श्री धर्मसागरगुरो: प्रणिपत्य भक्त्या।
जग्राह त्वं शिवकरं व्रतमार्यिकाया:।।
अन्वर्थनाम किल ‘‘रत्नमती’’ दधासि।
त्वामार्यिकां प्रणिपतामि सदैव मूध्र्ना।।१।।
स्वात्मैकतत्वनिरता विरताऽव्रतेभ्य:।
सम्यक्त्वबोधनिपुणा प्रवणा सुवृत्ते।।
स्तोत्रस्य पाठपठने श्रवणेऽनुरक्ता।
त्वामार्यिकां प्रणिपतामि सदैव मूध्र्ना।।२।।
आवश्यकीं षट्क्रियां प्रतिपालयन्ती।
रत्नत्रयं भवहरं बहुमानयन्ती।।
स्वाध्यायचिंतनपरा खलु सावधाना।
त्वामार्यिकां प्रणिपतामि सदैव मूध्र्ना।।३।।
मंत्रं सदा जपसि सौख्यकरं पवित्रं।
रोगापहं सकलदु:खहरं प्रसिद्धम्।।
धर्मामृतं पिबति पाययतीह भव्यान्।
त्वामार्यिकां प्रणिपतामि सदैव मूध्र्ना।।४।।
ख्याता द्वयोरपि किलार्यिकयो: प्रसूस्त्वं।
त्वं सर्वलोकमहिता श्रमणी प्रसिद्धा।।
ते ‘‘माधुरी’’ गुणगणानपि संस्तुवेऽहम्।
त्वामार्यिकां प्रथित रत्नमतीं नमामि।।५।।