रचयित्री—गणिनी ज्ञानमती
गिरिवर सम्मेदशिखर पावन, श्रीसिद्धक्षेत्र मुनिगण वंदित।
सब तीर्थंकर इस ही गिरि से, होते हैं मुक्तिवधू अधिपति।।
मुनिगण असंख्य इस पर्वत से, निर्वाण धाम को प्राप्त हुए।
आगे भी तीर्थंकर मुनिगण का, शिवथल यह मुनिनाथ कहें।।
सिद्धिवधू प्रिय तीर्थकर, मुनिगण तीरथराज।
मन वच तन से मैं नमूं, मिले सिद्धिसाम्राज्य।।१।।
श्री अजितनाथ जिन कूट सिद्धवर से निर्वाण पधारे हैं ।
उन संघ हजार महामुनिगण, हन मृत्यू मोक्ष सिधारे हैं ।।
इससे ही एक अरब अस्सी, कोटी अरु चौवन लाख मुनी।
निर्वाण गये सबको वंदूं, मैं पाऊँ निज चैतन्यमणी।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
बत्तिस कोटि उपवास फल, अनुक्रम से निज राज्य।।२।।
श्री संभव जिनवर धवलकूट से, हजार मुनिसह मोक्ष गये ।
इससे नौ कोड़िकोड़ि बाहत्तर, लाख बयालिस हजार ये ।।
पुनि पाँच शतक मुनिराज सर्व, निर्वाण धाम को प्राप्त किये ।
इन सबके चरण कमल वंदूं, निज ज्ञानज्योति हो प्रगट हिये ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
ब्यालिस लाख उपवास फल, अनुक्रम से शिवराज्य।।३।।
अभिनंदन जिन आनंद कूट से, हजार मुनिसह सिद्ध बने।
बाहत्तर कोड़िकोड़ि सत्तर, कोटी पुनि सत्तर लाख भने।।
ब्यालीस सहस अरु सातशतक, मुनि यहाँ से मोक्ष पधारे हैं ।
इन सबके चरण कमल वंदूँ, ये सबको भवदधि तारे हैं ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक लाख उपवास फल, मिले स्वात्म सुख नित्य।।४।।
श्री सुमतिनाथ अविचल सुकूट से, सहस साधु सह मोक्ष गये ।
इक कोड़िकोड़ि चौरासि कोटि, बाहत्तर लाख महामुनि ये ।।
इक्यासी सहस सात सौ, इक्यासी मुनि इससे मोक्ष गये ।
इन सबके चरण कमल वंदूं, हो शांति अलौकिक प्रभो ! हिये ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि बत्तीस लख, मिले सुफल उपवास।।५।।
श्री पद्मप्रभू मोहन सुकूट से, तीन शतक चौबिस मुनि सह।
निर्वाण पधारे आत्मसुधारस, पीते मुक्तिवल्लभा सह।।
इससे निन्यानवे कोटि सत्यासी, लाख तेतालिस सहस तथा।
मुनि सात शतक सत्ताइस सब, शिव पहुँचे वंदत हरूँ व्यथा।।
जो वंदें इस टोंक को, स्वर्ग मोक्ष फल लेय।
एक कोटि उपवास फल, तत्क्षण उन्हें मिलेय।।६।।
जिनवर सुपाश्र्व सुप्रभासकूट से, पाँच शतक मुनि साथ लिए।
उनचास कोटिकोटि चौरासी, कोटि सुबत्तिस लाख सु ये ।।
मुनि सात सहस सात सौ ब्यालिस, कर्मनाश शिवनारि वरी।
मैं सबके चरण कमल वंदूं, मेरी होवे शुभ पुण्य घड़ी।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
बत्तिस कोटि उपवास फल, मिले मोक्ष सुख राज्य।।७।।
श्री चंद्रनाथ जिन ललितकूट से, सहस मुनी सह मोक्ष गए।
इससे नव सौ चौरासि अरब, बाहत्तर कोटि अस्सि लख ये ।।
चौरासि हजार पाँच सौ पंचानवे, साधुगण सिद्ध हुए।
इनके चरणों में बार-बार, प्रणमूँ शिवसुख की आश लिए।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
छ्यानवे लाख उपवास फल, मिले सरें सब काज।।८।।
श्री पुष्पदंत सुप्रभ सुकूट से, सहस साधु सह सिद्ध हुये ।
इससे ही इक कोड़ाकोड़ी, निन्यानवे लाख महामुनि ये ।।
पुनि सात सहस चार सौ अस्सी, मुनी मोक्ष को पाए हैं ।
