ऋषभदेव सुत भरत अरु, बाहुबली भगवान।
इनके चरणों में करूँ, शत-शत बार प्रणाम।।१।।
नेमिनाथ अरु पार्श्वप्रभु, को वंदूँ त्रयबार।
विदुषी माता सरस्वती, की वाणी अनुसार।।२।।
श्री पद्मप्रभु देव का, यह चालीसा पाठ।
लिखने से सुख प्राप्त हो, मुझको है विश्वास।।३।।
पद्मप्रभु जी लाल वर्ण के, जन्मे थे इस आर्यखण्ड में।।१।।
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, कौशाम्बी के राजमहल में।।२।।
महल था वह पितु धरणराज का, एक पुण्यशालिनी मात का।।३।।
उन माता का नाम सुसीमा, जिनके सुख की कोई न सीमा।।४।।
ना जाने कितने जन्मों में, बहुत ही पुण्य किया था उन्होंने।।५।।
तभी बनीं जिनवर की माता, यह सुख सबको नहिं मिल पाता।।६।।
एक बात तुम सुनो ध्यान से, सुनी जो हमने गुरु के पास में।।७।।
तीर्थंकर के मात-पिता को, है अहार-नीहार नहीं है।।८।।
वे कुछ ही भव लेंगे क्योंकी, उनकी सिद्धगती निश्चित है।।९।।
अब हम जानें पद्मप्रभु का, गर्भकल्याणक का दिन कब था ?।।१०।।
माघ वदी षष्ठी की तिथि में, पद्मप्रभु आये थे गर्भ में।।११।।
देव-इन्द्र सब झूम रहे थे, धनपति रत्नवृष्टि करते थे।।१२।।
कार्तिक कृष्णा तेरस आई, जिनवर जन्मे बजी बधाई।।१३।।
इन्द्राणी माँ के प्रसूति गृह, जाकर प्रभु को लाती बाहर।।१४।।
खुशी का उसके पार नहीं था, मिला पुण्य उसको अपार था।।१५।।
इसी पुण्य के कारण शचि ने, स्त्रीलिंग नशाया उनने।।१६।।
अगले भव में मनुज बनेंगी, मुनि बन शिवपद प्राप्त करेंगी।।१७।।
पद्मप्रभु का रूप मनोहर, लाल कमल सम दिव्य मनोहर।।१८।।
सुरपति दो नेत्रों से निरखे, नहीं तृप्ति पाई जब उसने।।१९।।
तब विक्रियऋद्धी से सुर ने, नेत्र हजार बनाए अपने।।२०।।
उनसे एक साथ प्रभु जी का, रूप देखकर आनन्दित था।।२१।।
एक हजार हाथ ऊँचा तन, चिन्ह आपका लाल कमल शुभ।।२२।।
राज्यकार्य में लिप्त प्रभू ने, एक दिवस देखा हाथी को।।२३।।
बंधे हुए हाथी की स्थिति, सुनकर प्रभु को हुई विरक्ती।।२४।।
सारा वैभव क्षण भर में ही, छोड़ प्रभू ने दीक्षा ले ली।।२५।।
कार्तिक कृष्णा तेरस तिथि में, तपलक्ष्मी पाई प्रभुवर ने।।२६।।
पुन: आई पूर्णिमा चैत्र की, जिनवर बन गए पूर्ण केवली।।२७।।
सुरपति गज ऐरावत से आ, दर्शन करते समवसरण का।।२८।।
ऐरावत हाथी की महिमा, सुन लो भैया! सुन लो बहना!।।२९।।
एक लाख योजन का हाथी, उस हाथी के मुख हैं बत्तिस।।३०।।
प्रतिमुख में अठ-आठ दंत हैं, सबमें एक-एक सरवर है।।३१।।
प्रतिसरवर में एक कमलिनी, सबमें कमल हैं बत्तिस-बत्तिस।।३२।।
इक-इक दल पर बत्तिस-बत्तिस, सुर अप्सरियाँ बहुत ही सुन्दर।।३३।।
सब मिलकर सत्ताइस कोटी, अप्सरियाँ ऐरावत गज पर।।३४।।
सुन्दर नृत्य किया करती हैं, जिनगुण का वर्णन करती हैं।।३५।।
सच है यह नहिं कोई कल्पना, ग्रंथ त्रिलोकसार में पढ़ना।।३६।।
अब आगे श्री पद्मप्रभु के, मोक्षकल्याणक का वर्णन है।।३७।।
फाल्गुन कृष्ण सुचतुर्थी के दिन, श्री सम्मेदशिखर से प्रभुवर।।३८।।
मोक्ष प्राप्त कर सिद्ध बन गए, निज आत्मा में लीन हो गए।।३९।।
छूटूँ मैं भी भवदु:खों से, चतुर्गती के परिभ्रमण से।।४०।।
और नहीं इच्छा है कुछ भी, मिले ‘‘सारिका’’ को तपशक्ती।।४१।।
यह पद्मप्रभु का चालीसा, पढ़ने से हृदय कमल खिलता।
मनमंदिर के अंदर इक कमल पे, जिनवर का श्रीमुख दिखता।।
इक दिव्यशक्ति सिद्धान्तचन्द्रिका, ज्ञानमती माताजी हैं।
उनकी शिष्या आर्यिकारत्न चन्दनामती माताजी ने।।१।।
दी मुझे प्रेरणा तुम भगवन् श्री पद्मप्रभु का चालीसा।
लिख करके ज्ञान व पुण्य की वृद्धी करो यही मेरी शिक्षा।।
उस शिक्षा को मन में धरकर, लिखना प्रारंभ किया मैंने।
इसको पढ़ने वाले भव्यों को, शान्ति-समृद्धी शीघ्र मिले।।२।।