापक रूप से विद्यामान हैं। भारत के कुल में बुन्देलखण्ड का योगदान सर्वोत्कृष्ट है। विभिन्न देवी-देवताओं की तुलना में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। अनेक स्थानों पर विशाल शिलापट्टों पर पौधे द्वय र्मूितकाएँ (भरत—बाहुबली) त्रिमूर्तियाँ (भगवान शान्ति कुंठ—अरह) और सर्वतोभद्रकाएँ विद्यामान हैं। त्रिमूर्तियाँ भगवान शांति कुंठ—अरह जिन के हैं। क्योंकि यह त्रिदेव चक्र और कामदेव के साथ तीर्थंकर जैसे महापद के धारी हुए। तीर्थंकरों की मूर्तियां प्रिय: पद्मासन एवं कायोत्सर्ग अवस्था में ही उपलब्ध हैं। कुछ ऐसी आकृतियाँ हैं जिनके कारण जताएं लटकी हुई हैं। अनेक मूर्तियाँ भ. पाशर्वनाथ की सहस्र फणवाली एवं सर्प कुण्डलीयुक्त हैं जो विशेष उल्लेखनीय हैं। चतुर्विंशतिपट्ट, मूर्ति अंकित स्तंभ एवं सहस्रकूट शिलापट्ट प्रिय: इस क्षेत्र में अनेक स्थान अवस्थित हैं।
(ब) देवदेवियों की मूर्ति
जैन परंपरा में प्रत्येक तीर्थंकर की यक्ष-यक्षिणी की जानकारी मिलती है जो शासन देवता के रूप में मानी जाती है। यक्षों में धरणेन्द्र और यक्षिणियों में पद्मावती , चक्रेश्वरी; अम्बिका की मूर्तियाँ विशेष रूप से पाई जाती हैं। कहीं-कहीं विद्या देवियाँ में महाकाली , महामानसी , गौरी , सरस्वती , लक्ष्मी , नवग्रह गंगा -यमुना, इंद्र-इंद्राणी, द्वारपाल, क्षेत्रपाल आदि की मूर्तियाँ पर्याप्त मात्रा में अनेक स्थानों पर विद्यामान हैं। इनका संबंध मंदिर स्थापत्य से ही रहा है तथा इनके पद के अनुसार मंदिर के विभिन्न पृष्ठों में इन्हें स्थान दिया गया है।
(स) विद्याधर की मूर्तियां पार्श्वनाथ
जो अपनी विशेष साधना एवं श्रद्धा के फलस्वरूप विद्याएँ सिद्ध कर देते हैं, ऐसे व्यक्ति विद्याधर की कोटि में गिने जाते हैं। प्रिय: जैसे आकाश गामनी विद्याएँ सिद्ध होती हैं। और आकाश मार्ग से यह अपनी प्रेयसी के साथ आमोद प्रमोद प्रवृत्तियों से भरपूर है। इस प्रकार के स्थापत्य भित्ति चित्र अनेक स्थान पाए जाते हैं।
(द) साधु—साध्वियाँ
अनेक स्थानों पर आचार्यों को उपदेश दिया गया है। उनके निकटस्थ साधुवर्ग एवं हाथ में ग्रंथ के लिए उपाध्याय तथा भक्तियुक्त श्रावकगण ऐसे संघों की वन्दना में विराट रखे गए हैं। बुन्देलखण्ड के अनेक तीर्थों में तोरणद्वारों, शिलाफलों, गुफाओं और भित्तियों पर पौधे ऐसी प्रतिमाएं अनेक रूप में पाई जाती हैं। जैसा भावात्मक प्रधानता विशेष रूप से लक्षित होती है।
(य) श्रावक—श्राविका
श्राविकाओं में राजा या तीर्थंकर की माता ही विशेष रूप से पाई जाती हैं, जो इन्द्रियों द्वारा बहु प्रकार से सेवित होती हैं। इसके अलावा साधु संघों में उपदेशामृत अथवा स्तुति करते हुए अनेक स्थान श्रावक-श्राविकागण दर्शन किए गए हैं। इन स्रोतों से उनके वस्त्राभूषण, अलंकार, केस, सज्जा, भवभंगिमा एवं भक्ति वंदना की परिज्ञान होता है।