मैं वंदूं नित प्रतिभक्ती से, ये गुण अनंत निज पाए हैं ।।
भाव सहित इस टोंक को, जो वंदें कर जोड़।
एक कोटि उपवास फल, लहें विघ्न घनतोड़।।९।।
श्री शीतल जिन विद्युत् सुकूट से, सहस साधु सह मोक्ष गये ।
इससे अठरा कोड़ाकोड़ी अरु, ब्यालीस कोटी साधु गये ।।
बत्तीस लाख ब्यालिस हजार, नव शतक पाँच मुनि मोक्ष गये ।
इनके चरणारविंद वंदूं, परमानंद सुख की आश लिये ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से निज साम्राज्य।।१०।।
श्रेयांस प्रभू संकुल सुकूट से, एक सहस मुनि के साथे।
निर्वाण पधारे परम सौख्य को, प्राप्त किया भवरिपु घाते।।
इससे छ्यानवे कोटिकोटि, छ्यानवे कोटि छ्यानवे लक्ष।
नव सहस पाँच सौ ब्यालिस मुनि, शिव गये नमूं कर चित्त स्वच्छ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, मिले पुन: शिवराज।।११।।
श्री विमल जिनेंद्र सुवीर कूट से, छह सौ मुनि सह सिद्ध हुए।
इससे सत्तर कोड़ाकोड़ी अरु, साठ लाख छह सहस हुए।।
पुनि सात शतक ब्यालीस मुनी, सब कर्मनाश शिवधाम गये ।
उन सबके चरण कमल वंदूं, मेरे सब कारज सिद्ध भये ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से शिव साम्राज्य।।१२।।
वर कूट स्वयंभू से अनंत जिन, निज अनंत पद प्राप्त किया।
उन साथ सात हज्जार साधु ने, कर्मनाश निज राज्य लिया।।
इससे छ्यानवे कोटिकोटि, सत्तर करोड़ मुनि मोक्ष गये ।
पुनि सत्तर लख सत्तर हजार, अरु सात शतक मुनि मुक्त भये ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
नव करोड़ उपवास फल, क्रम से शिव साम्राज्य।।१३।।
श्री धर्मनाथ जिन सुदत्त कूट से, कर्मनाश कर मोक्ष गये ।
उनके साथ आठ सौ इक मुनि, पूर्ण सौख्य पा मुक्त भये ।।
उससे उनतिस कोड़ाकोड़ी, उन्निस कोटी साधू वंदूं ।
नौ लाख नौ सहस सात शतक, पंचानवे मुक्त गये वंदूं ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से अनुपम रिद्धि।।१४।।
श्री शांतिनाथ जिनकूट कूट से, नव सौ मुनि सह मुक्ति गये ।
नव कोटि कोटि नव लाख तथा, नव सहस व नौ सौ निन्यानवे।।
इस ही सुकूट से मोक्ष गये, इन सबके चरण कमल वंदूँ।
प्रभु दीजे परम शांति मुझको, मैं शीघ्र कर्म अरि को खंडूँ।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक कोटि उपवास फल, मिले ज्ञान सुख नित्य।।१५।।
श्री कुंथुनाथ जिन कूटज्ञानधर, से निर्वाण पधारे हैं ।
उन साथ में इक हजार साधू, सब कर्मनाश गुण धारे हैं ।।
इससे छ्यानवे कोड़ाकोड़ी, छ्यानवे कोटि बत्तीस लाख।
छ्यानवे सहस सात सौ ब्यालिस, शिव पहुँचे मुनि नमूं आज।।
भाव सहित इस टोंक को, जो वंदे सिर नाय।
एक कोटि उपवास फल, लहे स्वात्मनिधि पाय।।१६।।
श्री अरहनाथ नाटक सुकूट से, सहस साधु सह मुक्ति गये ।
इस ही से निन्यानवे कोटि, निन्यानवे लाख महामुनि ये ।।
नव सौ निन्यानवे सर्व साधु, निर्वाण पधारे वंदूं मैं।
सम्यक्त्व कली को विकसित कर, संपूर्ण दुःखों से छूटूँ मैं।।
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
छ्यानवे कोटि उपवास फल, पाय लहँ निजराज।।१७।।
श्री मल्लिनाथ संबल सुकूट से, मोक्ष गये सब कर्म हने।
मुनि पाँच शतक प्रभु साथ मुक्ति को, प्राप्त किया गुण पाय घने।।
