मानसिक स्वास्थ्य हमारे शारीरिक स्वास्थ्य की आधारशिला है। स्वस्थ आहार— विहार ही स्वस्थ आचार —विचार का निर्माण करता है। वर्तमान में बढ़ते हुए प्रदूषण के कारण अनेक शारीरिक, मानसिक रोगों में वृद्धि हो रही है, जिनका निदान भी किया जा रहा है, किन्तु प्राचीनकाल में भारतभूमि पर ऐसे अनेक मनीषियों, विद्वानों एवं चिकित्सकों ने जन्म लिया है जो अपनी विद्या में पारंगत थे। जैसे—चरक, सुश्रुत, वाग्भट, शार्गधर, उल्हण आदि। आयुर्वेदीय चिकित्सकों एवं ग्रंथकारों ने शारीरिक रोगों के अतिरिक्त, मानसिक रोगों का भी विस्तृत वर्णन किया है। इनमें काम, क्रोध, भय,शोक, लोभ, मोह, अहंकार, इच्छा तथा मद प्रमुख हैं जो मनुष्यों में जन्मजात होते हैं। जब ये भाव निरन्तर लम्बे समय तक उग्र रूप में शरीर के अंदर बने रहते हैं, तब ये मानसिक रोग बनकर उभरते हैं। यह मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी संगतिपूर्ण हैं और समस्त बीमारियों की जड़ हैं। तुलसीदास जी कहते हैं— हरष विषाद, ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना। १ मानस, बालकाण्ड ११(४) अहंकार के कारण, मनुष्य किसी भी परिस्थिति पर विचार नहीं करता, सभी कार्यों का कर्ता स्वयं को समझता है, अधिकार जमाता है, कठोर एवं क्रोधयुक्त वचन बोलता है, ईश्वर एवं गुरुजनों के प्रति समर्पण बुद्धि समाप्त हो जाती है, वह दुराग्राही होता है, उसमें उच्छंखलता आ जाती है, वह मात्र अपने को ही श्रेय देने लगता है तथा उसकी बुद्धि मारी जाती है। अत: बुद्धि का अपराध (प्रज्ञापराध) वह करने लगता है। प्रज्ञापराध के तीन भेद हैं— धी विभ्रन्श (बुद्धिनाश) धृति विभ्रंश (धैर्यनाश) स्मति भ्रंश। तुलसीदास जी कहते हैं— काल दण्ड गहि काहु न मारा, हरइ धर्म बल बुद्धि विचारा। निकाल काल जेहि आवत साई, तेहि भ्रम होई तुम्हारिह नाई।२ लंका काण्ड, ३६ (४) आयुर्वेद के अनुसार मानसिक रोगों की उत्पत्ति के मूल्य कारण रज और तम दोष हैं। इनसे उत्पन्न काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्र्या, भय, अति चिंता और मस्तिष्क की कमजोरी है। इन विकारों का जनक मनुष्यों का प्रज्ञापराध है। महर्षि चरक ने कहा है— प्रज्ञापराधो हि मूलं रोगाणाम् । मानसिक रोगों से सभी ग्रस्त है। मनोरोग के कई कारण हो सकते हैं। जैसे—वंशपरम्परा, स्वयं की त्रुटियाँ, पारिवारिक अशांति, वात—पित्त—कफ की अधिकता आदि। सामान्य मनुष्यों में ही नहीं अपितु आदर्श संत और मुनियों में भी यह रोगपाए जाते हैं, किन्तु वे इन्हें पहचान कर साधना के माध्यम से इन पर विजय प्राप्त करने का उद्यम करके मानव जीवन की सार्थकता सिद्ध कर लेते हैं और साधारण मान के हृदय में मात्र प्रशंसा का ही नहीं, किन्तु प्रेरणास्त्रोत के रूप में मार्गदर्शक बन गुरू, परमात्मा या महात्मा का श्रेष्ठ पद प्राप्त कर लेते हैं।
१. इच्छाओं की आसक्ति को कम करें।
२. आवश्यकताओं को सीमित करें।
३. साधन बहुलता एवं अतिसंग्रह की प्रवृत्ति से दूर रहें।
४. संतोष और संयम पूर्ण जीवन बनायें।
५. ईश्वर की सत्ता पर विश्वास करें।
६. नियमित दिनचर्या बनायें।
