स्वातमरस पीयूष से, तृप्त हुये जिनराज।
सोलह कारण भावना, भाय हुये सिरताज।।१।।
दर्श की विशुद्धी जो पचीस दोष शून्य है।आठ अंग से प्रपूर्ण सात भीति शून्य है।।
सत्य ज्ञान आदि तीन रत्न में विनीत जो।साधुओं में नम्रवृत्ति धारता प्रवीण वो।।२।।
शील में व्रतादि में सदोषवृत्ति ना धरें।विदूर अतीचार से तृतीय भावना धरें।।
ज्ञान के अभ्यास में सदैव लीनता धरें।भावना अभीक्ष्ण ज्ञान मोहध्वांत को हरें।।३।।
देह मानसादि दु:ख से सदैव भीरुता।भावना संवेग से समस्त मोह जीतता।।
चार संघ को चतु: प्रकार दान जो करें।सर्व दु:ख से छूटें सुज्ञान संपदा भरें।।४।।
शुद्ध तप करें समस्त कर्म को सुखावते।साधु की समाधि में समस्त विघ्न टारते।।
रोग कष्ट आदि में गुरुजनों कि सेव जो।प्रासुकादि औषधी सुदेत पुण्यहेतु जो।।५।।
भक्ति अरीहंत सूरि, बहुश्रुतों की भी करें।प्रवचनों की भक्ति भावना से भवदधी तरें।।
छै क्रिया अवश्य करण योग्य काल में करें।मार्ग की प्रभावना सुधर्म द्योत को करें।।६।।
वत्सलत्व प्रवचनों में धर्म वात्सल्य है।रत्नत्रयधरों में सहज प्रीति धर्मसार है।।
सोलहों सुभावना पुनीत भव्य को करें।तीर्थनाथ संपदा सुदेय मुक्ति भी करें।।७।।
वंदना करूँ पुन: पुन: करूँ उपासना।स्तुति करूँ पुन: पुन: करूँ सुसाधना।।
मैं अनंत दु:ख से बचा चहूँ प्रभो सदा।‘ज्ञानमती’ संपदा मिले अनंत सौख्यदा।।८।।
तीर्थंकर पद हेतु ये, सोलह भावन सिद्ध।
मैं वंदूं नित भाव से, लहूँ अनूपम सिद्धि।।९।।