इस ही से छ्यानवे कोटि महामुनि, सर्व अघाती घाता था।
मैं परमानंदामृत हेतू, इन वंदूं गाऊँ गुण गाथा।।
भाव सहित इस टोंक को, वंदूँ बारंबार।
एक कोटि प्रोषधमयी, फल उपवास जु सार।।१८।।
श्री मुनिसुव्रत निर्जरसुकूट से, सहस साधु सह मुक्ति गये ।
इससे निन्यानवे कोटिकोटि, सत्यानवे कोटि महामुनि ये ।।
नौ लख नौ सौ निन्यानवे सब, मुनिराज मोक्ष को प्राप्त हुये ।
हम इनके चरणों को वंदे, निज समतारस पीयूष पियें ।।
कोटि प्रोषध उपवास फल, टोंक वंदते जान ।
क्रम से सब सुख पायके, अंत लहें निर्वाण ।।१९।।
नमिजिनवर कूट मित्रधर से, इक सहस साधु सह मुक्ति गये ।
इससे नव सौ कोड़ाकोड़ी, इक अरब लाख पैंतालिस ये ।।
मुनि सात सहस नौ सौ ब्यालिस, सब सिद्ध हुए उनको वंदूं ।
निज आत्म सुधारस पान करूँ, दुःख दारिद संकट बने खंडू ।।
भाव सहित इस टोंक की, करें वंदना भव्य।
एक कोटि उपवास फल, लहें नित्य सुख नव्य।।२०।।
श्री पाश्र्व सुवर्णभद्र कूटसे, छत्तिस मुनि सह मुक्ति गये ।
इससे ही ब्यासी कोटि चुरासी, लाख सहस पैंतालिस ये ।।
पुनि सात शतक ब्यालीस मुनी, सब कर्मनाश शिवधाम गये ।
उन सबको वंदूं भक्ती से, इससे मनवांछित पूर्ण भये ।।
भाव सहित इस टोंक को, वंदूँ बारंबार ।
सोलह कोटि उपवास फल, मिले भवोदधि पार ।।२१।।
कैलाशगिरि से ऋषभदेव मुक्ति पधारे ।
उन साथ मुनि दस हजार मोक्ष सिधारे ।।
मैं बार बार प्रभूपाद वंदना करूँ ।
निजात्म तत्त्व ज्ञानज्योति से हृदय भरूँ।।२२।।
चंपापुरी से वासुपूज्य मोक्ष गये हैं ।
उन साथ छह सौ एक साधु मुक्त भये हैं ।।
इनके पदारविंद को मैं भक्ति से नमूँ।
निज सौख्य अतीन्द्रिय लहूँ संसार सुख वमूँ।।२३।।
गिरनार से नेमी प्रभू निर्वाण गये हैं ।
शंबू प्रद्युम्न आदि मुनी मुक्त भए हैं ।।
ये कोटि बाहत्तर व सात सौ मुनी कहे।
इन सबकी वंदना करूँ ये सौख्यप्रद कहे।।२४।।
पावापुरी सरोवर से वीरप्रभू जी।
निज आत्म सौख्य पाया निर्वाण गये जी।।
इनके चरणकमल की मैं वंदना करूँ ।
संपूर्ण रोग दुःख की मैं खंडना करूँ ।।२५।।
चौबीस जिनेश्वर के गणीश्वर उन्हें नमूं।
चौदह शतक उनसठ१ कहे उन सभी को प्रणमूं।।
ये सर्व ऋद्धिनाथ रिद्धि सिद्धि प्रदाता ।
मैं शीश झुकाकर नमूं ये मुक्ति प्रदाता ।।२६।।
नंदीश्वर द्वीप बना कृत्रिम, उसमें बावन जिनमंदिर
इनमें जिनप्रतिमाएँ मनहर, उनकी पूजा सब सुखकर है ।।
मैं वंदूं भक्ती श्रद्धा से, संसार भ्रमण का नाश करूँ ।
निज आत्म सुधारस पी करके, निज में ही स्वस्थ निवास करूँ ।।२७।।
तीर्थंकर का शुभ समवसरण, अतिशायी सुंदर शोभ रहा ।
श्री गंधकुटी में तीर्थंकर प्रभु, राज रहें मन मोह रहा ।।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके, तीर्थंकर को जिनबिंबों को ।
सब रोग शोक दारिद्र हरूँ, पा जाऊँ निज गुणरत्नों को ।।२८।।
गिरिवर सम्मेदशिखर से ही, अजितादि बीस तीर्थंकर जिन ।
निज के अनन्त गुण प्राप्त किये, मैं उन्हें शिरनत पूजूँ निशदिन ।।
यह ही अनादि अनिधन चौबीसों, जिनवर की निर्वाणभूमि ।
मुनि संख्यातीत मुक्तिथल हैं, वंदत मिलती निर्वाणभूमि ।।२९।।
श्री सम्मेदशिखर गिरी, शाश्वत तीर्थ प्रसिद्ध ।
ज्ञानमती कैवल्य हो, नमत मिले पद सिद्ध ।।३०।।