वर्तमान के बहुत विध, कष्ट स्वयं हो दूर।
ऋषभदेव को वंदते, मिले सौख्य भरपूर।।१।।
जब मेघ अतीवृष्टि से भूजलमयी करें।
नदियों की बाढ़ में बहें जन डूबकर मरें।।
जो भक्त आप वंदते वे पुण्य योग से।
अतिवृष्टि अपने देश से वे दूर कर सवें।।१।।
नहिं मेघ बरसते सभी जल के लिए तरसें।
पशु पक्षी मनुज प्यास से निज प्राण को तजें।।
ऐसे समय में आप की भक्ती ही मेघ सम।
अमृतमयी जलवृष्टि से तर्पित करें जन मन।।२।।
दुर्भिक्ष हो अकाल हो असमय में जन मरें। भगवन् !
तुम्हारी भक्ति से जन पाप परिहरें।।
होवे सुभिक्ष सब तरफ जब पुण्य घट भरें।
तब मेघ भी समय समय वर्षा सुखद करें।।३।।
धन से भरी तिजोरियाँ ताले लगा दिये।
डाकू लुटेरे चोर आये लूट ले गये।।
बहु श्रम से कमाया गया धन हानि जो होती।
प्रभु भक्ति से हानी न हो धन रक्षणा होती।।४।।
जो राज्यकर के हेतु ही अधिकारि राज्य के।
छापा व टैक्स आदि से धन लूट ले जाते।।
इस विध से राज्य भय से घिरें निर्धनी बनें।
प्रभु के चरणकमल नमे फिर से धनी बनें।।५।।
नाना प्रकार श्रम करें फिर भी न धन बढ़े।
दारिद्र से उन सामने संकट बड़े बड़े।।
परिवार के पोषण में भी असमर्थ हो रहें।
वृषभेष की भक्ती करें धन सम्पदा लहें।।६।।
तनु में ज्वरादि रोग हो पीड़ाएं हो घनी।
बहु औषधी लेते भी व्याधियां हो चौगुनी।।
भगवान ऋषभदेव की जो वंदना करें।
ज्वर शूल आदि रोग को वे क्षण में परिहरें।।७।।
जब पीलिया कुष्ठादि जलोदर भंगदरा।
नाना प्रकार रोग शोक हों भयंकरा।।
तुम नाम के जपे समस्त रोग नष्ट हों।
हे नाथ! आप भक्ति से जन पूर्ण स्वस्थ हों।।८।।
बहुविध के नेत्र रोग हों अंधा करें यदी।
औषधि व शल्यचिकित्सा से हो न लाभ भी।।
ऐसे समय में जो मनुष्य प्रभु शरण गहें।
हो नेत्र ज्योति स्वच्छ मन प्रसन्नता लहें।।९।।
जो प्राण को भी घातती कैंसर महाव्याधी।
अति कष्टदायि वेदना से हो न समाधी।।
तब भक्त आप मंत्र को जपते जो भाव से।
सब वेदना व व्याधि भी भगती हैं देह से।।१०।।
हृद् रोग से पीड़ित मनुज न पावते साता।
बहुधन करें खर्चा परन्तु बढ़ती असाता।।
जिनराज पादकमल की लेते यदी शरण।
हों पूर्ण स्वस्थ नहीं हो अकाल में मरण।।११।।
मुनियों की जो निंदा करें घृणा करें कभी।
वे हों कुरूप निंद्यरूप पावते तभी।।
मन में सदा दु:खी रहें यदि आप को नमें।
होवें सुरूप कामदेव सर्वसुख भजें।।१२।।
स्त्री पुत्रादि स्वजन परिजन, जो अपने को अतिप्रिय होवें।
वे दूर बसें या मर जावें, तब इष्ट वियोग दु:खद होवे।।
उस समय चित संतप्त किए रोते विलाप करते प्राणी।
होते प्रसन्न क्षण भर में ही यदि मिल जावें प्रभु की वाणी।।१३।।
शत्रू हों या प्रतिकूल स्वजन भार्या आदिक शत्रूसम हों।
इनका वियोग कैसे होवे ऐसी चिता प्रतिक्षण मन हो।।
ऐसे अनिष्ट संयोगों से संतप्त हृदय प्रतिदिन रोवे।
