प्रो. भागचंद्र जैन भास्कर, नागपुर, सम्पादक प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धारकर्ता
एक समय था जब हमारे पूर्वज जीर्णोद्धार का सही महत्व समझा जाता था। उनके मन में अपने अनुग्रह के प्रति श्रद्धा थी, मान सम्मान था, पाप से भय था, पुण्यार्जन की ओर कदम अधिक बढ़ते थे माता-पिता की इज्जत थी, परार्थ का ध्यान अधिक था । आज इन सारी बातों का अवमूल्यन हो गया है, सब कुछ पटरी से उतर रहा है। व्यक्ति आत्मकेन्द्रित इतना अधिक हो गया है कि उसे लोक और लोकोक्त की कोई विशेष चिंता नहीं है। मंदिर हमारी आध्यात्मिक श्रद्धा का श्रेष्ठतम प्रकल्प हैं, हमारे शुभ भावों का पवित्र निर्झर है, उसका कण—कण हमारे माथे का श्रृंगार है, उसकी हर अंतर मति की नहीं, सोने की है, उसका हर पाषाण पाषाण नहीं, आत्मतत्त्व का भूला—भटका एक भाग है, उसका शिखर, शिखर का कलश, वेदिका, मण्डप, अर्थमण्डप सब कुछ किसी मंदिर से कम महत्वपूर्ण नहीं है। मंदिर में सभी तत्वों का एक समन्वय है, समन्वित रूप है जिसमें हम अपने परम पूज्य आराध्य तीर्थंकर की प्रतिमा को प्रतिष्ठित करते हैं, उनकी पूजा करते हैं और सुबह-शाम, प्रति पल यह मंगल भावना लाते हैं कि भगवान दिगंबर मुद्रा का यह अर्ध्य यह मंदिर कभी गिरे नहीं, एक लंबे समय तक हमारे लिए पूजा का स्थल बने रहे। इसमें प्रतिष्ठित प्रतिमाएं हमारे लिए आदर्श हैं, उनकी प्रति कभी अवमानना न हो सके और उनके मंदिर की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है । उनमें कभी शिथिलता न आये। यह सब हमारी साहित्यिक कैपिटल है, पिटनल है । यदि हम रक्षा नहीं कर सके तो हमारी मानवता का प्रसाद कहां खड़ा रह सकता है? वह इतना धूर्त हो जायेगा कि शायद हमारी पहचान हमारे अस्तित्व को समाप्त करने का कारण न बने, इसका खतरा हमारे सिर पर रहेगा। जिस प्रकार के मंदिर और उसमें प्रतिष्ठित मूर्तियां हमारे लिए पूज्य हैं, उसी प्रकार के निर्माता भी हमारे लिए पूज्य हैं। वह साधु और गृहस्थवर्ग हमारा आदर्श है जिसने हमारे लिए अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण किया है। जय और मंदिर आदि स्थानों पर हमारे सामाजिक तथा पारिवारिक और संप्रदायों, सम्प्रदायों के ज्वलन्त इतिहास के व्यापक अंग हैं। जनेऊ के परख में पौधे यक्ष—यक्षियां हमारी प्राचीन कला और संस्कृति की अमित निशानी है। उनको नष्ट करना—भ्रष्ट करना साधना का अंग नहीं, बल्कि साधना के भंग होने का सशक्त प्रमाण है।
साधु सम्प्रदाय हमारे लिए निरसन्देह पूज्य है
साधु सम्प्रदाय हमारे लिए निरसन्देह पूज्य है, आनंददायक है, शलघ्नीय है। उसकी सीमा और गरिमा को ध्यान में रखना साधु सम्प्रदाय का भी कर्तव्य है। समाज के मन में जो श्रद्धा और भक्ति है उसका अभ्यास नहीं होना चाहिए। एक साधारण त्यागी अनपढ़ या कम सुशिक्षित व्यक्ति भी यदि साधु बन जाता है, तो दिगम्बरत्व धारण करके रखता है, इसलिए समाज उसकी कथित या अंकित रेखा की सीमा के उल्लंघन का साहस नहीं उठा पाता, भले ही वह गलत हो। यह नवीन मंदिर का निर्माण भी साधु समाज की साधना का अंग है। उनकी प्रतिष्ठा बनाने का भी उत्तरदायित्व उसी पर है, जीर्णोद्धार करना भी उनकी सीमा के बाहर नहीं है। एक विशाल परिधि के अनपेक्षित मंदिरों के निर्माण में करोड़ों रुपया लगाना और फिर उन्हें इकट्ठा करना / कराना उसकी साधना का अंग नहीं माना जा सकता है। अभिग्रह का पालन किए बिना लाखों रुपयों की मूल्य नियंत्रण आहार लेना साधना का अंग नहीं है, एक प्रकार का गहन भंग है। समाज का कोई भी व्यक्ति सीधे किसी साधु से यह सब कुछ नहीं कह पाता परन्तु सामाजिक असन्तोष से वह नहीं रहता। मैं बार-बार अपने सम्पादकीय भावनाओं में लिखता आ रहा हूँ कि जीर्णोद्धार की दशा और दिशा क्या वैसी होनी चाहिए। सौ वर्ष से प्राचीन मंदिर