(र) युग्म
स्थापत्य में जोड़ों और मंडलियों का निर्माण सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपराओं को प्रस्तुत करने के उद्देश्यों के लिए हुआ है। इनमें अलंकरण का बाहुल्य है। काम शास्त्र को साकार रूप में लागू करके भोगविलास रंगरंग का चित्रण मंदिर की बाहरी दीवारों पर चित्रकार मंदिर के अंदर शांत और पावन वातावरण में प्रवेश कराने की प्रवृत्ति का अनुकरण बुंदेलखंड के कई तीर्थयात्रियों में देखने को मिलता है। खजुराहों इसका जीता जागता गढ़ है। रति चित्रों के यह युग्म प्रेमासक्त और सम्भोगरत के रूप में पाए जाते हैं। शारीरिक रूप से लावण्य साज-सज्जा के अलावा मनोभावों की अभिव्यक्ति इन दिनों ऐसी होती है जैसे यह जीवित रूप में अपनी अभिव्यक्ति कर रहे हों। कलाकार के कला की अद्वितीयता इन जोड़ों में देखने को मिलती है। राग रंग के प्रतीक अनेक नृत्य, संगीत, वादन मंडलियों का रम्यतागत बनाने की अनूठी कलाएँ भी देखने को मिलती है। इस अनोखी कला को देखकर ”पत्थर को भी मोम बनाने वाली यहाँ कला है” की उक्ति चरितार्थ होती है।
(ल) प्रतीक
माननीय संस्कृति की समुन्नति के प्रतीक का अभ्युदय आरंभ से ही नानारूप में आगे आया। आरंभ में अतड़ाकार और बाद में तड़ाकार के रूप में यह अपने विकासक्रम में है। जैन परंपरा में प्रतीक का अस्तित्व अरम्भ से हो रहा है। धर्मचक्र , ध्वजा , चैत्य, वृक्ष, पुष्प, पात्र, स्वस्ति , स्तूप, मानस्तंभ, अष्ट मंगल, अष्ट प्राच्य, सोलह स्वप्न आदि अनेक प्रकार के प्रतीक शुभ माने गए हैं। यह धर्म संस्कृति का प्रतीक है और इसके प्रमुख आधारों की एक ऐतिहासिक कहानी आपके जीवन में समाहित हुई है।
(व) पशु पक्षी
प्रत्येक तीर्थयात्रियों के चिन्हों के रूप में या देवी-देवताओं के आसन के रूप में निर्मित नहीं किया गया है, बल्कि प्रत्येक तीर्थयात्रियों के चिन्हों के रूप में निर्मित किया गया है। हाथी, सिंह , वृषभ , अश्व, बंदर , कुत्ता, सांप, मत्स्य, कच्छप आदि के मूर्तिरूप अनेक स्थान देखने को मिलते हैं जो जाय के आसनों में गढ़े गए हैं। आसन और मुद्राएँ तथा प्रकृति चित्रण तीर्थंकर की प्रतिमाएँ ही कायोत्सर्गासन हैं। या पद्मासन के रूप में ही प्राप्त होते हैं लेकिन देवी देवताओं के आसन अनेक प्रकार के पाए गए हैं। कमल, अशोकवृक्ष , कल्पवृक्ष , लताएँ आदि के अंकन में कलाकारों ने अद्वितीय सफलता प्राप्त की है। इन मुद्राओं से हम नागरिकों के विभिन्न विकासक्रमों का अध्ययन कर सकते हैं। सामाजिक और धार्मिक चेतना के इन प्राचीन गढ़ों ने जैनधर्म के विकास और उनकी संस्कृति की सामंती में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। बुन्देलखण्ड आज भी भारत के लिए अपनी विशिष्ट कला और संस्कृति की गरिमा का प्रतीक नहीं है। बुन्देलखण्ड में ऐसे शताधिक प्राचीन क्षेत्र हैं जहाँ वास्तु कला के विविध स्वरूपों का दर्शन हमें मिलता है। मुख्य रूप से बुन्देलखण्ड के उन ऐतिहासिक प्राचीन स्थलों को हम स्मरण कर सकते हैं जिनमें जैन संस्कृति और कला का स्मारक भंडार भरा हुआ है।