जिनवर की भक्ती करने से नििंश्चत प्रसन्नमना होंवे।।१४।।
घर में या व्यापारों में भी मन के प्रतिकूल क्रियाएं हों।
मानस पीड़ा होवे प्रतिदिन आकुलता हो व्याकुलता हो।।
प्रतिक्षण मनपीड़ा से तनु में, नानाविध रोग प्रगटता हो।
प्रभु की भक्ती से आधि नशे, मन में अतिशय प्रपुल्लता हो।।१५।।
वचनों से प्रिय भी वचन कहें फिर भी जन जन अति क्रोध करें।
या जिह्वा में हो रोग विविध या गूंगे हों बहु दु:ख भरें।।
इस विध वाचनिक कष्ट जो भी नाश जाते प्रभुवर भाक्ती से।
वचसिद्धि मिले सब जन वश हों, जिन भक्ती फल मिलता विधि से।।१६।।
यह पुद्गल के परमाणु से निर्मित है काया अस्थिर है।
फिर भी इसमें कुछ पीड़ा हो आत्मा भी होता अस्थिर है।।
नानाविध कायिक कष्टों से छुटकारा पाते भाक्तिक जन।
हे नाथ! आपके वंदन से सब मिट जाते जग के व्रंदन।।१७।।
जो वायुमान से गगन गमन करते ऊपर में उड़ जाते।
यदि अकस्मात् दुर्घटना हो ऊपर से नीचे गिर जाते।।
प्रभु नाम जपें तत्क्षण ही तब तनु में किंचित नहीं चोट लगे।
मरणान्तक पीड़ा से बचते, दीर्घायू हों दु:ख दूर भगें।।१८।।
जो रेल में बैठे अतिशीघ्र बहुतेक कोश यात्रा करते।
यदि एक्सीडेंट आदि होवे तो आकस्मिक मृत्यु लभते।।
जिनराज भक्ति का ही प्रभाव ऐसी बहुविध दुर्घटनाओं में।
परिपूर्ण सुरक्षित बच जाते, या एक्सीडेंट टलें क्षण में।।१९।।
बस कार आदि यात्रा साधन सुख देते आज सभी को भी।
संघट्टन आदि बहुत विध की दुर्घटनाएँ होती हैं फिर भी।।
यदि नाम मंत्र जपते उस क्षण दुर्घटना से बच जाते हैं।
यदि मरें कदाचिद् फिर भी वे शुभ स्वर्ग सौख्य पा जाते हैं।।२०।।
जो चलें तिपहिए, वाहनादि, उनके संघट्टन आदि विविध।
गिरने पड़ने से एक्सीडेंट, आदिक दुर्घटनाओं से नित।।
नाना आतंक दिखें जग में, प्रभु भक्ती से टल जाते हैं।
सब विध अकालमृत्यु टलती, भाक्तिक दु:ख से बच जाते हैं।।२१।।
दो पहिये के साइकिल आदिक, वाहन से चलते अकस्मात्।
बस ट्रक आदिक के टक्कर से, गिर जाते बहुविध कष्ट प्राप्त।।
प्रभु नाम मंत्र के जपते ही, किञ्चित नहिं चोट लगे तन में।
अपमृत्यु आदि भय टल जाते, मानव दीर्घायू हों जग में।।२२।।
भू पर कंप कभी होता, बहुतेक मनुज मर जाते हैं।
घर ग्राम आदि भी नाश जाते, बहुते पशु भी मर जाते हैं।।
प्राकृतिक कोप भूकम्प आदि दुर्घटनाएँ भी टल जाती हैं।
जो भक्त आपको नमते हैं, उनकी रक्षा हो जाती है।।२३।।
नदियों में बाढ़ यदी आवे, कितने ही ग्राम डूब जाते।
कितने नर नारी पशु पक्षी, जल में डूबे तब मर जाते।।
इन आकस्मिक जल संकट से, भाक्तिक जन ही बच सकते हैं।
जिनदेवदेव का ही प्रभाव, ये संकट भी टल सकते हैं।।२४।।
जो नदी, समुद्र, नहर आदिक, में अकस्मात् गिर जाते हैं।
तुम नाम मंत्र जपते तत्क्षण, वे सहसा ही तिर जाते हैं।।
जिनदेव भक्ति की महिमा ही, भवसागर भी तिर सकते हैं।
