उड़ीसा की वर्तमान राजधानी भुवनेश्वर के समीपवर्ती खंडगिरि
उदयगिरि तीर्थ से दक्षिण की ओर स्थित एक गुफा में १७ मील का यह शिलालेख भारत के प्राचीन शिलालेखों में से एक है। भारतीय इतिहास, काल एवं ईसा पूर्व की घटनाओं के विश्लेषण की दृष्टि से इसका विशेष महत्व है। प्रस्तुत लेख में श्वेताम्बर प्राचीन मान्य जैन साहित्य में उपलब्ध सन्दर्भों के आधार पर इसका विशेष सांस्कृतिक महत्व प्रतिपादित किया गया है।
संस्कृति का स्वरूप
जैन परम्परा के अनुसार मानव का विकास प्राकृतिक संघर्ष से हुआ है। भोग भूमि से संक्रमण कर कर्मभूमि का ताप ही है कि उसे शीत, ऊष्णता, ताप, वर्षा, क्षुधा, सापेक्षता आदि से संघर्ष करना पड़ता है और फलत: उसने इन प्राकृतिक शक्तियों को अपने अनुकूल भौतिक समृद्धि में पर्याप्त वृद्धि की। वर्तमान में रेल, उपकरण, तार, वायुयान आदि का भी विकास हुआ है। यह सब विकास सभ्यता की देन है। जिस प्रक्रिया से मानव और प्रकृति के विविध तत्वों में समायोजन होता है वह सभ्यता कहलाती है। इसमें मानव बाह्य प्रकृति से संघर्ष कर अपना जीवन-स्थिति उत्पन्न करता है और फिर अन्तर्जात एवं आनुवंशिक प्रदेश के विविध तत्वों में भी समायोजन कर सुसंस्कृत होने का प्रयास करता है। मालिनोबस्की ने तो समस्त सामाजिक आदर्शों को संस्कृति की दिशा में रखा है। आर्थिक संगठन, विधि और शिक्षा संस्कृति की समन्वयात्मक विशेषताएं हैं और जादू-टोना, धर्म, ज्ञान और कला संस्कृति की समन्वयात्मक विशेषताएं का सम्मिलित रूप ही है। जब प्रकृति—विजय में उसे प्रयत्न करना पड़ता है तो उसे ‘सभ्य’ होने की आवश्यकता होती है। सामाजिक, आर्थिक, यांत्रिक और राजनीतिक जीवन से अधिक समृद्ध करना ही सभ्यता का महान उद्देश्य होता है। स्वस्थ्यजीवन ही सामाजिकता का मूल है। आवश्यकता की संस्कृति में संस्कृति की आवश्यकता होती है। राज्य का संबंध इसी प्रकार की सभ्यता से है तथा समस्त मानव के विकास के साथ होता है। बाहरी मूल की संस्कृति को बढ़ावा देना और उस पर जन-समुदाय का राजकीय नियंत्रण होना एक सभ्यता का पहलू है। सभ्यता की यह उन्नत संस्कृति पूरी कर देगी। संस्कृति का विषय सुसंस्कारों से होता है। अच्छे संस्कारों के परिणाम और भाव को ही हम ‘संस्कृति’ कहते हैं। सम्पूर्ण चरित्र, कर्म और संस्कारों का समुच्चय ही मनुष्य का व्यक्तित्व होता है। इसी को ‘शील’ कहा जाता है। प्रकृति का दुरुपयोग करने से विकृति आती है और उस विकृति को दूर करने के लिए संस्कृति की आवश्यकता होती है। उसी को धर्म कहा जाता है। इन्द्रियग्राह्य सुखों से ऊपर उठकर परमानन्द का अनुसंधान करना संस्कृति का काम है। संस्कृति ही जीवन के ध्येय को सुनिश्चित करती है। धर्म, संस्कृति का प्रथम सोपान है। उसी से व्यक्ति की सुरक्षा होती है।
सिनेमा और संस्कृति
सामान्य व्यवहार में ‘संस्कृति’ और ‘सभ्यता’ शब्दों का बहुधा समान अर्थ में प्रयोग दिखाई देता है। पर स्थिति ऐसी नहीं है। संस्कृति उन गुणों का समुदाय है जो व्यक्तित्व को समृद्ध और परिष्कृत बनाते हैं। चिंतन और कलात्मक सर्जन की वे क्रियाएँ संस्कृति में आती हैं, जो मानव जीवन के लिए प्रत्यक्ष रूप से उपयोगी और समृद्ध होती हैं। इसमें शास्त्र और दर्शन का चिंतन, साहित्य, ललित कलाएँ आदि का समावेश होता है। इसके विपरीत, सभ्यता में उन आविष्कारों, उत्पादन के प्रमुख, सामाजिक, राजनीतिक आदि की गणना होती है, जिनके द्वारा मनुष्य की जीवन-यात्रा चलती है। संक्षेप में संस्कृति मनुष्य का व्यवहार है और सभ्यता उसकी क्रियाकलाप है। व्यक्ति का संरक्षण अकेले से नहीं हो सकता। उसे समाज की आवश्यकता होती है। क्षमा प्रार्थी— क्षमा द्वारा ही व्यक्ति की क्षमा की जाती है। इस रूप में समष्टिगत और परमार्थ भाव से कार्य करने की जो प्रवृत्ति होती है, उसी को हम संस्कृति कह सकते हैं। शुद्ध परमार्थ भाव से किये गये कार्य ही संस्कृति के अंतर्गत आते हैं। स्वार्थ की ज़िंदगी में दूसरे की भी हानि नहीं होनी चाहिए। स्वार्थी और परमार्थ में सुन्दर सद्भाव बनाये रखना संस्कृति का प्रथम उद्देश्य है। संस्कृति में आत्मिक प्रवृत्तियों का प्रचलन होता है। यह आध्यात्मिकता और आत्मनिष्ठता का पोषण करती है। आत्मा से परमात्मा बनने का मार्ग प्रशस्त करती है और नैतिक तथा कलात्मक चेतना को जन्म देती है। संस्कृति का संबंध मानव के स्वरूप से है, श्रेय से है, सत्य और सृजन से है।
कला एवं संस्कृति