बुन्देलखण्ड के तीर्थों की जैन वास्तुकला
बुन्देलखण्ड से स्पष्ट स्थायी भार के उस भू-भाग से है जो प्रमुख रूप से बुन्देल राजपूतों की निवास भूमि या उनके द्वारा समृद्ध भूमि से रहा है। बुन्देलों की निवास भूमि होने के कारण यह भूभाग बुन्देलखण्ड कहलाया। कुछ स्मृतियों का मत है कि विंध्याचल की उपत्यका में स्थित होने के कारण यह भूभाग बुंदेलखंड कहलाया और इसमें बसने वाले ही बुंदेले कहलाए। उनका मत है कि विंध्य से विंध्यले शब्द की निश्चितता हुई और कालांतर में विंध्यले से बुंदेले शब्द बना और इन बुंदेलों का इस भूभाग में शासन स्थापित होने के पश्चात् ही बुंदेलखंड कहा जाने लगा। हालाँकि इस भूतभाग का नाम प्राचीन नहीं है। परन्तु इसका गौरवशाली इतिहास सर्वथा प्राचीन है। यहाँ का मानव विकास, संस्कृति, सभ्यता, धर्म, कला, साहित्य के विकास में जो योगदान दे रहा है वह निश्चित ही अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बुन्देलखण्ड अपने गौरवशाली प्राचीन काल के लिए प्रसिद्ध है। बुन्देलखण्ड के कई ऐतिहासिक सामग्री से भरपूर हैं। ये प्राचीन तीर्थंकर और उनके जैनधर्म की मान्यता प्राचीन काल से प्रमाणित है। खजुराहो की खुदाई से १०० ई. एक अभिलेख मिला है जिसमें आदिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा का उल्लेख है। विदिशा वैभव कृति में वर्णित वर्णन के अनुसार सुपाश्र्वनाथ के समय इस क्षेत्र में राजधर्म जैनधर्म भगवान चन्द्रप्रभ का विहार बुन्देलखण्ड में भी इतना अधिक हुआ कि वहां उनके परम भक्त निवासी बन गए थे। एक नगर जहां चन्द्रप्रभ का सम्वसरण आया, उसका नाम चंदेरी था और उसका दूसरा चिन्ह चन्द्रपुर पर आज तक प्रसिद्ध है। बुन्देलखण्ड में मौर्य, गुप्त, हूण और चंदेलवंशीय राजाओं का अधिक राज्य रहा है। मौर्य और गुप्तवंशी राजाओं के वंशों में प्रथम महान राजाओं ने चन्द्रप्रभ के नाम पर चन्द्रगुप्त कहलाए। और चंदेलवंशीय आदि पुरुष भी चन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी प्रकार उदयगिरि विदिशा के ४२६ ई. के गुफालेख में पाश्र्वनाथ का उल्लेख है। इस क्षेत्र में जैन परम्परा में बने मंदिर, रमूत, मठ, गुफा, तोरण, स्तंभ, चैत्यालय वास्तुकला के ऐसे उत्कृष्ट प्रतीक हैं। हमारी शिल्प सौध हमारी गौरव गरिमा के लिए पर्याप्त हैं। ऐसे जैनवस्तु शिल्प के धनी स्थान, तीर्थों, मंदिर, मठों की संक्षिप्त जानकारी यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, उनके बुन्देलखण्ड की जैन संस्कृति का उजाला पृष्ठ देखा जा सकता है।
बुन्देलखण्ड की सीमा