प्रभु आदीश्वर की भक्ती से, हम भी सब संकट हरते हैं।।२५।।
बिच्छू आदिक विषधर जंतू, सर्पादिक काले नाग यदी।
हालाहल विष उगले डस लें, नहिं बचा सवें कोइ वैद्य यदी।।
ऐसे भय यदी भयंकर भी, जीवन नाशक आ जाते हैं।
आदीश्वर जिनकी भक्ती से, निर्विष हो जीवन पाते हैं।।२६।।
अष्टापद व्याघ्र सिंह आदिक, हिंसक पशुओं ने घेरा हो।
जीवन बचने की आश न हो, संकट का घोर अंधेरा हो।।
भय से भयभीत हुए प्राणी, यदि नाममंत्र प्रभु का जप लें।
तत्क्षण ही क्रूर जंतुगण भी, शान्ती भावों से मिलें जुलें।।२७।।
हाथी, घोड़े, गौ, बैल आदि, पशुगण यदि हमला करते हैं।
सींगों वाले भयभीत करें, दौड़े मारें वध करते हैं।।
ऐसे प्राणीगण से भी नर, नहिं बाधा किञ्चित् पाते हैं।
जो मन में चिन्ते नाममंत्र, वे निर्भय हो बच जाते हैं।।२८।।
जो विषाक्त गैस फैलती शरीर नाशती।
मानवों पशूगणों के प्राण को संहारती।।
श्री जिनेन्द्रदेव के पदाब्ज की सुवंदना।
सर्वगैस आदि कष्ट दूर होयं रंच मा।।२९।।
आज जो रसोईघर में गैसपात्र जल रहे।
जो कभी फटें व अग्नि से अनेक को दहें।।
प्राण कष्टदायि चुल्लिकादि दु:ख वारते।
जो जिनेन्द्र को नमें समस्त पाप टारते।।३०।।
आज बम फटें कहीं उनके प्राणि मारते।
उग्रवादि लोग भी अनेक को संहारते।।
ग्राम सद्म भी बड़े बड़े हि बम गिरे नशें।
आप पाद वंदते समस्त आपदा नशें।।३१।।
उग्रवादि लोग आज मानवों को मारते।
बेकसूर प्राणियों के प्राण को संहारते।।
मानसीक वेदना धरें अनेक नित्य ही।
नाम मंत्र आप्त का हरे अनेक भीति ही।।३२।।
आज जो दहेज की प्रथा महान् घातिनी।
बालिकाओं का जन्म हुआ है कष्ट की खनी।।
भारभूत जन्म भी सुधन्य धन्य लोक में।
आप नाम के जपे अपूर्व सौख्य दे घने।।३३।।
मानसीक कष्ट देहव्याधि आदि दु:ख से।
कूप में गिरें विषादि खाय के मरा चहें।।
तुच्छयोनि हेतु आत्मघात है सुबुद्धि हो।
आप नाम के जपे हि पूर्ण आयु लाभ हो।।३४।।
मृत्यु हो अकाल में न पूर्ण आयु पा सवें।
कर्म की उदीरणा से बहुविधे निमित बनें।।
नाथ पाद को नमें अपूर्व पुण्य को भरें।
दीर्घ आयु हो यहाँ समस्त कष्ट को हरें।।३५।।
भूत औ पिशाच व्यंतरादि कष्ट दें घने।
डाकिनी व शाकिनी ग्रहादि भी निमित बनें।।
दु:ख हो पिशाचग्रस्त आप वश्य ना रहें।
नाथ पाद वंदते समस्त कष्ट को दहें।।३६।।
किंचित श्रम से धन ही धन हो, सब व्यापार सफल होते।
पुण्य उदय से हों उद्योगपति, सब जन के प्रिय होते।।
जिनभक्ती का ही माहात्म्य, जो धन से घर भण्डार भरें।
भक्तिक जन प्रभु संस्तुति कर, शीघ्र स्वात्मनिधि प्राप्त करें।।३७।।
गृहलक्ष्मी अनुकूल रहे, पतिव्रत से घर को मोहे।
पति की अनुगामी बन करके, दान धर्म से नित सोहे।।
ऐसी पत्नी मिलती जिसको, वे पुण्यात्मा कहलाते।
ऋषभदेव की स्तुति का फल, इस भव परभव में पाते।।३८।।
पुत्र पौत्र संतति मिलती नित, कुलदीपक संतान मिले।