मनुष्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ और विवेकशील प्राणी है। अत: वह नई—नई चीजों को जानने—समझने के प्रयास में निरंतर लगा रहता है। वह केवल वर्तमान को जानने का ही प्रयत्न नहीं करता अपितु अपनी प्राचीन संस्कृति को भी जानने के लिए निरंतर समुत्पादक रहता है। प्राचीन संस्कृति का ज्ञानोत्सव, स्मारकों तथा मुद्राओं के माध्यम से होता है। वैसे भी सबसे अधिक विश्वसनीय और प्रमाणिक स्रोत है—अभिलेख। इतिहास में अभिलेखों से अपेक्षित सहायता प्राप्त होती है, तथा किसी साहित्य का व्यवस्थित अध्ययन करने के लिए अभिलेखों का सर्वोत्तम साधन होता है। ताड़पत्र या कागज पर लिखे हुए साहित्य का लोप होने की संभावना रहती है, क्योंकि पत्थर या धातु पर खुदे हुए लेख सैकड़ों-हजारों वर्षों के बाद भी उसी रूप में विद्यामान रहते हैं। रॉकी प्राकृत का काल ई. पू. से पंच ई. नाम सात सौ वर्षों तक का लम्बा समय है। इस लम्बे कालखण्ड में उपलब्ध सभी घटनाओं की संख्या लगभग दो हजार है। ये कुछ पंक्तियाँ लम्बी और कुछ एक ही पंक्तियाँ के होते हैं। प्राकृत भाषा का अध्यायी साहित्य अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्राप्त शैल भाषा और साहित्य की दृष्टि से संस्कृत भाषा के शैलों की अपेक्षा कई बातों में विशिष्ट हैं। उपलब्ध रॉकी साहित्य प्राकृत भाषा के सबसे प्राचीन हैं। प्रथम से दुष्ट सन् की प्रथम शती तक के समस्त शिलोलोक प्रिय: प्राकृत में ही हैं। किसी व्यक्ति विशेष का केवल योगदान ही निबद्ध नहीं है, बल्कि मानवता के पोषक सिद्धान्त भी अंकित हैं। दूसरी बात यह है कि साहित्य एवं संस्कृति के व्यवस्थित अध्ययन की परंपरा सबसे अधिक अध्यायों में सुरक्षित रहती है। क्योंकि आधार साहित्य में किसी भी प्रकार का संशोधन या परिवर्तन सम्भव नहीं है। शिलापट्टों पर शाश्वत साहित्य समय के शाश्वत प्रवाह में तदर्थता रहती है। यही कारण है कि किसी भाषा और साहित्य की परंपरा का अध्ययन करने के लिए चरित्र आवश्यक होता है। अशोक के बाद इस युग के शिलालेखों में खारवेल की हाथीगुम्फा शिलालेख, उदयगिरि और खंडगिरि शिलालेख एवं पश्चिमी भारत के आंध्र प्रदेश के शिलालेख साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
राजा खारवेल एक परिचय
इस राजा का एक राजा था जो चेदिवंश का वर्णन करता है। बीसवीं सदी के युग में वह गद्दी पर बैठा और अपने राज्य के विस्तार में लग गया। उसने दक्षिण और पश्चिमी राज्यों पर आक्रमण करके उन्हें अपने अधीन कर लिया। १८५ ई. पू. मगध के राजा को भी उसके हाथों परास्त होना पड़ा। मथुरा के सातवाहन वंशी राजा पर भी खारवेल ने विजय प्राप्त की। यह जैन धर्मावलम्बी राजा के संबंध में उड़ीसा के उदयगिरि में शिला से जानकारी प्राप्त हुई है। किंलग उड़ीसा (उत्कल या उदार) की प्राचीन नगरी रही है। उड़ीसा, ओड्र का अपभ्रंश रूप है जो पहले प्रदेश के एक छोटे से भाग का नाम था। मध्यकाल में वह समुदाय उड़िया मूल प्रदेश की संज्ञा बन गई है, जो बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, हैदराबाद और मद्रास के वासिओ में सम्बद्ध रहा है। पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर और वड़ा जिले तक फैला यह किला देश के दक्षिण में गोदावरी है – कृष्ण के दो आब को अपनी सीमा में समाहित था, उत्तर में गंगा -ब्रह्मपुत्र की घाटियाँ, पूर्व में हिंद महासागर से सुरक्षित बंगाल की खाड़ी में, पश्चिम में बस्तर और पृष्ठभाग पर्वतीय चट्टानों से सुशोभित था। उत्तरपथ और दक्षिणपथ के प्रवेश द्वार के रूप में इस प्रदेश ने उत्तर और दक्षिण के बीच सांस्कृतिक संपदा को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। किंलग प्रदेश तीनवट में विभाजित हो रहा है – ओड्र उत्कल और किंलग। ये नाम यहाँ के स्वर्ग के आधार पर पड़े हैं। मत्स्य पुराण में ओद्र जाति को विंध्यवासी बताया गया है और भगवान ने ओद्र को देश के रूप में स्वीकार किया है। महाभारत के अनुसार ओद्र देश के राजा युधिष्ठिर के यज्ञ में आये थे। उत्कल भी एक जनपद था जिसे कर्ण ने दुर्योधन के लिए उपलब्ध कराया था। मत्स्य पुराण के अनुसार यह सुद्युम्न के पुत्र उत्कल ने बसाया था। किंलग का संबंध अमरकंटक से भी रहा है। महाभारत में किन्नरों के अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिनमें श्री कृष्ण , परशुराम , युधिष्ठिर , भीम आदि का संबंध मिलता है। यहाँ वर्णाश्रम नष्ट हो गया था और यह भी कहा गया है कि यहाँ श्राद्ध करके पितरों को प्राप्त नहीं किया गया था। इससे पता चलता है, किंगलग पर श्रमण संस्कृति का जबर्दस्त प्रभाव था। जैन उपांग प्रज्ञापना सूत्र में किंगल के कंचनपुर का उल्लेख एक राजधानी के रूप में मिलता है। बाद में इसी को भुवनेश्वर नाम दिया गया है। हाथीगुम्फा पर्वत में तो कलिंग नगर का उल्लेख आता है। अन्य चट्टानों में भी कलिंगाधिपति का उल्लेख हुआ है। तोसल, कोंगोड़ा, त्रिकिंलग आदि नाम भी इस प्रदेश के मिलते हैं। ओद्री मगधी यहाँ की भाषा रही है।
