तीर्थंकर श्री पार्श्व को ,जहाँ हुआ था ज्ञान
उस तीरथ अहिच्छत्र का,पूज्य है हर स्थान ||१||
चालीसा शुभ तीर्थ का, हो सबको हितकार
मनवांछापूरक बना, पारस का दरबार || २||
जिला बरेली में यह तीरथ, है तहसील आंवला मनहर ||१||
संख्यावती नाम था पहले, रामनगर के एक भाग में ||२||
तेइसवें तीर्थंकर स्वामी, पारस प्रभुवर अंतर्यामी ||३||
ध्यानारूढ वहाँ तिष्ठे थे,संवर ज्योतिष उधर से निकले ||४||
दस भव का वह वैरी संवर, घोरोपसर्ग किया था प्रभु पर ||५||
पद्मावति धरणेन्द्र देव का,दृश्य देख आसन था कंपा ||६||
तत्क्षण अपने लोक से आकर, फण का छत्र लगाया प्रभु पर ||७||
प्रभु को केवलज्ञान था प्रगटा , संवरदेव बहुत लज्जित था ||८||
अहि के छत्र लगाने से ही, कहलाया वह अहिच्छत्र जी ||९||
है इतिहास पुराना लेकिन, देता शिक्षा हमको हर दिन ||१०||
क्षमा,धैर्य हो सहनशीलता , हर शत्रू उसके वश होता ||११||
वर्तमान में भी अतिशय है, मंदिर में राजे जिनवर हैं ||१२||
कहते तिखाल वाले बाबा , जिनके दर आ सब मिल जाता ||१३||
है प्राचीन शिखरयुत मंदिर , रोचक कथा बड़ी ही सुन्दर ||१४||
देवों ने दीवार बनाई, और तिखाल बनाया भाई ||१५||
प्रतिमा छोटी अतिशयकारी , जनसमूह उमड़ा है भारी ||१६||
पूर्वमुखी त्रय वहाँ हैं वेदी, बाच में हैं पद्मावति देवी ||१७||
अपने अतिशय को दिखलातीं , सभी मनौती पूर्ण करातीं ||१८||
मंदिर के बीचोंबिच प्रतिमा ,खड्गासन श्री पार्श्व अनुपमा ||१९||
इस मंदिर को ज्ञानमती माँ , जी की मिल गयी पुण्य प्रेरणा ||२०||
सात सौ बीस जिनेश्वर मंदिर, दश क्षेत्रों के त्रैकालिक जिन ||२१||
दस कमलों पर जिनप्रतिमाएं , सर्वसिद्धि सबको दिलवाएं ||२२||
यह मंदिर भी माताजी की, दिव्य प्रेरणा से निर्मित है ||२३||
पार्श्वनाथ पद्मावति मंदिर, गौरव गरिमा है वृद्धिंगत ||२४||
और कथानक जुड़े यहाँ से, छठी सातवीं उस शताब्दि में ||२५||
पात्रकेशरी इस नगरी के, थे विद्वान और ब्राह्मण थे ||२६||
अवनिपाल के राज्यकाल में,नित्य गोष्ठी करते रहते ||२७||
एक दिवस गए पारस मंदिर, देवागम का पाठ करें मुनि ||२८||
ध्यान से उसको सुना था उनने, शंका समाधान हुआ पल में ||२९||
घर जा तत्वचिन्तवन करते , शंका हुई पद्मावति प्रगटें ||३०||
पार्श्वनाथ प्रतिमा के ऊपर, लिखी कारिका था निराकरण ||३१||
जैनधर्म उनने स्वीकारा ,इक दार्शनिक ग्रन्थ लिख डाला ||३२||
इक राजा वसुपाल कहाए , सहस्रकूट मंदिर बनवाए ||३३||
लेपकार मांसभक्षी था, लेप प्रभू पर नहिं टिकता था ||३४||
दूजे लेपकार ने मुनि से, नियम लिया और पूजन करके ||३५||
वज्र समाना लेप लगाया, यह जिनधर्म का केन्द्र कहाया ||३६||
यह पांचाल की थी रजधानी , कई विरासत यहाँ हैं मानीं ||३७||
मिले यहाँ स्तंभ व मूर्ती, ग्राम की जनता पूजन करती ||३८||
सन् पचहत्तर में मंदिर का , सुन्दर जीर्णोद्धार हुआ था ||३९||
वार्षिक मेला यहीं है लगता , तीर्थक्षेत्र की गरिमा कहता ||४०||
इस अहिच्छत्र जी तीरथ का, कण-कण सचमुच मनहारी है
उपसर्ग विजयस्थल की यात्रा , भविजन को सुखकारी है
श्रावण शुक्ला सप्तमि तिथि में, निर्वाणोत्सव जनता करती
‘इंदू’ उस भू को नमन करें , मिल जाय शीघ्र कैवल्यश्री ||१||