रचयित्री-आर्यिका चंदनामती
(शंभु छंद)
हे लक्ष्मी माता! तव मस्तक पर, प्रभु अरिहंत विराजे हैं।
प्रभु से पावन तेरे तन पर, आभूषण गुण के राजे हैं।।
प्रभु समवसरण में सरस्वती के, साथ सदैव रहा करतीं।
तेरी पूजन से इसीलिए, जनता धनवान बना करती।।१।।
दोहा
आह्वानन स्थापना, सन्निधिकरण प्रधान।
इस विधि लक्ष्मी मात का, करूँ यहाँ आह्वान।।२।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! अत्र मम सन्निहिता भव भव वषट् स्वाहा।
(शंभु छंद)
भौतिक लक्ष्मी आने हेतू, निज घर को स्वच्छ बनाते हैं।
आत्मिक सम्पति पाने हेतू, निज मन को स्वस्थ बनाते हैं।।
हे लक्ष्मी माता! तुम निर्धन को, भी धनवान बनाती हो।
सांसारिक सुख सम्पति देकर, सबको सन्मान दिलाती हो।।१।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! जलं गृहाण गृहाण स्वाहा।
निज तन की शीतलता हेतू, चंदन का लेप लगाते हैं।
निज मन की शीतलता हेतू, चंदन पूजन में चढ़ाते हैं।।
हे लक्ष्मी माता! तुम निर्धन को, भी धनवान बनाती हो।
सांसारिक सुख सम्पति देकर, सबको सन्मान दिलाती हो।।२।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! चंदनं गृहाण गृहाण स्वाहा।
निज तन का सुख पाने हेतू, जाने क्या-क्या हम करते हैं।
आध्यात्मिक अक्षय सुख हेतू, अक्षत पुंजों से जजते हैं।।
हे लक्ष्मी माता! तुम निर्धन को, भी धनवान बनाती हो।
सांसारिक सुख सम्पति देकर, सबको सन्मान दिलाती हो।।३।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! अक्षतं गृहाण गृहाण स्वाहा।
तन की सौंदर्यवृद्धि हेतू, बहु पुष्पों का शृँगार किया।
मन की सौंदर्यवृद्धि हेतू, पूजन में पुष्प का थाल लिया।।
हे लक्ष्मी माता! तुम निर्धन को, भी धनवान बनाती हो।
सांसारिक सुख सम्पति देकर, सबको सन्मान दिलाती हो।।४।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! पुष्पं गृहाण गृहाण स्वाहा।
निज तन की भूख मिटाने को, पकवान बहुत हम खाते हैं।
आत्मा की भूख बढ़ाने को, नैवेद्य थाल हम लाते हैं।।
हे लक्ष्मी माता! तुम निर्धन को, भी धनवान बनाती हो।
सांसारिक सुख सम्पति देकर, सबको सन्मान दिलाती हो।।५।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! नैवेद्यं गृहाण गृहाण स्वाहा।
निज घर का तिमिर मिटाने को, विद्युत के दीप जलाते हैं।
अज्ञान का तिमिर हटाने को, पूजन में दीप जलाते हैं।।
हे लक्ष्मी माता! तुम निर्धन को, भी धनवान बनाती हो।
सांसारिक सुख सम्पति देकर, सबको सन्मान दिलाती हो।।६।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! दीपं गृहाण गृहाण स्वाहा।
निज गृह में सुन्दर धूप जलाकर, उसे सुगंधित करते हैं।
आत्मा को गुण से सुरभित करने, हेतु धूप से जजते हैं।।
हे लक्ष्मी माता! तुम निर्धन को, भी धनवान बनाती हो।
सांसारिक सुख सम्पति देकर, सबको सन्मान दिलाती हो।।७।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! धूपं गृहाण गृहाण स्वाहा।