भरतनाट्य शास्त्र के अनुसार तीसरी शताब्दी से इस प्रदेश में प्राकृत का प्रभाव बहुत रहा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जिन तीन राजाओं के शासन के बाद महापद्मनन्द ने उस पर अधिकार किया। वह सबसे प्रभावशाली राजा था। इसलिए इसे नन्दवंश का प्रथम क्षत्रप कहा जाने लगा। इसी क्रम में खारवेल का तीसरा राजवंश था जिसने किले पर शासन किया था। बौद्ध परम्परा के अनुसार आठ कालेशोक के बाद मगध नवनन्दों का शासन रहा। महाबोधिवंश में इनका नाम उग्रसेन प्रथम शासक था। उनकी पहचान महापद्मनन्द से की गई है। वहाँ उसे शूद्रास्त्रोद्भव कहा गया है। परिशिष्ट पर्वन् में उसे नापित कुमार माना गया है। पर आगे की कथा में उसे क्षत्रिय सिद्ध किया जाता है। उन्हें महापद्मपति ओर उग्रसेन भी कहा गया है। महापद्मनन्द के पूर्ववर्ती शासक महानन्दिन भद्रबाहु के साथ दिगम्बर जैन मुनि दक्षिण की यात्रा पर चले गए थे और महापद्मनन्द ने उत्तर—दक्षिण में अपना राज्य स्थापित किया। वह मन्त्री सक्षम और सुरक्षित थे। शकडाल के दो पुत्र थे—स्थूलभद्र और श्रीयक। शकडाल की मृत्यु के बाद स्थूलभद्र को मन्त्री पद दिया गया पर उसने स्वीकार नहीं किया। वह जैन साधु हो गया। पुराणों में नंदों को अर्धमिक कहा गया है, संभवतः इसलिए वह जैन वंश था। चाणक्य और चन्द्रगुप्त के कौशल से नन्दवंश का पतन हुआ और मौर्यवंश की स्थापना हुई। नवनन्दों के शासन काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना भारत पर सिकंदर का आक्रमण था। इस समय जैनधर्म बहुत लोकप्रिय हो चुका था। युनानियों ने जैन साधुओं को जिम्नोसोफिस्ट या जिम्नेताई नाम से सम्बोधित किया। विभिन्नताई और मूलाई नाम भी उनके यात्रावृत्त में मिलते हैं जो प्रतिष्ठित हैं: व्रत्य और आराध्य हैं और जैन परंपरा से जुड़े हैं। कल्याण नामक एक जैन साधु सिकंदर के साथ बाबुल भी चला गया था। उन जैन साधुओं को वनवासी (हिलोबाई) कहा जाता था। वनवासी दिगंबर जैन श्रमणों के अतिरिक्त खंडवस्त्र धारी, त्यागी क्षुल्लक, ऐलक और ब्रह्मचारी भी थे जो अनुरूप धर्मोपदेश देते थे। यह तथ्य हाथीगुम्फा चट्टान से पुष्ट होता है।
खारवेल की तिथि
खारवेल के साथ अधिपति, चक्र जैसी उपाधियों का प्रयोग हुआ है, लेकिन बाहरी किसी संवत् वगैरह का प्रयोग नहीं हुआ है, जिससे खारवेल की तिथि निश्चित की जा सके। उसकी तिथि को निश्चित करने के लिए हमें आंतरिक और बाहरी साक्ष्यों की ओर ध्यान देना होगा। इन सन्दर्भों में हाथीगुम्फा आकृति में आये ति—वस—सत (पंक्ति ६) पद पर ध्यान देना आवश्यक है। पं. भगवान लाल इंद्र जी कदाचित प्रथम विद्वान रहे हैं जिन्होंने खारवेल की तिथि का सम्यक तिथि करने का प्रयास किया। वह हाथीगुम्फा शिला के गिरने की तिथि खारवेल के राज्यारोहण के तेरहवें वर्ष मानी जो मौर्य सं. सोलह पाँच हो सकता है। उन्होंने कहा कि पुराने शब्द के ‘संत’ को सत्रा का पर्यायवाची मानकर नंदराज के त्रिवर्षीय सत्रा के उद्घाटन की बात कही। अशोक ने किला विजय २. पू. में की थी। अत: खारवेल का राज्याभिषेक इन्द्र जी की दृष्टि में १०३ ई. पू. में हुआ। फ्लीट, ल्यूडर्स ने ‘ति—वस—सत’ का अर्थ १०३ वर्ष मानकर कहा कि खारवेल नन्दराज का अंतिम समय ३२३ ई. पू. रहा अत: खारवेल का राज्याभिषेक २२४ ई. पू. होना चाहिए। भगवान और परमेश्वर ने प्रथमतः उसका अर्थ पांच वर्ष किया, पर बाद में उन्होंने उसे दसवें वर्ष का द्योतक माना। हाथीगुम्फा की सोलहवीं पंक्ति में ‘मुरियाकाल’ को कटिपय विद्वान ने ‘मुरियाकाल’ कहा है। सरकार, वरूआ, घोष आदि पत्रिकाओं ने अपने आधार पर खारवेल की तिथि प्रथम शती ई. पू. तय की है। खारवेल की तिथि निश्चित करने में आये सातकर्णी, बृहस्पतिमित्र और यवनराज दिमित्र पर भी विचार करना आवश्यक है। डॉ. राय चौधरी और भंडारकर ने पौराणिक कथाओं में सातकर्णी का समय १२ ई. में वर्णित किया गया है। पू. माना और उपयुक्त खारवेल का राज्याभिषेक काल १४ ई. पू. निश्चित किया गया। उन्होंने अपने राज्यकाल के दूसरे वर्ष में सातकर्णी की चिंता किये बिना ही पश्चिम की ओर अपनी सेनाध्यान दी थी। इसके आधार पर खारवेल की तिथि सामान्य तौर पर इस प्रकार निर्धारित की जा सकती है— जन्म — ९ ई. पू. (२४ +१६ + ९ नौ इ. पु.) युवराज पद — नौ इ. पू. (२४ + ९ व्य) राज्याभिषेक — २ इ. पू. यह निश्चित हो जाने पर प्रश्न उठेगा तो ‘तेरस—वस—सत’ का अर्थ तेरहवें वर्ष होना चाहिए, तेरहवें वर्ष नहीं। खारवेल के राज्यकाल में सोलह सौ वर्ष तक प्राचीन राजाओं के संघ की स्थिति संभव नहीं दिखती।अत: यहां ‘तेरस—वस—सत’ का जन्म तेरह वर्ष होगा।
विद्याओं की पढ़ाई