मात पिता की कीर्ति बढ़ाकर, धर्मनिष्ठ हों स्वस्थ भले।।
भरत, बाहुबलि, राम सदृश सुत, ब्राह्मी सीता सम कन्या।
ऋषभदेव तीर्थंकर को नित, वंदत पाते जगवंद्या।।३९।।
दीर्घ आयु पाते वे भविजन, जो प्रभु चरण कमल जजते।
अशुभ भाव से दूर रहें नित, जिनवर के गुण में रमते।।
मनुज देव योगी को पाते, सम्यग्दर्शन महिमा से।
अत: नमूं मैं भक्तिभाव से, उत्तम आयु मिले जिससे।।४०।।
चारों ओर फैलती कीत्र्ती, सद्गुण से निज को भरते।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित से आत्मा को शोभित करते।।
कई जन्म के पुण्य योग से, ऐसा योग सुलभ होवे।
ऋषभदेव की संस्तुति करते, यश सौरभ प्रसरित होवे।।४१।।
राज्यमान्यता प्राप्त करें सब, जन जन के अति प्रिय होते।
सब जन उनके गुण गाते ऐसी महिमा से खुश होते।।
जिनवर भक्ती का प्रभाव यह, सब जन संतर्पित करते।
और अधिक क्या जिनभक्ती से तीर्थंकर भी बन सकते।।४२।।
जन जन भी आज्ञा पालें, ऐसी गरिमा को पाते हैं।
इस भव में इन्द्रादि सदृश, अतिशायि वैभव पाते हैं।।
ये सब ऋषभदेव वंदन का, उत्तम फल जग में माना।
भक्त बने भगवान स्वयं, ऐसा आश्चर्य जगत् जाना।।४३।।
अंत समय में रोग वेदना, आर्तरौद्र दुध्र्यान न हों।
क्रोध मान माया लोभादिक, राग द्वेष दुर्भाव न हों।।
देव शास्त्र गुरु पंचपरम गुरु इनका ही बस ध्यान प्रभो।
महामंत्र का मनन श्रवण हो, अंत समाधी मरण प्रभो!।।४४।।
सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण ये, रत्नत्रय शिवदाता हैं।
निश्चय औ व्यवहार मार्ग ये, परमानंद विधाता हैं।।
ऋषभदेव तीर्थंकर प्रभु की, भक्ति करें जो भव्य सदा।
वे ही तीन रत्न पा लेते, त्रिभुवन लक्ष्मी लें सुखदा।।४५।।
उत्तम क्षमा सुमार्दव आर्जव, शौच सत्य संयम तप भी।
त्याग अिंकचन ब्रह्मचर्य ये, दशवर धर्मधरें यति ही।।
इन धर्मों को पाते वे ही, जो जिनवंदन नित करते।
ऋषभदेव के चरणकमल की, भक्ति से शिवपद लभते।।४६।।
दर्शविशुद्धी विनय आदि, सोलह सुभावना मानी हैं।
तीर्थंकर पद की जननी ये, सर्वश्रेष्ठ जिनवाणी हैं।।
तीर्थंकर पदकमल वंदत, सदा भावना भाते हैं।
तीर्थंकर प्रकृती को बांधे, त्रिभुवनपति बन जाते हैं।।४७।।
बहिरात्मा अन्तरआत्मा परमात्मा जीव त्रिविध मानें।
स्वपर भेदविज्ञानी मुनिवर, शुद्धात्मा को पहचानें।।
सतत ध्यान कर शुद्ध बनें वे, जो जिनचरण कमल षट्पद।
निजशुद्धात्मतत्त्वप्राप्ती हितु, मैं भी नित्य नमूँ जिनपद।।४८।।
अतिवृष्टि अनावृष्ट्यादि कष्ट, जो मानव को दु:ख देते हैं।
श्रीऋषभदेव की संस्तुति से, भविजन सब दु:ख को मेटे हैं।।
नीरोग बनें दीर्घायू हों, सब सुख संपति भर लेते हैं।
यह जिनवंदन का ही प्रभाव, बहुयश सौरभ को देते हैं।।४९।।
ऋषभदेव स्तोत्र यह, संकटहर सुखदान।
गणिनी ज्ञानमती रचित, पढ़ो सुनो मतिमान्।।५०।।