भावों की महिमा न्यारी है, जिनसे चेतन का नाता है।
जड़ चेतन ही मिलकर बनते, हम सबके पिता व माता हैं।।
संसार में ही रहते ये सब, नहिं मोक्ष का इनसे नाता है।
वैराग्य भाव आ जाने पर, शिव से नाता जुड़ जाता है।।१।।
परिणामों का ही खेल जगत में, खेल रहे हैं सब प्राणी।
पर में अपनत्व भाव करके, सब जीव बन रहे अज्ञानी।।
इस कारण काल अनादी से, मैंने भी भव का भ्रमण किया।
निज आत्मा को नहिं पहचाना, जाने कितनों की शरण लिया।।२।।
कितनी दुर्लभता से मैंने, अनमोल मनुजभव प्राप्त किया।
फिर भी जिनधर्म न पाने से, कितना मैंने संताप सहा।।
श्रावक पर्याय भी पा करके, इन्द्रिय विषयों में बुद्धि रही।
सारों में सार उसे माना, नहिं तभी आतमा शुद्ध हुई।।३।।
कुछ पुण्य जनम जन्मान्तर में, संचित मैंने भी किया प्रभो!।
बस इसीलिए इस भव में कुछ, वैराग्य भाव पा लिया प्रभो!।।
हे प्रभु! मेरा सम्यग्दर्शन, भव-भव में भी दृढ़ बना रहे।
क्योंकी सम्यक्त्व सहित विराग ही, मेरे भव की व्यथा हरे।।४।।
मेरे जीवन की घड़ियों में, प्रभु कब ऐसा क्षण आवेगा।
जब शान्त निराकुल हो मेरा तन, गिरि पर ध्यान लगावेगा।।
मन में भी हलचल नहीं रहे, मेरू सम अविचल बन जावे।
आंधी तूफानों में भी मन की, शक्ती भंग न हो जावे।।५।।
दीक्षा का अर्थ न केवल, वेष का परिवर्तन कहलाता है।
इस परिवर्तन के साथ भाव, परिवर्तन भी हो जाता है।।
आतमज्योती का दीप जले, पशुता का भाव क्षपण होता।
वह दानक्षपण से सहित भाव ही, दीक्षा का मतलब होता।।६।।
ऐसी दीक्षा ले करके मैं, वन-वन में विचरण योग्य बनूँ।
गुरुवर की सन्निधि को पाकर, सुसमाधिमरण के योग्य बनूँ।।
तन से भी ममता दूर हटे, स्वातम समता का भाव जगे।
यह भाव प्राप्त होने तक प्रभु, मेरे मन का मिथ्यात्व भगे।।७।।
अपने दीक्षित परिणामों को, मैं सदा-सदा स्मरण करूँ।
यदि किंचित् विकृति हो मन में, उस ही क्षण का संस्मरण करूँ।।
कलिकाल का यह अभ्यास मेरा, परभव में मुक्ति दिलाएगा।
‘‘चन्दनामती’’ पुरुषार्थ मेरा, नहिं व्यर्थ प्रभो अब जाएगा।।८।।