विद्याओं का अध्ययन करना राजकुमार का धर्म है। पराक्रमी गुणसम्पन्न, गौरवर्णी राजकुमार खारवेल ने पन्द्रह वर्ष की अवस्था तक बाल्यकाल में आनन्दपूर्वक जन्म लिया। इसके बाद उन्होंने लेख रूप, गणना, व्यवहार और धर्म में निष्णात अनुसार सभी विद्याओं से परिशुद्ध होकर नौ वर्षों तक युवाराज्य से प्रेरित (पंक्ति—२) किया। यहाँ ‘लेख’ का आधार मात्र अक्षरज्ञान या लिपी नहीं बल्कि ”लेख विशारद” विद्वान होने की ओर संकेत करता है। लेख की गिनती मूलतः कलाओं में होती है। पत्र, बल्कल, काष्ठ, दन्त, लोहा, ताँबा, रजत आदि पर लिखी गई विधि के ज्ञान के साथ ही राजमुद्रा कूटलेख आदि का ज्ञान भी इसके भीतर आता है। लिपियों के भी १८ प्रकार के भेदों का उल्लेख मिलता है—ब्राह्मी, खरोष्ठी, गंधर्व, दामिली आदि। ‘रूप’ का मूल अभिनय नहीं बल्कि मुद्रा है। भगवान ने उसे रूप्य के साथ समीकृत किया है। जोगेश्वरी गुहा अभिलेख में मुद्रा अधिकार के रूप में ‘लुपदखे’ शब्द का प्रयोग अर्थशास्त्र में भी इसी प्रकार के अर्थ में किया गया है तथा उपासकदशांग आदि जैन ग्रंथों में भी इसी प्रकार का सन्दर्भ मिलता है। इसका अर्थ विस्तार करने पर हम इसे मुद्राशास्त्रज्ञ होने की कला भी कह सकते हैं। विभिन्न प्रकार की मुद्राओं का ज्ञान शासक होना भी चाहिए। ‘गणना’ का अर्थ ‘गणना’ ने गणित किया है। अशोक के तीसरे लेख और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी गणना का अर्थ किया गया है। उत्तराध्ययन में इसके लिए ‘संख्यान’ शब्द का प्रयोग किया गया है। व्यवहार विधि का अनुवाद ‘व्यवहार’ की प्रक्रिया पर किया गया है: इसका अर्थ है प्रामाणिक (व्यवहार) की प्रक्रिया। जैनग्रन्थ व्यवहार भाष्य में इसके लिए ‘कारणिक’ शब्द का प्रयोग किया गया है। अर्थशास्त्र के किंगल लेख में भी यही अर्थ है। ”सव—विजा” का आधार सभी प्रकार की विद्याएँ हैं। उत्तराध्ययन सूत्र की टीका में १४ प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है—छ: वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र। जैन मूल में अनेक प्रकार की विद्याओं का उल्लेख है। गौरी गांधारी रोहिणी और प्रज्ञप्ति । ऐसी और भी बहुत—सी विद्याओं के नाम मिलते हैं। विद्याधर ऐसी ही विद्याओं को धारण करने वाले होते थे। मन्त्र—तंत्र शास्त्र भी इसकी सीमा में आते हैं। उनकी सिद्धि की भी एक प्रक्रिया रही है। शुभाशुभ शकुन वगैरह का ज्ञान होने से भी विद्या के प्रभावित होता है।
हाथीगुम्फा अभिलेख
एक
खारवेल के अभिलेख सबसे अधिक: अप्रत्याशित रहे हैं। उदयगिरि — खण्डगिरि के दक्षिण की ओर एक विस्तृत लाल बलुवे पत्थर की प्राकृतिक गुफा पाई जाती है। यह प्रचलित वर्गफुट में फैली हुई है। इसमें हजारों अक्षर होते हैं और प्रत्येक पंक्ति में से सौ अक्षर होते हैं। ये अक्षर जल के रिसने से कट गए हैं, बर्रों और चट्टानों से भ्रम उत्पन्न कर रहे हैं, शिला को समतल करने के प्रयास ने अनेक प्रसंगों की बेढंगी आकृतियाँ बना दी हैं और आकृति का काफी समय की स्वाभाविक गति से नष्ट कर दिया है—भ्रष्ट हो गया है। प्रथम पाँच पंक्तियाँ अधिक सुरक्षित हैं, सात से तेरहवीं पंक्ति का दं ओर का बहुभाग नष्ट हो गया है, सात से दसवीं पंक्ति के पहले दो—तीन अक्षर स्पष्ट दिखते हैं, सातवीं पंक्ति लगभग नष्ट हो चुकी है, शेष अन्तिम चार मोतियों के पहले दस —बारह शब्द विकृत हो गए हैं। सोलहवीं—सत्रहवीं पंक्ति के बारह अक्षर सोलह … हाथीगुम्फा पत्थर की खोज का श्रेय स्टर्लिंग को जाता है, जिसने १८२० में उसकी सर्वप्रथम प्रतिलिपि की और १८२५ में उसे प्रकाशित किया। बाद में किट्टो द्वारा तैयार की गई छाप जेम्स प्रिंसेप ने १८४७ में छपाई की जिसे १८७७ और १८६६ में अंकित किया: किन्नघम और राजेन्द्र लाल मित्रा ने अपने—अपने संग्रहों में प्रकाशित किया। १८६६ में भगवान लाल इन्द्रजी ने एक लेख का पाठ प्रस्तुत किया। उसके बाद उस पर वुल्नर, कीलहॉर्न, ल्यूडर्स, राखलदास पर्वत, स्टेनफोनो, वास्तुकला आदि ग्रंथों का उल्लेख किया गया। इसके बीच चट्टानें भी नष्ट हो गईं। पादरी और पर्वत ने काफी परिश्रम के बाद १९६६ वर्षों में उसका पुन: अन्तिम प्रारूप तैयार किया, जो आज सभी के सामने है। अभी भी उसे अंतिम नहीं कहा जा सकता है। विवाद होना स्वाभाविक है। प्रस्तुत आकृति जैनधर्म का उल्लेख करने वाली प्राचीनतम आकृति है। खारवेल और उसका परिवार स्वयं उसका भक्त था। जैन परम्परा की दृष्टि से किंगल, मगध, पाटलिपुत्र, पिथुण्ड आदि नगरों की महत्ता पर तो प्रकाश पड़ता ही है, साथ ही जैन सम्राटों के कल्याणकारी कृत्य भी उजागर होते हैं। जैन कला और संस्कृति की दृष्टि से भी यह शैलियाँ महत्वपूर्ण हैं
खारवेल के पोर्टल की भाषा