निज तन की पुष्टि हेतु खट्टे-मीठे फल हम सब खाते हैं।
निज आतम की पुष्टी हेतू, पूजन में उन्हें चढ़ाते हैं।।
हे लक्ष्मी माता! तुम निर्धन को, भी धनवान बनाती हो।
सांसारिक सुख सम्पति देकर, सबको सन्मान दिलाती हो।।८।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! फलं गृहाण गृहाण स्वाहा।
भौतिक सम्मान बढ़ाने को, कितने प्रयत्न हम करते हैं।
‘‘चन्दनामती’’ अब अर्घ्यथाल ले, ईप्सित फल हम वरते हैं।।
हे लक्ष्मी माता! तुम निर्धन को, भी धनवान बनाती हो।
सांसारिक सुख सम्पति देकर, सबको सन्मान दिलाती हो।।९।।
ॐ ह्रीं श्री महालक्ष्मीदेवि! अर्घं गृहाण गृहाण स्वाहा।
दोहा
स्वर्ण कलश में नीर ले, कर लूँ शांतीधार।
पदयुग लक्ष्मी मात के, दें सबको आधार।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
पुष्पांजलि के भाव से, लिये पुष्प बहु भांति।
करतीं पुष्पित जगत को, महालक्ष्मी मात।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
शंभु छंद
जय जय तीर्थंकर के पद में, रहने वाली लक्ष्मी देवी।
जय जय प्रभु समवसरण में भी, रहने वाली लक्ष्मी देवी।।
जय जय माता श्री सरस्वती के, संग रहतीं लक्ष्मी देवी।
जय जय श्रीदेवी की संज्ञा, धारिणी मात लक्ष्मी देवी।।१।।
इनके मस्तक पर सदा रहें, अरिहंत देव की प्रतिमा हैं।
अरिहंत देव के ही निमित्त से, इनके गुण की गरिमा है।।
ये जिनवर भक्तो को सदैव ही, मालामाल बनाती हैं।
इसलिए जगत के द्वारा ये, लक्ष्मी माँ मानी जाती हैं।।२।।
जो पूज्य जनों की विनय करे, उनके घर में लक्ष्मी आतीं।
जो अविनय करते गुरुजन की, उनकी सम्पत्ति भाग जाती।।
धन लक्ष्मी पाकर मान नहीं, आने पावे यह ध्यान रहे।
इसलिए सदा धन पा करके, दानी बनने का भाव रहे।।३।।
लक्ष्मी देवी की पूजन से, ऐसी सद्बुद्धि मिले मुझको।
निज औ पर का उपकार करूँ, ऐसी ही बुद्धि मिले मुझको।।
जिनधर्म और धर्मायतनों के, लिए दान के भाव रहें।
जिनशासन होवे वृद्धिंगत, मेरे द्वारा यह भाव रहे।।४।।
लक्ष्मी माता के साथ सरस्वति, माता का भी यजन करें।
दिग्भ्रमित न मन होने पाए, इसलिए सरस्वति नमन करें।।
व्यसनों से सदा दूर रहकर, भौतिक सुख का उपभोग करें।
सुख सम्पत्ति पाकर चार दान में, लक्ष्मी का उपयोग करें।।५।।
हे लक्ष्मी माता! तुम मेरे, घर में आकर खुशियाँ भर दो।
मेरे आंगन को अपने वरदानों से पूर्ण सुखी कर दो।।
इस हेतु तुम्हारे दर पर यह, मेरा पूर्णार्घ समर्पित है।
जयमाला के माध्यम से माँ, ये आठों द्रव्य समर्पित हैं।।६।।
है यही भाव ‘‘चन्दनामती’’, रत्नत्रय की संपति पाऊँ।
उस संपत्ति से मैं शीघ्र तीन, लोकों की संपति पा जाऊँ।।
जो भौतिक सम्पति मिले उसी में, संतोषामृत पान करूँ।
बस श्रेष्ठ निराकुल मन होकर, निज आतम में विश्राम करूँ।।७।।
ॐ ह्रीं महालक्ष्मीदेव्यै जयमाला पूर्णार्घ्यं समर्पयामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:। ।
।इत्याशीर्वाद:।।