पुरात्व की सीमाओं में आ जाते हैं। उनका जीर्णोद्धार तो किया जा सकता है, पर उन्हें गिराया नहीं जा सकता । बिना अनुमति के उन्हें गिराना कानून की दृष्टि में भी अपराध है ही, सांस्कृतिक अपराध भी है। सांस्कृतिक अपराध इसलिए है कि हमारा प्राचीन इतिहास और पुरातनत्व नष्ट हो जाता है और उसके स्थान पर अपनी यशोगाथा लिखने का अविश्वसनीय प्रयास किया जाता है। उदाहरण के तौर पर नागपुर का परवार दी जैन मंदिर लगभग दो सौ साल पुराना था। बहुत मजबूत था। इतना मजबूत कि बुलडोजर ने भी एक बार अपने हैंडस्टैंड कर दिया। त्यागी भवन जो अभी कुछेक वर्षों पहले एक परिवार विशेष के आर्थिक सहयोग से बनाया गया था, वह भी आशीर्वाद की नींव में नेस्तनाबूद कर दिया गया। परवारपुरा मंदिर से बुन्देलखण्ड से आये जैनों का इतिहास जुड़ा हुआ था। आज वह सारा इतिहास चौपट हो गया। बिना सरकारी अनुमति प्राप्त किये और नक्शा पास कराये यह सारा दुष्चक्र एक दुस्साहस का ही परिणाम कहा जा सकता है। समाज के बीच इस सन्दर्भ में काफी घूमना हुआ और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अधिकांश सुशिक्षित समाज मंदिर गिराने के पक्ष में नहीं है, बल्कि कार्यकर्ता के कुशल सदस्यों ने आशीर्वाद लेकर इतने मजबूत मंदिर को धराशायी कर दिया। आज इतना बड़ा प्लाट अपराधियों का अंत हो गया। ऐसा भी लगता है कि निकट भविष्य में यह मंदिर अपना नया रूप सरलता और सहजता से जल्दी नहीं ले पाएगा। जिस भव्य मंदिर की कल्पना समाज को की गई है वह पूरी होती—होते एक अरब की होज।
इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है
इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि नागपुर की जैन समाज संख्या और अर्थ की दृष्टि से बहुत सशक्त और समृद्ध है। परन्तु यहां पर कोई भी जैन महाविद्यालय, अस्पताल, स्कूल या छात्रावास नहीं है। यहां समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो शिक्षा और आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ है। आश्चर्य तो यह है कि साधु सम्प्रदाय का इस ओर पूर्ण ध्यान नहीं जाता । क्यों ? ज्ञानराधना में उसकी कोई अभिरुचि प्रकट नहीं होती। एक और उदाहरण हमारे सामने है पहाड़ का। लगभग बीस साल पहले रामटेक में एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया था। उस समय उसकी लागत लगभग पांच करोड़ थी। यह योजना आज भी अधूरी है और कम से कम पचास करोड़ रूपये लगे हैं। यदि मानसस्तंभ बनाने की योजना बनाई गई तो दस—पांच मंदिर तोड़े बिना यह योजना पूरी नहीं हो सकती । मैंने उस समय भी विरोध किया था और आज भी कर रहा हूँ। रामटेक नागपुर से ३ किमी. दूर है, तहसील है, वहां कोई अच्छा अस्पताल नहीं है और कोई कॉलेज नहीं है । यदि अस्पताल या कॉलेज स्थापित कर दिया जाए तो अधिक पैसा देकर वहां अधिक उपयोगी होता है। अभी तो दर्शन करने वालों की संख्या भी अधिक नहीं है। बहुत बड़े—बड़े प्रकल्पों में समाज में भ्रष्टाचार भी पेंशने लगता है। अधिकारी या उनके चेहरे के नाम से नये—नये समाजिक हो जाते हैं। ब्रह्मचारी वर्ग और प्रतिष्ठाचार्य कमीशन खाने में जाता है। दान का आधा पैसा तो योन ही बरबाद हो जाता है। यह कहानी यही की नहीं, जबलपुर, कुंडलपुर, नेमावर आदि सभी स्थानों की है। मंदिर और दान का पैसा खाने में ऐसे लोगों को सुरक्षित नहीं होता! उनका मोबाइल चेक किया जाए तो यह स्थिति अधिक स्पष्ट हो जाती है। अनपेक्षित नवनिर्माण के कारण साधु सम्प्रदाय मानसिक तनाव से भी जूझता रहता है। वह राग द्वेष के जंजाल में फंसता चला जाता है। उससे सामाजिक खोज भी मिलती है। गोलापूर्व —परवार, खंडेलवाल—परवार, खंडेलवाल — अग्रवाल समाज के बीच अन्यमनस्कता बढ़ने लगती है। साधु—संघों के बीच परोपकारी उभरने के कारण, साधु की खरीद—फरोख्त झाड़ी हो जाती