खारवेल के संस्थापक की भाषा प्राचीन शौरसेनी या जैन शौरसेनी है। यद्यपि इस आकृति में प्राचीन शौरसेनी की समस्त प्रवृत्तियाँ अंकित नहीं होती, अतः इसमें किसी भी प्रकार की विप्रतिपत्ति नहीं होती, खारवेल का यह स्वरूप भारतीय इतिहास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इससे ज्ञात होता है कि नंद के समय में उत्कल या किंगल देश में जैन धर्म का प्रचार हुआ था और आदि जिन की प्राचीन पूजा होती थी। किलग जिन पौराणिक कथाओं को नन्द उड़ीसा से पटना उठा लाए थे और सम्राट खारवेल ने मगध पर कई बार प्रार्थना करके बदला चुकाया और अपनी विरासत की कथाओं को वापस ले गए। खारवेल ने अपने प्रबल पराक्रम द्वारा उत्तरापथ में पाण्ड्य—देश तक अपनी विजय वैजयंती लहरी थी। उन्होंने एक वर्ष विजय के लिए अध्याय लिखा था और दूसरे वर्ष महल बनवाता, दान देता और प्रजा के हितार्थ में अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए थे। इस पहाड़ का समय ई. पू. सौ है। इसमें शौरसेनी प्राकृत प्राप्त है जो प्राकृत की एक निश्चित प्राचीन परंपरा है।
हाथीगुम्फा आकृति में निहित सांस्कृतिक तत्त्व
देशप्रेम : हाथीगुम्फा शिला में किंगलग जिन का उल्लेख है। नंदराज जिस प्रतिमा को किले से ले गया था, खारवेल उस प्रतिमा को किले में वापस ले आया। नन्दराजनीतं च को किन्गलग—जिनं सेनिर्वसं यह रतनान पडिहारेहि अंशमागध्वसुं च नेयाति। (पंक्ति—१२) यह किंगलगिन की रमित किसकी होनी चाहिए। इस पर कोई तर्क नहीं है। खारवेल शिला के अतिरिक्त अन्य कोई साहित्यिक उल्लेख भी देखने को नहीं मिलता। डॉ. इस तीर्थ को संरक्षक और पर्वत ने दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ की तीर्थ के रूप में अर्पित किया है। उनका जन्म भद्दिलपुर में हुआ था। यह भद्दिलपुर किले का भद्राचल या भद्रपुर होना चाहिए। यह नगर गोदावरी जिले में विद्यामान है। हज़ारी बाग के आसपास भी एक भड़िया ग्राम है। आवश्यक निर्युक्ति १४ के अनुसार वह मलय जनपद की राजधानी थी। जैनर्मूति परंपरा की दृष्टि से किंगल जैनर्मूति का विशेष स्थान है। इसकी पहचान के बारे में बाद में सृष्टि ने अपना मत व्यक्त किया कि उदयगिरि खंडगिरि अनन्त गुहा में स्थित पार्श्वनाथ और महावीर के लांछन पाये गए हैं। लेकिन महावीर का लांछन सिंह, जय, विजय और अनन्त गुफाओं में छिपता से पाया जाता है। अत: किंलग जिन महावीर होना चाहिए।
भक्त
खारवेल जैन धर्म का अनन्य भक्त था। उनके समूह में हाथीगुम्फा मंदिर उनकी भक्ति धारा से प्रकाश देता है। हाथीगुम्फा में णमोकार मंत्र के दो पद मिलते हैं—’णमो अरहंताणं णमो सर्वसिद्धनं’। शिला पर उत्पन्न अणुव्रत का यह प्राचीन रूप है। लेख की छायाप्रति देखने से ऐसा लगता है कि लेख में नाम नहीं है, जैसा कि पत्रिका ने पहले पढ़ा है। यह उदर मागधी और शौरसेनी प्राकृत की विशेषता है। मंत्र का यह उच्चरित संक्षिप्त रूप है। इसकी रचनाएँ लगभग उसी काल के प्राचीन ग्रन्थ षट्खण्डागम में मिलती है। णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्ज्याणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। इसमें पाँच पद हैं। वर्तमान में यही रूप सर्वाधिक मान्य है। भगवती सूत्र में यही इस रूप में है नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आय्रियाणं, नमो उवज्ज्याणं, नमो सव्व साहूलं। उसी के पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में ‘नमो सूर्यदेवयाए भगवे’ भी मिलता है। इनके अतिरिक्त ‘नमोबंभीए लिवए’, ‘नमो सुयस्स’ जैसे पदों को प्रतिष्ठियापित किया गया है। अभयदेव सूरि ने भगवती सूत्र की वृत्ति के प्रारंभ में इस महामंत्र की व्याख्या भी की है।
राजा एवं राजनीति
जैन धर्म के वातावरण में सुसंस्कृत और समृद्ध राजकुमार खारवेल के यथार्थ रूप को भलीभाँति हृदयंगम किया गया था। उन्होंने बृहस्पतिमित्र, सातकर्णी, नंदराज आदि राजाओं को पराजित कर अपने देश की समृद्धि पर भी ध्यान दिया था। उनकी जयंती में उनके अभिषेक की तुलना वेन के पुत्र के अभिषेक से की गई है। खारवेल के समूह में प्रजनानुरंजन—पद्धति का ही उल्लेख हुआ है। अभिषेक के प्रथम वर्ष में ही खारवेल ने तूफान से हुए नुकसान के कारण गोपुर दुर्ग और अट्टालिकाओं का जीर्णोद्धार किया, ऋषि खिबर नामक झील का निर्माण किया, तालाब बनाये और उद्यानों से नगरों को सुशोभित किया। इसमें पैंतीस लाख मुद्राओं का व्यय कर प्रजा का पालन किया गया। तीसरे वर्ष भी खारवेल ने नाटक, नृत्य, गीत, विवाह आदि द्वारा उत्सव और समाज का आयोजन किया। यह समस्त प्रेरणा कदाचित सातकर्णी को पराजित करने के उपलक्ष्य में व्यय सर्वोपरि होगा। चौथे वर्ष में राष्ट्र और भोजों से चरण वंदना की गई और फिर पांचवें वर्ष में नंदराज (महापद्मनन्द) द्वारा पूर्ववर्ती वर्ष में तृणसूर्यमार्गीया प्रणाली को अपनी राजधानी तक ले जाया गया। छठे वर्ष में राजसूय यज्ञ किया गया और सब कुछ माफ कर दिया गया। उसने और प्रजा ने एक दूसरे पर कृपा की। सातवें और आठवें वर्ष में भी कल्याणकारी कार्य हुए। आठवें वर्ष में गोरथामिति पर आक्रमण किया गया। राजगृह पर आक्रमण और जैनतीर्थ मथुरा को यक्षों से मुक्त कराया गया तथा वहां से कल्पवृक्ष , अश्व , हाथी, रथ आदि लेकर अपनी राजधानी वापस आई। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि खारवेल के राज्यकाल में ब्राह्मणवर्ग को काफी सम्मान दिया जाता था। इसी प्रकार यह भी स्मरणीय है कि आहत पर्वतों को प्रजा में फैलाया जाता था। नववर्ष में महाविजय नामक विशाल राजभवन का निर्माण हुआ और ग्यारहवें वर्ष में पितुण्ड की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए यहाँ गर्दभों से हल चलाया गया जो एक विशेष परंपरा का द्योतक है। संभवतः यह ऋषभदेव के प्रति विशेष आधार की अभिव्यक्ति हो या गर्दभिल्ल की परंपरा की ओर संकेत हो। उन्होंने प्रथम वर्ष में नंदराजा से किंगलगिन वीतराग (दि. जैन जिनर्मूित) को वापस ले लिया और कदाचित् उसी स्मृति में सम्मिलित गोपुर और शिखरों का निर्माण किया। तेरहवें वर्ष में सर्वाधिक प्रजानुरंजक कार्य होता है। खारवेल ने स्वयं को धर्मनिष्ठ और राजनिष्ठ व्रतों का आचरण करने वाला बताया और चातुर्मास में निवास करने वाले अर्हतों की पूजा की। ऐसे जैन धर्म पालक खारवेल ने कुमारी पर्वत पर जैन संतों के विश्राम के लिए गुफाओं का निर्माण किया। इसी वर्ष उन्होंने प्रथम उपासक बनाया, सपेद वस्त्रधारी ब्रह्मचारियों का वेष धारण किया और एक वृहद् जैन साधु सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन में आने वाले संतों के लिए सुन्दर आश्रय स्थल का भी निर्माण किया गया। निशिथिकायें बनवाई और बाद में स्वयं मुनि बन गईं। यह सम्पूर्ण आकृति खारवेल की राजनीतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक गतिविधियों का वर्णन करता है।
खारवेल का सर्व—धर्म—समभाव
खारवेल एक अहिंसक साधक सम्राट था जिसने अपनी प्रजा के दु:ख—सुख को अपना दु:ख सुख माना था। उनकी धर्मनीति बड़ी उदार और सहिष्णु थी। ब्राह्मण वर्ग को उन्होंने कर्ममुक्त कर उनकी प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया। इसी तरह वह सभी धर्मों का आधार बनाने वाला एवं सभी धर्मों के देवायतनों को संस्कारित करने वाला, दान देने वाला था। सवपासन्द पूजाको सवदेवायतन संसार कारको—(पंक्ति १७)। यह सर्वधर्म समभाव की अभिव्यक्ति है।
तीर्थरक्षा
तीर्थयात्रा खारवेल के धर्म की एक अन्य विशेषता है। उदयगिरि — खण्डगिरि भी एक तीर्थ था, जिसे कुमारी पर्वत कहा जाता था। कहा जाता है—तीर्थंकर महावीर ने इसी पर्वत पर आंध्रवासियों के लिए धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। जैन संस्कृति में मथुरा का विशेष महत्व रहा है। यहाँ महावीर का भी सम्वसरण हुआ था। अन्तिम केवली जम्बूस्वामी ने दाह निर्वाण प्राप्त किया था। खारवेल ने मगध पर ध्यान न देकर राष्ट्रीय तीर्थ मथुरा पर ध्यान दिया जहाँ देमिभिस्य ने अधिकार कर लिया था। खारवेल तुरन्त मथुरा की ओर बढ़ा और देमिभ्यों को वहां से निकाल दिया गया। यह ज्ञात है कि मथुरा के वनकाली टीले में जैन सामग्री से प्राप्त स्थान जैन संस्कृति में क्या था? जैन आचार्य, कला और संस्कृति की जीवनता मथुरा में रहती है। खारवेल ने इसलिए मथुरा तीर्थ की रक्षा की थी। माथुरी वाचना का ताजा उदाहरण शायद उसके मन पर रहा है। खारवेल ने इसी तरह कलिंग जिन को वापस लाने के लिए मगध पर आक्रमण किया। यह भी एक प्रकार से तीर्थयात्रा या तीर्थयात्रा का आनंददायक उदाहरण है। संभवतः, कलिंगजिन की पुन: प्रतिष्ठा पिथुण्ड में की गई हो।
जैन यति (मुनि)
जैन संस्कृति में पाटलिपुत्र, मथुरी और बलि वाचनाओं की जानकारी सामने आई है, पर खारवेल द्वारा आहुति मुनि सम्मेलन से प्रिय: लोग मिलते हैं। खारवेल ने अपने राज्य में तेरहवें वर्ष में एक जैन मुनि सम्मेलन बुलाया था। मुनियों की सुविधा की दृष्टि से खारवेल ने निशीथिकायें तथा सुन्दर आश्रय स्थल बनाये। यह आश्रय स्थल उस समय मंदिर के रूप में रहे हों (पंक्ति—पंद्रह)। इस सम्मेलन का वर्णन स्पष्ट रूप से नहीं है, बल्कि चारों ओर से समागत मुनि का उद्देश्य यही हो सकता है।
राष्ट्रीय चेतना