वर्तमान मध्य प्रदेश का बहुल भू-भाग और उत्तर प्रदेश का दक्षिणी भाग बुन्देलखण्ड सीमा में समाहार है। मध्य प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में विगत कई वर्षों में पुरातनतापूर्ण प्रभावों से प्राप्त आधारों तथा सर्वेक्षण कार्यों द्वारा पता चला है कि प्रागैतिहासिक काल से लेकर उत्तर मध्यकाल तक इस प्रदेश के अनेक विषयों में सभ्यता का विकास होता रहा है, जिसमें बुन्देलखण्ड का भूभाग बहुलता है। के रूप में विद्यामान है। में है। ऐतिहासिक दृष्टि से चेदि, सुखकौशल, जनपद, विदर्भ भाग, बुन्देलखण्ड भूभाग के अद्भुत आते हैं। विंध्य—क्षेत्र का अधिकांश भाग प्राचीनकाल में चेदि जनपद नाम से विचयात रहा। बाद में यह जैजाक मुक्ति एवं तदनंतर बुंदेलखंड नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस क्षेत्र के कलात्मक अवशेषों में सबसे प्राचीन आदिम शिलाश्रयों के चित्र कहे जा सकते हैं।
समय
इस प्रदेश में गुप्तकाल तथा मध्यकाल में अनेक विषयों में वास्तुकला, कला, मूर्तिकला एवं चित्रकला का पर्याप्त विकास हुआ है। प्राचीन मंदिरों और राजाओं के जो बहुसंख्यक स्रोत मिले हैं, उन्हें इस बात की पुष्टि होती है। ईसा पूर्व चतुर्थ से ई. पूर्व प्रथम शादि में मौर्य तथा शुंगकाल में विदिशा नगरी का वैभव बहुत बड़ा था। विदिशा नगर के आसपास के प्रसिद्ध गरुण स्तंभों के केंद्रीय पौराणिकत्व विभाग द्वारा जो खुदाई कराई गई है, उसमें ईसा पूर्व से लेकर गुप्तकाल के अंत तक विभिन्न स्रोत मिले हैं। यह शांग कालीन मंदिर विशेष रूप से स्थित है। बुन्देलखण्ड सीमा के वर्तमान उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के उस भूभाग को ले जा सकते हैं जिसमें जैन संस्कृति, धर्म और वास्तु कला का सामंजस्यपूर्ण पचास हजार वर्षों से विद्यामान है। आज बहुत से ऐसे प्राचीनतम वास्तुकला के जीवंत प्रतिमान, मूर्तियां और गढ़ धार्मिक आस्था के साथ जुड़े होने के कारण जैन समाज द्वारा रक्षित और जीवित हैं। हालाँकि, आज भी कई ऐसे स्थान हैं जहाँ पर खंडहरों टोलों के रूप में अपनी कलाएँ-संस्कृति की सम्मोहक स्थितियाँ ले रहे हैं, जो या तो आवश्यक रूप से कुल्चे गए हैं या असुविधाओं के कारण उपेक्षित से पड़े हैं। फिर भी कला धर्म—संस्कृति और आस्था की दृष्टि से उनके मूल स्वरूप को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।
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बुन्देलखण्ड की जैन कलाओं को चारमहिलाओं में विभक्त किया जा सकता है।
१. तीर्थंकर नमूने,
२. शासन देवी देवताओं की,
३. आयागपट्ट आदि,