है आदि के माध्यम से। संघों से संबद्ध ब्रह्मचारी भैयावर्ग की अर्थ लोलुपता भी समाज में विरोध के स्वर गूंजती है। जैन कला और पुरातत्व के विध्वंसक की कहानी कदाचित देवगढ़ से शुरू होती है। इसका विस्तार ललितपुर, जबलपुर, नागपुर आदि नगरों तक हो जाता है। अभी—अभी पता चला है कि बजरंगगढ़ और गुना के प्राचीन मंदिर भी टूटे हुए हैं। इस पतन से तेरापंथ और बीसपंथ का विवाद उभर कर सामने आ रहा है। सामाजिक समरसता भी धूल धूसरित हो रही है। शासन देवी—देवता पूज्य हैं या यह विषय यहां अप्रासंगिक है पर कला और पुरातत्व से उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता है। शीर्ष से यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का अंग है और एक बहुत बड़ा वर्ग उसका पुजारी है। यदि उन्हें कचरा—कचरा मानकर बाहर फैक दिया जाए तो एक वर्ग—आवशेष का मन आहत होगा और द्विपक्षीय स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। सामाजिक असन्तोष के इन कटिपय मुद्दों की ओर हमने यहां मात्र संकेत किया है। समाज का अधिकांश वर्ग एक भीड़ का रूप है और भीड़ का कोई धर्म नहीं होता। उसमें समझ इस तरह की नहीं रहती । उसे श्रद्धा, भक्ति के मूल से बांध दिया जाता है, यशोगाथा और पाषाण पर नमोत्कीर्णन का पूर्ण करके धन इक्ट्ठा कर लिया जाता है। वह देखता है, सोचता है—आकवचता है पर संदेह और भय के कारण कुछ कह नहीं पाता । जो कहता है,उसे विरोध और धमकियों का सामना करना पड़ता है। मेरे पास तो धमकिया भरे फोन आते रहते हैं। सोचता हूँ उन्हें पुलिस के सामने बहुत कुछ छिपा कर रखा जाता है।
मुझे लगता है अब अपनी कला
मुझे लगता है अब अपनी कला और पुरातत्व के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए कुछ प्रकल्प शुरू किये जाने चाहिए। हमारा साधु सम्प्रदाय इस क्षेत्र से सम्पूर्ण अनभिज्ञ है। वह कला और पुरातत्त्व का महत्व नहीं जानती और न ही समाज में ज्ञान चेतना का विस्तार करना चाहती है। वह भूल जाता है कि पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी ने जो विद्यालय और महाविद्यालय स्थापित किये थे, उनसे कितना सामाजिक अभ्युत्थान हुआ है। आज भी ऐसे प्रकल्पों की आवश्यकता है जो सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर कर दें। वर्णीजी के नाम से द्वेषग्रस्त होने में कोई सहायता नहीं होती बल्कि उनका नाम और काम प्रेरक सूत्र बन जाता तो अधिक अच्छा होता। मंदिरों के विध्वंसक को रोकने के लिए अब सामाजिक जागरूकता का होना नितांत आवश्यक है। अब समाज का क्रांतिकारी परिवर्तन हो रहा है, ऐसे साधु समाज का खुलकर विरोध कर रहे हैं जो मंदिरों की तोड़-फोड़ करने का पक्षधर है। धीरे-धीरे यह एक व्यवसाय का रूप ले रहा है जो हमारी प्राचीन विरासत को पंथवाद से घसीटकर नष्ट कर देगा। महासभा में भी इसी प्रकार के दुस्साहस का विरोध किया जाता है। महामहिम श्री निर्मल कुमार सेठी ने वास्तु शास्त्र आदि के प्राचीन मंदिरों को तोड़ने के लिए घनघोर चिंता व्यक्ति की स्थापना की है। मुझे अब लगता है, साधु सम्प्रदाय और साधारण गृहस्थ वर्ग में अभी भी पुरातत्त्व के महत्व को नहीं जाना जाता है। उनमें जागरूकता पैदा करने के लिए एक पुरातनत्व स्कूल की स्थापना की जानी चाहिए जो समय पर समाज के बीच जाकर या शिविर लगाकर कुछ नई चेतना जागृत करें, उसे शिक्षित करें। प्राचीन तीर्थंकर पत्रिका यह काम एक विशेष स्तर के साथ कर रही है। उसमें भी एतद्विषयक एक स्तम्भ होना चाहिए। पहले अपने अधिकारी में देखने का प्रयास करें, तब कहीं समाज में उसकी क्रियान्वित रूप में सामने आ सकता है। इस सम्पादकीय भावना से किसी वर्ग विशेष की आलोचना करने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं है। पर वस्तुस्थिति को सामने रखना चाहता हूँ।