७. योगासन प्राणायाम को जीवन का हिस्सा बनायें।
८. धार्मिक एवं महापुरूषों के लिखे ग्रंथों का नियमित स्वाध्याय करें।
९. निष्काम कर्म करने की आदत डालें।
१०. काम, क्रोध, अहंकार, मोह आदि भावों से बचें। मन के संतोष से करोड़पति और दारिद्र का भेद नहीं रहता। तृष्णायुक्त धनवीर, दरिद्र से बुरा और तृष्णारहित निर्धन, धनवान से अधिक सुखी तथा स्वस्थ रहता है। संतोष का संबल बहुत बड़ी शक्ति है। मन संतोषी होगा तो, उसमें मानसिक विकार पैदा होने का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि विषयों पर निरंतर ध्यान जमा रहने से वही मन में रमकर रह जाते हैं। मन और विषयों के इस संयोग से कामना, काम उपभोग की लालसा उत्पन्न होती है और उसमें थोड़ा भी व्यवधान क्रोध को उत्पन्न करता है। क्रोध से कर्तव्याकर्तव्य का बोध समाप्त होता है, उससे स्मृति और धैर्य का नाश हो जाता। इस अज्ञान के कारण मनुष्य बारबार भूलें करता है तथा उसका सर्वनाश सुनिश्चित हो जाता है। प्रज्ञापराध के निम्नलिखित हो जाता है।
१. ठीक समय को खो देना अर्थात् समयोचित कार्य न करके समय निकलने पर पश्चाताप करना।
२. सदाचार का लोप।
३. जानबूझकर अहितकर कार्य करना।
४. कर्मों का मिथ्यारम्भ (गलत तरीके से शुरुआत)।
५. दुस्साहस एवं नारियों का अतिसेवन।
६. पतितों या अपराधियों से मित्रता।
७. सदाचार का पालन न करना एवं दूसरों को मना करना। अत: तमोगुण, रजोगुण को छोड़कर मनुष्य को सत्वगुण की ही आराधना करना चाहिए। क्योंकि तमोगुण के आने से अंधकार—अपराधमय प्रवृत्ति बनती है, रजोगुण के आने से रोगी को मानसिक झटका लगता है तथा सत्वगुण विचार, आचार परिवर्तन करने का अमोघशास्त्र है, जिससे स्वयं की प्रसन्नता के साथ परिवार, समाज तथा राष्ट्र को भी प्रसन्नता को अनुभव होता है। आज के युग की समस्त समस्याओं का कारण मानसिक रोग अर्थात् तम और रज गुण की प्रधाणता ही है। यदि हम युवा पीढ़ी को सत्वगुण से भर दें तो महावीर, राम और कृष्णयुग आने में देर नहीं लगेगी। इस सुधा को बाँटकर अमर करने की शक्ति है भारतीय संस्कृति और भारतीय साहित्य में, पाश्चात्य संस्कृति और साहित्य में नहीं, जिसकी अंधीदौड़ में आज की युवापीढ़ी अंधी, विवेकशून्य हो अथक दौड़ रही हैं। रामचरित मानस में कवि तुलसीदास जी कहते हैं—
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निजकृत करम भाग सबु भ्राता।
अर्थात् कोई किसी को सुख—दुख देने वाला नहीं है, अपितु सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं। हमारा आज का किया हुआ पुरूषार्थ ही भविष्य का भाग्य बनेगा और भूत का किया हुआ पुरूषार्थ ही हमारे वर्तमान का भाग्य है। अत: शासक—प्रशासक, शिक्षा पद्धति का यह धर्म, कर्म एवं कर्तव्य है कि वह संतुलित पर्यावरण बनाए रखने के लिए देश को प्राकृतिक पर्यावरण के साथ, आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, अध्यात्मिक, राजनैतिक, शारीरिक, धार्मिक, साहित्यक, सांस्कृतिक, आदि सभी पहलूओं पर पूर्ण ध्यान दे और देश को उन ऊँचाईयों तक पहुँचाए जो, हमारे पूर्वजों, मनीषियों, विद्वानों, शहीदों राष्ट्र, समाजसेवकों का सपना था।