४. विविध अलंकरण वेदिका—स्तंभ। बुन्देलखण्ड के देवगढ़ , खजुराहों , सिरौंजी जैसी कलाओं के प्रतिरूप सबसे प्राचीन जैन राजाओं के साथ-साथ चारों ओर की कलाओं पर उपलब्ध हैं। ईसा पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की पाँचवी छठी शताब्दी तक की विशेष खड्गासन और पद्मासन अवस्था में प्राप्त हुआ है। पौराणिक कथाओं के आधार पर चेदि जनपद का बहुल भाग वर्तमान मध्य प्रदेश में तथा छोटा भाग उत्तर प्रदेश में सम्मिलित हैं। बुन्देलखण्ड में अवस्थित जैन संस्कृति के गढ़ धार्मिक आस्थाओं के कारण आज भी यथावत प्राणवान बने हुए हैं। धार्मिक परम्परा में जैन संस्कृति के इन स्थानों को चाररूपों में वर्णित किया गया है।
१. तीर्थक्षेत्र — जहाँ तीर्थंकरों ने जन्म से ही साधना साधक ज्ञान और निर्वाण प्राप्त किया है, वे स्थल तीर्थ कहलाए।
२. सिद्धक्षेत्र — तीर्थंकर या सामान्य जनों ने महासंयम धारण करके और आत्म साधना से केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त किया, वे सिद्धक्षेत्र कहलाए।
३. अतिशय क्षेत्र — जहाँ अनेक प्रकार के दैवी चमत्कारिक हुए या मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं वे क्षेत्र अतिशय क्षेत्र के रूप में परिगणित हुए।
४. कला तीर्थ — ऐसे प्राचीन धार्मिक स्थल जहाँ की वास्तुकला अपनी कला सौन्दर्य को इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं—कला तीर्थ हैं। यद्यपि बुन्देलखण्ड में लगभग सभी जैनियों के वनों, पर्वतों, मंदिरों, गुफाओं में जैन पुराणों की विशाल सामग्री बिखरी पड़ी है, जो भारत के अन्य प्रदेशों में दुर्लभ है, फिर भी अत्यंत महत्वपूर्ण प्राचीनतम पुराण सम्पदा के स्थानों को यहां हम सामान्यत: प्रतिपादित करेंगे।
# सतना—पतियानदाई, करीतलाई। विजयार्द्ध के विंध्यक्षेत्र की सारिणी में सोलह मील और देशान्तर अक्षांश के मध्य उत्तर प्रदेश का ऐतिहासिक सुप्रसिद्ध जिला झांसी है, जो चेदि जनपद के भीतर आता है। झांसी के पास लगभग ६ किमी. पर करगुवां नामक जैन अतिशय क्षेत्र है। यहाँ पर एक भोंयारा तलघर है जिसमें संवत तेरहवीं की सात प्रतिमाएँ हैं जो कला, सौम्यता और वीतरागता की सुन्दर छवि से युक्त हैं। झांसी शहर में पौराणिक कथाओं के २ संग्रहालय हैं, जिनमें से कुछ विशाल मात्रा में इस जिले की सीमा के अलावा जालौन, बांदा, हमीरपुर, जिले की यात्रा-तत्र स्थानों से लाई गई हैं, जहाँ जैन प्रतिमाएँ, भामण्डल तोरण एवं पीठ अभिलेख तथा शासन देवी हैं। देवताओं की प्रतिमाएँ मुख्य हैं। वे ईसा शताब्दी ६:१३ तक लिखे गए हैं।
२. जबलपुर—मढिया, लखनादौन, त्रिपुरी, कोनी, पनागर, बहोरीबंद।
३. नरसिंहपुर—वरहटा। वर्तमान में झांसी जिले को दो खण्डों में विभाजित किया गया है और एक नया ललितपुर जिला बनाया गया है। इस जिले में पाषाण कला का यह कलातीर्थ मदनपुर है। इसी प्रकार के और भी अनेक जैन कलाओं के क्षेत्र हैं जिनमें पुरातत्त्व वैभव भरा हुआ है। उनका समग्र विधिवत अध्ययन अभी भी शेष है। भारतीय पुरातत्त्व विभाग को इस दिशा में गंभीर प्रयास करना चाहिए।