इस प्रकार खारवेल ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में बहुत योगदान दिया है। उनका धर्म समग्र नहीं था, सभी धर्मों के प्रति उनका अनुराग था, सम्भव था। वह व्यक्तित्व में धर्म का यथार्थ रूप जाग्रत था। वह राष्ट्रीयता का भी अनन्य पुजारी रहा है। भारतवर्ष का सर्वप्रथम उल्लेख उसी ने किया है। पिहुण्ड में किंगलग जिन प्रतिमा की पूजा एक ऐतिहासिक धरोहर है। उदयगिरि — खण्डगिरि की गुम्फायें (२८ + सर्व इप्र वर्त) भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें उत्कट चित्रावलियाँ अजंता की स्मृतियाँ रचती हैं। वृक्ष, लता, जीवजन्तु, नर—नारियां सब कुछ इनमें चित्रित हुए हैं। खारवेल ने अपने धर्म की पुस्तकों, चित्रों और स्मृतियों के माध्यम से भी इन चित्रों और स्मृतियों का स्वतंत्र अध्ययन किया है। नवमुनि गुफा में कटिपय तीर्थयात्री और उनके शासन देवी-देवताओं की मूर्तियां भी बनी हुई हैं। ये गुफाएँ अर्हतों के निवास के लिए निर्मित हुई थीं। लेख के विस्तार से यहाँ हम इन सभी चरणों और तत्वों पर विचार नहीं कर रहे हैं, पर यह निश्चित है कि खारवेल जैन धर्म का परिपालन करने वाला सम्राट था।
क
खारवेल की गुफाओं में कला के माध्यम से भी धार्मिक भावनाओं की अभिव्यक्ति की गई है। वहां अंकित प्रकार्य, मृदंग, वीणा आदि के साथ अर्नितकाओं के नृत्य, तीर्थंकरों के प्रति व्यक्ति भक्ति भावना के दृश्य हैं। तत्वगुम्फा में अंकित प्रेक्षागृह का उपयोग भी निमित्त होता रहा है। पिहुण्ड तीर्थक्षेत्र में किंगलगिन की मूर्तियों में सभी धार्मिक मनोरंजन का केन्द्र बनी हुई थी। छोटी हाथीगुम्फा के सामने चित्रित हाथी अर्हत पूजा के लिए पत्र—पुष्प ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। इसी तरह के अनेक चित्र जिन पूजा के संकेत दे रहे हैं। मंचपुरी गुफा का चित्र जिन प्रतिष्ठा का चित्र हो सकता है। खारवेल लेख के अनुसार खारवेल स्वयं गंधर्ववेद में धन्य था और संगीतादि देवताओं के साथ सामाजिक उत्सवों का आयोजन करता था। खण्डगिरि की गुफाओं में मांगलिक चिह्नों का भी अंकन हुआ है। स्वस्तिक, श्री वत्स, कलश, माला आदि दसों मांगलिक चिह्न होने के बावजूद ‘इष्टमांगलिकं’ चिह्न कथा की प्रस्तुति जैन परम्परा में विशेष रूप से देखी जाती है। तिलोयपन्नती, आचार दिनकर आदि ग्रंथों में ये मांगलिक चिह्न इस प्रकार हैं—स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्द्यावर्त, वर्धमान, भद्रासन, कलश, दर्पण और मत्स्ययुगल। हाथीगुम्फा की मांग चिन्हों की अंकन परंपरा की पूर्ववर्ती परंपरा है। उनमें पूर्णकुंभ, कमल, तोरण, वृक्ष, लताएं, वृषभ, गज, सिंह, छत्र, चामर, राजहंस, स्वप्न—चित्रण, कल्पवृक्ष, आदि जैसे मांगलिक चित्रों का चित्रण है। अनन्त गुफा इस प्रकार के अंकन की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। मथुरा में प्राप्त अयागपट्टों की प्रतीक परंपरा का विकास दिल्ली में प्राप्त अयागपट्टों की प्रतीक परंपरा का विकास हो रहा होगा। उड़ीसा तीर्थंकर महावीर से भी पहले जैनधर्म का गढ़ रहा है। ऋषभदेव का संबंध उड़ीसा से बताया जाता है। मयूरभंज के ओंघर, कटक, पुरी, बलसोता और शवदाहगृह में जैन पुरातत्व के प्रमाण आदिनाथ की मूर्तियां भी बहुत मिलती हैं। भुवनेश्वर, कटक, चौदुर में जैन मंदिर है। वहाँ तीर्थंकर रमूितयाँ, यक्ष—यक्षी, चैत्य आदि भी प्राप्त हुए हैं। तीर्थंकर पार्श्वनाथ का भी संबंध उड़ीसा से रहा है।
खंडगिरि उदयगिरि
प्राचीन नाम कुमारगिरि है। यहां की गुफाओं में वनवासी जैन मुनिनाथ करते थे। वहाँ अकृत्रिम और कृत्रिम दोनों प्रकार की गुफाएँ हैं। मंदिरों की गुफाओं को छोड़कर सभी गुफाओं का श्री हरिषेणढांचा ढालू बना दिया गया है ताकि उन पर शयन करने वालों को तकिये की आवश्यकता न रहे। यहाँ अनेक तपस्वियों का प्राचीन वास सिद्ध करता है कि यह स्थान प्राचीन तीर्थभूमि है। श्री हरिषेण आचार्य के वृहत् कथाकोश में यमुना की कथा से इसकी पुष्टि सम्यकता हो जाती है। इस कथाकोश में एक पर्वत का नाम कुमारगिरि लिखा गया है और उसके निकटवर्ती धर्मपुर नाम का एक प्रसिद्ध नगर बताया गया है—अथोड़—विषये चापि पुर धर्मपुर। दो एक बड़ी गुफाएँ भगवान महावीर स्वामी के समय से ही अरहंतों के संसार से अतिपावन हो चुकी थीं। इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण हाथी गुम्फा है, जिसमें ई. पू. द्वितीय शताब्दी के चेदिवंशज महाराज खारवेल का पृष्ठ है।
धर्मादिनगरसन्ने कुमारगिरि—मस्तके।।
हाथीगुम्फा एक अकृत्रिम वृहद् गुफा है, जिसमें चेदिवंशीय महाराज खारवेल की प्रसिद्ध आकृति है। इस लेख में महाराज के राजकीय जीवन—संबंधी वर्ष प्रतिवर्ष की प्रमुख—मुख्य घटनाओं का उल्लेख किया गया है। इसके आरंभ अरहंतों और सिद्धों को जैन कथाओं के अनुरूप नमस्कार करते हुए होता है। इस आधार से यह निष्कर्ष निकला है कि—
१. मगध और किंगल ये प्रतिद्वन्द्वी राज्य थे।
२. अशोक की विजय से पूर्व कलिंग में जैन धर्म राजधर्म था।
३. किंगल ने मगध के बढ़ते हुए साम्राज्य के प्रति विद्रोह किया और नंदों ने किंगल पर विजय प्राप्त की और उनमें से कोई किंगल जिन प्रतिमा को पाटलिपुत्र ले गया।
