दर्शनविशुद्धी आदि सोलह, भावना भवनाशिनी।
जो भावते वे पावते, अति शीघ्र ही शिवकामिनीशिवरमणी।।
हम नित्य श्रद्धा भाव से, इनकी करें आराधना।
मन वचन तन से भक्ति से, इनकी करें नित वन्दना।१।।
जो पचीस मल दोष विवर्जित, आठ अंग से पूर्ण रहा।
भक्ती आदी आठ गुणों युत, सम्यग्दर्शन शुद्ध कहा।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१।।
दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, उपचार विनय ये चार कहें।
इनसे सहित सदा जिनवचरत, भविजन शिव का द्वार लहें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।२।।
शील और व्रत के पालन में, निरतिचार जो रहें सदा।
सहसअठारह शीलपूर्णकर, निजआतमरत रहें सदा।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।३।।
जो संतत ही चार तरह के, अनुयोगोंप्रथमानुयोग,
करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग। का मनन करें।
पढ़ें पढ़ावें गुणें गुणावें, वे ही श्रुतमय तीर्थ करें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।४।।
भवतन भोगविरागी होकर, सत्यधर्म में प्रेम करें।
वे संवेग भावना बल से, स्वात्मसुधारसपान करें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।५।।
यथाशक्ति जो चार दान औ, रत्नत्रय का दान करेंं।
वे प्राणी वर त्यागधर्म से, सुखमय केवलज्ञान वरें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।६।।
अनशन आदी बाह्यतपों को, यथाशक्ति रुचि सहित करें।
प्रायश्चित्त विनय वैयावृत, आदिक से मन शुद्ध करें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।७।।
साधूजन मन समाधान कर, धर्म-शुक्ल में अचल करें।
साधुसमाधी पालन करके, तीर्थंकर पद अमल करें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।८।।
प्रासुक औषधि आदि वस्तु से, मुनि की वैयावृत्य करें।
संयम साधक, मन को रुचिकर, सेवा कर बहुपुण्य भरें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।९।।
छ्यालिस गुण धर दोष अठारह, शून्य प्रभू अर्हंत कहे।।
समवसरण में राजित जिनवर, उनकी भक्ती नित्य रहे।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१०।।
पंचाचार स्वयं पालें नित, शिष्यों को भी पलवावें।
शिक्षा दीक्षा प्रायश्चित दे, सूरी सबके मन भावें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।११।।
द्वादशांगमय श्रुत के ज्ञाता, श्रुतपारंगत गुरू कहें।
अथवा तत्कालिकवर्तमानकाल के। पूरण श्रुत, जाने बहुश्रुत गुरू रहें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१२।।
जिनवर भाषित प्रवचन में रत, प्रवचन भक्ति धरें मन में।
अथवा चतु:संघमुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका। भक्ती में, रत जो उन पद वंदूँ मैं।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१३।।
आवश्यकनियम से करने योग्य क्रियायें। की हानि न करते,समय-समय निज क्रिया करें।
षट् आवश्यक के बल निश्चय, आवश्यक को पूर्ण करें।।
मन वच तन से भक्तियुत हो,वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१४।।
शिवपुर मार्ग प्रभावन करते, विद्या, तप दानादिक से।
मार्गप्रभावन भावना भाकर, निज आतम पावन करते।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१५।।
प्रवचन में वत्सलता धारें, जिनवच रत में प्रीति धरें।
चार संघ में गाय वत्सवत्, सहज प्रेम भव भीति हरे।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१६।।
सोलह कारण भावन जग में, पुण्य सातिशय की जननी।
तीर्थंकर पद की कारण हैं, निश्चित भवसागर तरणी।।
मन वच तन से भक्तियुत हो, वंदत ही भवसिंधु तिरूँ।
परमानंद सुखामृत पीकर, भवकानन में नाहिं फिरूँ।।१७।।