४. किला पीछे इतना स्वतंत्र हो गया कि महाराज अशोक को अत्यधिक धन—व्यय तथा नर—संहार करके किला को पुन: जय करने के लिए बाध्य होना पड़ा।
५.खारवेल ने मगध के साथ प्रतिशोध स्वरूप सफल युद्ध किया और किंगल जिन प्रतिमाओं को पुन: प्राप्त किया और जैन धर्म की राजधर्म के रूप में पुन: प्रतिष्ठा की। शिशुपाल गढ़ में १९९०००० से १९९०००० तक खुदाई का काम हुआ।
श्री टी. एन. रामचंद्र के अनुसार, यह शिशुपाल गढ़ संभवतः खारवेल के मंदिर में किलाग नगर ही है। संक्षेप में कहा जाए तो हाथी गुम्फा शिला सम्राट खारवेल का एक जीवन्त चित्र है। उसने यहाँ की गुफाओं में अपने धर्म और स्वभाव का सुन्दर अंकन किया है। वस्तुत: जैन परम्परा की दृष्टि से उदयगिरिखण्डगिरि गुफाएँ बेजोड़ हैं। इनमें चित्रित जैन इतिहास और संस्कृति एक कालजयी विरासत है। उड़ीसा में जैन धर्म का प्रवेश शिशुनाग वंशीय राजा नंदवर्धन के समय में ही हो गया था और खारवेल के पूर्व भी उदयगिरि पर्वत पर अर्हंतों के मंदिर थे। सम्राट सम्प्रति के समय में चेदिवंश का राज्य था। इसी वंश में जैन सम्राट खारवेल हुआ जो उस समय का चक्रवर्ती राजा था। भुवनेश्वर तीर्थस्थल के पास उदयगिरि पर्वत की एक चट्टान उड़ीसा की गुफा में खुदा मिली है, जो हाथीगुम्फा के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें प्रतापी राजा खारवेल के जीवन वृतान्तों का वर्णन है। इस चट्टान से ज्ञात होता है कि खारवेल ने मगध पर दो बार रहने की ओर वहां के राजा वहसति मित्र को पराजित किया। श्री काशीप्रसाद प्रसाद ने पुयमित्र और वसहाति मित्र को एक अध्ययन किया है। सूर्यवंशी पोर्टल के सिक्कों के समान ही, उसी रूप का सिक्का वहसति मित्र का मिलता है। दक्षिण आंध्रवंशी राजा शातकर्णी खारवेल एक समकालीन थे। ज्ञातव्य है कि शतकर्णी की परवाह न करते हुए खारवेल ने दक्षिण में एक बड़े भारी सेनापति की कमान संभाली, जिसने दक्षिण के कई राज्यों को परास्त किया। दक्षिण के पाण्ड्य राजा के यहाँ से खारवेल के पास बहुमूल्य उपहार आते थे। उत्तर से लेकर दक्षिण तक समस्त भारत में उसकी विजय पताका फहराई।
खारवेल एक वर्ष विजय के लिए प्रतिष्ठित हुआ था तो दूसरे वर्ष महल आदि बनवाता, दान देता और प्रजा के हित के कार्य करता था। वह अपनी पचास लाख प्रजा पर कृपा की थी। विजय यात्रा के बाद राजसूय यज्ञ किया गया और ब्राह्मणों को बड़े-बड़े दान दिए गए। उन्होंने एक बड़ा जैन सम्मेलन बुलाया था, जिसमें भारतभर के जैन मुनि, तपस्वियों, ऋषियों और पंडितों को बुलाया गया था। जैन संघ ने खारवेल को खेमाराजा, भिक्षु राजा और धर्म राजा की पदवी प्रदान की। यह ई. पू. लगभग १५-१५ के बीच है। ऐतिहासिक दृष्टि से इसका महत्त्व अशोक के पन्नों से भी अधिक है। देश में उपलब्ध जातियों में यही एक ऐसा लेख है, जिसमें वंश तथा वर्ष संख्या का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। यह प्राचीनता की दृष्टि से अशोक के बाद की चट्टान माना जाता है। इसमें तत्कालीन सामाजिक अवस्था और राज्य व्यवस्था का सुन्दर चित्रण है। १७ मीना के इस शिला को ज्यों के त्यों रूप में उद्धृत किया जाता है। भारत वर्ष का सर्वप्रथम उल्लेख इसी शिलालेख की दसवीं पंक्ति में भरधवत (भारतवर्ष) के रूप में मिलता है। इस देश का नाम भारत वर्ष है, इसका पाषाणेत्कीर्ण प्रमाण यही वर्ण है। साहित्य की दृष्टि से इसका महत्त्व अधिक है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, वाचना प्रमुख—आचार्य तुलसी, सम्पादक—मुनि नथमल, जैन श्वेताम्बर टेरापंथ महासभा, कालतत्व, १९६७ जैन आगम इतिहास एवं संस्कृति, रेखा चतुर्वेदी, अनामिका प्रकाशक एवं वितरण (प्रा. लि.) लि. प्रथम संस्करण २। जैन संस्कृति कोश (प्रथम, द्वितीय, तृतीय भाग), प्रो. भगवदचन्द्र जैन ‘भास्कर’, सन्मति प्राच्य शोध संस्थान, नागपुर, प्रथम संस्करण पाँच, वि. सं. २०५५९। पाश्चात्यकला, दाॅ. ममता चतुर्वेदी, राजस्थान ग्रंथ अकादमी, जयपुर, प्रथम संस्करण ५। प्राकृत भाषा और साहित्य का शास्त्रीय इतिहास, डॉ. एन. जी. शास्त्री, तारा बुक एजेन्सी, वाराणसी, १९९६, प्रथम संस्करण १९९६। भारतीय इतिहास कोष, ले. सच्चिदानंद भट्टाचार्य, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, प्रथम संस्करण १९९६। भारतीय संस्कृति कोश, लीलाधर शर्मा ‘पर्वतीय’, राजपाल एण्ड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली, सं. : मध्य भारतीय अभिलेख: भाषा तात्विक विश्लेषण, समानी संगीत प्रज्ञा, जैन विश्वभारती, लाडनूँ, १९९६ (अप्रकाशित) संस्कृत अभिलेखों का धार्मिक अध्ययन—डॉ. राजकुमार तिवारी, अभिषेक प्रकाश प्रथम संस्करण—२०१०।